सुरंग / प्रेमचंद सहजवाला

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उस सुरंग में छुप छुप कर चलता रामरतन सुरंग के एक कमरे में पहुँचा जहाँ डाइरेक्टर एस के लाल बैठे थे। रामरतन केवल खड़ा भर हुआ और एस के लाल ने उसे इशारे से सामने ही कुर्सी पर बैठ जाने को कहा। सब कुछ गुपचुप सा हो रहा है, जैसे दोनों कहीं ब्लास्ट व्लास्ट करने जा रहे हों। पर दरअसल तो रामरतन के सामने जो फाइल एस के लाल ने रखी, वह देख रामरतन की बाँछें खिल गईं। उसे पढ़ कर फौरन उसने हस्ताक्षर किए और चुपके से उस फाइल के भीतर रखा अपना प्रोमोशन ऑर्डर बाहर की ओर बड़े कलात्मक तरीके से फिसला दिया, जैसे कोई संगीत की स्वरलहरी सी बज उठी हो उसकी अँगुलियों से। साथ ही उसी फाइल में रखी एक छपी छपाई जॉयनिंग रिपोर्ट पर भी उसने चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए। उधर सुरंग की ही एक और कुर्सी से, जो काफी दूर थी वहाँ से, एक फोन बजा। एस के लाल ने फोन गुपचुप तरीके से ही उठाया और उधर सूचना फुसफुसा दी - 'सर, दे दिया ऑर्डर। रामरतन बहुत खुश है।' उस तरफ कोई और बड़ा दलित नौकरशाह बैठा था, वह भी मुस्करा मुस्करा कर बोला - 'रामरतन को फेयरवेल ले कर चुपचाप खिसक जाने दो, बाद में देखी जाएगी। अभी किसी को कानों-कान खबर ना पड़े कि उस का प्रोमोशन हुआ है, नहीं तो कई ब्राह्मणों की नींद हराम हो जाएगी। कोई श्लोकाचार ही ना शुरू कर दें साले। स्टे ऑर्डर वगैरह...'

- 'यैस सर,' एस के पहले से भी धीमी आवाज में फुसफुसाया, जैसे बॉस को आश्वस्त कर दिया हो कि यैस सर, मैं उतना ही डर गया हूँ, जितना कि आप मुझे डराना चाहते थे। कुछ दिन तक सतर्क रहूँगा।

रामरतन से उसने इशारे से ही वहाँ से खिसक जाने को कहा। रामरतन को पता था, यहाँ आज शाम तक जहाँ भी पहुँचूँगा, मुझे एक भीगी बिल्ली की तरह ही चलना पड़ेगा, सिर्फ एक जगह को छोड़, यानी जहाँ फेयरवेल पार्टी होनी है। पर फेयरवेल पार्टी में भी क्या मैं खुल कर मुस्करा सकूँगा? अजीब घुटन भरा सा दिन होगा आज, इस प्रोमोशन के बावजूद।

वैसे इस प्रोमोशन लिस्ट को निकलने में ही साल लग गए थे। पहले तो सीनियॉरिटी का झगड़ा चला था, फिर मिनिस्टर बदले और फिर अचानक चुनाव की घोषणा हो गई, जैसे प्रोमोशन की उम्मीद रखने वालों के लिए एक मर्सिया पढ़ लिया गया कि अब चुनाव तक तो मंत्री महोदय जगह जगह वोटों के लिए धक्के खाते फिरेंगे, फिर लौटेंगे तो सूँघेंगे प्रोमोशन की फाइल...। रामरतन इंतजार ही करता रह गया था कि उस के तो रिटायर होने में सिर्फ चंद महीने बचे हैं, सो जाने आखिरी प्रोमोशन उसका होगा कि नहीं। सब लोग जलते तो हैं ही, कोई कोई कह देता है - 'इस चूड़े को भी इंतजार है प्रोमोशन का।'

- 'अबे अक्कल की बात किया कर जरा। इस चूड़े के भरोसे ही तो बड़े बड़े ब्राह्मण तर जाएँगे। चार साल देर से आ रहा है प्रोमोशन और कुछ लोग रिटायर भी होने वाले हैं। यह चूड़ा भी रिटायर होगा पर देखना आरक्षण से आया यही एक घोड़ा सब को ले कर तैरेगा।

पहेली किसी किसी की समझ आ रही थी पर जिन का प्रोमोशन होना ही नहीं था, वे सब अकारण ही जल रहे थे कि इस चूड़े का प्रोमोशन हो ही क्यों। यहाँ पहले कई ब्राह्मण बिना प्रोमोशन के रिटायर हो गए, यानी प्रोमोशन की औपचारिकताएँ पूरी होते होते उनके कुर्सी छोड़ने के दिन भी आ गए और उनकी फेयरवेल की तैयारियों में प्रशासन अनुभागों के शोकेसों में उनके लिए चमचमाते गिफ्ट भी सजा लिए गए। तब तक ये सब बेचारे सारा महीना अपनी अपनी मंजिलों की खिड़कियों से बाहर दूर तक ताकते रहे, जहाँ से कि आ सकती है एक सलोनी सी फाइल, जिस में कि हो मंत्री द्वारा हस्ताक्षरित प्रोमोशन लिस्ट की फुलझड़ी! और उसमें उनके हिस्से की भी चिनगारियाँ हों!

