सुबह / गजेन्द्र रावत

Gadya Kosh से
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कभी एक समय था, जब ये औरतों के काम थे। पुरुष इन जिम्मेदारियों से मुक्त थे। कैसे रहे होंगे वे दिन ! आन्या के जूते पोलिश करते-करते उसके मस्तिष्क में ये अप्रासंगिक-सी बातें खुल-फैल रही थी। उसे रात-दिन ऐसे ही सपने आते थे। वो आन्या का नाश्ता बना रहा है। वो आन्या को टाइम-टेबल से बैग लगाने को कह रहा है। छोटी को नहला रहा है......वो दिन के आरंभ में पैदा हुए इन दबावों से ज़रा भी इधर-उधर नहीं सरक पाता था।

“ आन्या ! ओ आन्या ! चल जूते पहन ले......हो गई तैयार क्या ? ’’ इतना कहकर बिना उत्तर सुने वह रसोई में आ गया। स्लैब पर गैस-चूल्हे के पास दूध का एक मग, पोंलिथीन में दर्जन भर अंडे और साथ ही रखी कटोरी में प्याज़ कटा हुआ था। उसने एक सरसरी नज़र पूरे स्लैब पर डाली। यह नाश्ते की तैयारी थी। आन्या को नाश्ते में ऑमलेट बेहद पसंद है, इसलिए फिक्स मेन्यू है। ऑमलेट, एक पराठा और एक मग दूध।

“ बस ऑमलेट बनाना है। बाकी सब तैयार है......’’ वह धीरे से बोला।

आन्या ने स्कूल-ड्रेस पहन ली थी। वह भीतर से बैग घसीटती हुई लाई और डाइनिंग-टेबल के साथ टिकाकर स्वयं कुर्सी खींचकर बैठ गई।

वह जल्दी से रसोईघर से बाहर आया और नाश्ते की ट्रे टेबल पर रख दी। दरवाजों और खिड़की से परदे हटा दिये। धूप अभी दरवाज़े तक नहीं पहुंची थी, केवल बरामदे की गोलाकार रेलिंग को स्पर्श भर कर रही थी। ड्राइंग-रूम के भीतर धूप की आमद का आभास पर्दों के हटते ही हल्के प्रकाश के धुंधले धब्बे सा इधर-उधर ठहर गया।

आन्या के ठीक सामने ट्रे रखी थी। उसने पहला निवाला हाथ में लेकर कहा, “ पापा ! एक किताब लेनी है.....इंगलिश स्टोरीज़ की, सौ रुपए दे दो। ’’

उसने आन्या की ओर देखा। वह उसकी आँखों में छुपी हँसी को पढ़ना चाहता था। आन्या संदेह समझ गई, वो मुस्कुराकर बोली, “ सच पापा ! हफ्ते भर से रोज़ टोकती है मैडम......लगभग रोज़ ही डांट पड़ती है। ’’

उसकी मुस्कुराहट पर वो गंभीर हो गया। कुछ न बोला और दूसरे कमरे में चला गया।

“ आन्या ! सवा सात हो गए बेटा, बस आने वाली होगी। ’’ वह कमरे में लगी दीवार घड़ी देखकर हड़बड़ी में बोला, “ लंच रख लिया न ! ’’

“ जी पापा। ’’

वो बैग कंधे पर लटकाये तेजी से सीढ़ियाँ उतरने लगी।

“ बाय पापा। ’’

वह जल्दी से रसोई से निकलकर बरामदे में आकर बोला, “ वह जल्दी से रसोई से निकलकर बरामदे में आकर बोला, “ हाँ हाँ ठीक है बेटा, बाय...बाय...’’

