सूखती नदी . . . आज की सदी / कुँवर दिनेश

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है–इस विषय में कोई संशय नहीं है, किन्तु सामाजिक होने के साथ-साथ मनुष्य बहुत कुछ वैयक्तिक भी है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य अपनी वैयक्तिकता में भी अत्यधिक रहस्यमयी है। नि: सन्देह परस्पर अन्तर्निर्भरता के कारणवश प्रत्येक मनुष्य को सामाजिकता का निर्वहन अनिवार्यत: करना पड़ता है, किन्तु आचार-व्यवहार में, सोच में, विचार में, वैयक्तिकता, कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में सन्निहित रहती ही है। अत एव सामाजिकता और वैयक्तिकता के मध्य एक समन्व्य के धरातल की खोज व अपेक्षा हमेशा अनुभव की जाती है। इसी खोज व अपेक्षा की पूर्ति के लिए जीवन मूल्यों का निर्धारण किया जाता है जो जीवन, समाज एवं व्यक्ति को उचित दिशा प्रदान कर सकें। अस्तु, व्यष्टि और समष्टि में सामंजस्य बिठाने के लिए जीवन-मूल्यों का युगानुरूप / समीचीन होना भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

आज का युग यान्त्रिक युग है, जिस कारण जीवन में यान्त्रिकता अत्यधिक प्रभावी हो गयी है। इसमें जीवन-शैली तो प्रभावित हुई ही है, साथ ही जीवन-मूल्यों में भी भारी परिवर्तन हुआ है। आज के साइबर युग में रूढ़िवादी मूल्यों को साथ लेकर चलना भी वर्तमान समाज से व्यक्ति को विलग कर सकता है, लेकिन जटिल विषय यह है कि पुरानी मान्यताओं, धारणाओं, विश्वासों एवं विचारों का सर्वथा परित्याग कर देने से भी अस्तित्व एवं अस्मिता में बिखराव आ सकता है। अतएव प्राचीन तथा अर्वाचीन के मध्य समन्वय बिठाते हुए जीवन को सफलतापूर्वक, प्रसन्नतापूर्वक व शान्तिपूर्वक ढंग से जीने के निमित्त जीवन-मूल्यों में तद्वत् परिणति लाना अपेक्षित लगता है।

जीवन-मूल्यों पर चर्चा से पूर्व यह आवश्यक है कि 'जीवन-मूल्य' को परिभाषित कर लिया जाए. 'जीवन-मूल्य' वह विश्वास अथवा धारणा है जिससे जीवन को जीने की दिशा मिले; जिससे जीवन-यापन की विविध समस्याओं का निराकरण हो सके; जिससे अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकें तथा जिससे निज-जीवन को आगामी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बनाया जा सके. जीवन में जिन आदर्शों / सिद्धांतों की बात की जाती है, जो प्राय: अव्यवहार्य प्रतीत होते हैं, उनको व्यावहारिकता में अपनाने में हमारे जीवन-मूल्य ही सहायता करते हैं। अत: जीवन-मूल्य बेहद मूल्यवान् हैं और इनका व्यक्ति के जीवन में होना नितान्त आवश्यक है। प्रश्न यह भी उठता है कि ये जीवन-मूल्य कहाँ मिलते हैं; इस विषय में हमारे पूर्वज, महान् आत्माएँ, महान् कवि, महान् नेता, महान् ऐतिहासिक व्यक्तित्व ही जीवन-मूल्यों के अमूल्य स्रोत होते हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, इत्यादि ना जाने विश्वभर में कितनी ही महान् युगंकर आत्माएँ हुई हैं, जिन्होंने जीने की राह दिखाई है। कवियों की सारगर्भित सर्जना में भी युगीन जीवन के मूल्य सन्निहित रहते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

हिन्दी साहित्य की बात करें तो इस विषय में साक्षात् प्रमाण मिलते हैं कि भक्तिकालीन कवियों ने भटकते समाज को नये जीवन-मूल्य प्रदान कर एक नयी दिशा दी और गुलाम भारत में राष्ट्रवादी कवियों ने स्वदेश के प्रति प्रेम व सम्मान की भावना जगाकर एक नवल क्रान्ति का सूत्रपात किया। यही नहीं जीवन की छोटी-छोटी बातों / समस्याओं में भी कवि समाज का मार्गदर्शन करते हैं–ऐसा उनकी रचनाओं से स्वत: होता रहता है; कदाचित् किसी पूर्व-नियोजित प्रयासवश नहीं होता।

