सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 4 / जीतेन्द्र वर्मा
शाम का समय है। सड़क पर बत्ती जल चुकी है। शहर के बीचो-बीच चौराहे पर स्थापित किसी महापुरुष की प्रतिमा के चबूतरे पर मस्त युवकों की टोली जमी है। वे बात-बात में हँसते। हँसते-हँसते एक-दूसरे के देह पर गिरते। एक-दूसरे को धक्का देते। सभी जाति, धर्म और विचारधारा के युवक हैं।
“फलाने हॉल में फलाना फिल्म लगी है।”
- एक ने कहा।
“तुम मुझसे दस रुपये ले लेना पर वह पिक्चर मत देखना। महाऊबाउ है।”
-दूसरे ने कहा।
“तो रही तुम्हारी बात। निकालो दस रुपये।”
और फिर हा, हा हा हा .....ऽ हो हो हो हो ...ऽ
ही, ही, ही, ही ....ऽ
हे हे हे हे ......।
रुपये देने की बात कहने वाला युवक झेंप गया। उसने रुपये माँगने वाले युवक को हल्का धौल जमा कर अपनी झेंप मिटाई।
कुछ देर बाद।
“तुम्हारे ऊपर टी शर्ट खूब फबता है।”
“तुम सफारी में स्मार्ट लगते हो।”
“फलाना कुर्त्ता - पैजामा में अच्छा लगता है पर उससे किसी ने कह दिया की कुर्त्ता – पैजामा आउट ऑफ डेट हो गया है। अब वह शर्ट-पैन्ट पहनता है। महाबोगस लगता है।
“यार ! तुम हर ड्रेस में स्मार्ट लगते हो।”
“सच ! पर कोई लड़की मुझे लिफ्ट नहीं देती। क्या फायदा स्मार्ट लगने से।”
“लड़कियाँ तो तुम पर मरती हैं, पर तुम थोड़ा डरपोक हो। लाइन नहीं मारते।”
हर कपड़े पर स्मार्ट दिखनेवाला लड़का गर्व से फूल कर बोला-
“सोचता हूँ कहीं सैंडिल नहीं पहने लगे।”
“उसे आशीर्वाद समझ कर ग्रहण करना।”
और फिर जोरदार ठहाका।
“संजीव भाई! तुम अपने प्रेमिकाओं में से एक को दया कर राजू के नाम ट्रांसफर कर दो।”
“सच ! ऐसा करोगे तो मैं जीवन भर तुम्हारा एहसास मानूँगा, संजीव भाई! मेरी जवानी पर रहम खाओ।”
राजू ने नाटकीय अंदाज में हाथ जोड़कर कहा, संजीव ने एक लप्पड़ राजू के पीठ पर जमाया। फिर हँसी का फव्वारा फूटा। एक-दूसरे को धक्का देना, आलिंगन।
दुनिया के सारे गमों से मुक्त दिख रहे हैं युवक। दिन भर के तनाव का गुब्बार निकाल रहे हैं। बहुत देर तक ऐसी बात करते रहे। कोई पान खा रहा है, कोई खैनी, कोई सिगरेट पी रहा है तो कोई गुटका मुँह में चबा रहा है। आज कहाँ बैठक कर शराब पी जाए- इसकी योजना बनती है।
धीरे-धीरे रात गहराने लगी। बारी-बारी से एक-एक मुहल्ले के युवक ग्रुप बनाकर विदा होने लगे।
ऐसा रोज होता है।