सुरजू छोरा / कुसुम भट्ट

Gadya Kosh से
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तो एक ठहरी ज़िद के तहत सुरजू ने निर्णय लिया और गाँव में मुनादी पिटा दी...

भूकंप आ गया गाँव में...! गोया सुरजू ने पृथ्वी तल पर घुस कर धीरे से खिसका दी हो प्लेट..., गाँव के बाशिन्दों की पचतत्वांे की काया थर-थर कांपने लगी, प्रत्येक को स्थिर रखना नामुमकिन लगने लगा ख़ुद को... -हाथ पांव बर्फ की मांनिद ठण्डे पड़ने लगे और दिल धक-धक धक ...! तभी तो बड़ी से बड़ी आपदा में भी न घबराने वाले सयानों (पुरूषों) के होंठांे से थरथराकर कर फूटा"सालेऽ... गुबड़े की इतनी हिम्मत! अभी तक गाँव में गिनी चुनी कुछ स्त्रियों में बची थी तरल संवेदना कि हरी बूंदे... टप-टप गिरने लगी सुरजू की रौखड भूमि पर" सुरजू रेऽ... ऐसा ग़ज़ब तूने सोचा छोरा... हमने तो सपने में भी नी सोचना ठैरा। देहरी पर अड़स गई कोई" ना छोरा नाऽ ... तू तो हमारी धियाणी का (बेटी) बेटा ठैरा...

सुरजू के होंठ बन्द, गोया लेई चिपका दी हो एक बार उड़ती दृष्टि से उसने रिरियाती कायाओं को देखा "मैंने भी कहाँ सोचा था सपने में... मुझे भी तो पांव टिकाने को यही ज़मीन चाहिए थी तथा सिर के ऊपर एक टुकड़ा आसमान। अब नहीं मिलता तोऽ...?" उसके पांव मशीन पर चलने लगे खट-खट खट खट और नज़र कपड़े पर टिक कर भी बहुत दूर..."मेरा जो डिसीज़न है... अब तो बदलने से रहा..."

हिटलर क्या एक ही हुआ पृथ्वी पर? उसके रक्त बीज फैले हैं चप्पे-चप्पे पर..., गाँव के तमाम बाशिन्दों का एक स्वर "उफ! हाथी पांव का वजन! हमारी ज़मीन धसक रही है रेऽ सुरजू..."

वक्त बेवक्त सुरजू ने जितना पी सकता था घूंट घंूट कडुवा पिया, उगला नहीं कभी..., गोया भीतर भरते ज़हर को वह अमृत बनाने की कला सीखता रहा।

अंधेरे जालों के बीच उलझते सुलझते उसके भीतर एक महीन रोशनी की किरण फूटी "मेरी ज़मीन क्यूँ नहीं...? गाँव मेरा क्यूँ नहीं? यह धरती आसमान मेरा नहीं ंतो मैं यहाँ क्यूँ हूँ?" जिसने भी धरती पर जन्म लिया, धरती के संसाधनों जल ज़मीन जंगल पर उसका उतना ही हक़ जितना दूसरे दावेदारों का..."उसके दिमाग़ में प्रश्न उगते तो उत्तर भी साथ-साथ उतरते, उसे समझ नहीं आता कि लोग उसे गाँव का निवासी क्यों नहीं समझते जबकि उसका जन्म यहीं हुआ था उसकी माँ नानी कहती" जहाँ तेरी माँ का गाँव वही तेरा गाँव हुआ सुरजू" सुरजू की समझ में नहीं आता कि शिवाली गाँव वाले उसे अपने गाँव का बाशिन्दा क्यांे नहीं मानते?

देहरी पर अड़स कर देर तक उसकी ज़मीन को टप-टप टप नकली आँसुओं से भिगाकर वे चली गई तो सुरजू ने चैन की सांस ली, उसने गोल घूमते पांवों को समेटा और बरामदे में अलसाई-सी अंगड़ाई लेकर आराम कुर्सी पर बैठ गया बहुत देर से चुप्पी ओढ़े उसके होंठ खुले "अब आयेंगे ठिकाने पर ..."

माँ पवित्रा खलिहान में राशन के गेहूँ सुखा रही थी " हमारी शान सहन नहीं होती उनको... सांप लोटते हैं सीने पर ...

सुरजू चुगद हँस पड़ता है ठठाकर...

"बड़ी गहरी साज़िश है छोरा... हँसी में क्यूँ लेता है तू ...?" पवित्रा मार्बल के फ़र्श पर हाथी पांवों का वज़न उठाकर धम-धम धमक करती हुइ उसके कान में फुसफुसाई "अब लगी है चोट उनके कलेजा पर..." वह हँसती हुइ रसोई में गई कजरी ने उसके हाथ दो प्याली चाय पकड़ा दी सुरजू ने माँ के हाथ से प्याली पकड़ी घूंट भरते हुए आंगन के फूलों को देखने लगा, गुलाब गुड़हल गेंदा चमेली कई प्रकार के फूल सुरजू ने बड़ी मशक्कत से उगाये थे, उसने देखा था शहर में उसके कुटुम्बी मामा लोगों के बंगले कोठियों के आगे फूलों की बहार! बस उसने ठान लिया था कि वह भी अपने घर के आगे इससे ज़्यादा फूलों के पौधे रोपेगा और जैसे भी अपने घर को बंगला बनायेगा चाहे कोई उसे 'मिनी बंगला' कहे, वह अपनी चुप्पी को तोड़ता तो उसके होंठों पर अस्फुट स्वर फूटता "अपना भी इसटैंऽण बनेगा... कभी इन्हीं के साहबों के जैसा... देख कर चकरा जायेंगे...!" तो सुरजू की अथक मेहनत रंग लाई थी घर के पिछवाड़े सब्जियों की बहार और घर के आगे फूल ही फूल सुगंधि उडाते सुरजू के बगीचे की सब्जियाँ कभी बाज़ार बिकने जाती तो सेम फलियाँ गाँव के प्रत्येक चूल्हे में चार छह दिनों के अंतराल पर बारी-बारी पकती, सेम की फलियों का स्वाद लेते लोग टोक भी लगाते "मेरा बाबा! कितनी फलती है सूरजू छोरे की छीमी (सेम) क्या तो खाद डालता होगा छोरा...? हमारी छीमी क्यों नी फलती!" वे पूछते जो सुरजू कहता "मेरी छीमी... वह तो फलनी ही ठहरी ठाकुरों-गरीब गुरबा का पसीना गिरता है न जड़ों पर इसीलिए इतना फलती है मेरी छीमी, पर तुम तो टोक न लगाया करो सेठ लोगों।" सुरजू कब पल भर भी बैठा चैन से...? समय के एक-एक क्षण को उपयोगी बनाता रहा छोरा। गाँव वाले देखते दाँतों तले उंगली दबाते, कड़ाके की ठण्ड हो या चमड़ी झुलसाती गरमी वह मस्त मगन काम में रमा रहता! किसी का मकान बनता सुरजू अपने पुराने रेडियो पर गाना सुनते हुए ईंट बजरी ढ़ोता लोग देखते मिस्त्री के साथ धुर दोपहर में चिनाई करता छोरा! कभी पत्थर तोड़ता! कभी मिस्त्री को पटाकर लोगों की आँख बचाकर अपने घर के टूटे हिस्से को ठीक कराता। जब लोग दोपहर के खाने के बाद नींद की झपकी लेते सुरजू अपने सुख की एक नई दुनिया इजाद करने लगता धीरे-धीरे मिस्त्री का काम सीख गया, वह गर्व से कहता "अपन तो मामू जूते भी गांठ लेंगे कोई टूटे जूते दे तो सही..." खिल-खिल हँसने लगता छोरा "अबेऽ! सालेऽ ... हमारा नाम बदनाम करेगा बेऽ...?" साथ के लड़के स्कूल कालेज जाते हुए उसे टोकते "सालेऽ दुबारा ऐसी बातें ज़ुबान पर न लाना... मरी भैंस की खाल थमा देंगे... गाँव से निष्काषित कर देंगे सालेऽ... बता दे रहे हैं, वे बारी-बारी अपना जूता चप्पल निकाल कर हलके-हलके उसके सिर पर मारते" तेरी हथिनी माँ के साथ पहुँचा देंगे वहीं बाबा आदम के गाँव साला टपराऽ। अबेऽ बामन जूते गाँठता है बेऽ बामन तो पूजा करता है... ज्ञान बांटता है सब को..."सुरजू पल भर को सकपका जाता है" कुछ ग़लत बोल गया क्या? जूते गांठना उसका काम थोड़े न है"वह अपमानित होकर भी हँसता जूते खाकर भी संयमित होकर लड़कों को खुश करने की अदा में मीठी बाणी से समझाता" नहीं भाई मज़ाक करता हूँ बामन जूते क्यूं गांठेगा भला... मैं भी पंडिताई का काम सीखूंगा भाइयों" वह अपनी बेढंगी देह से जूते चप्पलों की धूल झाड़ता।