समकालीन हिन्दी कविता में भी जीवन-मूल्यों की सरिता सतत प्रवाहशील है; आवश्यकता है उसके घाटों पर जाकर उसमें से अँजुलि भर लाने की। पैठ लगाने वाले को इस नदी की धारा में बहुत से हाइकु-रत्न मिलेंगे, जिनमें हाइकुकार-कवियों के जीवनानुभवों की द्युति विद्यमान है। डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. सुधा गुप्ता, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. नीलमेन्दु सागर, डॉ. नलिनीकांत, कमलेश भट्ट 'कमल' , डॉ. भावना कुँअर, डॉ. हरदीप कौर सन्धु, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, कमला निखुर्पा, डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, ज्योत्स्ना प्रदीप, कुमुद बंसल, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, रचना श्रीवास्तव, डॉ जेन्नी शबनम, कृष्णा वर्मा, अनिता ललित, इत्यादि हाइकु कवियों ने सृजन-कर्म में विविध समसामयिक जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं।

आज के समय की सबसे बड़ी समस्या है पर्यावरण के प्रति मनुष्य की उदासीनता एवं विमुखता। कंक्रीट का जंगल फैलता जा रहा है, साइबर क्रान्ति के चलते तारों-टॉवरों का जाल-सा बिछा जा रहा है, विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों का सागर—सा उफ़नने लगा है, जिससे न केवल मानव-जीवन खतरे में आ चुका है, अपितु विविध पक्षी-जीव-जन्तु भी त्राहि-त्राहि की रटन लगाने लगे हैं। पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण से ही मानवीय जीवन को बचाया जा सकता है। इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य है मनुष्य द्वारा पर्यावरण के संरक्षण को प्राथमिकता दिया जाना। इस मूल्य पर हिन्दी हाइकुकारों का अत्यधिक बल देखे बनता है। यथा डॉ. सुधा गुप्ता का निम्न हाइकु बढ़ते शरीकरण से उत्पन्न संकट को मार्मिक ढंग से उकेरता है:

रोती तितली / कंक्रीट जंगल में / फूल कहाँ हैं (खोई हरी टेकरी, 16)

अन्धाधुन्ध निर्माण से कंक्रीट का जंगल बनते जा रहे शहर में न केवल मानव अपितु पशु, खग, कीट इत्यादि के लिए भी जीवन-यापन अत्यधिक दारुण होता जा रहा है। इसी बिन्दु को डॉ. भावना कुँअर का निम्न हाइकु भी छूता है:

सूखती नदी/ बेघर होते पंछी/आज की सदी (धूप के खरगोश, 34)

इसी तरह का कटाक्ष वन्दना सहाय की बानगी में देखें: " सूख रहा है / नदिया के साथ ही / आँखों का पानी (हिन्दी हाइकु) ।

आज लोग अत्यधिक भौतिकतावादी हो गये हैं, जिसके चलते उन्हें आर्थिक लाभ के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं देता। दौलत के लिए अन्धे हो गए हैं। बड़े-बड़े भवन-निर्माता व उपनिवेशी मानसिकता वाले धनाढ्य व्यवसायी मात्र ऊँचे-ऊँचे टॉवर, अपार्ट्मेंट, भवन खड़े करने में मशगूल हैं; इस कारण जो प्रास्थितिकी का संकट उत्पन्न हो रहा है, उसके प्रति वे कतई चिन्तन्शील नहीं हैं। वे आने वाली पीढ़ी के प्रति अपने दायित्व को बिल्कुल नहीं समझ पा रहे हैं। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का निम्न हाइकु मस्तिष्क पर एक वृहत् अनुत्तरित प्रश्न-वाचक चिह्न अंकित कर देता है:

उठते गए/ भवन फफोले-से/ हरी धरा पे (मेरे सात जनम, 83)