आन्या के जाने के बाद उसनें अपने शरीर को कुर्सी पर छोड़ दिया। एक लम्बी सांस स्वतः ही छाती से निकल सोफ़े, मेज़, कुर्सियों के इर्द-गिर्द अदृश्य सी फैल गई। अब उसे स्वयं के अस्तित्व का अहसास था जो थोड़ी देर पहले नहीं था।

उसने बैठे-बैठे ही कुर्सी से तिरछे होकर देखा। दीवार घड़ी ठीक साढ़े-सात बजा रही थी। यह घड़ी उसके लियेएक स्थायी चुनौती थी। रोज सवेरे मन होता था कि तोड़ दूँ....लेकिन वह कभी नहीं तोड़ पाया। अगले दिन पुनः उसकी सांसें टिक-टिक की यांत्रिक ताल पर गतिमान हो उठती। एक और न टलने वाला संघर्ष शुरू हो जाता था, हर नई सुबह की आहट पर।

“ बाबू ! उठ जा। ’’ चाय की प्याली से घूंट भरते हुए उसने छोटी को उठाने का पहला लेकिन अनिश्चित-सा कदम उठाया।

मान्या की कोई प्रतिक्रिया न देख उसने अखबार टेबल पर पटक दिया, शेष चाय को एक घूंट में खत्मकर उठ खड़ा हुआ।

डबल बैड बेतरतीब फैला हुआ था। धूप की एक किरण खिड़की से प्रवेश कर रही थी जिसमें धूल के कण अन्तरिक्ष में घूमते छोटे-छोटे पिंड से दिखाई दे रहे थे। कोने में दीवार से सटकर मान्या दुबकी सी सो रही थी। उसका सिर्फ माथा ही दिखाई दे रहा था। बाकी शरीर रज़ाई के उठावों में छिपा हुआ था। एक तरफ से रज़ाई बिस्तर से नीचे लटक रही थी और उसी ओर एक तकिया फर्श पर गिरा हुआ था। दूसरी रज़ाई रोल होकर सिरहाने चिपकी हुई थी।

उसने मान्या के चेहरे से रज़ाई हटाई। उसने देखा उसका चेहरा रज़ाई की गरमाइश से गुलाब की पंखुड़ियों सा हो गया था। वो ठिठक गया। क्षणभर अपलक उसे निहारता रहा।

वह सोचने लगा...इतनी गहरी नींद ! यहाँ तक तो आवाज़ भी नहीं पहुंची होगी।

“ मान्या बेटे ! उठ, टाइम हो गया। ’’ उसके स्वर से मान्या ने करवट ली और फुसफुसाई। “ थोड़ी देर और पापा....बस पाँच मिनट.....बस। ’’

वह बैड पर मुचड़ी हुई चादर पर लेट गया और धीरे-धीरे उसके गाल सहलाने लगा।

“ उठ बेटे, तू लेट हो जाएगी ! ’’ कहते-कहते वह सोचने लगा। इतने सवेरे बच्चे को उठाना....ये तो जुल्म है ! ऐसे में बच्चे को उठाना चाहिए क्या ?

“ उहूँ। कुछ नहीं होता पापा ! ’’मान्या की आँखें बंद थी।

“ वह देख, पार्क में बिल्ली आई है...चूहे पकड़ने....चल देखने चलते हैं। ’’´वो जानता था, बिल्ली को देखने की जिज्ञासा उसे हमेशा बनी रहती है। उसके लिये वह नींद का मोह छोड़ देगी। मान्या ने दोनों बाजू ऊपर उठा ली और शरीर को ढीला छोडकर धीरे से फुसफुसाई। “ गोदी पापा। ’’

मान्या छह वर्ष की थी लेकिन उसकी गोद की आदत नहीं गई थी। मौके बे-मौके वह स्थिति का लाभ उठा लेती थी।

उसने उसे दोनों हाथों से उठा लिया। रज़ाई की गर्मी से अभी भी उसके गाल गरम और गुलाबी थे। उसने गालों को चूमा और उसे सीने से लगा लिया मान्या की छोटी-छोटी हथेलियाँ उसकी पीठ पर थीं। वह दरवाजा खोल बरामदे में आ गया।

“ पापा बिल्ली चूहे का क्या करती है ? ’’

“ नाश्ता करती है। ’’

बाहर फैले बरामदे में धूप इस समय बे-वजह लग रही थी। कुछ वक्त होता तो कुर्सी डालकर बैठा जा सकता था। वो मान्या को लेकर रेलिंग तक जा पहुंचा। जहां से तिकोने पार्क का एक कोना दिखाई देता था।