लड़कों को उसकी एंेठ से हुमक चढ़ती "अबेऽ क्या तू बोला बेऽ...? तू बामण...? चेहरा देखा आइने में कभी... मोटे-मोटे होंठ बिन्दी आँखें टेढ़ी कमर दस-दस किलो से कम पांवों का वज़न क्या होगा... तराजू मिले तो कोई ऐसा...! जिसमें तुल सकें तुम्हारे पांव... हा-हा ही ही हू-हू सभी हंसते और उसे चिढ़ाते" तेरा बाप उससे तो कई गुणा सुन्दर है कमलू दास है शालेऽ ..."बाप के बारे में अनाप-शनाप सुनकर वह बिसूरने लगता और रिरिया कर कहता" देखो भाइयों बाप पर मत चढ़ो तुम मुझे कुछ भी कह लो पर मेरे बाबा को बक्श दो...

सुरजू को अपने बाबा का चेहरा दिखता चपटा मूँह चपटी नाक आँखों के कोर कीच से भरे सफेद दाढ़ी खिचड़ी बाल आपस में लटें उलझी मोटा तोंदियल कई महिनों से नहाता नहीं शरीर भक-भक बाश मारता, लोग रास्ते में मिलने पर दस क़दम दूर हट जाते, अशुभ संकेत की तरह वह जब भी दिखता लोग, थूऽ-थूऽ करते, लेकिन सुरजू को अपने बाबा में कोई कमी नज़र नहीं आती, क्या हुआ कि बाबा नहाता नहीं बेचारे को टैम ही कहाँ मिलता है। गाँव से बहुत दूर एक बरसाती नदी के किनारे पहाड़ पर कारतूस लगा कर उसने झोपड़ी बनाई पहाड़ को अथक मेहनत से तोड़ फोड़ कर समतल ज़मीन बनाई उस पर सब्जियाँ उगाता, कुछ खट्टे फलों के पेड़ भी उगाये, चार बकरियाँ खरीदी, सब्जी और फलों को जंगल के बंदर आकर खाने लगे तो वह बैठा रहता, दोपहर में लोग खाना खाते आराम करते वह अपना खाना नदी के किनारे चट्टान पर खाता, वहाँ से भालू का आना दिखाई देता, वह अपने साथ लम्बा डण्डा रखता और तेज धार की दंराती भी सुरजू का बाप किसी से नहीं डरता, वह ढेर सारी चीजों का झोला भरकर आधी रात को घर आता, गाँव में सात बजे सोने वालों के लिये दस ग्यारह बजे आधी रात हो जाती। उसके पांव की आहट और छलछलाते पसीने की बूँदें गाँव की मीठी नींद में खलल डालती। "लोग कहते ये आदमी है या प्रेत मसाण!" इतनी रात को जंगल के बाटे आते हुए इसे ज़रा भी डर नहीं लगता। सुरजू का बाप झोले में हरे पत्तों का साग मक्की खट्टे मीठे आम अन्डे भिन्डी और ढेर सारी फलियाँ गुआर, लोभिया बरसाती सब्जियाँ सर्दियों में राई, पालक, आलू आदि कभी भारी बारिश के चलते उसकी झोपड़ी बहने को होती ऊपर से पहाड़ दरकता उसका साम्राज्य धरती में बिला जाता, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारता बरसात बीत जाने पर विध्वंस का नये सिरे से सर्जन करता गाँव वाले सुरजू के बाप को चाहे आधी कौड़ी का न मानें तो भी सुरजू अपने बाप को राजा जैसा मानता, उसके एकछत्र साम्राज्य से सुरजू के परिवार को किसी प्रकार की बदहाली का सामना नहीं करना पड़ता। सुरजू की माँ गाँव में लोगों के साथ ख़ूब काम करती कुटाई, पिसाई से लेकर बच्चा जनने में भी उसकी मदद ली जाती। हाथी पांवों के बावजूद वह जाने कैसे सुघड़ता से काम निपटाती लोग दांतों तले उंगली दबाते, घर में किसी ठोस आर्थिक संसाधन के गृहस्थी की गाड़ी सुगमता से पटरी पर चलती रही, वह भी माँ की सूझ-बूझ की कारामात ठहरी एक बकरी शुरू कर उसने चालीस बकरियों की भीड़ जुटा ली, जब भी कोई बड़ा ख़र्चा आ धमकता एक बकरी खूँेटे से खुल कर जिबह होती।

देश से लोग दीवाली को घर आते मांसाहारी बाशिन्दों की आँख सुरजू के गोठ को भेदती-कौन बकरा मोटा ताज़ा हुआ...? किसका मांस नरम-नरम हुआ? पवित्रा के बेढंगे हाथों पर करारे नोट थमाये जाते, पवित्रा का चिंपांजी जैसा मुखड़ा उस वक़्त खिल-खिल जाता उसके पंख होते तो वह उस क्षण उड़कर सूरज को चिढ़ा आती कि अंधेरी क़िस्मत मिली हमें सूरज देवता! फिर भी हम अपने रस्ते में घाम लाकर रहेंगे एक दिन..., इन साहबों के साथ ज़िन्दगी के मैदान में क़दम से क़दम मिला कर चल कर दिखायेंगे, "लेकिन अभी वह होंठों को सिये रहती किसी की बात का जवाब नहीं देती उसका अपमान भी होता तो भी सहन कर लेती, सुरजू को भी गाँव का हर व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष बूढ़ा हो या जवान अपनी-अपनी तरह से लंगड़ी मारता, सुरजू मोटे लटकते होंठों को खोलता उसके चैड़े दांत चमकते" ही-ही ही मेरा बाबा अब तो बामण हुआ न मेरी माँ से शादी करके। लड़के उसे घुड़कते " मजबूरी थी सालेऽ... तेरी माँ के हाथी पांव न होते तो तेरे बाप को अपने गाँव की सीमा में भी घुसने देते छिऽ चिंपांजी जैसा तेरा बाबा ही-ही ही हा-हा हा हु-हु हु।

पवित्रा दंराती या कुदाली लेकर खेतों में जा रही होती झगड़ा सुनकर पांवों को घिसटते आती "बस्स भी करो तुम सब... अरेऽ तुम तो मेरे लाडले भतीजे हो, मैंने ही सबसे पहले तुम्हारा बाल मुख देखा, वह दाँतों से होठों को दबाती" सुनो भतीजों मैंने तुम्हारी छुछी भी देखी थी, लड़के शरमा कर पवित्रा कि तरफ़ पीठ फेर देते। तुम्हे जन्म दिलाने में मेरे इन्हीं हाथों ने तुम्हें सबसे पहले छुआ था... मैं ही लाई थी तुम्हें इस धरती पर खींच कर मत करो मेरे सुरजू को तंग... न सही इसका बाप बामण... पर मैं तो हूँ न... तुम्हारी अपनी माँ जैसी फूफू (बुआ) "पवित्रा को स्मृति की डगालों से लहराते शब्द चाबुक मारते हैं" ये सुरजू छोरा इसे कभी छींक भी नी आती... एक हमारे बच्चे हैं आये दिन बीमार कभी जुखाम कभी बुखार... नमोनिया कभी दादरा (खसरा) तो कभी ठीक भी हैं तो चोट फटाख! ये सुरजू छोरा क्या खाके जना इस हथिनी ने! ऊँचे पेड़ों में बन्दर-सा चढ़ जाता छोरा और एक खंरोच भी नी लाता! ताड़ से लम्बा हर घड़ी बढ़ता ही जाता है...! "आकाश छूने की कोशिश में है कमबख्त!" पवित्रा उन विस्फारित आँखों को देख रही है।