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के हाइकु में भी ऐसा ही प्रश्न विद्यमान है:

यहाँ या वहाँ /पत्थरों के शहर / आदमी कहाँ?/ (काफिले रोशनी के, 15)

प्रश्न है 'हरी धरा' पर निरन्तर निर्माण का क्रम, जो थमने का नाम नहीं ले रहा है। हरेराम समीप ने प्रकृति के प्रति मानव की बेरुखी व बेपरवाही से सम्भावित त्रासदी का पूर्वाभास इस कटूक्ति के माध्यम से व्यक्त किया है:

हलकान है / अकाल में चिड़िया / दाना ना पानी (हिन्दी हाइकु)

भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में गत कुछ दशकों से एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य का उत्तरोत्तर क्षरण देखने को मिल रहा है–वह है विदेशी संस्कृति के प्रभाव में निज संस्कृति की अनदेखी एवं अवहेलना। एक ओर जहाँ आर्थिक, व्यावसायिक अथवा शिक्षा-सम्बन्धी कारणों से भारतीयों ने विदेशों की ओर व्रजन किया, तो वहीं दूसरी ओर कितनी ही विदेशी कम्पनियों ने भारत में अपने व्यापारिक लाभ हेतु बाज़ारवाद फैला दिया, जिससे पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भारतीयों पर, वे चाहे आवासी हों या प्रवासी, दिखाई पड़ रहा है। परिधान में, व्यवहार में, विचार में–पश्चिमी सभ्यता प्रभावी हुई जा रही है, जिससे भारत के पारम्परिक जीवन-मूल्यों का ढाँचा चरमराया है। परिवार बिखरने लगे हैं, राष्ट्रवादी सोच खण्डित हो रही है, भौतिकता बढ़ती जा रही है, शहरीकरण बढ़ रहा है, ग्रामीण संस्कृति दम तोड़ रही है, साइबर क्रान्ति के चलते यान्त्रिकता पनप रही है–इन सभी कारणों से जीवन-शैली में बहुत से परिवर्तन दृष्टिगोचर हैं। कृष्णा वर्मा का यह हाइकु भौतिकतावादी सोच के दुष्परिणाम को इंगित करता है:

निगोड़ा धन / मिटा आत्मीयता, दे-/अकेलापन (हिन्दी हाइकु)

धन के प्रति अत्यधिक झुकाव रखने से आत्मीय सम्बन्धों का ह्रास व अकेलेपन की वृद्धि सहज है। ऐसी ही एक अन्य परिस्थिति कृष्णा वर्मा के इस हाइकु में देखी जा सकती है: ' उड़ी संतान / युग की हवा-संग / सौंप एकांत" (हिन्दी हाइकु) ।

आज संतान घर-परिवार से दूर होती जा रही है, चाहे विद्योपार्जन के लिए अथवा व्यवसाय के लिए; किन्तु पारिवारिक मूल्य खोते जा रहे हैं। गुंजन अग्रवाल का निम्न हाइकु परिवारों के खंडन की व्यथा कुछ इस तरह बयान करता है:

दूर अपने / रूठे-रूठे त्योहार/ देखें सपने। (हिन्दी हाइकु)

वन्दना सहाय वृद्ध माँ-बाप की बच्चों की प्रतीक्षा की वेदना को बड़े मार्मिक शब्दों में कहती हैं: "अम्मा पोंछती / चश्मे की धूल आज / बच्चे आएँगे" (हिन्दी हाइकु) । इसी प्रकार अनिता ललित का निम्न हाइकु वृद्धावस्था के एकाकीपन को व्यक्त करते हुए वृद्धों के प्रति विशेष ध्यान देने बारे एक नितांत समीचीन मूल्य को स्थापित करता है:

चलो जलाएँ / बूढ़ी, सूनी आँखों में / आस के दीप। (हिन्दी हाइकु)

परिवार व त्यौहार आत्मीयता की संवृद्धि एवं पुष्टि करते हैं, किन्तु आज विदेशी सभ्यता के प्रभाव में अपने मानी ही खोते जा रहे हैं। अकेलापन एक बहुत बड़ा संकट बनता जा रहा है, जिससे न केवल पारिवारिक अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य भी क्षत-विक्षत होने के कगार पर हैं। ऐसे में सकारात्मक जीवन मूल्यों का पोषण करना नितांत आवश्यक है।

