सूखते चिनार / स्वप्न और उड़ान / भाग 1 / मधु कांकरिया

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‘मेरी ज़िन्दगी भारत के राष्ट्रपति के नाम समर्पित रहेगी। मैं भारत और भारत के संविधान के प्रति समर्पित रहूँगा। उसी के लिए जियूँगा... उसी के लिए मरूँगा... कि मैं अपना हित सबसे अन्त में सोचूँगा।’

हाँ, यही शपथ थी जो उसने देहरादून में इंडियन मिलिट्री एकेदमी के पासिंग-आउट परेड के अन्त में दोस्तों के बीच टोपियाँ उछालने के बाद ली थी।

कितनी पवित्रता के साथ किया था उसने फ़ौजी जीवन का वरण। Soldier I am born, soldier I shall die - यही था उन दिनों का उसका नारा जिसे वह जब-तब हवा में उछाल दिया करता था, ख़ुद को भीतरी ताक़त देने के लिए।

अपने में डूबे, अपने दुख-सुख, यादों, सपनों, दुःस्वप्नों, सम्मानों-अपमानों और ख़ालीपन की अनन्त गहराई में डूबे वे खोल रहे हैं अपने अतीत को किसी जादू की तरह। जो आज उन्हें लग रहा है किसी लोक कथा की तरह। रोमांचक! अविश्वसनीय और अद्भुत!

होंठों पर हँसी किसी नन्हीं चिड़िया की तरह फुदकने लगती है। वह अद्भुत समय! जब पापा के पास काम-ही-काम था और उसके पास समय-ही-समय। सपने ही सपने। भरोसा-ही-भरोसा। ख़ुद पर। दुनिया पर। उफ! किस तरह पूरे घर को उसने डरा और रुला दिया था, इंडियन आर्मी में दाख़िला लेकर!

वजह!

सपनों से खेलने के वे दिन- और एक विज्ञापन! सिर्फ़ एक विज्ञापन! और देखते-ही-देखते सबकुछ पलट गया था!

यह विज्ञापन जिसे ‘टाइम्स ऑव इंडिया’ के मुखपृष्ठ पर एक चमकती सुबह अपने दमकते हौसलों के साथ पढ़ा था उन्होंने Nation needs you (राष्ट्र को आपकी आवश्यकता है) और इसके साथ ही देश के युवाओं से आर्मी ज्वाइन करने की भावुक-सी अपील की गयी थी। विज्ञापन में छपे दो बन्दूक़धारी कड़क फ़ौजी और अपील को पढ़ रोमांचित हो गये थे वे। आर्मी उनके लिए एक आदर्श हीरो बन गयी थी जिसे उनकी ज़रूरत थी। ‘नेशन नीड्स यू,’ देश को उनकी ज़रूरत है - जैसे हर कोने से उठ रही थी यह आवाज़!

अठारह वर्ष की भावुक स्वप्निल उम्र और ‘टाइम्स ऑव इंडिया’ का वह जादुई विज्ञापन! उन्हें लगा, जिस चीज़ की तलाश थी- उन्हें, वह चीज़ मिल गयी है उन्हें। एक रहस्यमयी दुनिया बुला रही थी उन्हें, ‘आओ आओ। मेरे पास आओ!’

कितना सर्वशक्तिमान था वह क्षण कि उसके जादू की हत्या पूरा परिवार भी मिलकर नहीं कर पाया था। नहीं अब उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला नहीं लेना है। उसे फ़ौजी बनना है। जाने कितने ज्वाइंट इंट्रेंस एग्जाम दे चुका था वह। परिणाम बस आने ही वाले थे।

अच्छा हुआ कि उसने वह विज्ञापन पढ़ लिया।

व्यापारी पिता चाहते थे कि वह किसी अच्छे कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर ख़ुद की फैक्टरी खोले या शाम का कॉलेज ज्वाइन कर अच्छे-ख़ासे चलते व्यापार में बढ़ोतरी करे।

पर उसके सपने थोड़े अलग थे। पिता के साथ दुकान पर बैठे-बैठे पीतल तौल-तौलकर वह अपनी ज़िन्दगी नकारा नहीं करना चाहता था। वह चाहता था कोई होली क्रान्ति, कोई मिशन - कोई स्वप्न - कोई उद्देश्य - जीने के लिए। ज़िन्दगी को सजाने के लिए।

उसे चाहिए था कुछ और जो उसके पिता और चाचा के जीवन से हटकर हो। क्योंकि जब-जब वह पिता को दुकान पर बैठे पीतल के बर्तन तौलते देखता उसे लगता कि उनकी दुनिया में कोई भारी कमी है। सबकुछ है पर जैसे कुछ नहीं है। जीवन है पर स्पन्दन नहीं। उसे पूरा विश्वास था कि जीवन के अधूरेपन से, इस अपूर्णताबोध से उसे छुटकारा मिल सकता है तो सिर्फ़ फ़ौजी बनकर। इसीलिए घरवालों से छिपाकर और दोस्तों से रुपये उधार लेकर उसने फार्म भरा था।

और जब इंटरव्यू के लिए उसे इलाहाबाद बुलाया गया तो घर पर जैसे बिजली गिर गयी।

माँ अवाक्।

पिता यूँ उछले जैसे हाथ में भारतीय फ़ौज का लिफ़ाफ़ा नहीं वरन साँप का ठंडा शरीर गिर पड़ा हो।

‘‘यह क्या मज़ाक है?’’ इंटरव्यू लेटर को चारों कोनों से घुमा-घुमाकर पूछा था उसके पापा ने।