"माँ, मुझे बुखार क्यों नी आता?" लाटे ने एक रात पूछ ही लिया था बचपन में, वह एक ठण्डी शाम थी, जब गाँव में बर्फीली हवा चलने से कई बच्चे और बड़े बीमार हो रहे थे। पवित्रा उन घरों में सेवा करने जाती स्त्रियाँ पूछती"तेरा सुरजू तो ठीक है न...?" उन्हें विश्वास ही नहीं होता जब गांवों में बीमारी, महामारी-सी फैली हो, एक अकेला सुरजू कैसे अछूता रहा सकता है। सुरजू ने भी वही सवाल दागा, पवित्रा ने सुरजू के उजले चेहरे को देखा"बीमार हों तेरे दुश्मन! सूरज तो काले बादलों को चीर कर चमकता है छोरा... देखा नी तूने आकाश में...?" पवित्रा ने ठण्डी रात को सुरजू को अपनी सूखी छाती से लगाया था " सबको सब कुछ नी मिला करता सुरजू, भगवान गरीब को रोग क्यूं देगा? उसे पता है न, इनके पास दमड़ी नहीं सिर्फ़ चमड़ी है बाबाऽ... पवित्रा उसे कस कर गले लगाती।

सुरजू चाय का घूंट भरता है, "गहरी साजिश!" स्मृति के पन्ने घायल पंछी के परों से फड़फड़ाने लगे हैं। पीड़ा का सैलाब उसके भीतर रेशे-रेशे में भरने लगता है। वह पंचायती चैक में बच्चों के साथ छुपमछुपाई खेल रहा था। छुपने के लिए वह पुश्ते के नीचे करौंदा के झाड़ के पीछे पुस्ते पर अड़स-सा गया था। ताकि बच्चे उसे असानी से खोज न सकें उसकी आँखें बन्द थी, वह बच्चों के आने की कल्पना कर रहा था कि सड्ाक-सड्ाक उसकी कोमल पीठ पर भीमल की सोटी पड़ी, वह बिलबिला कर खड़ा होने को हुआ तो मंदिर के पुजारी शंकराचार्य ने उसे पकड़ लिया और दो सोटी और जमा दी "क्यों बे हथनी के लाल, हमारी ककड़ी कब चुराई तूने?" वह बिलखने लगा और अपने को छुड़ाने की असफल कोशिश करने लगा था "नाऽ... नाऽ... नाना मैंने कहाँ चुराई ककड़ी, मैं तो बस देख रहा था, माँ की कसम! सच्ची बोल रहा हूँ, उसने सुबकते हुए अपने गले की घुघ्ँाटी पकड़ी" नानी क़सम देख ही रहा था, तीन हरी गुदगुदी ककड़ी थी, वह बिलख्ते हुए बोला था।

"साले झूठ बोलता है, तेरे सिवा गाँव में और कौन चोर हो सकता है?" पुजारी को सात वर्ष के मासूम बच्चे को वहशियों की तरह पीटने पर भी चैन न पड़ा तो काँटों के झाड़ में ही रेतने लगे थे उसे...! सुरजू हेऽ नाऽ... नीऽ... हेऽ... माँ... पुकारता रहा। उसकी पुकार सुनकर ऊपर से बच्चे आ गये थे। लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वहशी पुजारी के चंगुल से उसे छुड़ा सके। पुजारी ने बच्चों से पूछा क्यों बच्चों सुरजू ने झाड़ से ककड़ी चुराई हमारी?

बच्चों ने एक स्वर में कहा कि सुरजू ककड़ी देख तो रहा था, पर चुराते हुए हमने नहीं देखा। पुजारी ने आवेश में आकर उसके बाल मुट्ठी में भींच लिये थे, देखा अब तो बच्चे भी गवाह हैं, तू तो हथनी केे लाल अब मुकर नहीं सकता बल। सुरजू अपने बाल छुड़ाने के निरर्थक कोशिश करता रहा था, उसकी नाक और आँखें साथ-साथ बह रही थीं। पुजारी चेतावनी देकर गया तो बच्चों के शोर-सुरजू छोरा चोर है, सुरजू छोरा चोर है" के बीच से जख्मी देह को समेट कर लड़खड़ाते हुए सुबक-सुबक कर नानी के पास पहुँचा, उसकी पीठ पर सोटी के निशान थे, कुर्ते के साथ चमड़ी भी छिल गयी थी। सुरजू को पुजारी के मारने से ज़्यादा बच्चों के चोर-चोर उच्चारने की पीड़ा सता रही थी।

नाऽ... नीऽ... वह भरभराकर नानी की गोद में गिर कर बुक्का फाड़कर रोने लगा था। उसकी देह पर कई खरोचे टीस रही थी, जब ख़ूब रो चुका तो सुबकते हुए बोला नानी संकरू नाना ने मारा मुझको...!

तिन क्या करी बल...? नानी की दिनचर्या में सर्दी-गर्मी दोनों की मौसम में टिन शेड के नीचे बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा कर शोक गीत का आलाप लगाना शामिल था। वह हुक्का पीते-पीते रोती, रोते-रोते हुक्का पीती उसकी आँखांे से निकले आँसू चेहरे की अनगिन झुर्रियों में ऐसे बिला जाते जैसे रेत में पानी, वह लय में गाने लगी थी। " हेऽ मेरा सन्तु देख धौं बल देबतौं का पुजारी भगबान तैं पिटणा छनाऽ-देख मेरा बाबा कनु कलयुग अैगे बल...! तू सब जणदू छै मेरा सन्तू तिन बोली छौ बाबा बच्चा होंदा न बल भगवान का रूप... (हे मेरे सन्तू देख तो ज़रा देवता के पुजारी भगवान को पीट रहे हैं।)

सुरजू ने झपटकर हुक्का खींच लिया था "नानी, मामा सच्ची में नागराजा हुआ बल?"

"हाँ बाबा" बूढ़ी ने हुक्का छीनकर गुड़गुड़ाना शुरू किया उसकी आँखें देख रही थी ज़मीन पर रेंगता हुआ नाग उसकी गरदन में लिपटने आ रहा था।

सुरजू की बालबुद्धि ने पहले तो विश्वास नहीं किया फिर उसे लगा नानी झूठ नहीं बोल सकती उसकी माँ भी तांबे के नाग पर धूप दिया करती है और मामा के हाथ का कड़ा भी वहीं रखा है उसकी आँखें चमक उठीं "...तो मामा देख रहा होेगा पुजारी को मेरी पीठ में सोटी मारते...?"

"हाँ बाबा" नानी धुंध के बीच थी... जवान बेटे को टी॰बी॰ निगल गई थी, तबसे वह विक्षिप्त-सी हो गई थी और उसने मृत बेटे के साथ एक अलग दुनिया इजाद कर ली थी।

सुरजू के मासूम चेहरे पर धूप की चिड़िया फुदकने लगी थी "तब मामा इस काणे पुजारी को ज़रूर काटेगा जब वह मुँह अन्धेरे पूजा लगाने जायेगा..." नानी पुजारी हमारे बगीचे के पेड़ों में मूतता है बल... पेड़ों पर तो पंछियों के घर होते हैं न नानी? इस काणे पुजारी को पाप चढ़ेगा... "सुरजू की आँखें फैलने लगी थीं नानी ने बुझते अंगारों में फूँक मारी थी-फूऽ... राख उड़कर उसकी आँख की किरकिरी बन गई थी आँखें भींचते भी वह खिलखिल हँस दिया था" ही-ही ही काणा पुजारी अब मरेगा तूऽ..."रात को मामा सपने में आ गया था" ककड़ी चाहिए थी भानजे? "मामा ने हाथ आगे किये थे एक झपनीली बेल लहराने लगी थी उस पर ढेर सारी हरी गुदबुदी छोटी-छोटी ककड़ियाँ झूलने लगी थी। सूरजू के मुँह में पानी आने लगा था उसने झपट कर तोड़ती चाही थी ककड़ियाँ... लेकिन वह ऊपर होती गई और आसमान में झूलने लगी थी। सुरजू चिल्लाने लगा था" मामाऽ... नीचे करो बेल कोऽ... मुझे ककड़ी खानी है मामा। "तो तुझे ककड़ी खानी है भान्जे। हाँ मामा बहुत भूख लगी है, मामा हंसने लगा था" ककड़ी तोड़ने के वास्ते हाथ लम्बे करने पड़ते हैं भान्जे...