पारिवारिक स्तर पर आज दो पीढ़ियों की रस्साकशी देखी जा सकती है। एक ओर युवा पीढ़ी शुद्ध व्यावसायिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ रही है, उसे व्यवसायेतर परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति लेशमात्र भी चिन्ता नहीं है, तो दूसरी ओर वृद्ध हैं जो युवा पीढ़ी को रोक भी नहीं सकते और अपने अकेलेपन को झेल भी नहीं पाते। यहाँ कारण आर्थिक / व्यावसायिक हों अथवा कोई और वृद्धावस्था में अकेले पड़े लोग अपनों का सहारा पाने की तीव्र कामना तो कर ही रहे हैं। डॉ. विद्याविन्दु सिंह के इस हाइकु में अकेलेपन का दर्द देखे बनता है:

नीम बसेरा / चिड़िया नहीं आती /नीड़ उदास/ (हिन्दी हाइकु)

दूसरी ओर, विदेशों में रहने वले प्रवासी भारतीयों की, चाहे स्वेच्छा से अथवा विवशता से प्रवासगत हुए हैं, मनोदशा की जटिलता / क्लिष्टता देखे बनती है–विदेशी धरा पर निज देश की संस्कृति किंचित् भी विस्मृत नहीं हुई है; विदेशी सभ्यता की चकाचौंध में पूर्वजों के संस्कार अपने अस्तित्व को संघर्षरत हैं। जैसा कि सुदर्शन रत्नाकर का यह हाइकु इंगित करता है:

कहीं भी जाऊँ/ बिसरा न पाऊँ मैं / देश की माटी / (यादों के पाखी, 93)

रामायण में एक प्रसंग आता है-जब लंका को विजित कर लेने के पश्चात् लक्ष्मण राम से आग्रह करते हैं कि क्यों न लंका में ही अपना राज्य स्थापित किया जाए जो अत्यधिक सुन्दर एवं आकर्षक है। इस सन्दर्भ में रामचन्द्र ने यह उत्तर दिया: 'अपि स्वर्णमयी लंका न में रोचते लक्ष्मण। / जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.'-अर्थात् निज माता व जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। डॉ. सुधा ओम ढींगरा के हाइकु में देश की धूप में, वह चाहे कितनी भी प्रचण्ड / उग्र हो, मातृ-अंचल की शीतलता की अनुभूति मिलती है:

देश की धूप / थपथपाये तन /दे माँ का प्यार। (हाइकु काव्य: शिल्प एवं अनुभूति, 101)

समकालीन जीवन शैली अत्यधिक भौतिकतावादी तथा यांत्रिक-सी हो गयी है, हर जगह गति द्रुत से द्रुततर होती जा रही है। जीवन–यापन जटिल होता जा रहा है। ऐसे में नित्यचर्या की व्यस्तता भी इतनी अधिक बढ़ गई है कि व्यक्ति के पास दूजे से टिककर बात करने की फ़ुर्सत तक नहीं है। परिणामत: एकाकीपन बढ़ता जा रहा है और व्यक्ति कुंठा से ग्रसित हुआ जा रहा है और भीतर ही भीतर टूटता-बिखरता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में अवसाद / विषाद से बचे रहने के लिए सकारात्मक सोच को विकसित किया जाना अपेक्षित है। डॉ. जेन्नी शबनम के हाइकु में आत्मबल एवं जिजीविषा की अभिव्यक्ति देखे बनती है:

खिलता रहा / ग़ुलमोहर फूल / पतझड़ में। (हाइकु काव्य, 77)

स्वयं संघर्षरत रहकर कष्ट सहन कर दूसरों को प्रसन्नता ही देने तथा हर हाल में परोपकार के लिए उद्यत रहने का भाव हरकीरत हीर के इस हाइकु में देखें:

आँधी से लड़ा / हँस-हँस के मिटा /अकेला दिया। (हाइकु काव्य, 130)