अपनी अठारहवर्षीय उम्र की ताज़गी और नये-नये अर्जित आत्मविश्वास के गुमान के साथ कहा था उसने, ‘‘पापा, यह मज़ाक नहीं, मेरा स्वप्न है। मैंने तय कर लिया है कि मुझे फ़ौज में दाख़िला लेना है।’’

‘‘क्या?’’ पिता का दिमाग़ घूम गया। क्या उन्होंने वही सुना, वही समझा जो उनके बड़े बेटे सन्दीप ने कहा, ‘‘मैंने तय कर लिया है। अरे, कल तक जिसे नाड़ा बाँधना तक नहीं आता था, आज कह रहा है कि मैंने तय कर लिया है।’’ उन्हें लगा जैसे उनका माथा घूम रहा है। धरती घूम रही है। खुले शर्ट के बटन बन्द करते हाथ रुक गये। दम फूल गया। किसी प्रकार ख़ुद को संयत कर पूछा, ‘‘पर क्यों?’’

‘‘क्योंकि देश को मेरी ज़रूरत है और मुझे फ़ौज की। क्योंकि यदि मेरे सपने कहीं साँस ले सकते हैं तो सिर्फ़ फ़ौज में। यदि और कहीं मैं गया तो घुट-घुट कर मर जाएँगे मेरे सपने।’’

‘‘क्या? हतप्रभ रह गये शेखर बाबू। क्या इस प्रकार भी भला सोचता है कोई? सोच सकता है? देश को ज़रूरत है? माँ-बाप की कोई ज़रूरत-नहीं? बित्ते भर का छोकरा और यह साहस! दुस्साहस! चीर जानेवाली ठंडी निगाहों से देखा उन्होंने पुत्र को। दिमाग़ ने तभी यह भी सिग्नल दिया और ज़ोर लगाओ।

इस बार दूसरी तरफ़ से कलाई मरोड़ने की चेष्टा हुई।

‘‘क्या जानते हो तुम फ़ौजी जीवन के बारे में? देखा है किसी फ़ौजी को? कितनी कठोर लाइफ़ होती है फ़ौजियों की। और मिलता क्या है एक फ़ौजी अफ़सर को? मेरे एक व्यापारी का भतीजा, फ़ौज में, मेज़र है- चलो मिला देता हूँ उनसे। अपनी बेटी को जन्म के डेढ़ साल बाद तक भी देख नहीं पाया था वह, छुट्टी ही नहीं मिली थी। दस वर्ष की नौकरी के बाद भी जितना उसका बाप महीने भर में कमा लेता है, उसके बेटे को साल भर में भी नहीं देती है सरकार। तुम पैसे को महत्त्व नहीं देते क्योंकि तुमने कभी दमघोंटु अभावों और संघर्षों का जीवन नहीं जीया ना। इसीलिए कह दिया... मेरे गुज़ारे लायक़ दे देगी आर्मी। अरे, मुझसे पूछो, कैसे पैसा-पैसा जोड़ जुटायी है ये सुविधाएँ। कभी दस पैसे बचाने के लिए सियालदाह से कॉलेज स्ट्रीट तक पैदल जाता था। तुम्हारी दादी मन्दिर जाती थी तो रास्ते में पड़ा गोबर उठा लाती थी कि उपले बन जाएँगे। अरे! फ़ौज में वही जाता है जिसके लिए दूसरे सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं, या जो ज़िन्दगी को बट्टे खाते लिख चुका होता है। तुम्हें क्या कमी जो तुम- मरने को, गोली खाने को फ़ौज में जाओगे।’’

पिता की आँखों में बेटे के लिए उठती पीड़ा के समुन्दर को देखा सन्दीप ने। वह संजीदा हुआ। पिता को समझाने की फिर एक कोशिश की उसने, ‘‘हाँ, आप सही हो सकते हैं पापा कि फ़ौज में मुझे वो सुख-सुविधाएँ नहीं मिले जो आपके व्यापार या दूसरी नौकरियों में मुझे मिल सकती है। यह भी हो सकता है कि फ़ौजी ज़िन्दगी मेरे सपनों की ज़िन्दगी न बन पाए - पर वह ज़िन्दगी उस ज़िन्दगी से ज़रूर अलग होगी जो आप जी रहे हैं। नहीं, पापा, आनेवाली ज़िन्दगी की शक्ल चाहे जैसी भी हो, पर मैं आप जैसी ज़िन्दगी नहीं जीऊँगा, यह फ़ैसला मैंने कर लिया है।’’

‘फ़ैसला कर लिया है’ शब्द फिर चाबुक की तरह उनके पितृत्व के सीने पर पड़े। उनके जबड़े भिंच गये। लगा, कि बेटे के हाथों पूरी तरह ही ठगा गये हैं। वे बौखला गये उफ़! सुख- जब घर में पूरी तरह आसन मार कर बैठ गया था तो फिर नियति ने यह कैसी पटखनी दी! क्यों दी? क्या यह उनके सुखी-सन्तुष्ट जीवन के अन्त की शुरुआत है? वे सोचने लगे, पिछली सात पीढ़ी में घर का कोई लड़का फ़ौज में तो क्या नौकरी तक में नहीं गया था। हाँ एक पीढ़ी पूर्व उनकी बहन ने ज़रूर लीक से हटकर निर्णय लिया था - मैं साध्वी बनूँगी। क्या उसकी बुआ के ही जींस आ गये हैं इस लड़के में? उन्होंने फिर निर्णायक स्वर में कहा, ‘‘तुम फ़ौज में नहीं जाओगे।’’

