सुबह हो गई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खाना खाने के बाद शालू परेश के कमरे में लालसिंह का बिस्तर लगाने लगी। न चाहकर भी उससे हँस–हँसकर बोलना पड़ रहा है। बड़ी बहन लतिका के ढलते हुए शरीर को देखकर वह भीतर तक दहल जाती है। पाँच साल में कितनी बेडोल हो गई है। शादी क्यों नहीं कर लेती दीदी? लालसिंह जैसी शादीशुदा जोंक से तो जान छूट जाती। लगता है इसके पास दीदी के कुछ आपत्तिजनक फोटो भी हैं। इसकी चुहलबाजी पर दीदी हमेशा चुप्पी साथ लेती हैं। बेशर्म होकर कुछ भी बक देता है।

दूसरे कमरे में बिस्तर लगाते देख लालसिंह ने टोका–"तुम्हारा कमरा कौन बुरा है? उसी में बिस्तरा लगा दो। मुझे लाइट जलाकर सोने की आदत है। परेश बाबू को लाइट जलती रहने से परेशानी होगी।"

शालू सहम गई. पता नहीं परेश उसके बारे में क्या राय बना ले। छह महीने से उसके क्वार्टर के एक कमरे में रह रही है। उसकी अच्छाई से वह आतंकित–सी रहती है। दफ्तर में उससे कभी बात ही नहीं होती।

"मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।" परेश ने जैसे लालसिंह की चालाकी ताड़ ली थी।

"शालू के ही कमरे में ठीक रहेगा।" लालसिंह ने ढीठ होकर कहा।

"ठीक है।" कहकर परेश ने दोनों की तरफ विवशता से देखा।

लालसिंह शालू के कमरे में चला गया। कुछ दे ठिठककर शालू भी भारी कदमों से अपने कमरे में आ गई।

वह एक पल को भी नहीं सो पाई। उसका मन ग्लानि से भर गया। परेश के जगे रहने की आहट ने उसको और भी परेशान कर दिया। मुँह बाए सोता हुआ लालसिंह उसे राक्षस जैसा लग रहा था। वह रात–भर अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती रही।

सुबह हो गई. परेश ने चाय बनाने के लिए रोज़ की तरह रसोई का दरवाज़ा खोला। शालू हड़बड़ाकर उठी और सिर झुकाए उसके पास जाकर खड़ी हो गई।

डबडबाई आँखों से सीधे परेश की आँखों में देखते हुए वह भर्राए स्वर में बोली–"आज चाय मैं बनाऊँगी।"

परेश चुप रहा।

"आप मुझसे नाराज़ हैं?"

"नहीं शालू, मैं नाराज़ नहीं हूँ। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।" परेश के स्वर में दृढ़ता थी।

शालू डर–सी गई. यह स्वर उसने पहली बार सुना था। परेश ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।

"कहिए!"

"मैं तुमसे शादी करूँगा, सि‍र्फ़ तुमसे और किसी से नहीं।" वह और भी दृढ़ता से बोला।