इस प्रकार परहित के लिए निजी स्वार्थ का परित्याग व अहम् का बलिदान करना श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों में परिगणित किया जाता है। ऐसी ही मूल्यपरक चेतना रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु" के इस हाइकु में भी देखी जा सकती है:

आतप सहें / फिर भी दमके हैं /अमलतास। (हाइकु काव्य, 77)

डॉ. भावना कुँअर का "गुलमोहर" परहित में निरत व्यक्ति का प्रतीक बनकर उभरता है:

छतरी बना / गुलमोहर घना / राहगीरों का/ (हाइकु काव्य, 68)

कमलेश भट्ट 'कमल' के हाइकु में 'पलाश' परोपकारिता के साथ-साथ कर्तव्य-परायणता, निष्ठा, संयम, नियम एवं सुदृढ़ निश्चय जैसे जीवन-प्रेरक मूल्यों का सशक्त बिम्ब बना है:

कड़ी धूप में / मशाल लिये खड़ा /तन्हा पलाश । (हाइकु काव्य, 35)

इसी तरह डॉ. सुधा गुप्ता के निम्न हाइकु में 'नदी' भी कर्तव्य के प्रति निष्ठा-भाव की संवाहिका बनी है:

चुप है नदी / कुछ भी न कहती /बस बहती (हाइकु काव्य, 89)

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह के इस हाइकु में 'आकाश' सर्वजनहिताय, समता एवं ममता का सबल प्रतीक बना है:

समता भरी / आकाश की आँखें हैं/ ममता भरी (पगडण्डी अकेली, 12)

इसी प्रकार डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा ने भी 'गगन' को एक सज्जन के मन-सा आम्लान, शान्त एवं स्थिर कहा है, जो सभी को सु ख व प्रसन्न्ता प्रदान करने वाला है:

शांत निर्मल / ज्यों सज्जन का मन/ क्वार गगन (हाइकु काव्य, 95)

कई हाइकुकारों ने भारत की समसामयिक राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी तंज कसे हैं। आज चाटुकार एवं भ्रष्टाचारी लोगों के प्रभाव में योग्यता को दरकिनार कर दिया जाता है। छलबल की राजनीति में सुपात्र लोग पिस रहे हैं। इस प्रकार जनतान्त्रिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धाँतों की अवमानना हो रही है। डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने अपने इस हाइकु में कटु व्यंग्योक्ति के माध्यम से समसामयिक जनतन्त्र, समाज व राजनीति पर चोट की है:

कौवों की चोंच / मढ़ी जाती सोने से,/ बेचारा हंस! (क़ाफ़िले रोशनी के, 8)

डॉ. गोपाल बाबु शर्मा का एक अन्य हाइकु आज भारतीय समाज में व्याप्त भय एवं भ्रष्ट तन्त्र पर, जिसका कोई ठोस हल नहीं हो पा रहा है, कुछ इस प्रकार टिप्पणी करता है:

अँधेरी बस्ती / बदनुमा चेहरे/ आईना मौन / (वही, 19)

भारतीय समाज में नारी का बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैदिक युग में उसे समुचित आदर प्राप्त था। उसका स्थान देवी के तुल्य माना गया है। मनुस्मृति में नारी के आदर को प्राथमिकता दी गयी है: 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता:' (III.56) ; परन्तु आज के सामाजिक परिदृश्य में नारी का शोषण एवं तिरस्कार श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के लिए ख्यात भारत देश के लिए कलंक समान है। आज इस देश के पुरुष-प्रधान समाज में नारी जीवन-पर्यन्त उत्पीड़न का शिकार बनी रहती है और स्थिति और अधिक शोचनीय हो जाती है, जब उसे भ्रूण में ही समाप्त कर दिया जाता है। बेटी के प्रति भेदभाव माँ-बाप के घर पर ही शुरू हो जाता है, तो आगे उसे सम्मान किस प्रकार मिल सकता है। माता-पिता का आँगन ही एक ऐसा स्थान है जहाँ बेटी को भरपूर प्यार, दुलार, (आत्म-) सम्मान, आदर, सुरक्षा, अभय एवं आत्मबल प्राप्त हो सकता है। जैसा कि डॉ. शैल रस्तोगी के इस हाइकु में परिगदित है:

अलस धूप / आँगन में लेटी है / रानी-सी बेटी (हाइकु काव्य, 85)

डॉ. कुँअर बेचैन के निम्न हाइकु में जहाँ एक ओर आज के संसार में आतंक, संभ्रम, असुरक्षा, अविश्वास एवं अनास्था के वातावरण का विकर्षण देखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर नारी की शोचनीय परिस्थिति एवं वेदना / व्यथा भी प्रतिबिम्बित होती है, जिसमें यह संसार उसके जीवन व अस्तित्व के लिए असुरक्षित बन चुका है:

किरन परी / डरी-डरी नभ से / फिर उतरी। (हाइकु काव्य, 91)

भारतीय समाज में जहाँ एक ओर तो रोज़ नारीशक्ति / मातृशक्ति के नारे लगाए जाते हैं, नारी को देवी-तुल्य कहा जाता है; वहीं दूसरी ओर, उसी नारी क शोषण / उत्पीड़न किया जाता है, इस ढोंग व दिखावे के चलते नारी-सुरक्षा का प्रश्न ज्यों का त्यों बना हुआ है। जिस घर-परिवार में बेटी होती है, वहाँ उसकी सुरक्षा की चिन्ता उसके जन्म के साथ ही घर कर जाती है। लिंगभेद व नारी-शोषण की यह परिस्थिति स्पष्ट कर देती है कि हमारे जीवन मूल्य कितने खोखले, दोगले व आडम्बरपूर्ण हैं।

डॉ. शैल रस्तोगी ने बेटी के युवा होते ही माता-पिता की चिन्ता बढ़ जाने की स्थिति को "करेला बेल" का बिम्ब प्रयोग करते हुए कुछ इस तरह चित्रित किया है:

बढ़ने लगी / करेला बेल हुई / प्यारी बिटिया / (हाइकु काव्य, 185)

नारी के प्रति हमारे जीवन-मूल्यों का एक नकारात्मक पक्ष दहेज़ प्रथा के रूप में भी देखने को मिलता है। आज भी धन के लोभ में दहेज़ माँगा जाता है, वरन् नारी को उत्पीड़न झेलना पड़ता है, ताने सहने पड़ते हैं और अत्युग्र रूप में तो प्राणों की आहुति भी देनी पड़ जाती है। इस स्थिति को कमलेश भट्ट 'कमल' के इस हाइकु में देखा जा सकता है:

फूल-सी पली / ससुराल में बहू / फूस-सी जली (हाइकु काव्य, 187)

गुंजन अग्रवाल का हाइकु एक प्रश्न उठाता है कि जब नारी पर हो रहे अत्याचारों में नारी स्वयम् सम्मिलित है, तो नारी की सुरक्षा व सम्मान की बात करना सर्वथा निरर्थक है:

वंश की आस / नारी, नारी को मारे / कैसा विकास (हाइकु काव्य, 212)

भारतीय समाज में औसत नारी के दूसरों के लिए आत्म-त्याग के जीवनोद्देश्य को अनिता ललित कुछ इस प्रकार कहती हैं:

तेरा जीवन / सदा ही महकाऊँ / मैं धूप-बाती (हाइकु काव्य, 187)

'धूप-बाती' के सबल बिम्ब में स्पष्ट है कि किस प्रकार स्वयं जलकर भी औसत नारी परिवार में खुशबू ही बिखेरती हुई अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देती है। बदले में नारी को अपमान, तिरस्कार, दुत्कार, उत्पीड़न, अत्याचार–यह कैसे जीवन-मूल्य हैं; यह एक चिन्तनीय विषय है। नारी जीवन की व्यथा को उजागर करते ये तीन हाइकु देखें:

1-नारी जीवन / असि पर चलना / मूक हवन (ललित भावर, हाइकु काव्य, 190)

2-समझौतों के / हवनकुण्ड, नारी / समिधा बनी (डॉ. उर्मिला अग्रवाल, हाइकु काव्य, 190)

3-जीवन बीता / वह कभी बनी राधा / तो कभी सीता (ज्योत्स्ना प्रदीप, हाइकु काव्य, 190)