शेखर बाबू तल्ख हुए तो पुत्र के भी जींस बदले। उसने भी अपना जवाब फिर चाबुक की तरह हवा में लहराया, ‘‘इट्स माई लाइफ़, पापा! इट्स माई डिसीजन, पापा! पापा! आप तो पौराणिक कथाओं में बहुत रुचि रखते हैं ना, क्या आप जानते हैं कि महाभारत में एक जगह श्री कृष्ण कहते हैं कि हर इनसान को अपनी कर्मभूमि के पत्थर ख़ुद ही तोड़ने पड़ते हैं। तो क्यों न वह कर्मभूमि मेरे सपनों की कर्मभूमि ही हो कि पत्थर तोड़ते भी आनन्द का अहसास बना रहे।’’

‘‘भाड़ में जाओ।’’ क्रोध और आवेग में काँपने लगे थे शेखर बाबू। अभी तक तो सुनते ही आये थे कि ज़माना बदल गया है, बच्चे बड़ों का लिहाज़ नहीं करते पर ख़ुद के घर की फ़िज़ा ही इतनी जल्दी बदल जाएगी, स्वप्न में भी नहीं सोचा था उन्होंने। उन्हें लगा बेटे ने अपना जवाब नहीं, वरन उनके वजूद को ही हवा में उछाल दिया है। घर की दिशा-दिशा से जैसे एक ही वाक्य रह रहकर गूँज उठता था- ‘‘इट्स माई लाइफ़! माई डिसीजन!’’

उस रात न कुछ खाया उन्होंने, न किसी से कुछ कहा। बस बन्द कमरे में मुँह ढाँप औंधे पड़े रहे वे।

रात माँ ने सन्दीप के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे अपने ढंग से समझाया। अपनी ममता का वास्ता दिया, ‘‘बेटे, तुम घर के बड़े बेटे हो। तुम चले गये तो सिद्धार्थ को कौन सँभालेगा? पापा को तो बिजनेस से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। मुझे कौन देखेगा?’’

सिद्धार्थ की चिन्ता मत करो माँ, अब वह बच्चा नहीं रहा और यूँ भी वह बहुत तेज़ है। उसने तो मेरे निर्णय का स्वागत ही किया है। रही बात तुम्हारी तो तुम चिन्ता मत करो, जब तुम्हें मेरी ज़रूरत होगी तुम मुझे अपने क़रीब पाओगी।

और माँ ख़ामोश हो गयी। समझ गयी, इस बाढ़ को रोकना फ़िलहाल किसी के बूते का नहीं। इसने तो जैसे अपने गले में पट्टी ही लटका ली थी - इंडियन आर्मी।

जानेकिसने कह दिया था सन्दीप को कि तुम्हारा वज़न ज़्यादा है। तुम तो फ़ौजी के लिये जानेवाले इंटरव्यू में ही रिजेक्ट कर दिए जाओगे क्योंकि आर्मी को चाहिए एकदम कड़क, छरहरा, चुस्त बदन और शेर-सी कमर। बस उस दिन से ही दिनभर धूप और शाम चूल्हे के सामने खड़े रह-रहकर उसने सुखाया अपने भीतर का अतिरिक्त जल।

बेटे को धूप में खड़े देखते तो मन पर खरोंच पड़ जाती शेखर बाबू के। भरोसा अनाथ हो जाता। पिता की गुहार, माँ के आँसू... किसी का कोई मोल नहीं इस छोकरे के सामने। हलकी-सी उम्मीद की कोई किरण थी तो यही कि कौन जाने आर्मी के इतने सख्त इंटरव्यू में ही रिजेक्ट कर दिया जाए जनाब को। आख़िर है तो बनिये का ही बेटा, दिमाग़ चाहे जितना तेज़ दौड़ा ले, पर असल दौड़ में क्या खाकर मुक़ाबला करेगा वह जाटों और गुरखों का। कर ले एक बार मन की, वहाँ से रिजेक्टेड होकर आएगा तो सारी फुटानी निकल जाएगी। भाग-खड़ी होगी सारी कड़क, सारा आत्मविश्वास! दूम दबाकर भाग जाएगा आर्मी का भूत।

बस उम्मीद के उस आख़िरी रेशमी खरगोश को बड़े जतन से हाथों में पकड़े-पकड़े खड़ा था सारा घर।

दस दिनों तक इंटरव्यू चलता रहा था। लिखित और मौखिक दोनों तरह के इंटरव्यू। ढेर सारे इंटेलीजेंट टेस्ट। रिजन और लॉजिक की जाँच करता - आई क्यू टेस्ट। कैसा इनसान है, के परीक्षण के लिए कई मनोवैज्ञानिक टेस्ट। टीम स्पिरिट जाँचने के लिए कई ग्रुप इंटरव्यू। ग्रुप प्रोजेक्ट। ग्रुप एक्टिविटिज। ग्रुप डिस्कशन। एक्सटेम्पोर कम्पटीशन... यह जाँचने के लिए कि बिना पूर्व चिन्तन के आप कैसे अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे पाते हैं कि कहीं अभिव्यक्ति लड़खड़ा तो नहीं जाती है।

और अन्त में सबसे बड़ा टेस्ट... फ़िजिकल टेस्ट। शारीरिक सामर्थ्य और साहस की जाँच करता फ़िजिकल टेस्ट। आप दौड़ रहे हैं, सामने नाला! कितने साहसी हैं आप? कहीं नाला देखकर डर तो नहीं गये?