सूरजू हाथों को लम्बा करते पांवो से उछाल मारने को हुआ था तो मामा गायब! सुरजू के होंठ बुदबुदा रहे थे " मामाऽ... मेरी ककड़ी...!

तभी माँ ने उसकी बन्द आँखों में पानी के छींटे मारे थे "अब ककड़ी का रोना बन्द भी कर दे सूरज... आज तुझे पाठशाला जाना है" पहली मर्तबा पवित्रा ने उसके उलझे रूखे बालों में कड़वे तेल की एक बूँद चुपड़ी थी और तबीयत से कंघी भी की थी, सुरजू के हाथ में पाटी और कमेड़े की दवात देकर दरांती से घिसी एक कच्ची भीमल की टहनी पकड़ाई थी "इससे लिखना पाटी में अक्षर"

सुरजू ने कोदो की रोटी का टुक्ड़ा निगलते हुए पूछा "इसकी क़लम तो बनी नहीं?"

पवित्रा ने लाड से एक मारी पीठ पर "अब तेरे मास्टर जी छिलेंगे" वह खिल-खिल हंसती हुई खूँटे पर बंधी बकरियांे की रस्सी खोलने लगीे थी। सुरजू ने पाटी उठाई और कमेड़े की दवात लेकर उतर गया था पहाड़ी। आज उसके पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। पाठशाला जाना गोया आसमान में चमकते सूरज को छूना था। गाँव के बच्चे पाठशाला जाते वह हसरत भरी आँखांे से उन्हें टोहता।

पहाड़ी पर फिसलन थी। चीड़ के पेड़ों के बीच से टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर वह मुदित मन से पहाड़ी उतर रहा था। पहाड़ी पर पिरूल के नीचे कहीं-कहीं पानी के डबरे बने हुये थे। उसने पिरूल के ऊपर पांव रखा तो फिसल गया और कुछ दूरी तक नीचे घिसटने लगा। एकाएक बच्चों का झुण्ड उसे देख कर हंसने लगा। अबे पहले ही दिन फिसल गया? हा-हा हू हू ही-ही अरे देखो तो सुरजू छोरा पाठशाला जाते हुए फिसल गया रे। अबे छोरे तेरे बाप ने भी कभी देखी थी पाठशाला? एक लड़का बोला तो दूसरा आगे आया-तेरे बस का नहीं है बेऽ कमेड़े के अक्षर लिखना... हा-हा ही ही"बच्चों का झुण्ड पहले से ही गुफा में छुपा था। जैसे ही उन्हंे पता लगा था कि सुरजू पाठशाला जा रहा है, उसकी माँ ने उसका नाम लिखा दिया है, तो उन्होंने पिरूल की पत्तियाँ इक्ट्ठा कर पानी के डबरे के ऊपर बिछा दी थी। सुरजू की निक्कर मिट्टी पानी से लथपथ व कमर की पीड़ा दबा कर पुस्ता पकड़ कर उठने लगा, तो बच्चे फिर चिढ़ाने लगे थे, तू तो छोरा पहले ही फिसल गया रेऽ...! कपड़े भी कीचड़ से भर गये। अब तो तू पाठशाला जा नहीं सकता। अबेऽ जा अब घर जाऽ..." तीसरा बच्चा उसके हाथी पांव को देख कर बोला जिनमें खरोंचे लगने से खून टपक रहा था। सुरजू ने पीड़ा घूँटते हुए कपड़ों पर लगी कीचड़ साफ़ की और बच्चों को ठंेगा दिखाता हुआ पहाड़ी उतर कर सबसे पहले पाठशाला के आंगन में पहुँच गया था। मास्टर जी ने उसका हुलिया देख कर उसे पूछा "तेरे घर में साबुन नहीं है बेऽ..." मास्टर जी ने कड़क आवाज़ में कहा और उस पर एक सोटी जमा दी, उन्हें लगा जैसे सुरजू चिड़िया घर से छूटा कोई जानवर हो, सुरजू सकपका गया। पीड़ा को जज्ब कर गया।

उसने सिर हिलाया "नहींऽ मास्टर जी बाबा साबुन लाता ही नहींऽ"

मास्टर जी ने उसके मैले कुरते पर सोंटी कोंची "चूल्हे में राख भी नहीं है बेऽ...?"

पीड़ा से बिलबिलाते कुत्ते की कूं-कूं जैसी आवाज़ निकली " राख तो बहुत है मास्टर जीऽ...

"चल भाऽग..." मास्टर जी ने उसे पाठशाला से भगा दिया। आँसुओं से तर चेहरा लेकर वह घर पहुँचा।

अगले दिन मास्टर का क्रोध चरम सीमा पर हुआ "तो हरामी अपनी मुटियार माँ से कपड़े क्यूं नहीं धुलाता?"

कपड़े क्या थे देह पर मोटा कुर्ता नीचे बड़ी मौसी के बेटे की उतरन फटा जांघिया!

"हेऽ हेऽ सुरजू छोरा पाठशाला जायेगा कि रोड़ी कूटेगा बे सड़क में? छाछ झंगोरा खायेगा रात को बल बिधाता ने तेरे माथे पर लिख दिया है रेऽ..." बच्चों ने फिर उसे चिढ़ाया था।

सूरजू ने लिखा अ आ सुरजू ने पढ़ा अ आ और ख़ूब हँसा घर आकर। सबके जैसे लिखा मैंने भी! "माँ पर चिल्लाया" मां! तू मेरे कपड़े रोज़ धोया कर राख से "उसने अपनी पीठ दिखाई थी छिली हुई पीठ, माँ पहुँच गई थी मास्टर जी को डांटने" गरीब गुरबा का बच्चा पाठशाला नहीं आ सकता? क्यों मास्टर जी? "हाथी पांवो को देखकर मास्टर के पसीने छूट गये सुरजू मास्टर जी की प्रताड़ना सहता हुआ तीसरी कक्षा में गया तो उसने लिखा" मैं सूरज हूँ सूरज चमकता है मैं भी चमकूँगा एक दिन..."दस वर्ष के सुरजू को सूरज पर निबन्ध लिखता देख मास्टर ने मारी सोटी मुलायम पीठ पर सड्ाक सड्ाक" क्यांे बेऽ... सूरज से तुलना करता है अपनी...?

"नहींऽ मास्टर जीऽ..." पीड़ा से छटपटाने लगा था, छोरा...

"फिर क्यों लिखा...? ऐसे ही... मन किया... मास्टर जीऽ..." सुरजू बिलखते हुए बोला था।

"बालों में जूं पड़ी है तेेरे गाँव में पानी नहीं है बेऽ...?"

सुरजू सुबकने लगा था कितना भी दबाये पीड़ा छलक उठती आँखों से "मास्टर जी मेरी माँ बहुत दूर से पानी लाती है"

बाबा ने बाल कटवा कर खल्वाट कर दी थी खोपड़ी! मास्टर जी को बैर बढ़ाना ही था "क्यों बेऽ तेरा बाप मर गया क्या...?"

सूरज को समझ नहीं आया कि मास्टर जी सिर्फ़ उसे ही क्यों यातना देते है दूसरे बच्चों में भी कुछ न कुछ कमी तो होती ही है, उसने बाबा से बोला था, बाबा ने छुड़ा दी थी पाठशाला और गाँव की नई नवेली बहू को घास काटते देख बोला था"देख... देख... यम ऐ बी.ए भी तो घास ही काटती हैं बल..." बाबा ने मारी थी उसकी खल्वाट खोपड़ी पर चपत और बिठा दिया था नामी टेलर के साथ-डिगरी धारी जनानी भी एैसा ही कारोबार करती दिखती हैं सिन्नगर में... तू किस खेत की मूली है बेऽ...? "

सुरजू ने हामी भरी। उसे किसी काम से गुरेज नहीं। मन लगा कर सीखने लगा था छोरा।

तो घूमते हुए समय के पहिये के साथ उदय होने लगा था सूरजू का सूरज..., उसे बाज़ार में उतरना था अपनी कला को लेकर इसके लिये पूंजी की ज़रूरत थी, माँ ने बकरियों की टोली बेचकर जुगाड़ किया और सुरजू बन गया "कजरी बुटीक" का मालिक।

गहरी साजिश! सुरजू का चेहरा जलता अंगारा जैसे हो गया।

कजरी, सुरजू के चेहरे पर आग देखकर बर्फ का फोहा रखती...