यहाँ सचमुच इन दलित लोगों ने, चाहे वे किसी भी पदनाम पर हों, एक आपसी सुरंग सी बना रखी है। दरअसल मोर्चेबाजी करते करते ये लोग भी काफी तंग आ गए थे। यह नहीं कि ब्राह्मणों ने मोर्चे नहीं बनाए या उन्होंने अपनी अपनी पवित्र, शास्त्र-सम्मत सुरंगें नहीं बनाईं, बल्कि उनकी सुरंगों के खौफ से तो इन दलितों ने भी बनाई थी अपनी सुरंगें!

उनकी तरफ से वार होते थे, या वार करने की योजनाएँ बनती थीं, इन के लिए सवाल था अस्तित्व का, सुख चैन की रोटी खाने का।

इधर पिछले तीन साल से तो अच्छी भली हुत्तुतू चल पड़ी थी। ब्राह्मणों का डाइरेक्टर जनरल बन गया तो उसने क्या किया कि दो चार दलितों की कुर्सियाँ हिला कर रख दीं। कोई प्रोमोशन लिस्ट निकले तो कोई दलित गुवाहाटी तो कोई बनारस वनारस। फिर स्टाफ की ऐडजस्टमेंट के बहाने कई और सिर घूमने लगते। सब को बैठे बिठाए ऑर्डर मिल जाता कि आप इस इस तारीख तक लखनऊ पहुँचिए या गोरखपुर वोरखपुर, आप ने तो नौकरी जॉयन करते समय लिख कर दिया था ना, कि आप को भारत भर में जहाँ तैनात किया जाएगा वहाँ जाने को तैयार हैं आप! यहाँ इस बात को पूछने की कोई गुंजाइश ही ना थी कि हम ही क्यों हिलें, किसी दिन आप भी तो बीवी बच्चों से दूर हो कर देखो ना! आप भी तो किसी शहर में जा कर खाओ ठोकरें, मकान तलाशने की या बीवी का भी ट्रांसफर उस शहर में कराने की कोशिश में। ये सब मुसीबतें हमारे ही सर क्यों, क्या इसलिए कि आप सब दो दो बार जन्मे हो? या फिर आप तो शरीर का सिर हो या कमर, या छाती वाती, और हम हैं पाँव!

पर पूछने की जुर्रत किस की हो, जो जिस जगह है उसे अपनी औकात पता होती ही है, नहीं तो ऑफिस औकात हमारे उतरे हुए चेहरों पर ही लिख देता है... चाहे वह डाइरेक्टर हो या असिस्टेंट डी।.जी., ऊपर वाले से तो छोटा हुआ ही न वह। यहाँ यह भद्दी सी गाली भी चलती है कि... चाहे कितने भी बड़े हो जाएँ, रहेंगे... के नीचे ही। बहरहाल, एक अच्छा और सुनहला मौका दलितों को भी मिल गया। हुआ यह कि विभाग का जो ब्राह्मण डी.जी. था, एक दिन उसके द्वारा खड़ी की गई एक नकली कंपनी की किसी नकली महिला मैनेजर ने जा कर पोलिस में एक एफ.आइ.आर. दर्ज करा दी कि डी.जी. पिछले पाँच साल से उसे रेप पर रेप किए जा रहा है। सुरंग वाले कहकहे मारने लगे। ब्राह्मणों ने मिल कर इस डी.जी. अवधेश कुमार शर्मा की नकली कंपनी से भरपूर फायदे उठाए थे। विभाग की जितनी भी परचेज होती थी वह शर्मा जी की इस नकली कंपनी से ही होती थी और सब के सब मिल कर अपनी पाँचों घी से तर कर देते थे। फाइलों में जिस जिस ब्राह्मण को मोटे से हस्ताक्षर करने पड़ते, उस उस के घर कीमती चीजें भी पहुँचनी शुरू हो जातीं। खूब पैसा चलता और बसों में स्टैंडिंग कर के बसों की छतों से लटकती कड़ियाँ पकड़ कर ऑफिस पहुँचने वाले डाइरेक्टरों ने सेकंड हैंड कारें खरीद ली। दो चार ने तो अपनी माशूकाओं को भी कारें ले कर दी। भंडा फोड़ किया उस ब्राह्मण ने एक दिन जिसे कम हिस्सा मिला, जिसकी अल्मारी में रखे धन का रंग उतना काला नहीं था जितना शर्मा जी की। उस लड़की जो कि शर्मा जी की मैनेजर भी थी और जो इश्क भी खूब लड़ाती थी, के पीछे पड़ गया वह भेदखोलू डाइरेक्टर। उस लड़की का तो एक फ्लैट भी बन गया था, एक सेकंड-हैंड कार भी मिल गई थी, उसके पति को कैंटीन का ठेका भी मिल गया। पर इस पवित्र-मंडली का अंत यही हुआ कि एक दिन अवधेश कुमार शर्मा नाम का वह दो बार जन्मा पवित्र डी.जी. वॉलंटरी रिटायरमेंट ले कर चला गया। मिनिस्टर ने साले की... में सीधे डंडा घुसेड़ा कि अब जान बचानी है तो हथेलियाँ चूतड़ों पर रख कर भागो नहीं तो तिहाड़ जेल में बुक कराएँ आपके लिए एक खास कमरा! इधर इसी ताक में ये दलित सुरंग वाले बैठे ही थे क्योंकि अगले डी.जी. साधूराम ही होने थे यह सब को पता था। साधूराम डी.जी. बने और सब के सब मिल कर जश्न मनाने आ गए साधूराम के चैंबर में, साधूराम के शपथ लेते ही जैसे बहुत सारे चूहे बिल्लियों की गर्दनों में घंटियाँ बाँधने आ गए थे। सब के सब इतनी तादाद में आ गए कि पदनाम के अनुसार बड़ी बड़ी हस्तियाँ उस चैंबर में कुर्सियों पर बैठी या सोफों पर, और उनके जूते नीचे बिछे गद्देदार कालीनों का मजा ले रहे थे। कुछ छुटुक मुटुक लोग इधर उधर फुदकने से लगे। कुछ दरवाजों पर ही बाहर की तरफ उमड़ने से लगे, जैसे किसी गिलास से कोई द्रव बाहर की तरफ फैलता सा है। फिर अचानक सब को जैसे एक करेंट सा लगा हो, वह करेंट एक साथ साधूराम को भी लगा। ये लोग फिलहाल तो यही सोचते रहे थे कि अब हम यहाँ इस महफिल में खूब कहकहे लगाते जाएँगे और अब इस धरती पर हमारी तरफ कोई आँख उठा कर देखने वाला भी नहीं पैदा होगा। पर अचानक जैसे सब को एक झटके से यह अहसास हुआ कि यदि हम ऐसे, सब के सब एक साथ कहकहे लगाते रँगे हाथों पकड़े गए तो फौरन ब्राह्मणों की नजर में न आ जाएँ। इसलिए साधूराम ने क्या किया कि नकली तरीके से गुस्से के मारे चिल्लाने लगा तब सब के सब तितर बितर हो गए। वे कमरों से ऐसे निकले जैसे अंदर ही अंदर कोई गलत काम कर के शर्मिंदा से निकल रहे हों। इमारत में हालाँकि इस बात का पता चल चुका था कि साधूराम ने जो सब से पहला लड्डू खिलाया था वह अपने पी.ए. को ना खिला कर उसके दलित चपरासी को खिलाया था। पर खैर, जब ये सब के सब तितर बितर हो गए तब धीरे धीरे साधूराम के कमरे में जा कर उन्हें बधाई देने का क्रम शुरू हुआ और लोगबाग लड्डू लेने तो पहुँचे, पर साधूराम यह देख कर आहत थे कि जितने लोग आम तौर पर लड्डू लेने आते हैं, उनके डी.जी. बनने पर उतने नहीं आए थे। छुआछूत या दलित के अधीन नौकरी करने की जलालत शायद सब को निगल गई थी इस बार!