सारे छोटे-मोटे पहाड़ों को पार कर जब राहत की साँस ली सन्दीप ने तो पता चला कि असली हिमालय तो सामने खड़ा है। तीनों एजेंसियों की सम्मिलित बैठक। इसमें पास होने पर ही आप फ़ाइनल मेडिकल टेस्ट के लिए योग्य घोषित होते हैं। सन्दीप के बैच के तैंतीस उम्मीदवारों में से सिर्फ़ तीन उम्मीदवार ही फ़इनल राउंड तक पहुँच पाए थे। आधे से अधिक सेमीफाइनल से पहले ही मैच से बाहर हो चुके थे।

और अब अन्तिम टेस्ट - मेडिकल टेस्ट। लगभग सारे मेडिकल टेस्ट पास किये उसने, बस एक जगह गाड़ी अटक गयी। नाक की हड्डी थोड़ी टेढ़ी पायी गयी। लेकिन यह कोई भारी- भरकम अड़चन नहीं थी। उससे कहा गया कि महीने भर के अन्दर वह नाक की माइनर सर्जरी करवा ले।

घर आते ही छोटे भाई सिद्धार्थ को साथ लेकर वह ख़ुद ही अस्पताल में भर्ती हो गया। नाक की हड्डी सीधी करवाने के लिए। एक छोटा-सा ऑपरेशन और नाक फिट।

उसकी बेताबी और फुर्ती को देख पिता को फिर करंट लगा। एक गहरी साँस खींची - आर्मी का जादू सिर पर सवार है। बहुत मुश्किल है अब डोर वापस खींचना। हे बजरंग बली! सवा मन के असली घी के लड्डू तेरे दरबार में, बेटे को नियुक्ति पत्र नहीं मिले।

और एक शाम उसे मिल गया नियुक्ति पत्र। पूरे घर ने जैसे भूकम्प का झटका दुबारा झेला। लगा, जैसे नियुक्ति पत्र नहीं, घर की मौत का घोषणा-पत्र हो। सन्दीप ने वातावरण को हल्का करने की चेष्टा करते हुए कहा, ‘‘पापा, मैं अपने कर्मशील जीवन की पहली उड़ान भरने जा रहा हूँ और ख़ुश होने के बजाय आप हैं कि मातम मना रहे हैं।’’

भीगे गले से गीले-गीले शब्द निकले, ‘‘तुम सिर्फ़ धाँसू डायलॉग मार रहे हो और भावनाओं में बह रहे हो। तुममें जोश ज़रूर है पर होश नहीं। आर्मी का सीमित आकाश तुम्हें ऊँची उड़ान भरने नहीं देगा। तुम्हारे पंख कतर दिए जाएँगे और तुम कुछ नहीं कर पाओगे।’’

शेखर बाबू के सामने कुछ वर्ष पूर्व हुए 1971 के बांग्लादेश युद्ध की विभीषिकाओं के दृश्य सजीव हो, प्रेत की तरह नाचने लगे थे। कितने गये जो कभी लौटकर नहीं आये, कुछ आये तो भी साबूत नहीं आये।

दिल बहुत ही भारी हो गया था उनका। गहरे से फिर देख पुत्र को। समझाने की फिर की आख़िरी चेष्टा, ‘‘देखो, तुम जो मुझे सान्त्वना दे रहे हो न कि यदि मुझे रास नहीं आयी आर्मी तो साल भर के भीतर मैं कभी भी वापस लौटकर आ जाऊँगा, तो तुम यह जान लो बेटा कि एक बार तुम यहाँ से निकल गये तो फिर लौट कर आना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं होगा। बहुत दुनिया देखी है मैंने इसीलिए कह रहा हूँ कि स्रोत से निकलकर कोई भी लहर वापस उद्गम तक कभी नहीं लौट पाती है, फिर तो आगे अनन्त समुद्र ही मिलता है। आर्मी का मतलब ही है - मौत, विनाश, अशान्ति और रक्तपात।’’

उसने फिर समझाना चाहा पापा को, ‘‘पापा, मैं क्या करूँ, मुझे बिजनेस से विरक्ति है। मैं अच्छा बिजनेसमैन बन ही नहीं सकता। मेरी मानसिक बनावट वैसी है ही नहीं। हो भी नहीं सकती, मैं यह जानता हूँ। मैंने ख़ूब सोचा है इस पर। मैंने क़रीब से देखा है, आपके और आपके साथियों के जीवन को - एकदम सीधी-सड़क। हज़ार से लाख और लाख से करोड़ तक पहुँचने ही दौड़। मुझे व्यर्थ लगता है ऐसा जीवन जो सिर्फ़ अपने तक हो, जिसमें किसी भी प्रकार का न तो मानसिक और बौद्धिक सन्तोष हो और न ही एडवेंचर या थ्रिल हो। और सबसे बड़ी बात तो यही पापा कि मैं जो हूँ उसे नकारकर यदि आप मुझे तोड़-मरोड़कर कुछ और बनाना चाहेंगे तो मैं तो विकृत होऊँगा ही, आपका भी इस अपराधबोध के साथ जीना दुश्वार हो जाएगा। इसलिए अच्छा है कि आप लहरों को उसकी स्वाभाविक दिशा और वेग से बहने दें, धारा को मोड़ने की चेष्टा न करें।’’

जवाब सुन दंग रह गये शेखरबाबू। भीतर का सूर्य डूबने लगा। डूबती आँखों से फिर देखा पुत्र को - क्या यही उनका बेटा है? अपना ख़ून! क्या सचमुच उनसे कोई भूल हुई? वे समझ ही नहीं पाए बेटों को? वे दिन-पर-दिन अपने व्यापार में गहरे धँसते गये, उनके लिए वित्त -सत्य ही जीवन - सत्य बनता गया और बेटा उनके गुरुत्वाकर्षण से छिटक लहर की तरह दूर होता गया उनसे।