“ वह देख बिल्ली। ’’ नीचे पार्क में सचमुच ही काले रंग की बिल्ली चूहों द्वारा बनाए बिलों के समीप घाट लगाए दुबकी हुई थी, आँखें बिल के मुंह पर जमाए।

“ आज जरूर मिलेगा चूहा इसको। ’’ मान्या आँखों को मुट्ठियों से मलते हुए बोली।

“ क्यों ? क्या है आज ? ’’´वो विस्मय से बोला।

“ आज कौए शोर नहीं मचा रहे न। ’’

उसने मान्या की ओर देखा और मन ही मन कहा कि बच्चे भी सोच लेते हैं क्या ये सच है।

“ चल बेटे, ब्रश कर ले। ’’ वह उसका ध्यान बिल्ली से हटाना चाहता था।

“ अरे दो मिनट पापा.....पहले चूहा तो पकड़ ले, यह बिल्ली। ’’

“ इसमें टाइम लगेगा बेटे....तू लेट हो जाएगी। ’’ वो उसे गोद में लिये-लिये ही वापस मुड़ गया। उसने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया।

धूप दरवाजे-खिड़की से अंदर आकर फर्श पर ग्रिल की चौकोर-चौकोर आकृतियाँ बना रही थी। उसने कमरे में आकर मान्या को गोद से उतार दिया। वह बिना ना-नुकर के ब्रश करने बाथरूम चली गई।

रसोई के चिकने स्लैब पर एक बड़ी-सी शिमला मिर्च पड़ी थी, जो कल रात बनी सब्जी से न जाने कैसे बच गई थी। उसने उसे तिरछी नज़र से देखा। शिमला मिर्च की जगह-जगह उठी संरचना उसे अपने बॉस के चेहरे-सी दिखाई दे रही थी। उसे पिछले दिन की याद आ गई....वह बॉस के कमरे में घुसा ही था कि एक सवाल आ टकराया। “ ये टाइम है आने का ! मैं एक हफ्ते से नोट कर रहा हूँ। ’’

बॉस जहां बैठा था कमरे के उस हिस्से में टेबल लैंप की तेज रोशनी थी, शेष हिस्से में झुटपुटा-सा कमरे की चीजों पर पसरा हुआ था।

“ सॉरी सर, सुबह बच्चों को स्कूल भेजना पड़ता है.....इसलिए कभी थोड़ा लेट हो जाता हूँ। ’’ वो सूखे गले से खर-खर करती आवाज़ में धीरे से बोला।

“ बीवी क्या करती रहती है.... वो क्यूँ नहीं भेजती। ’’ टेबल लैंप की रोशनी में बॉस का क्रीम-चुपड़ा काला चेहरा चमक रहा था।

“ सर उसकी नाइट ड्यूटी थी.....वो लेट घर....’’ वो रुक-रुक कर अधूरा वाक्य ही बोल पाया।

“ ओह ! तो यह बात है। वो ड्यूटी करती है और तुम कंपनी के काम के टाइम में बच्चे खिलाते हो.....मैं पूछता हूँ समझ क्या रखा है ? जब मर्जी आओ और जब मर्जी चल दो ? ’’

क्षणभर, कमरे के स्लेटी अंधेरे में डरावनी चुप्पी ठहर गई।

“ यह आखिरी चांस है। कल से टाइम पर नहीं आए तो अपना इंतजाम दूसरी जगह कर लेना....जहां तुम बच्चे स्कूल भेज सको यहाँ तो टाइम से आना पड़ेगा। ’’ बॉस ने इशारे से जाने के लिए कहा।

उसका शरीर सुन्न पड़ गया। वो अपनी जगह से हिल-डुल नहीं पा रहा था। जैसे किसी दलदल में धँसता जा रहा हो।

मान्या ने उसका कुर्ता पकड़कर खींचा। उसकी तंद्रा टूटी।

“ पापा मैं नहा लूँ ? ’’