रामरतन का भी प्रोमोशन ऐसे ही थोड़ा होना था।

बदलेबाजी का यह क्रम जाने कब से चल रहा था।

साधूराम ने कुछ ही दिन बिताए कि उसकी नजर सब से पहले पुरानी और लंबी सी बिल्डिंग जिसे यहाँ के कर्मचारी तिहाड़ जेल भी कह देते थे, में एक सब से शानदार से लगते चैंबर में बैठे जानकीप्रसाद पर पड़ी जो यहाँ सब से तगड़ा ब्राह्मण था। साधूराम के रिटायर होने के बाद वही डी.जी. बनेगा और उसने तो अपना चैंबर नई बिल्डिंग में बनाने की एक अर्जी भी दे दी थी। पर एक दिन क्या होता है कि साधूराम का पी.ए. जानकीप्रसाद के पी.ए. को फोन करता है कि डी.जी. सा'ब ने जे.पी. सा'ब को तलब किया है। जे.पी. कुढ़ जाता है ऐसे समय कि अब इस चूड़े डी.जी. के भी हुकुमों पर चलना होगा। फाइल में तो उसके लिए फैसले पर दिख रहे हस्ताक्षर से ही जानकी चिढ़ जाता है। पर जानकी के पी.ए. ने बताया कि हो सकता है आपने जो नई इमारत में चैंबर बनाने के लिए लिख कर दिया है उसी सिलसिले में बुलाया हो आप को, और जानकीप्रसाद प्रसन्नचित्त सा अपने इस पुरानी इमारत वाले सब से अच्छे चैंबर से निकल कर नई इमारत चल पड़ता है। पर वहाँ साधूराम के चैंबर में पहुँचा तो साधूराम की बाँछें उससे भी ज्यादा खिली हुई देख जानकीप्रसाद कुछ हैरान सा भी हुआ। साधूराम जी ने कहा - 'बैठिये आप का तो ट्रांसफर हो गया है,' और साधूराम की बाँछें थोड़ी और खिलने लगीं कि जानकी कुढ़ता है कि नहीं। साधूराम को हर समय लगता है कि जितने भी ब्राह्मण यहाँ वहाँ आरामदायक चैंबरों में बैठे हैं, वे जैसे सदियों से बैठे मौज मना रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि उन सब को विस्थापित कर दिया जाए। इन सब ने भी अपने समय में हमें दूर दूर के कस्बों शहरों का खाना खिला कर हमारे स्वास्थ्य तक से खिलवाड़ करते देर नहीं की थी, सो अब ये भी भुगतें जा कर कहीं। पर जानकीप्रसाद कुढ़ता हुआ ही चला आया क्योंकि उसका ट्रांसफर तो थिरुवनंथपुरम कर दिया गया था। उसने भी कौन सी कच्ची गोलियाँ खाई हैं। उस ने एक अर्जी दे दी, कि उसे फलाँ फलाँ बीमारी है जिसका इलाज थिरुवनंथपुरम में नहीं हो सकता। दिल्ली में कब से चल रहा है उसका इलाज। उसने इसके लिए दस्तावेज भी तैयार करा दिए पर काम ना बना तो उसने एक मुकदमा ठोक दिया और उसके ट्रांसफर को फिलहाल स्टे मिल गया। साधू को यह बदलेबाजी का मामला टेढ़ी खीर लगा क्योंकि उसने सोचा था इनको भी नाकों चने चबवा कर ही छोड़ूँगा, पर ऐसा वह कर तो नहीं सका न!