इस बार उन्होंने अपनी रणनीति बदली। पुत्र को तर्क की बजाय ममता से पटकनी दी जाए। बेटा, यह तो सोचो, हमारी सात पीढ़ी में से कोई भी फ़ौज में नहीं गया। यहाँ तक कि नौकरी भी शायद ही किसी ने की हो। तुम मुझ पर इस प्रकार एक साथ यह दुगुनी चोट नहीं कर सकते। ठीक है तुम बिजनेस में नहीं आना चाहते हो मत आओ, इंजीनियरिंग कर नौकरी कर लेना। मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा, पर फ़ौज में मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा। हर्गिज़ नहीं।

विजेता के भाव से सन्दीप ने नहले पर दहला जड़ा पापा, यदि आप अपनी पीढ़ी का इतिहास ही मुझ पर लादना चाहते हैं तो थोड़ा और पीछे हटिए, आप देखेंगे कि हमारे पूर्वज राजपूत थे। हम ख़ुद राजपूत से जैन बने हैं और राजपूतों में एक समय यह परम्परा थी कि हर राजपूत परिवार अपने बड़े पुत्र को सेना में भेजता था। देशसेवा के लिए। तो मुझे कृपया आप जाने की अनुमति दें, सिद्धार्थ को आप अपने अनुसार ढाल लीजिएगा।

क्या? क्या कहा? उन्हें लगा जैसे वे बेटे को नहीं वरन बेटे के नये अवतार को देख रहे हैं। कब उग आया बेटे का यह नया व्यक्तित्व! पुरखों के जिस इतिहास को उनके माध्यम से बेटे तक पहुँचना चाहिए था वह बेटे से होकर उन तक पहुँच रहा है। हे राम! बेटे का वजूद फैल रहा है, फैलता जा रहा है जबकि उनका दिन-पर-दिन सिकुड़ता जा रहा है।

बेटे के जवाब से पराजय स्वीकार कर ली उन्होंने। समझ गये बेटे को समझाना उनके बस का नहीं। उसके व्यक्तित्व के पर निकल आये हैं, अब उसे उड़ान भरने से रोकना उनके बस का नहीं। इससे पूर्व कि लड़का उनके हाथों से पूरी तरह निकल जाए, अच्छा होगा कि वे भी उसके सरोकारों और सपनों के हिस्सेदार बन जाएँ।

रात उन्होंने रोती-कलपती पत्नी को भी समझाया, ‘‘देखो ख़तरा कहाँ नहीं है। जीना-मरना सब ऊपरवाले के हाथ है। हवा के रुख़ को पहचानो और सन्दीप को राज़ी-ख़ुशी देहरादून के लिए विदा करो।’’

घरवाले और रिश्तेदार ही नहीं, पूरा मुहल्ला विदा करने आया था सन्दीप को स्टेशन। सचमुच वीर घटना थी मुहल्ले के लिए। व्यापारी परिवार और वह भी मारवाड़ी? उनका लड़का सेना में? जिसकी दादी बिल्ली से डर जाती है और जिसकी अम्मा छिपकली देख भाग खड़ी होती है उस परिवार का वंशज तोप, गोला, बारूद और बन्दूक की दुनिया में? क्या बात है। कइयों ने उसे हैरत और गर्व से देखा तो कइयों की निगाह में हैरत, हैरानी और तरस खाने का मिला-जुला भाव भी था। क्या देती है आर्मी... जितना पैसा मिलता है उससे क्या बाप जैसी ठाठ-बाठ की ज़िन्दगी जी पाएगा वह? मुहल्ले की एक अधबूढ़ी औरत ने अतिउत्साह में जब गर्दन हिला -हिलाकर कहा... वाह! देश सेवा के लिए जा रहा है सन्दीप, तो बजाय गौरवान्वित होने के शेखर बाबू और उनकी पत्नी का मुँह सिकुड़-सा गया था। इस काले समय में देशभक्ति भी शायद पिछड़े लोगों की फ़ितरत रह गयी थी।

...और जब गार्ड ने सिग्न्ल दिया, और ट्रेन हिली तो अपने पापा और माँ को हिचकी ले-ले रोते देख सन्दीप की भी आँखें छलछला आयीं, लगा जैसे किसी ने भीगे तौलिये की तरह आत्मा को निचोड़कर रख दिया है। उफ़! कितनी जानलेवा होती है अपनत्व की यह डोर! जिनसे भागकर दूर चला जाना चाहता है वह, वे ही आज चलाचली की इस बेला कितने वेग से खींच रहे हैं उसे अपनी ओर। सही में मन जो न कराए सो थोड़ा।

क़ाश उसे समझाने की बजाय घरवाले उसे समझ पाते कि वह अपना जीवन पिता की तरह पाई-पाई का हिसाब रखने, तेज़ी-मन्दी खेलने, पीतल तौलने या फिर किसी प्राइवेट फर्म के बाँस की मनहूस शक्ल देखने की बजाय राष्ट्र की सुरक्षा कर सीमाओं की चौकसी में बिताना चाहता है!