क्या खूब! कजरी ताड़ जैसे लम्बे हाथी पंाव वाले मर्द को अपनी काली हिरणी-सी सजल आँखों में बन्द करती है तो सुरजू काले भयावह बादलों से लड़ने की ताकत पा जाता है। कजरी कैसी पिघलती नजरों से देखती है उसे..., उसके भीतर का जमा लावा एकाएक पानी में तब्दील होकर बहने लगता है। गाँव वालों ने इस बेमेल जोड़ी पर भी घात लगानी शुरू कर दी "घिडुड़ी (गौरया) -सी छोरी और हाथी पांव का वज़न ही-ही ही हु-हु हु उम्र कुल सोलह वर्ष! आठवीं पास कजरी को निष्ठुर मां-बाप नगौले (कुंए) मंे फेंक कर गये! हाय रे विधाता! दया नी आई इनको!" जितने मुँह उतनी बातें पर मर्द की बच्ची ने किसी से भी तनातनी न की! संस्कारों की पली पुसी ग़रीबी की ओस में भीगी सीली यह लड़की नहीं न लगती! "गाँव वालों के ईष्र्यालु मनों पर सांप लोटते" बड़े भाग लेकर आया छोरा जो इस पृथ्वी पर ये छोरी पैदा हुई दूसरे लोग तो देहरी से ही धकिया रहे थे बाहर..., जाने कैसे संेध लगी-उस घर में...! "कजरी सोचती" देह का सुन्दर होना क्या मायने रखता है मन के आगे... ये लोग, सुरजू को क्या समझे, जिसका हृदय प्रेम की सरिता है। इसके आगे देह का कुरूप नज़र कहाँ आता है! "सुरजू का मन सभी के वास्ते प्रेम से छलछलाता रहा था, जो लेना नहीं जानता उसकी बदनसीबी, उसने तो सभी को दिया ही है, गाँव भर में बता दे कोई माई का लाल की सुरजू छोरा ने उनको कुछ नहीं दिया। देहरी दर देहरी खड़ा होकर बिजली का बिल समेट लाता छोरा और दस किलोमीटर पैदल दूर श्रीनगर जाकर जमा करता पावों में छाले पड़ जाते, नंगे पांव कांटे कंकड़ चुभते गर्मी हो या सर्दी बारिश की झड़ी हो तो भी दो कोदो की रोटी और कुछ प्याज के टुकड़े साफे पर बाँधे सुरजू की सेवा यात्रा शुरू होती तो अँधेरा होने पर ही गाँव की सीमा में पहुँचता छोरा! गाँव वालों ने कभी न सोचा कि छोरे के हाथ एक दो रूपये का नोट ही थमा दें कि जा रेऽ सूरजू हमारी ओर से पकौड़ी खा लेना" , जिस घर में राशन खतम् हुआ, आवाजें आतीं कभी दायें से कभी बायंे से कभी नीचे गाँव की नींव से... अकबका जाता छोरा-किसका काम पहले करे? सुरजू कहीं भी हो किसी भी दशा में उसे उस देहरी पर हाज़िर होना ही होता! गोया वह सिर झुका कर नहीं कहता "क्या हुक्म है मेरे आका? पर सहज हँसी के टुकड़े को उछालते पूछता" क्या-क्या लाना होगा लिस्ट बना कर देना मामी, "

मामी ने थैला पकड़ाया "नीचे से फट गया है भानजे अपनी माँ को बोलना मोटी सुई से सिल दे फटाफट" सिलवालो मामी जितना भी फटा पुराना हो पुरखों का भी..." सुरजू की उन्मुक्त हँसी बरकरार मस्ती में चला जा रहा छोराऽ

"अबेऽ ठीक से सिलाई करना कहीं चीनी चावल गिर गया तो..." मामा पीछे से घुड़की देता, सुरजू किसी भी बात का बुरा नहीं मानता उसे हक़ ही नहीं दिया, उसका स्वभाव ऐसा ही हुआ बचपन से अथवा मजबूरी उसकी, गरीब गुरबा का बेटा ध्याड़ी मजबूरी करने वाला बाप, नानी को सौ रूपये विधवा पेंशन मिलती, माँ लोगों के खेत में खटती तब ही चार बच्चों के पेट में अन्न के दाने पड़ते, पर तन पर चिथड़े ही रहते जब तक कि देश में रहने वाले सम्बन्धी अपने बच्चों की उतरन अहसान का लेबल लगाकर न दे देते।

गांव में बीमार हुआ कोई अचानक "कहाँ मर गया रे सुरजू छोराऽ...?" सुरजू लम्बी ताड़-सी टांगो से लपक कर पहाड़ी उतरता श्रीनगर से डाक्टर अथवा दवाई लाता। किसी का गैस अचानक समाप्त हो गया "लकडियाँ जलाने से धुँआ उठता है, हाथ काले होते हैं, बर्तन काले होते हैं। सुरजू के हाथ सिलेंडर पकड़ते उसके ऊपर आवाज़ बरसती" जाऽ छोरा... जल्दी लेकर आना खाना इधर ही खा लेना पेट की चिन्ता नी करना। "

गरमी की दोपहर डुटियाल-सा सुरजू पसीने से नहाया पीठ में ढोकर गैस सिलेंडर लाता। "स्त्री चमकती आँखों से देखती" खाना लगा दूँ सूरज? "अंतड़ियों में भूख कुलबुला रही होती। सेर भर भात पलक झपकते ही चट कर जाता छोरा! हैरत से स्त्री की आँखे फटी रह जाती... डेगची खाली होने पर खीझ उमड़ती सोचती परिवार के लिये खाना कम पड़ेगा तो दुबारा बनाना पड़ेगा" सेर भर भात खाकर भी पेट नी भरा छोराऽ...? थाली चाट रहा है, इसका मतलब अभी और चाहिए। करछुल से डेगची को ठनठन बजाकर थोड़ा और देने का प्रयत्न करती हुई मजदूरी से तौलती भात, सुरजू की आँखों के आगे बीस रूपये का कड़क नोट फड़फड़ाता माँ ने कहा था मजदूरी मिलेगी तो चाय पत्ती गुड़ ले आना, वह बुझे मन से घर जाता माँ की हथेली फैली देख किनारे से खिसक जाता, पवित्रा को उसकी आवाज़ सुनाई देती"मैंने भात खा लिया था, माँ" पवित्रा संतुष्ट हो जाती कम से कम प्रन्दह-बीस दिनों के अन्तराल पर भात तो मिला! उसका मन भी भरने लगता पवित्रा सोचती मेरे सूरज को... सुरजू न होता तो गाँव वाले क्या करते हँसी ठिठोली में कुछ शब्द गाँव वालों के मुँह पर मार भी देती "अरेऽ पत्थर दिल वालों! मेरे सूरज का अहसान नहीं मानते! इससे अच्छा होता वह अपने पिता के गाँव ही रहता," सबसे बेख़बर सुरजू किसी का खेत जोतने के लिये हल बैल लेकर निकल पड़ता वह खेतों में...