इधर रामरतन चुपचाप अपना प्रोमोशन ऑर्डर कोट की अंदरूनी जेब में छुपाए बार बार उसे हाथ से छू कर तसल्ली कर लेता था कि वह ठीक जगह पड़ा है कि नहीं, उधर प्रशासन के साथ वाले बड़े से कमरे से टेबलें वेबलें सरकाई जा रही थीं कि आज रामरतन क्लास टू का फेयरवेल है। उस चूड़े का। प्रशासन की सुषमा बंसल ने सब से दस दस रुपये एकत्रित कर लिए थे और बाजार से रिफ्रेशमेंट भी मँगा लिया था। एक एक समोसा एक बर्फी पीस, बाकी थोड़ी दालमोठ वगैरह। बाहर गलियारे में चाय वाले के लिए एक छोटी टेबल रखवा दी गई कि वह उचित समय पर यहाँ चाय का पीपा ला कर रख देगा और इधर अंदर के कमरे में तीन टेबलें मिला कर एक मंच बना दिया गया। दो और बड़ी मेजों को इधर मंच के पर्पेंडीकुलर वाली दीवार से सटा कर उन पर पेपर प्लेट्स सिलसिलेवार लगा दी गईं कि इनमें थोड़ी ही देर बाद रिफ्रेशमेंट की चीजें भर दी जाएँगी। सुषमा बंसल का ही एक डेप्यूटी यानी एक लोअर डिवीजन रामेंद्र सिंह गिफ्ट में दी जाने वाली वह घड़ी भी निकाल लाया और मंच वाली एक मेज के बीचोंबीच रख दी।

इधर रामरतन गर्दन झुकाए व्यस्त और गुमसुम सा दिखता आ कर अपने सेक्शन में ही अपनी सीट पर बैठ गया और बार बार किसी ना किसी फाइल को खोल उसमें घूर कर देखने लगा जैसे गंभीरता से फाइल का अवलोकन कर रहा हो। कमरे में बैठे एक दो दूसरे अफसरों ने तब कहा - 'अब तो काम की जान छोड़िए रामरतन जी अब तो आप आज ही रिटायर हो रहे हैं ना!'

- 'ह्म्म्म।' रामरतन ने हम्म की और फिर बड़ी कोशिश से एक मुस्कराहट अपने होठों के पीछे कहीं से ईजाद की और सब की तरफ देख मुस्कराया। दरअसल उसके मन में वही उधेड़बुन चल रही थी कि प्रोमोशन का किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए नहीं तो सब खूब जलेंगे साले और मन ही मन उसे गालियाँ भी देंगे, या किसी बात पर जली कटी ना सुना दें। पर तभी किसी ने पूछ डाला - 'क्या हुआ, प्रोमोशन लिस्ट तो अब नहीं निकल रही ना, आप मिनिस्ट्री हो आए? कम से कम आप का तो कर दें। आप तो क्लास टू से वन बन कर जाओ!'

रामरतन झूठ बोलते समय जैसा चेहरा बन जाता है, वैसा बन जाने के बावजूद बोला - 'जब किसी का नहीं हो रहा तो अकेले मेरा कैसे होगा? मिनिस्टर को जा कर हाथ से तो दस्तखत तो नहीं कराऊँगा ना।'

पूछने वाले को पता था कि प्रोमोशन लिस्ट दरअसल खटाई में पड़ गई है, नए मंत्री ने एक शौकिया सी दिखती क्वेरी इस बार की प्रोमोशन लिस्ट पर लगा दी थी कि डिपार्टमेंट पहले अपनी ट्रांसफर पॉलिसी डिस्क्लोज करे।

- 'अब यह भी कोई बात है कि ट्रांसफर पॉलिसी डिस्क्लोज करे। बो...ड़ी वाले को पता भी है कि यहाँ कई आए कई गए डिपार्टमेंट की ट्रांसफर पॉलिसी कोई ठीक नहीं कर सका। या तो जाति के आधार पर या भाषा के आधार पर ट्रांसफर होते रहे, बंगाली बैठा तो बंगालियों के मजे आ गए साउथ इंडियन बैठा तो साउथ इंडियनों की मौज हो गई । बाकी जिसको मर्जी जहाँ मर्जी पटक दिया सालों ने और कोई कुछ भी नहीं कह सकता। पर इस बार जो हैंडसम सा मिनिस्टर आया था वह बड़ा ही शौकीन सा है। कई किस्म की लतें पाल रखी हैं। आला खानदान का है और कई शौकिया कदम उठा कर इंप्रेशन जमाने के चक्कर में है। सो जिन बीस जनों का प्रोमोशन होना था उन बीस जनों की आहें अपने सर लेते हुए भी वह बिला नागा नियमित रूप से अशोका होटल जा कर 'जिन' या 'स्कॉच' की खूब महफिल जमाता है, फॉरेन टूर का भी खूब शौकीन है साला। ना जाने क्या हो, पर किसी ने बीच में बात उछाल दी थी - 'उस चूड़े रामरतन का भी तो नाम है बीच में, उसका क्या हुआ। वह तो आरक्षण का घोड़ा है, क्या उसे भी रिटायर हो जाने देंगे? प्रोमोशन के बिना?