अज्ञानता के अन्धकार से लड़कर ज्ञान के आलोक की प्रसृति से जीवन मूल्यों को समृद्ध बनाया जा सकता है। ज्ञान के संवर्धन से ही जीवन के वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है, जीवन-यापन के लिए सही मार्ग का चयन किया जा सकता तथा इस जीवन के उद्देश्य / लक्ष्य को समझकर सफलतापूर्वक जिया जा सकता है। अपेक्षित है व्यक्ति तमस् को विजित करके आलोक का प्रश्रय ले–यह मनोवैज्ञानिक के साथ-साथ आध्यात्मिक दोनों प्रकार के आलोक का प्रश्न है, जैसा कि कमला निखुर्पा के इस हाइकु में भणित है:

दीप ने थामी / लौ की तलवार तो/ भागा अँधेरा (हाइकु काव्य, 92)

समय के साथ बदलते हुए समाज में जीवन मूल्यों में भी यथोचित / यथायथ बदलाव अपेक्षित हो जाता है, अन्यथा व्यक्ति समाज में अस्पृश्य-सा होकर रह जायेगा। समीचीन यथार्थ को समझते हुए पुरातन रूढ़ियों को यथासम्भव बदलते हुए जीवन के नये मूल्य गढ़ना समय की आवश्यकता बन जाता है। सुनीता अग्रवाल ने इस मुद्दे को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है:

चीर के बढ़ी /रूढ़ियों का पर्वत / घायल नदी (हाइकु काव्य, 206)

डॉ. शैलजा सक्सेना का यह हाइकु मानव के मूल स्वरूप को व्याख्यायित करता है, जो युगों की परिणति के बावजूद अपनी सहज प्रवृत्तियों को नहीं बदल सकता:

युग बदले / दुनिया भी बदली / आदमी वही। (हाइकु काव्य, 220)

यह एक मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक तथ्य है कि काम, लोभ, मोह, ईप्सा, लिप्सा, अहम्, राग, द्वेष, इत्यादि मनोभाव सहज रूप से मानव मन में उफ़नते रहते हैं, शेष जैसा भी विकास वह करता है, इन्हीं मनोवृत्तियों पर आधृत रहता है। अत एव जीवन को समयानुरूप सही दिशा प्रदान करने के लिए युगीन जीवन-मूल्यों का निर्धारण करना अनिवार्य हो जाता है।

परस्पर नि:स्वार्थ प्रेम, सौहार्द, सद्भाव, शांति, सत्कार, सहकार एवं समष्टिभाव मानवता को सब प्रकार के दोषों से मुक्त बना सकते हैं। मानव यदि इन जीवन मूल्यों को आत्मसात् कर ले, तो नि: सन्देह इस संसार को हिंसा, भय, भ्रम तथा घृणा से बचाया जा सकता है। यह न केवल वैदिक शास्त्रों का अपितु विश्व के सभी धर्मशास्त्रों का सार है। "पंचतन्त्र" के इस श्लोक में उदारता को समष्टिभावयुक्त जीवनादर्श के रूप में पुष्टि मिली है: 'अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। / उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।' अर्थात्–यह अपना है या पराया है, ऐसी गणना छोटी मानसिकता एवं विचारों वाले लोगों की होती है; उदात्तहृदय के लिए सारी पृथ्वी ही एक परिवार होती है। अथर्ववेद में एक प्रसंग आता है–"माता भूमि पुत्रोSहम् पृथिव्या:" (12.1.12) –अर्थात् भूमि माता है और मैं पृथिवी का पुत्र हूँ; यहाँ एक ओर भूमि एक भूखण्ड के लिए प्रयुक्त हुआ है, परन्तु पृथ्वी समग्रत: पूरे विश्व की व्याप्ति लिये हुए है–जिससे एक ओर तो जन्मभूमि को माता कहा गया तो दूसरी ओर स्वयं को पूरी पृथ्वी का पुत्रस्वरूप माना है। स्पष्टत: "भूमि" से जहाँ स्थानिकता का सत्कार है, वहीं "पृथ्वी" से सार्वभौमिकता को समादृत किया है, जिसमें सारे संसार की एकता एवं क्षेम कामना निहित है। विश्वशान्ति की कामना की पूर्ति के लिए जीवन में परस्पर प्रेम, सत्कार व सहकार को अनिवार्यत: स्थान देना होगा। समग्र सृष्टि में एक ही शाश्वत सत्य की व्याप्ति है, अत: इसे यदि अहं के भाव से ऊपर उठकर देखें तो सम्पूर्ण मानवता एक सूत्र में बाँधी जा सकती है; मानव एक दूजे के लिए दुआ करे तो संसार सुखागार बन सकता है, इसमें सन्देह नहीं। निम्न हाइकु में ऐसे ही जीवन मूल्यों की परिकल्पना की गयी है:

1-धरा-आकाश / अणु-परमाणु में / तेरा आभास (जया नर्गिस, 210)

2- "मैं" का अंत / युगों-युगों तक हो / मन-बसंत (ज्योत्स्ना प्रदीप, 198)

3-खोल के देखो / दुआ के दरवाज़े– / चैन मिलेगा (डॉ. सरस्वती माथुर, 205)

समसामयिक युग की अत्यधिक व्यस्तता व भागदौड़ में व्यक्ति अपने अस्तित्व के संघर्ष में इस प्रकार फँसा है कि उसके पास जीवन-मूल्यों के बारे में सोचने का समय तक नहीं है; ऐसे में वह आगामी पीढ़ी को भला क्या देगा? अपनी समृद्धि, अपनी प्रगति, अपनी प्रतिष्ठा, अपना लाभ–केवल यही आज व्यक्ति का उद्देश्य बन गया है, जिस कारण करुणा, प्रेम, सहानुभूति जैसी भावनाएँ दम तोड़ चुकी हैं। हर ओर अवसरवादिता, स्वार्थपरता व अहंमन्यता का प्रभाव देखा जा सकता है। घर-परिवार से लेकर समाज, राजनीति व सामुदायिक स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। अनैतिकता, मर्यादाहीनता, मिथ्याचार, उच्छृंखलता, उद्दण्डता, आडम्बर, फूहड़पन व अश्लीलता जैसे विकार आज सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों का अतिक्रमण करते हुए देखे जा सकते हैं। ज़रूरतमंद की कोई परवाह नहीं, शिकायतों की कोई सुनवाई नहीं, अपराध के लिए यथोचित दण्ड नहीं, प्रजा के प्रति न्यायपूर्ण राजधर्म नहीं, सत्य का सत्कार नहीं, सम्बन्धों में मर्यादा नहीं, नेतृत्व में निष्ठा नहीं, धर्म में सच्चाई नहीं, चरित्र में शालीनता नहीं–कुल मिलाकर नैतिकता के मानदण्ड बदल चुके हैं और जीवन मूल्य भी तदनुसार बदलते जा रहे हैं। इन्हीं मूल्यों के समसामयिक सन्दर्भों को हिन्दी हाइकुकारों ने किसी न किसी रूप में गहन वैचारिकता एवं गम्भीर चिन्तन के साथ मुखरित किया है। आलेख की सीमा को ध्यानगत रखते हुए अधिक उद्धरण नहीं दिये जा सकते परन्तु विषय और गम्भीर एवं गहन अनुशीलन व शोध के लिए खुला है।

-0- सन्दर्भ:

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, पगडण्डी अकेली (हाइकु संग्रह) , अभिनव प्रकाशन, दिल्ली, 2013.

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा, क़ाफ़िले रोशनी के, अरविन्द प्रकाशन, अलीगढ़, 2014.

डॉ. भावना कुँअर, धूप के खरगोश, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2012.

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , मेरे सात जनम, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2011.

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ. भावना कुँअर, डॉ. हरदीप कौर सन्धू (सं) , यादों के पाखी, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2012.

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु, डॉ. भावना कुँअर (सं) , हाइकु काव्य: शिल्प एवं अनुभूति, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2015.

डॉ. सुधा गुप्ता, खोई हरी टेकरी, पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान, मेरठ, 2013

डॉ. हरदीप कौर सन्धु, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' (सं) , हिन्दी हाइकु (अन्तर्जाल) ।


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