बैलों को वह कुछ देर हरी घार चरने देता। सुरजू का पेट भले ही खाली हो पर वह बैलांे का पेट खाली नहीं रख सकता। इसीलिए वह बैलांे के द्वारा घास की चारी को भी जायज मानता। शाम को गाँव में सुरजू और उसके बैलों पर बुरी-बुरी गालियों की बरसात होती, तो भी सुरजू मंद-मंद मुस्कराता-बेचारे अबोध पशु। इन्हें क्या पता तेरा-मेरा... "गाली देने वाली चिढ़ कर कहती-तू तो अबोध नहीं है छोरा। हमारी घास वापस कर दे बस" सुरजू सहज भाव से कहता ठीक है "नानी मैं तुम्हारे गोठ में दो पूली घास डाल दूँगा। अब तो शान्त हो जाओ।" वह मस्त व्यस्त रहता। गोया एक यही भोग रहा हो, जीवन का सम्पूर्ण ऐश्वर्य। बासी खाना खाते टूटी घाट पर फटे बिछौने में गहरी नींद लेता छोरा। लोग देख-देख कर कुड़ते, जिनकी ज़िन्दगी में भरपूर होते हुए भी तमाम तरह के अभाव कुकुरमुत्ते से आये दिन उगते रहते। सुरजू को कोई रंजो ग़म नहीं ज़िन्दगी जैसी भी मिली, उसे सहज रूप से स्वीकार्य है। एक सुबह वह हल लगा रहा था। उसे भूख लगी तो किनारे बैठ कर साफा खोलने लगा था। दो मोटी कोदो की रोटी और टिमाटर धनिया कि चटनी की मूँह अंधेरे ही बना कर रख दी थी। उसने एक कौर तोड़ कर मूँह में रखा ही था कि ऊपर से आवाज़ बम गोले-सी उसके ऊपर गिरी-सुरजू रेऽ पिसान खतम हो गया भाँजे घटवार ले जाने पड़ेने गेंहूँ, जलदी ऊपर आ जा भाँजे... " उसके गले में रोटी का टुकड़ा फंस गया था-ज़ालिम औरत! एक तो कलेवा नहीं दिया ऊपर से चार कोस दूर भेज रही है थूऽ...! उसने खंखार कर थूका गोया स्त्री के मूँह पर। फिर उसे याद आया कि अपने घर में भी कई दिन से आटा नहीं है। माँ ने कहा था कभी भी किसी काम को न मत कहना सूरज। उसने चार-पांच किलो आटा मिलने की उम्मीद में बैलांे का जुआ खोला और हल कंधे पर रख पुश्ते फलांग्ते हुए पहुँच गया। गेंहूँ की बोरी उसकी राह देख रही थी। चमकती धूप में पसीना-पसीना होते हुए भी पीठ में बोरी बाँध कर उतर पड़ा था नदी की ओर। पवित्रा सोचती सुरजू न होता तो गाँव वाले क्या करते। कोई उसके लाल का अहसान नहीं मानता। पत्थर दिल वाले गाँव के लोग, अच्छा होता सुरजू अपने गाँव ही रहता।

देश से आने वाले सैलानियों के लिए वह एक ईमानदार कुली होता। शहरी बासिंदे नई चमचमाती कारों में आते या कोई खतारा कार को घिसटते हुए वे सब अपनी रईसगिरी की अकड़ में उसे पूछते-क्या बे सुरजू? कुछ पियेगा-कोका कोला, लिम्का, फैन्टा-पर्स खोलकर कड़कड़ाते नोट दुकानदार को पकड़ाते और ठण्डी बोतलों को झपटते हुए अपने प्यासे गले को तर करते। बाद में उसकी सुध ली जाती। स्त्रियाँ कहती-पीले ले छोरा गला सूख गया होगा तेरा। वह असमंजस में होता। उसके लिए पहाड़ी के भीतर हुआ ठंडा मीठा अमृत तुल्य जल स्रोत ही पर्याप्त ठहरा। वह मन ही मन हंसता-तुम्हारी प्यास तो कभी न बुझनी हुई। भूल गये अपने दिन पत्थर तोड़कर, हल लगाकर, गोबर ढो कर, भेड़-बकरियाँ चरा कर, ककड़ी, फूट, आम, नारंगी की चोरी कर अपने को समझ रहे हैं अपने को समझ रहे हो टाटा, बिरला कि औलाद। जब देखो सुरजू छोरा तुम्हारा पायदान हो गया बल? उसका मन बुझने को होता फिर अगले ही क्षण वह ऊपर देखता, सूरज नीले आसमान में लाल अंगारा-सा चमक रहा होता-कभी तो अपने भी दिन आयंेगे...' कभी उसके थोड़ा देर से पहुँचने पर दूसरे घुडै़त की पीठ पर सामान बाँध लेते तो वह मनुहार करने लगता-हे भैजी... तुम भी न अपने सुरजू छोरे के पेट पर लात मार रहे हो। वह खिल-खिल हंसता, उसके साथ सारा बाज़ार हंसता, पेड़ हंसते, पहाड़ हंसता, हंसते-हंसते वह धीरे से घुड़ैत को घुड़क्ता-जा बे आगे जा... अपने गाँव का बोझा तो मैं ही ढोऊंगा। वह चार-पांच नग गुब्बारे की तरह उठा कर पहाड़ी चढ़ने लगता। जब तक शहरी टीम अपनी स्त्री बच्चों को ठण्डा-गरम नाशता कराते, सुरजू इन्हीं हाथी पांवों से आधा सामान ऊपर पहुँचा देता। उसे अपने हाथी पांव कभी बोझ नहीं लगे। कभी तनिक-सी देर होने पर कोई उसे टोकता। अबे सुरजू तू तो नवाबी ठसक के साथ आ रहा है... यहाँ हमारे बच्चे भूख और थकान से बेहाल हुए जा रहे हैं"सूरजू टुकुर-टुकुर ताकता, पर उसके होठों पर चुप्पी रहती और भीतर से वह मुखर रहता-इतनी ही जल्दी है तो, इनकी औरतें अपना बोझ ख़ुद क्यों नहीं ढोती? इन सहाबों की औरतों के लिए पहाड़ी ऐवरेस्ट की चोटी बन जाती है। बड़ी आई मेम साहब! भूल गई उन दिनांे को जब दूसरे गाँव से घास लकड़ी चोरी से काटकर सिर पर पहाड़-सा बोझा ढोकर लाती थी। एक ठहरा सुरजू छोरा फोकट का..." सुरजू के भीतर राख में दबी चिंगारी जलने लगती। सुरजू तो इनका तबेला हो गया बल, जब चाहा बजाने लगे। विचारांे की आँधी इतनी तेजी से आती कि सुरजू का कूली उड़ने लगता और उड़ते-उड़ते गायब हो जाता। अब सिर्फ़ सूरज होता अग्नि पिण्ड-सा धधकता वह इन्हीं साहबों के बरक्स रूबरू होता। उसके पास चमचमाती गाड़ी होती। उसकी आँखों पर धूप का चश्मा होता और होठों पर सिगरेट। वह पर्स खोलकर कड़कड़े नोट उछालता किसी को गरियाता, किसी का मज़ाक उड़ाता, लोग याचना भरी दृष्टि से उसके पास आते, वह और अकड़ने लगता। वह सिर्फ़ सूरज होता, जिसकी चमक से लोगों के पसीने छूटने लगते। प्रश्न अनेक, उत्तर एक-कल्पना करने में क्या जाता है बे सुरजू... सांप की तरह एक दिन उसे भी अपनी कंेचुल छोड़ देनी है... जाने कहाँ से विचार आते और उसे मस्त कर देते।

'अब लगी है उनके चोट कलेजा पर...' सुरजू इस वाक्य को दिमाग़ के रेशे-रेशे में भर लेता है, उन्मुक्त हँसी उसके होंठों से झरती है, इस वक़्त कोई नाप सकता सुरजू को औरा (प्रभामंडल) तो विस्मय से भरकर कहता "एं्! इतना पावरफुल! कौन-सी बूटी मिली बेऽ सुरजू छोरा?"