- 'वह तो राष्ट्रपति का दामाद है ना। उसे कैसे छोड़ देंगे ये सब,' किसी ने जो कहा वह इन दलितों में से कोई वहाँ उपस्थित होता तो एकाध का थोबड़ा तोड़ देता। पर किसी और ने कहा कि 'राष्ट्रपति का दामाद वह कैसे हो सकता है, राष्ट्रपति तो ब्राह्मण है!'

- 'ओबे घनचक्कर तू समझता नहीं है। राष्ट्रपति का दामाद का मतलब यह तो नहीं कि उसने राष्ट्रपति की ही बेटी से शादी कर रखी है। मतलब तो राजनीतिक हुआ ना! यानी सब से महत्वपूर्ण है रामरतन तो!'

इसी लिस्ट में दो और ब्राह्मण हैं जो अगले महीने ही रिटायर हो रहे हैं और यह क्वेरी ऐसी आई है कि तीन महीने तो गए समझो, सो वो दो ब्राह्मण भी प्रोमोट हुए बिना रिटायर हो जाएँगे ना! उनकी फिकिर किसको है भाई?

अचानक किसी ने जैसे एक बम फोड़ा - 'रामरतन की बीवी भी ब्राह्मण है समझे?' फिर उसने दबे होंठों से एक ऐसी बात बुदबुदा दी कि दो चार ब्राह्मण ही उसे पकड़ कर पीटने से लगे। उसने बहुत धीमी और न सुनी जा सकने वाली आवाज में फुसफुसा दिया था - 'ना जाने कैसे जिंदगी भर इस चूड़े के नीचे लेटी रही बेचारी!'

- 'चुप बे, ज्यादा बकने लगा है, ऐसी ऐसी बातें करता है कि मारामारी हो जाए। अपना काम कर जा के। चूतिया कहीं का... इनकी एक कमीशन होती है और कोई चला गया तो हथकड़ियाँ भी पड़ जाएँगी तुझे!'

किसी ने चीख कर समझाया - 'मारामारी पहले हो नहीं चुकी क्या? चड्ढे ने बकवास की थी ना, यही, जो अभी तू बोला, किसी चूड़े के सामने ही बक दिया वो। और चूड़े ने दा...ड़... दे मारा साले को एक घूँसा छाती पर... बात इतनी बढ़ गई कि चड्ढे की फटने लगी थी। चूड़ा शिकायत कराने जा रहा था और उस मामले को शांत कराने आया था खुद डाइरेक्टर जनरल वर्मा।'

इधर रामरतन यही सब सोच रहा था कि उस की मेज पर घंटी बजी और उधर से किसी शराबी दलित विलायती राम का फोन आ गया तो सब को शक सा पड़ गया कि जाने क्या बात हो। रामरतन ने विलायती राम को झाड़ने के अंदाज में कहा - 'क्यों अफवाहें फैला रहे हो कहाँ हुआ है मेरा प्रोमोशन। फोन रखो चुपचाप।'

विलायती राम यहाँ विभाग के बाहर हर साल एक शामियाना लगा कर बाबा साहेब का जन्म दिवस मनाता है और बड़े शौक से नशे में ही भाषण करता कहता है - चौदह अप्रैल को ही मैं जन्मा और चौदह अप्रैल को ही बाबा साहेब, मेरे गुरु।'

नशे की पीनक में तीनेक साल पहले यानी अवधेश कुमार शर्मा के डी.जी. बनने से पहले वाले डी.जी. के समय विलायती राम ने दो चार गालियाँ भी बक दी थीं। बोला था - 'डी.जी. भैन का... बाबा साहेब के जन्मदिन पर कब्बी हमारे दलितों के प्रोग्राम में आता ही नहीं...' उस समय ऑडिएंस में से अचानक एक दो उठ कर मंच पर आए और उसे कान में फुसफुसा कर झाड़ने लगे कि अभी तो शुक्र है सैलजा कुमारी आई नही, गालियाँ दे रहे हो यह तुम्हें शोभा थोड़ेई देता है। आराम से कंपीयारिंग करो!'

सैलजा कुमारी को मुख्य अतिथि बन कर आना था और उसके साथ एक दो ब्राह्मण सांसद भी आने थे पर विलायती राम की ऐक्टिंग देख ऑडिएंस को फिलहाल हँसने का खूब अच्छा मौका मिला। पता नहीं वे सब गालियों का रस ले रहे थे या ब्राह्मण डी.जी. को गालियाँ मिलने का। एकाध ने उठ कर उसे मंच के एकदम किनारे से पीछे की ओर खड़े हो कर कंपीयारिंग करने का इशारा किया, कहीं गिर न जाए साला मूर्ख इनसान। ऑडिएंस पचास साठ से ज्यादा नहीं होगी और अधिकांश दलित लोग पहले ही आ कर कुर्सियों पर बैठ गए थे जबकि कई ब्राह्मण लोग इधर उधर कैंटीन जा कर या वहाँ से निकल कर कुछ देर शामियाने के बाहर खड़े शामियाने को ताकते रहते या फिर खिसक जाते कि सैलजा कुमारी आएगी तो आ कर सुनेंगे सब के भाषण। फिलहाल इस नशई विलायती राम को तो दफा करे कोई।