“ नहीं बेटा। मैं पानी गरम करता हूँ। मैं नहलाऊंगा अपनी प्यारी बेटी को ! ’’ कहते-कहते उसने मुड़कर देखा। नन्ही-सी मान्या तौलिया कंधे पर डाले खड़ी है। उसने झुककर स्नेह से उसे चूम लिया।

“ अच्छा पापा आप शुरू करा देना फिर मैं नहा लूँगी। ’’

“ ठीक है मेरे बच्चे। तू बैग लगा ले टाइम-टेबल के हिसाब से। ’’

मान्या भीतर चली गई।

वह नहाकर बाहर आई तो वो उसे स्कूल-ड्रेस पहनाने लग गया। साथ ही उबले अंडे का एक टुकड़ा उसके मुंह में डाल दिया।

“ पहले कपड़े तो ठीक करने दो ! ’’ अंडे को मुंह से निकालते हुए मान्या बोली।

“ बेटा साथ-साथ खाती जा। जल्दी बड़ी हो जाएगी फिर अपने आप खाना। ’’ उसे ऐसा लग रहा था न जाने कब से वह इस क्रम को दोहरा रहा है। जब मान्या बड़ी होगी तो उसे निज़ात मिलेगी।

उसकी एक आँख दीवार-घड़ी से बंधी थी।

“ मान्या जल्दी कर....पूरा अंडा खा बेटे, खाली पेट स्कूल नहीं जाते। ’’ फिर रुककर बोला, “ जल्दी कर वैन आने वाली है ! ’’

आठ बजकर दस मिनट पर मान्या को वैन ले गई। वह सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऑफिस जाने की सोचने लगा। जब तक स्नेहा नहीं आ जाती कैसे जाऊँ ? इस लिहाज़ से नर्सों की नाइट ड्यूटी बहुत बुरी है। कब आएगी, कब जाऊंगा....ओफ़ ! बॉस......

वह चाय का कप लेकर बड़ी उद्दंडता से सोफ़े पर पैर पसार देता है। सामने रसोई की स्लैब पर शिमला मिर्च मानों मुस्कुरा रही हो......बॉस के शब्द उन्हीं तीखे तेवरों के साथ उसके दिमाग में झनझनाहट पैदा कर रहे थे।

धूप खिसककर ड्राइंग रूम तक आ पहुंची थी जिससे कमरे की हवा गुनगुनी होती जा रही थी। दोनों को स्कूल भेजने से उत्पन्न संतुष्टि बोध उसके दिलो-दिमाग पर छा रहा था। समीप के किसी घर से बेगम अख्तर का मद्धिम स्वर कानों में पड़ रहा था। स्वर का माधुर्य मानों दिमाग को सहला रहा हो। उसने आज के अखबार की ओर देखा लेकिन उसे उठाया नहीं। उसने गरदन का पिछला भाग सोफ़े पर टिका दिया.....देखते ही देखते उसकी आँखें बंद होने लगी।

स्नेहा दरवाजे पर ठिठकी, दरवाजा खुला था। वह धीरे से भीतर प्रवेश कर गई। आलोक सोफ़े पर बेसुध सो रहा था। वो चुपचाप साथ के सोफ़े पर बैठ गई।

सूरज की किरणें सीधी फर्श के सफ़ेद पत्थर पर पड़ रही थी और रिफलेक्ट होकर सारे ड्राइंग रूम में फैल गई थी। स्नेहा ने बिना कुछ कहे उसके कंधे पर हाथ रखा। स्पर्श भर से वो उठ खड़ा हो गया। चौंककर बोला, “ क्या बजा है ? ’’

“ साढ़े दस। ’’

“ तुम इतनी लेट कैसे.....? ’’

“ अरे हुआ क्या, रिलीवर लेट आई, फिर चार्ज में एक-एक मरीज देना होता है.........पता है वो जो वेंटिलेटर पर बुढ़िया थी.....वो गई......’’ वो बोलती जा रही थी परंतु आलोक सामने रसोई की स्लैब पर पड़ी शिमला-मिर्च को देख रहा था।