सूक्तियाँ / भीमराव आम्बेडकर

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एक महान आदमी एक प्रतिष्ठित आदमी से इस तरह से अलग होता है कि वह समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है।

बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।

अगर तिलक का जन्म अस्पृश्यों के बीच हुआ होता, तो उन्होंने यह नारा नहीं लगाया होता - "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है," बल्कि उनका नारा यह होता, "अस्पृश्यता का खात्मा मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।"

हर व्यक्ति जो मिल के इस सिद्धांत को दुहराता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन नहीं कर सकता, उसे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन नहीं कर सकता।

सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना पर्याप्त नहीं है। जिसकी आवश्यकता है, वह है न्याय एवं राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था।

इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो।

मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता , समानता और भाई -चारा सिखाए।

मैं किसी समुदाय की प्रगति इससे मापता हूँ कि महिलाओं ने कितनी प्रगति हासिल की है।

हिंदू धर्म में विवेक, तर्क और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।

आज भारतीय दो अलग -अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हो रहे हैं । उनके राजनीतिक आदर्श, जो संविधान की प्रस्तावना में इंगित हैं, वे स्वतंत्रता , समानता और भाई -चारे को स्थापित करते हैं और उनके धर्म में समाहित सामाजिक आदर्श इससे इनकार करते हैं।

लोगों और उनके धर्मों को सामाजिक मानकों द्वारा, सामजिक नैतिकता के आधार पर परखा जाना चाहिए। अगर धर्म को लोगों के भले के लिए आवश्यक मान लिया जाएगा तो किसी और मानक का मतलब नहीं होगा।

जीवन लम्बा होने के बजाय महान होना चाहिए।

मनुष्य नश्वर है। उसी तरह विचार भी नश्वर है। प्रत्येक विचार को प्रचार -प्रसार की जरूरत होती है, जैसे कि किसी पौधे को पानी की। नहीं तो दोनों मुरझा कर मर जाते हैं।

राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज को खारिज कर देता है वह सरकार को खारिज कर देने वाले राजनीतिज्ञ से कहीं अधिक साहसी है।

जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है, वह आपके किसी काम की नहीं है।

यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मों के शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।

सागर में मिलकर अपनी पहचान खो देने वाली पानी की एक बूँद के विपरीत, इंसान जिस समाज में रहता है वहाँ अपनी पहचान नहीं खोता । इंसान का जीवन स्वतंत्र है । वह सिर्फ समाज के विकास के लिए पैदा नहीं हुआ है , बल्कि स्वयं के विकास के लिए पैदा हुआ है।

राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं कर सकती, उनका उद्धार तो समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है।

अगर आपको सफलता चाहिए, तो आपको अपनी दृष्टि को संकीर्ण करना होगा।