विलायाती राम को हमेशा यही दुख रहता है कि वह जब भी डी.जी. के पास जा कर ऑफिस का मुख्य ऑडिटोरियम माँगता है, डी.जी. नहीं देता और उसे लगता है कि उस का शराब पीना शायद इसी कारण बढ़ गया है। बहरहाल डी.जी. उन दिनों विलायाती राम द्वारा दी गई गाली सुन चुका था और उस पर किसी बहाने कोई कड़ी कार्रवाई करने की सोच रहा था पर दरअसल एक और दलित ने उसके हाथ काट रखे थे। वह था राज्यमंत्री दुर्गाप्रसाद। दुर्गाप्रसाद राज्यमंत्री बना तो उसे पता था कि केंद्र में जो मंत्री होते हैं वे राज्यमंत्री को दरअसल कोई काम ही नहीं देते और ना ही बड़े बड़े नौकरशाह उनकी ओर आँख उठा कर भी देखते हैं। पर दुर्गाप्रसाद को सुरंग में अपना ही कोई भाई सा मिल गया और उस नौकरशाह की मदद से दुर्गाप्रसाद ने अपना काम ढूँढ़ लिया था। इत्तेफाक कि रामरतन वाला विभाग उस नौकरशाह के अधीन आता था सो दुर्गाप्रसाद ने क्या किया कि एक क्रम सा बना लिया कि इस विभाग में जब तब आ कर बैठ जाता। उसने डी.जी. से कह कर अपने लिए एक अच्छे से चैंबर में एक सीट भी रखवा दी और फिर उस चैंबर का असिस्टेंट डी।.जी. एक और असिस्टेंट डी.जी. के साथ चैंबर शेयर करने लगा। यह भी अजीब जहमत लगी उन दोनों को और इधर दुर्गाप्रसाद ने दलित हित के नाम पर फाइलों की खोजबीन शुरू कर दी। कुछ स्कीमें वह इस शौकीन से मंत्री से ऐप्रूव करा लाया। सब दलित खुश रहते और दुर्गाप्रसाद वापस जाते जाते एक मुस्कराहट अपने होंठों पर स्थिर रखता ताकि ज्यों ही उसका कोई दलित परिचित मिल जाए तो वह उसकी ओर केवल दृष्टि मात्र करे और वह मुस्कराहट मानो उछल कर उसके और उस दलित के बीच कोई आत्मीयता सी स्थापित कर ले। पर जिस समय रामरतन का प्रोमोशन नजदीक आया उस समय रामरतन की किस्मत अच्छी ना थी सो दुर्गाप्रसाद को अचानक कोई और विभाग दे दिया गया और उसका दोस्त वह नौकरशाह फिलहाल अकेला महसूस करने लगा।

इधर उस शौकीन मंत्री ने क्वेरी लगाई इधर दलितों में सोच बढ़ गई कि अब तो रामरतन बेचारा बिना प्रोमोशन ही रिटायर हो जाएगा। तब कुछ लोग अचानक दुर्गाप्रसाद के पास ही चले गए कि सा'ब कुछ करो। दरअसल वही दलित नौकरशाह भी चुपके से उस सुरंग में घुस कर दुर्गाप्रसाद के पास पहुँचा था कि कुछ करो, एक प्रोमोशन हमारे लिए मान-सम्मान का प्रश्न बन गया है, एक तो आरक्षण नीति के अनुसार बीस की लिस्ट में चार दलित तो होने ही चाहिए। पर क्लास वन के लिए क्लास टू पोस्ट पर कम से कम सात साल का अनुभव होना जरूरी था। दलितों के लिए ही यह रियायत कि आठ की बजाय सात साल का अनुभव हो। इस पर भी जलते हैं सब ब्राह्मण साले। सात साल अनुभव वाला अकेला रामरतन ही था, सो सा'ब चाहे यह विभाग अब आपके अधीन नहीं रहा पर किसी पिछले दरवाजे से ही कुछ करो आप।

दुर्गाप्रसाद अशोका होटल में एक कार में बैठ कर चला गया। उसके पास भी सरकारी कार थी ही क्योंकि किसी और विभाग का सही, वह राज्यमंत्री तो अब भी था। उधर का मंत्री कुछ कड़क था सो राज्यमंत्री की खुराफातें पहचान कर उसे किसी न किसी दौरे पर भेज देता। सो दुर्गाप्रसाद अब रामरतन की मदद करने के लिए आऊट ऑफ द वे सही, अशोका होटल में उस शौकीन मंत्री की खोज करने लगा और उसे वह एक जगह मिल गया।

दुर्गाप्रसाद ने क्या किया कि फौरन उस शराबी मंत्री की पी.ए. जो अपना मोबाइल लिए कॉरीडॉर में ही भटकती सी नजर आई, का नंबर मिला लिया। वह उसे पहले से जानता था। पी.ए. मिसेज सुखरामानी का मोबाइल बजा तो वह देवीप्रसाद से बात कर के बोली कि आप वह दूसरा नंबर मिलाओ जो मंत्री का है वह भी मेरे पास है और मंत्री महोदय अंदर अपनी कुछ फ्रेंड्स के साथ बैठे हैं, पर प्रॉब्लेम क्या है सर?