पुजारी का आना भी हुआ इसी वक्त, सौदा लेने खादी का झोला लटकाये निकल रहे थे, सुरजू के आंगन की दीवार से होकर निकलता है रास्ता तो सुरजू के घर के क्रिया कलाप सभी को दिखते, सुरजू को इस प्रभामंडल में देखकर ईष्र्या वश पुजारी ने कुटिल चाल चल कर सुरजू को फँसा दिया था "एक बार काल कोठरी की ख़िद्मत से पेट नहीं भरा न...?" दो साल पहले का दृश्य धुंध के बीच से उगने लगा... पुजारी के चेहरे पर एक और चेहरा लगा है जो बाहर वाले को अपना कुरूप दिखने नहीं देता, उस समय एक पूरी रात उन्हें नींद नहीं आई बार-बार करवट बदलते और सिटकनी खोलकर बाहर बरामदे में खड़े रहते उनकी दृष्टि सामने पड़नी हुई ऊँचे टीले पर सुरजू का मिनी बंगला ठहरा, जिसके आगे चमकता सौ वाट की रोशनी में एक नया नाम "सूरज प्रकाश" पुजारी की आँखें चुंधियाने लगी छाती के बीच काले बादलों की कड़कड़ाहट "शालेऽ... पैंतीस वर्ष देश की राजधानी में गजिटेड होने के बावजूद गाँव में ऐसा घर नहीं बना पायेऽ ये हाथी पांव वाला दर्जी इसकी औकात तो देखोऽ..." सांप लोटने लगा सीने पर"क्या किया जाय... कि रूखसत हो गाँव से..." सोचते हुए बिस्तर पर लेटे तो पत्नी ने पूछा "मूत्र रोग लगा गया क्या... कितनी दफा बाहर निकलते होऽ" ? उन्हें लगा चोरी न पकड़ी गई हो उस विचार की जो अभी आँख खोलने ही वाला था..., पसीना छलछलाने लगा माथे पर" नहींऽ...नहींऽ कोई रोग वोग नहींऽ तुझे तो सपना दिखता है... अरेऽ मेरी प्यारी बुलबुल अपने प्रिय के लिए अशुभ न सोचाकर... भली औरत...! वे दृश्य में खो गये-बीच खोले के तीनों बन्द घर के ताले टूटे गाँव की नींद में खट्-खट् खटाक आधी रात को छोरे के बूटों की ठ्क-ठ्क लोगों की नींद में हुई, आज तो आया ही नहीं घर बेचारा...! सूत्रों से पता किये थे। दिन में धुर दोपहर छोरा पसीने से छल बलाया पीपल की छाँह में खड़ा हुआ क्षण भर...! बैठ कर देखने लगा प्रकृति का नजारा-पहाड़ी के नीचे झरना बह रहा उसके आस पास पेड़ों के झुरमुट चिड़ियों के उडते झुण्ड और झरने पर पानी भरती पनिहारिने उसकी थकान मिट गई रात आठ बजे तक बैठा रहता था पीठ थी बाज़ार की तरफ़ पीछे खड़ी पुलिस! बेख़बर रहा छोरा जो सपने में भी नहीं सोचा...

"पीठ पर डन्डे की कोंच" तेरा नाम सुरजु है बेऽ...

"नहीं साब..." पल भर अकबका गया था छोरा यह सच है कि सपना? आँखें मली पुलिस इंस्पेक्टर ही था कड़क खाकी वर्दी काली घनी रौबदार मूछे मँुह से आती कच्ची दारू की गन्ध... "तो तेरा नाम क्या है बेऽ...?"

"सूरज प्रकाश शाब..."

"ओह! नाम सूरज और काम चोरी!" क्यों बेऽ...? "

चोरीऽ..., न...हींऽ शाब मैंने कोई चोरी नहीं की शाब... मैं तो आँख खुलते ही पहाड़ी लांघ यहाँ आ जाता हूँ। सुबह-सवेरे... हाँ शाब, पूछ लो शाब सब्बी दुकानदारों से पूछ लो शाब..."उसकी पनियाली आँखें एक-एक चेहरे पर अपना सुरक्षा कवच बनाने को टिकी सबने कहा सुरजू चोरी नहीं करता पुलिस शाब..." भीड़ पुलिस से याचना करने लगी थी, "सूरजू चोरी कर ही नहीं सकता..." सुरजू के इर्द-गिर्द भीड़ बढ़ने लगी थी...

"तेरे बाप का नाम क्या है बेऽ" इंस्पेक्टर डन्डे को ज़मीन पर कोंचने लगा था।

"शिबू सिंह रावत है जीऽ"

तो तूने ही गहने और बर्तन चुराये अपने गाँव मंे! तेरे खिलाफ रपट लिखाई गई है।

सनाका खा गया छोरा...

किसने रपट लिखाई और क्यूँ...? उसके आगे देश से आये हुए रसूखदार चेहरे नाचने लगे... फिर एकाएक समय का क्षण कौंध गया उसकी मासूम गालों पर पुजारी शंकराचार्य का थप्पड़...!

वह जब तक संभलता इंस्पेक्टर और दो सिपाही बीच बाज़ार में उसे हथकड़ी लगाकर जीप मंे बिठा कर ले जाने लगे वह "नहीं शाब मैंने कोई चोरी नहीं कीऽ..." रिरियाने लगा था।

"...तो तेरे बाप ने की होगीऽ...?" इंस्पेक्टर ने डन्डा हवा में लहराया अगर ज़्यादा बोला तोऽ... फिर भी न डरा छोरा" शाब सब जानते गरीब गुरबा है अपने पसीने की खाई है मैंने... अगर मैंने कभी कहीं हराम की खाई होती तो मूत पिया होगा शाब... सब जानते हैं शाब... सबऽ... सबऽ... वह रिरिया कर बाज़ार की भीड़ को देख याचना कर रहा था, कोई तो बचाये उसे...

शाम को कोहराम मच गया था घर में... लोग आये झूठी संवेदना लेकर... विलखती गृहस्थी को देखा " च्च ...चच बुरा हुआ बहुत बुरा हुआ रेऽ छोराऽ सुरजूऽ ...

पवित्रा छाती फटकराने लगी थी कजरी पूजा घर में कुल देवता को ललकारने लगी " गरीब...गुरबा को धरती पर रहने का हक़ नहींऽ... देवता... तूने ज़िन्दगी दी थी हमें...इससे अच्छा तो कीड़े मकौड़ों में होती हमारी जान... कैसा अनर्थ है देव... तेरी तोऽ... आँखें है न... बाक़ी तो काणे (अन्धे) हैं बल...

सास-बहू का बिलखना और बिलख-बिलख कर देवता को पुकारना... स्त्रियाँ डर गई "कहीं घात लग गई तोऽ... कोई न बचेगाऽ... कई परिवार नष्ट हो जायेंगे"

नरसिंह देवता के थान पर जायेगी कजरी... उसकी घात प्राण लेती है बल सीधे...!

सास-बहू को बिलखते देख कर उन्हें अपने भीतर ख़ुशी महसूस हुई... , वे चालक लोमड़ी-सी "कुछ नहींऽ होगा... पवित्रा..., कुछ नहीं होगा कजरी... सब ठीक हो जायेगा... तुम धैर्य रखो... छूट जायेगा छोरा कोरट कचहरी भगवान दुश्मन को भी न दिखाये..." दो चार शब्दों से सहानुभूति की बौछार करती ज़हर की काटी हुई-सी दहशत की छाया मंे लिपटी अपने घर की ओर भागी "देवता को पुकारना यानी विध्वंस..."

तुरन्त फ़ोन मिलाया " थानेदार साहब छोरे को छोड़ दोऽ... आपका हिस्सा पहुँच जायेगा...

थानेदार ने अट्हास लगाया।

तुरन्त काल कोठरी का ताला खोला " जा बेऽ... उन्हांेने वापस ले लिया मुकदमा... भले लोग हैं तेरेे परिवार को देखकर दया आ गई उनको...

सुरजू जानता था ऐसा ही कुछ होगा "सांच को आंच क्या...?"

वह खड़ा रहा देखता रहा शून्य में कोई ख़ुशी की लहर उसके चेहरे पर नहीं उछली...

इंस्पैक्टर ने उसे घूर कर देखा "अबेऽ... काल कोठरी में ही रहने का इरादा है क्या...? चल निकल बाहर..."

सुरजू पत्थर-सा अविचल " मैं कैसे जाऊँ शाऽब... जिन्होंने मुझे यहाँ पहुँचाया... जिन्होंने चोर बनाया मुझको, जब तक आकर वे माफी न मांगें मैं तो जाऊँगा ही नहींऽ शाब...

थानेदार को काटो ते खून नहींऽ

... और गाँव में औरतों की आँखों में बैठी दहशत " कहीं नरसिंह की घात लग गई तो...? बड़ा खतरनाम देवता होता है नरसिंह...!

अगले दिन पुजारी और रसूख वाले तीन आदमी थाने में हाज़िर "गलती में हो गया छोराऽ चोरी तो मजदूरों ने की थी शक कर बैठे तुझ पर... चल घर चल अब..." उनकी आवाज़ अब पिघलने लगी थी"

सुरजू अचकचा कर उनकी आँखों में एक टक देखने लगा-चोरों का भी कोई घर होता है ठाकुरों? " मेरा घर कहाँ...? मैं चोर... जेल में ही सडुँगा... सुरजू की आँखें अंगारे-सी लाल हो गई... सुरजू फट पड़ा फिर एकाएक बुक्का फाड़ कर रोने लगा इतनी मार्मिक रूलाई कि चुप कराते नहीं बना। इतनी मार्मिक रूलाई कि पहाड़ भी पिघल जाये।

"तू चोर नहीं है सुरजू... गलतफहमी हो गई थी भानजे। हम भी देवता नहीं हैं यार... गलती भी इंसान से ही होती है भानजे... ! अब बैठ गाड़ी में..." प्यार से पुचकार से ज़हर भरी मिठास उगलते उसे लाये थे... फिर बाज़ार में लोगों का डर भी था सभी थे सुरजू की तरफ...