पर यह गाड़ी क्यों नहीं चल रही? इससे पहले कि भावनाओं का भार असह्य हो जाए और वह कच्चा पड़ जाए परिवार के सामने, गाड़ी को चल जाना चाहिए। उसका मन किया वह ख़ुद धक्का लगा दे ट्रेन को। पूरा महीना निकाल दिया उसने परिवार को झेलते, उनसे झगड़ते पर विदा के ये पन्द्रह-बीस मिनट चट्टान की तरह उसके वजूद पर भारी पड़ रहे थे।

जब उसे लगा बस अब गाड़ी चलने वाली है...। उसने माँ-पापा के चरणस्पर्श किये तो पिता ने अंक में भरते हुए उसे फिर स्मरण कराया, ‘‘बेटा, आर्मी के अनुबन्ध के अनुसार जब तक तुम ट्रेनिंग पीरियड में हो कभी भी लौट कर वापस आ सकते हो नागरिक जीवन में... इसलिए अभी भी तुम चाहो तो निर्णय बदल सकते हो। पर एक बार तुमने अनुबन्ध पत्र और शपथ-पत्र में हस्ताक्षर कर दिया तो फिर नामुमकिन है नागरिक जीवन में वापस लौटना... बोलते-बोलते उसके पिता सचमुच रो पड़े थे। उसके पिता का यह एकदम नया रूप था जिसकी परत उसके सामने खुल रही थी। अभी तक उसने अपने पापा को हमेशा व्यापार में डूबे और मातहतों, कर्मचारियों और क़र्जदारों से सख़्ती से पेश आते ही देखा था। पापा का यह रूप और माँ की लाल -लाल आँखों को देख उसके भीतर के ठिठके ठहरे पानियों में जाने कैसी तो लहर उठी... और उसकी सारी मजबूती रेत के ठूह-सी ढह गयी।

ट्रेन के चलने के पूर्व ही वह अपनी सीट पर चला गया। चलाचली की बेला में कच्चा नहीं पड़ना चाहता था वह।

और जब गाड़ी सचमुच चल दी तो उसने सुना माँ उसकी खिड़की के पास खड़ी, शीशे के उस पार के चिल्ला रही थी - सन्दीप! सन्दीप! दरवाज़े तक आओ। पर वह बाहर नहीं निकला...। भीतर चलती आँधियों को रोके रहा वह। इस क्षण पराजित हो गया तो सारी ज़िन्दगी अपनी इस दुर्बलता के लिए माफ़ नहीं कर पाएगा वह स्वयं को उफ़ कितना रहस्यमय है यह मन! जो वह चाह रहा था, वही हो रहा है, तो भी वह ख़ुश क्यों नहीं? क्यों हो रहा है इतना आकुल -व्याकुल। आख़िर जब ट्रेन चलने लगी तो दौड़कर आया वह दरवाज़े तक। हिलते हाथ। देखा उसने - ध्वस्त हुई माँ को छोटा भाई सहारा देकर ले जा रहा है, आहिस्ता -आहिस्ता! देहरादून स्टेशन! राहत महसूसी उसने - सामने आर्मी की गाड़ी। गाड़ी में लकदक आर्मी अफ़सर उसे ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग अकादमी ले जाने के लिए।

सपना पूरा होने के बाद कैसे जीता है आदमी!

ऐसे!

उसे उत्तेजना और आशंका ने एक साथ दबोचा - अब वह इंडियन आर्मी में है। जहाँ इस खयाल ने उसे तरंगित किया वहीं इस सोच ने कि अब वह घर से हज़ारों मील की दूरी पर है, आगे की सारी उड़ान अपने कन्धों पर, क्या सामर्थ्य बटोर पाएगा वह? जाने कैसी ट्रेनिंग हो। बहरहाल अनजाने ही एक उम्मीद भीतर उगने लगी - आर्मी स्वागत करेगी उसका। अख़बार में पढ़ा वह विज्ञापन फिर एक बार आँखों के आगे लहरा गया - नेशन नीड्स यू। अपने चमकते कैरियर को दाँव पर लगा वह यहाँ आया है... इस बात का लिहाज़ क्या नहीं करेगी आर्मी?

आर्मी की बड़ी-सी जीप के पास खड़ा रहा वह जाने किस उम्मीद में कि अचानक सुनी उसने एक रूखी और कड़कती आवाज़ - सामान उठा। क्या...? उसी से कहा गया? भीतर कुछ दरका। उत्साह अचानक हाथ से छूटे गिलास की तरह चूर -चूर हो गया। फ़ौजी जीवन की सनसनी परे हट गयी। धुकधुकी शुरू हो गयी। उसने तो उम्मीद की थी कि कुली आएगा। उसका सामान उठाएगा और वह राजाबाबू की तरह दोनों हाथ पेंट की जेब में डाले मुस्कराते हुए हौले-हौले चलेगा। उफ़! वह तो भूल ही गया था कि यह आर्मी है, कठोर जीवन शैली वाली। पहले आघात से ही नहीं सँभल पाया था वह कि तभी एक और कर्कश आवाज़ कानों से टकरायी - यू बास्टर्ड! कम हियर। उससे सिर्फ़ छह महीने सीनियर अफ़सर का यह रवैया! सँभला-सँभला कि तभी उसी ऑफ़िसर ने उसके बेल्ट की लूप में उँगली डाल उसे गर्दन से धर दबोचा।

उसकी आँखें भर आयीं। क्या दुनिया में ऑक्सीजन की कमी हो गयी है? उसका दम घुटने लगा। उस एक शब्द ‘बास्टर्ड’ ने उसे उसके ख़्वाबों की ज़मीन से दूर पटक अनजाने भविष्य के प्रति उसके कच्चे मन में हल्का -सा डर भी पैदा कर दिया था। उफ़! यह आर्मी है या सांड, मिलते ही लगा सींग मारने। जिस आर्मी के लिए उसने सबको रुलाया, आज पाँव धरते ही उसने उसे ही रुला दिया।

कहीं पापा की भविष्यवाणी सही न हो जाए!