दुर्गाप्रसाद ने प्रॉब्लेम बता दी तो सुखरामानी ने अपनी बात दुहराई कि मंत्री जी का भी मोबाइल उसी के पास है और मैं अंदर जा कर देखूँगी कि वो बात करने के मूड में हुए तो आप से बात करा दूँगी, ओके सर?

और दुर्गाप्रसाद की आखिर उस मंत्री महोदय से बात हुई। मामला वोट बैंक का हो या कोई और, मंत्री ने कह दिया कि मिसेज सुखरामानी मंत्रालय के सेक्रेटरी से बात कर के उसे ताकीद कर देंगी कि सिर्फ एक प्रोमोशन फिलहाल कर दिया जाए क्योंकि वह किसी दलित का मामला है, ओके?

- 'ओके सर' कह कर दुर्गाप्रसाद नाचता हुआ सा आया और इधर रामरतन के विभाग के दलित डी.जी. को फोन पर लगा झाड़ने - 'सिर्फ एक दिन बच गया था तब जागे हो आप? शर्म आनी चाहिए आप को।' फिर सहसा उसे याद आया कि दरअसल उसके पास तो वह नौकरशाह आया था यह प्रोमोशन करवाने! बहरहाल सुबह सुबह दलित डी.जी. साधूराम अपने चैंबर में आया और उसके चैंबर में बैठा था मंत्रालय का वही नौकरशाह और दुर्गाप्रसाद का दोस्त। बस, चुपचाप मंत्री का हस्ताक्षरित ऑर्डर उसे दे दिया कि आज ही रामरतन रिटायर हो रहे हैं और उनका प्रोमोशन कर दीजिए, कम से कम वह रिटायर्ड क्लास वन कहलाएगा और उसकी पेंशन वेंशन में भी खूब इजाफा होगा। बाकी बेनेफिट भी ढेरों हैं, वे भी बढ़ जाएँगे।

एस के लाल के चैंबर में सुषमा बंसल मुस्कराती हुई गई और बोली - 'सर, सब लोग इंतजार कर रहे हैं। रामरतन क्लास टू का फेयरवेल है न।'

एस के लाल उस कमरे में आए जहाँ अनुभाग के सभी कर्मचारी अधिकारी वगैरह खड़े हो गए थे, मंच वाली एक मेज पर रामरतन और आसपास दूसरे दो क्लास वन ऑफिसर भी।

एस के लाल का स्वागत हुआ और बाकियों का भी और किसी दीनदयाल आर्य उर्फ डी.डी.ए. ने कंपीयारिंग शुरू कर दी, रामरतन के गुण गाए जाने लगे। संक्षेप में उसकी पूरी जीवनी पढ़ दी गई कि कब विभाग में आए और कब कब कहाँ कहाँ तैनात हुए। उधर साधूराम डी.जी. दूसरी इमारत में अपने चैंबर में अंगुलियाँ क्रॉस किए बैठा था कि सुख शांति से रामरतन का फेयरवेल हो जाए। उसे जब सुबह सुबह मंत्री की हस्ताक्षरित फाइल मिली थी तब उसने दरअसल सारे प्रोसीजर ताक पर रखने चाहे कि प्रशासन व्रशासन को बाद में बता दिया जाएगा। पर एक प्रोमोशन ऑर्डर तो आखिर टाइप कराना ही पड़ेगा। सो मजबूरन इस पूरे विभाग के केवल एक शख्स यानी अपने पी.ए. को बुला कर उसने सीधे उसी से एक प्रोमोशन ऑर्डर टाइप कराया और खुद ही उस पर हस्ताक्षर किए जबकि हस्ताक्षर नियम से किसी बड़े प्रशासन अधिकारी के होने चाहिए थे। उसे पता था कि यह ब्राह्मण पी.ए. खूब कुढ़ेगा पर उसे एक प्रकार की सख्त सी चेतावनी दे कर साधूराम खुद उस पी.ए. के साथ बिल्डिंग से नीचे उतर आया। पी.ए. फाइल थामे थामे डी.जी. के साथ आया और लिफ्ट में चढ़ गया। एस के लाल के कमरे में डी.जी. के साथ ही चुपचाप घुस कर उसने वह प्रोमोशन ऑर्डर की फाइल एस.के. के सामने सरका दी।

पी.ए. मदनलाल खूब कुढ़ा। इधर डी.जी. अपने चैंबर में अंगुलियाँ क्रॉस किए बैठा था इधर मदनलाल पी.ए., उसे एक तो गम यह भी है कि बीस जनों का प्रोमोशन हुआ, और उसका था इक्कीसवाँ नंबर! अगर साधूराम की जगह कोई और होता तो एक वैकेंसी और बढ़ा देता, यही तो यहाँ सब हो रहा है। कोई अपना रिटायर होने की कगार पर हो तो एकाध वैकेंसी बढ़ा दो या जिन के प्रोमोशन होने वाले हैं उनमें से किसी का कर्मफल वर्मफल बिगाड़ कर रख दो यानी सी आर रूपी अस्त्र चला कर अपने आदमी को होने दो फिट। कुछ भी ना हो सका और मदनलाल छह महीने बाद रिटायर होगा। तब तक तो कोई दूसरी लिस्ट आएगी नहीं! ना कोई ब्राह्मण डी.जी. आएगा कि जल्दी ही कोई प्रोमोशन का बहाना निकाले। और इधर देखो तो यह चूड़ा...