पुजारी को देवता का डर तो नहीं लेकिन सुरजू के साथ खड़े लागों की आँखों का डर था। कैसे घृणा भरी नजरों से देख रहे थे सब... नये पुजारी के चेहरे पर एक और चेहरा जो बाहर वाले को अपना कुरूप देखने नहीं देता... बाहर वाला ठण्डी उग्रता के साथ शब्दों को इस तरह मारता है गोया गोली लगे और आवाज़ भी न हो...! चारों ओर सन्नाटा छाने लगे उस सन्नाटे में भीतर ही पीड़ा से तड़फता रहे आदमी पर विरोध में होंठों से स्वर भी न निकले, इस चेहरे की दो रहस्यमयी आँखें खाली समय में लेनिन, जिन्ना, गाँधी, लोहिया को पीती रहती हैं। फिलवक्त मनमोहन को पी रही हैं-सबसे मारक हथियार चुप्पी है दोस्तों... " भूले भटके एक वाक्य जो भी कह देंगे पत्थर की लकीर! सरकार की कुर्सी पर वर्षों रहे चपरासी से एक-एक सीढ़ी चढ़कर गजिटेड हुए, शहर में मौज मस्ती से जीवनयापन किया गो कि ज़िन्दगी इनके इशारों पर नाचती रही, जैसा चाहा समय और परस्थितियों को मोड़ा और अब सरकारी सेवा से निवृत गांवों की सेवा कर रहे हैं। गाँव के भीतर फुससुसाते एक-एक उदार विचार पर खरगोश जैसे कान खड़े रखते हैं... इस तरह सब कुछ अपने हित में करते हैं और सबकी नजरों में भले बने रहने का स्वांग करते हैं।

सुरजू की आँखें पुजारी पर रेंग रही हैं उसके मोटे होठों के भीतर रहस्यमयी मुस्कान फूटती है "मेरे पांव? इन्हें आकाश में तो टिका नहंी सकता..., टिकेंगे तो इसी ज़मीन पर... इसे तो तुम भी समझते हो न शकुनि मामा... कितनी टेढ़ी चाल चलो..." उसने मारा हाथ टिन के बक्से पर..., पूरा घर थरथराने लगा, रसोई में भात का मांड निकालती कजरी के हाथ से पतीला छूट गया लहरा कर आई सुरजू के चेहरे का ताप देखा और पवित्रा पर बरसने लगी "...बोला था सासू माँ बोला था न तुमको... मत करो इनसे कोई रंजिश की बात..."

पवित्रा के भीतर भय रेंगने लगा उसने बेटे के चेहरे को देखा लगा ज्वालामुखी फटने के कगार पर आ गया है!

कभी मास्टर का चेहरा उसे डराता कभी पुराने पुजारी का तो कभी नये पुजारी का चेहरा गड्मड़ होने लगा है...

दृश्य परत दर परत उसकी आँखों के आगे झमकने लगे हैं...

आस-पास के गांवों से महिलाओं का जमघट सुरजू की दुकान मंे लगने लगा तो उसने पांच कारीगर रख लिये! उसके रेडीमेट महिला वस्त्रों की खपत समूचे पहाड़ मंे होने लगी तो उसे शहरों से भी आर्डर मिलने लगे! तो सुरजू से धियाड़ी मजदूर, सब्जी वाले, छोटे दुकानदार ब्याज पर पैंसा उठाने लगे...! उन्हीं दिनों मैदानों से पहाड़ों में बसावट करने के लिये लोगों में ज़मीन खरीदने की होड़-सी लग गई... ! अब पहाड़ गंगा जमुनी संस्कृति का परिचायक होने लगा था। इस परिवर्तनकारी समय में अचानक सुरजू की आँख जमादार भोलूराम और उसकी सुअर टोली पर पड़ी...! जिसकी मुखिया सुअरी अपने नन्हे-नन्हे दर्जन भर बच्चों के साथ बाज़ार की तमाम कीचड़ को बहा कर ले जाने वाले नाले मंे छप्-छप् छपाक का खेल खेलने में मस्त थी। सुरजू की चेतना में एकाएक बिजली की कौंध उठी! गोया ज़िन्दगी में पहली मर्तबा उसने इतना खूबसूरत दृश्य देखा! जैसे विवेकानन्द को आत्मसाक्षात्कार हुआ था... सुरजू के ज्ञान चक्षु भी कुछ इसी तरह खुलने लगे...! उसके अविकसित गंवार मानस में उथल-पुथल शुरू होने लगी...! थोड़ी देर लगी जब उसका 'मैं' केन्द्र में अभीभूत हुआ...!

एक सप्ताह बाद गाँव ने आँखें फाड़ते हुए सुरजू और मुसियाये चेहरे वाली सूखी छोटी-छोटी आँखों में पानीदार चमक लिये लम्बे ठूँठ पेड़ से, जमांदार भोलूराम को गुफ़्तगू करते देखा..., नानी की तमाम पनियारी एवं रौखड़ ज़मीन के काग़ज़ सुरजू के हाथों से लेते हुए श्री भोलूराम के हाथों में फड़फड़ा रहे थे...!

सुरजू की आँखों मंे बिम्ब बनने लगा है "कीचड़ से भरी गुलाबी मुलायम थूथनी लिये सुअरी के मासूम बच्चे अपनी माँ के साथ राह चलते हुए भ्रमवश किसी आंगन, खुले दरवाजों से होते हुए रसगन्ध चुआते पानी के बर्तनों, अनाज के कनस्तरों, धुले बर्तनों, कपड़ों में मुँह मारते अचानक घुसे...! कोई हाथ बबराकर (हड़बड़ा) डन्डा खोजते टेढ़े होते चेहरे आँखें कपाल पर चढ़ाये आधे-अधूरे गलीच शब्द हवा में फेंकते-निहोण्या रेऽ... सुरजू छोरा... आक्... आक् थूऽ... आक् थूऽ... उबकाई लेते बदहवाश एक-दूसरे को धाद मारते..." राम-राम पूरा घर अशुद्ध कर दिया! सत्यानाशी रेऽ... सुरजू छोरा... घाट पर लगे तेरी तजबीज... कभी, कहीं तो मिलेगा तूऽ...? गंगा जल छिड़कते हाथ-खाना पीना हराम कर दिया, रे छोेराऽ...

हिवाली कांठी से आती ताजी हवा को चींधती उनकी खरखरी आवाजें-एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था... हाऽ... हाऽ... हाऽ... रात को नींद में सपना... सपने में गुलाबी थूथन घुर्रऽ... घुर्रऽ... हाऽ... हाऽ... हाऽ...

गांव वालों को लगा था उसके साथ ठट्टा (मजाक) कर रहा है छोरा..., फिर भी शंका के बूते पर पकड़ लिया-"क्यांे बेऽ... भोलूराम...! हमारे पड़ोसी बनने का भी सपना देखने लगा है तूऽ...?"

भोलूराम ने भी आग उगलती आँखों के बरक्स अपनी पानीदार आँखें टिका दी थी-इतने कम दाम में इतनी सारी जमीन! कौन छोड़ेगा ठाकुरों? ... क़िस्मत सबको एक बार ही मौका देती है..." गाँव के हैरत भरे चेहरे पर गोया झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा हो...!

चलीस मवासांे (परिवार) के अनगिन चेहरों को सीधी आँख से टक्कर देता भोलु जमांदार...! " खौलने लगे सब चूल्हे की जलती आँच में रखी डेगची के उबलते पानी में जैसे आलू...!

...तो सुरजू भीगी आवाजों से रू-ब-रू होते एक ही वाक्य दोहरा रहा है-मेरा जो डिसीजन ठहरा-अब तो बदलने से रहा... ठठाकर कर हँसने लगा है छोरा... जब तक वे सब उसकी आँख की परिधि से गायब न हुए! हँसता ही रहा छोरा... हाऽ-हाऽ हाऽ हाऽ...