बाद में मालूम पड़ा उसे कि यह सब रैगिंग थी। ऑफिसर्स ट्रेनिंग में क़दम रखते ही उसे कठोर... उसे आदमी, उसे ही-मैन बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी।

बीतेकल की उतरती सीढ़ियाँ।

पहाड़ियों, घाटियों, हवाओं और वादियों का शहर देहरादून।

एक नयी दुनिया थी वह जो परत दर परत खुलती जा रही थी उसके सामने। अपने सारे रहस्यों और उत्तेजनाओं के साथ। एक बार फिर इस विश्वास ने उसके भीतर जगह बनायी कि कितनी मेहनत करती है आर्मी आदमी को आदमी बनाने के लिए। अब समझ में आया उसे कि क्यों इतना कठिन इंटरव्यू होता है आर्मी के ऑफ़िसर्स कैटेगरी के लिए। यदि कच्ची माटी में गुणवत्ता हो तो फिर चाहे जो भी रूप दे दे उसे आर्मी। ऐसा गढ़ती है आर्मी आदमी को किसी कुशल कुम्भकार की तरह कि फिर जीवन भर के लिए आदमी वह नहीं रह पाता है जो वह था - इस दुनिया में घुसने के पूर्व। सबकुछ बदल जाता है उसका - देह, मन, आत्मा।

वह शिवाजी बटालियन की मैक्टीला की कम्पनी में था। हर कम्पनी में 80 ऑफ़िसर थे। उसका दोस्त गिरिराज रंजीत बटालियन की कोहिमा कम्पनी में था। हर कम्पनी के पास दो प्लेटून होते हैं। हरेक प्लेटून में 30 -40 कैडेट होते हैं। उनके ऊपर एक ग्रुप-ऑफ़िसर होता है। वही ट्रेनिंग देता है। उसके कैप्टन का नाम था - ए.के. सिंह।

और वहीं एक और नये सत्य से साक्षात्कार हुआ - जैसे कोई भी पानी हो, छोटी -मोटी नदियाँ हों, नाले हो, चश्मे हो, तालाब हो... लेकिन सब गंगा में जाकर गंगा हो जाती हैं, वैसे ही भारत के विभिन्न राज्यों, प्रान्तों, मैदानों, पहाड़ों, राजमार्गों, पगडंडियों से जो भी आता है यहाँ, आर्मी की गंगा में मिलकर फ़ौजी हो जाता है और वही बनती है उसकी पहचान। और इस फ़ौजी को आर्मी सबसे पहले बनाती है जेंटिलमैन। सबसे पहले तुम एक अच्छे इनसान बनो फिर कुछ और। और इसी प्रक्रिया के तहत हर फ़ौजी को दिया गया - जेंटिलमैन कैडट नम्बर। उसका जेंटिलमैन कैडेट नम्बर था - एक सौ आठ।

यही थी उसकी नयी पहचान। अब वह नाम से नहीं, जी.सी. नम्बर से पहचाना जाता था। और यही था आर्मी का मूलमन्त्र भी। ‘स्व’ को विसर्जित कर समूह में ढालना। यहाँ सारे जीवन मूल्य सामूहिकता के जीवन-मूल्य थे। व्यक्ति से टीम, टीम से कम्पनी, कम्पनी से बैटेलियन, बैटेलियन से रेजिमेंट और रेजिमेंट से राष्ट्र के लिए सोचना। लेकिन सबसे ज़्यादा झुँझलाहट होती उसे बार-बार ड्रेस बदलने से। जैसे उसका वजूद सिमटकर वर्दी में रिड्यूस हो गया हो। जैसे वह मनुष्य नहीं सिर्फ़ एक वर्दी हो। अपने घर में जितनी ड्रेसें वह सप्ताह भर में नहीं बदलता उतनी उसे यहाँ एक दिन में बदलनी पड़ जाती। पी.टी. के लिए सफ़ेद टी.शर्ट और ड्रिल के लिए अलग ड्रेस तक तो बात फिर भी समझ में आती लेकिन इनडोर क्लास के लिए अलग ड्रेस और आउटडोर क्लास के लिए भी अलग चीता ड्रेस - हलके हरी और पीली पत्तियों वाली ड्रेस। कई बार तो उसे पाँच मिनट भी नहीं दिए जाते ड्रेस बदलने के लिए।

क्या इसी प्रकार ड्रेसें बदलवा बदलवा कर उसे फुर्तीला बनाया जाएगा?

उसके शून्य में यह सवाल किसी नन्हें पौधे की तरह उगा। कई बार दिमाग़ में एक और सवाल - उगता, क्या यहाँ आकर उसने कोई भूल की?

विशेषकर जब नियमों के खूटों से बँधी यहाँ की कठोर दिनचर्या और ज़बरदस्त रैगिंग से घबराकर उसकी आत्मा चीत्कार कर उठती – नहीं, यह ज़िन्दगी उसकी नहीं हो सकती, यह तो अजगर की तरह निगल लेगी उसकी तरंगों को, उसके सपनों को उसकी उड़ानों को। ऐसे में घर की यादें, घर का खाना लहरों की तरह उसे उद्वेलित करता बहा ले जाता।

यहाँ उसे पाँच बजे उठा जाना पड़ता। कड़क ठंड में भी नहाना पड़ता और फिर निकल जाना पड़ता पी.टी. के लिए। घंटे भर चलती पी.टी.। इतना ज़्यादा शारीरिक व्यायाम होता कि ठंड में भी वह पसीने में नहा जाता। उसके अंडरवीयर तक भीग जाते, भीतर घाव हो जाते। फिर 20 मिनट का ब्रेक मिलता - जिसमें उसे अपनी ड्रेस बदलनी पड़ती और फिर पैंतालीस मिनट तक की फिर ड्रिल।

उसका आरामतलब शरीर चीख़ उठता।

तब जाकर मिलता उसे सुबह का नाश्ता। दही, कॉफी, चाय, दूध, अंडे, आमलेट, मक्खन, ब्रेड - जितना खा सको।