बहरहाल, इधर खूब तालियाँ बज रही हैं। हर बात पर कहकहे लग रहे हैं। रामरतन शर्मीला सा अपनी जगह बैठा है और मंच पर एस के लाल समेत सब मुस्करा रहे हैं। एक ने बहुत सुंदर विदाई गीत गाया और एक ने चुटकुले सुनाए। पर इधर क्या हुआ कि अचानक इस बिल्डिंग के प्रशासन सेक्शन के फोन की घंटी बजने लगी। सुषमा बंसल दौड़ती गई और फोन उठाया तो उधर से वही गम खाता या कुढ़ता कुढ़ता पी.ए. बोल रहा था कि सुषमा जी, आप को पता है रामरतन कौन सी पोस्ट पर रिटायर हो रहा है?

- 'ह्म्म्म! आप तो पी.ए. हैं मदनलाल जी, मालिकों के पास बैठे हैं। रामरतन क्लास टू ही तो है! प्रोमोशन कहाँ हो पाया उसका!'

- 'अरे नहीं, हो गया है। आज ही उसका प्रोमोशन...' और बँधी हुई घिघ्घी से मदनलाल ने फोन डर डर कर पटक दिया। सुषमा कुछ समझी ही नहीं, या सोचने लगी यह कोई और तो नहीं था। पर अगले क्षण सुषमा के कदम दबे दबे एस के लाल के चैंबर के बाहर ठिठक गए। फिर वह दरवाजा धीमे से धकेलती पहुँच गई चैंबर की बड़ी सी मेज के सामने एक सोफे के पास। वहाँ क्या है कि एक सोफे पर ही कई फाइलें एक दूसरे पर लिटा कर एस.के. रख देता है। जब साइन करने हों तो अपनी पी.ए. मिसेज रैना को बुलवा कर एक एक फाइल उठवा कर देखता है और साइन करता है। इस लंबी सी लाइन जिसमें कई फाइलें एक दूसरे पर लेटी हुई थीं, में सुषमा की तेज आँखें खोजने लगी वह फाइल, जिसमें हो सकता था रामरतन का प्रोमोशन ऑर्डर। एस.के. भी चालाकी से वह फाइल उस लंबी सी लाइन में ही कहीं महत्वहीन तरीके से टिका गया था, और सुषमा को मिल गई वह फाइल। रामरतन के हस्ताक्षर। रामरतन की जॉयनिंग रिपोर्ट! उसके कदम दबे दबे भी बहुत तेजी से चलने लगे और वह फेयरवेल के कहकहों में कहीं से इसी अनुभाग के प्रशासन अधिकारी मि. डांग को चुपके से बाहर लाई और फिर दबे दबे दोनों अंदर गए। डांग को भी जैसे डंक सा लग गया। पर वह अब क्या करता। इधर लौटे दोनों। अब सब के भाषण हो गए थे, चुटकुले भी हो गए थे, एस.के. लाल का भाषण होते होते दोनों पहुँचे। अंत में धन्यवाद प्रस्ताव देना था डांग को। डांग इतने शातिर तरीके से मुस्कराया कि सब लोग उसे देखने लगे। डांग धन्यवाद प्रस्ताव के शुरू में ही बोला - 'हमारे रामरतन साहब तो छुपे रुस्तम निकले। आज सुबह ही उनका प्रोमोशन ऑर्डर आया है, और यह खुशखबरी गोपनीय तरीके से मुझे ही देने का हुकुम मिला था! सो मैं रामरतन जी को बधाई देता हूँ, कि रिटायर होने वाले दिन ही उनका प्रोमोशन हो गया है।' सब लोग चकित थे। काटो तो खून नहीं, ऐसी हालत। केवल कुछेक रामरतन की श्रेणी वालों को छोड़ कर सब का। पर सब ने डांग के इशारे पर जोरदार तालियाँ बजाईं। इधर रामरतन को भी काटो तो खून नहीं। बाकी सब तो तालियाँ बजा बजा कर सँभल गए थे, पर एस.के. और रामरतन की सूरतें देखने योग्य थीं।

बस, इसके बाद की कहानी इतनी सी कि रामरतन ने चाय भी ठीक से नहीं पी, रिफ्रेशमेंट भी ठीक से नहीं लिया। उसे फिलहाल तो एक डर सता गया कि कोई दौड़ कर कोर्ट से किसी बहाने स्टे ऑर्डर ना ले आए। पर एस.के. ने उसे आश्वस्त कर दिया कि नहीं, अभी उस फाइल की परछाईं तक किसी जगह नहीं पड़ी होगी, और वह लपक कर अपने चैंबर गया और अपने आप को ही कोसता हुआ उस फाइल को अपनी अल्मारी में लॉक कर के रख आया, कि पहले यह खयाल क्यों नहीं आया। फेयरवेल निपट गया था और रामरतन को शुभकामना दे कर मुस्करा मुस्करा कर हर कोई वापस अपनी सीट की तरफ जा रहा था या लिफ्ट की तरफ कि ऊपर या नीचे अपनी सीट पर पहुँच जाए। रामरतन जैसे सुबह चल रहा था, वैसे ही अपने कोट की अंदरूनी जेब में रखे प्रोमोशन ऑर्डर को बार बार छूता लिफ्ट से ग्राऊंड फ्लोर पर बाहर निकला और गर्दन झुकाए झुकाए ही पहुँच गया मुख्य द्वार। अब उसको शीघ्र यहाँ से निकल जाना है।