कई बार उसे भरपेट खाने भी नहीं दिया जाता। वह खाने बैठता कि सीनियर आ धमकते और अपनी कड़क आवाज़ में उसे आदेश देते - पाँच मिनट के अन्दर खाओ। वह खाना नहीं खाता, निगलता। भकोसता जितना भकोस पाता पाँच मिनट में। कई बार खाने बैठता। देखता थाली से चपातियाँ ग़ायब। ख़ाली दाल पीकर वह चल देता।

यहीं आकर उसने जाना - आर्मी की मशहूर स्कवाअर अप रैगिंग। अँग्रेजों के ज़माने से चली आ रही थी यह रैगिंग। स्कवाअर अप मील मतलब भरपेट भोजन। उन्हें खाने पर बुलाया जाता, सजी-धजी थाली सामने रख दी जाती। जैसे ही वे खाना शुरू करते सीनियर आ धमकते। वे खड़े हो सीनियर को सैल्यूट मारते। सीनियर कहते - हवा में चम्मच से स्कवाअर बनाओ, वे हवा में चम्मच से स्कवाअर बनाते। सीनियर कहते, नाऊ, यू हैड ए स्कवाअर मील, नो मोर... अब तुम्हारा स्कवाअर मील यानी भरपेट खाना हो गया, अब तुम जा सकते हो। यह उन दिनों का सबसे दुखद दृश्य होता। पूरे दिन भूखा रहना पड़ता। कई बार वह अपने मोज़ों में चॉकलेट छिपा लेता, जैसे ही मौक़ा मिलता उसे खा लेता।

एक रात कड़कती ठंड में उसे आदेश मिला - कपड़े उतार ज़मीन पर लेटो, सिवाय अंडरवीयर के उसने सारे कपड़े उतार डाले।

और आर्मी के दंड! ख़ुदा बचाए! पीठ पर पत्थर से भरा बोरा लेकर रूटीन दौड़ लगा ही चुका था वह। साइकिल से अपने क्वार्टर की तरफ़ बढ़ रहा था, उसने खयाल नहीं किया सीनियर उधर से निकल रहे थे। आर्मी आचार संहिता के अनुसार उसे साइकिल से उतरकर पैदल ही साइकिल के साथ चलना था। पर ज़बरदस्त थकावट और भूख ने उसे अधमरा कर दिया था। अपने क्वार्टर में लौटा तो खाने की बजाय दंड हाज़िर था - साइकिल कन्धे पर रखकर दौड़ो।

या ख़ुदा क्या सामन्तवाद। छह महीने सीनियर भी मालिक! सर! जिसे खुली छूट रहती है इन नये रंगरूटों को आदमी बनाने की।

धीरे -धीरे उसे समझ में आ गया कि अपने वरिष्ठों की नज़र में वह एक ऐसा गधा है जिसे फ़ौजी बनाने का भूत उन पर सवार है।

आर्मी की कठोर दिनचर्या और उस पर रैगिंग। उसका मन जमने से पहले ही उखड़ने लगा था। ग़नीमत थी तो यही कि इतनी व्यस्तताओं और फ़ौजी हलचलों के बीच कई बार उसे दिल के टूटने -उखड़ने का पता भी नहीं चलता। दिन होता, रात होती, समय चौकड़ियाँ भरता भागता जाता। एक शाम थोड़ा समय मिला तो उसे उदासी ने घेर लिया। घरवालों की याद ने विचलित कर दिया और तभी उसे ऑफ़िस बुलाया गया। वहाँ उसे अपने परम मित्र अभिषेक की एक लम्बी चिट्ठी मिली जिसे देख वह मेढ़क की तरह उछल पड़ा। अभिषेक भी अपने घर से हज़ारों मील दूर तमिलनाडु के त्रिची शहर के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग कर रहा था। चिट्ठी इस प्रकार थी,

उल्लू गधे,

तुझे लगता है कि तुझ पर फ़ौजी कायदे-क़ानून का पहाड़ टूट पड़ा है और मैं यहाँ जलेबियाँ उड़ा रहा हूँ। और जानबूझकर तुझे नहीं लिख रहा हूँ। अरे कार्टून, दुनिया हर जगह एक जैसी है। हर जगह हम लोगों की फट रही है।

तुम्हारे यहाँ होने वाली रैगिंग के बारे में मैंने अख़बार में पढ़ा। मैंने तो यहाँ तक पढ़ा कि आई.एम.ए. के भगत बैटेलियन के सिंगारी कम्पनी के जेंटिलमैन कैडेट एक सौ ग्यारह ने रैंगिग से तंग आकर आत्महत्या कर ली। तुम लोग तो फिर भी ख़ुशनसीब हो कि एक बन्दा पंखे से झूल गया और तुम सबको वैसी जानलेवा रैगिंग से मुक्ति दिला गया।

अब सुन यहाँ के हाल। बेटे, यहाँ आकर पहली बार जाना घर क्या होता है और क्या होता है घर का खाना, घर की सुविधा। घर की सुरक्षा। अभी तक हमने बाहर की दुनिया देखी ही कहाँ थी। हमारे दिमाग़ में सबकुछ अच्छा ही अच्छा भरा था। हमारे लिए बाहर की दुनिया घर का ही विस्तार थी। पहली बार यह भरोसा हमारा यहाँ आकर टूटा कि दुनिया उतनी अच्छी भी नहीं है। यहाँ आकर मैंने पाया कि हमारी निश्चल दुनिया में एकाएक धोखा, अविश्वास, क्रूरता और हिंसा घुस आयी है... कि हमें हर दिन एक नया युद्ध लड़ना होता है।