सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 16

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माणिक के पूछने पर उसने बताया कि कल रात को चमन ठाकुर के साथ महेसर दलाल आया। दोनों बड़ी रात तक बैठ कर शराब पीते रहे। सहसा महेसर से बहुत-से रुपयों की थैली ले कर चमन उठ कर बाहर चला गया और महेसर आ कर सत्ती से ऐसी बातें करने लगा जिसे सुन कर सत्ती का तन-बदन सुलगने लगा और सत्ती बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी तो देखा चमन उसे बाहर से बंद करके चला गया है। सत्ती ने फौरन अपना चाकू निकाला और महेसर दलाल को एक धक्का दिया तो महेसर दलाल लुढक गए। एक तो बूढ़े दूसरे शराब में चूर और सत्ती जो चाकू ले कर उनकी गरदन पर चढ़ बैठी तो उनका सारा नशा काफूर हो गया और बोले, 'मार डाल मुझे, मैं उफ न करूँगा। मैं तुझ पर हाथ न उठाऊँगा। लेकिन मैंने नकद पाँच सौ रुपया दिया है। मैं बाल-बच्चेदार आदमी मर जाऊँगा।' और उसके बाद हिचकियाँ भर-भर कर रोने लगा और फिर उसने वह कागज दिखाया जिस पर चमन ठाकुर ने पाँच सौ पर उसके साथ सत्ती को भेजने की शर्त की थी और महेसर रोने लगा और सत्ती के जैसे किसी ने प्राण खींच लिए हों। महेसर के हाथ-पाँव फूल गए। फिर महेसर दलाल ने समझाया कि अब तो कानूनी कार्रवाई हो गई है। फिर महेसर दलाल सुख से रखेगा वगैरह-वगैरह - पर सत्ती जड़ मुरदे-सी पड़ी रही। उसे याद नहीं महेसर ने क्या कहा, उसे याद नहीं क्या हुआ।

सत्ती चुपचाप नीची निगाह किए नखों से धरती खोदती रही और फिर माणिक की ओर देख कर बोली, 'महेसर ने आज यह अँगूठी दी है।' माणिक ने हाथ में ले कर देखा तो मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, 'असली है।' माणिक चुप हो रहे। सत्ती ने थोड़ी देर बाद पूछा कि माणिक उदास क्यों हैं तो माणिक ने बताया कि भाभी से पढ़ाई के बारे में चख-चख हो गई है तो सत्ती ने अँगूठी निकाल कर फौरन माणिक के हाथ में रख दी और कहा कि इससे वह फीस जमा कर दे। आगे की बात सत्ती के हाथ में छोड़ दे। माणिक ने इसे नहीं स्वीकार किया तो क्षण-भर सत्ती चुप रही फिर सहसा बोली, 'मैं समझ गई। अब तुम मुझसे कुछ नहीं लोगे। पर बताओ मैं क्या करूँ? मुझे कोई भी तो नहीं बताता। मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। मुझे कोई रास्ता बताओ? कोई रास्ता - तुम जो कहोगे - मैं हर तरह से तैयार हूँ।' और सचमुच सत्ती जो अब तक पत्थर की तरह निष्प्राण बैठी थी पाँव पकड़ कर फूट-फूट कर रो पड़ी। माणिक घबरा कर उठे पर उसने पाँवों पर सिर रख दिया और इतना रोई इतना रोई कि कुछ पूछो मत। पर माणिक ने कहा कि अब उन्हें देर हो रही है। तो वह चुपचाप उठी और चली गई।

एक बार फिर वह मिली और माणिक उस दिन भी उदास थे क्योंकि जुलाई आ गई थी और उनके दाखिले का कुछ निश्चय ही नहीं हो पा रहा था। सत्ती ने बहुत इसरार करके माणिक को रुपए दिए ताकि उनका काम न रुके और फिर बहुत बिलख-बिलख कर रोई और कहा कि उसकी जिंदगी नरक हो गई है। उसे कोई राह नहीं बताता। माणिक मुल्ला ने सांत्वना का एक शब्द भी नहीं कहा, तो वह चुप हो गई और पूछने लगी कि माणिक को उसकी बातें बुरी तो नहीं लगतीं क्योंकि माणिक के अलावा और कोई नहीं है जिससे वह अपना दु:ख कह सके। और माणिक से न जाने क्यों वह कोई बात नहीं छिपा पाती है और उनसे कह देने पर उसका मन हल्का हो जाता है और उसे लगता है कि कम-से-कम एक आदमी ऐसा है जिसके आगे उसकी आत्मा निष्पाप और अकलुष है।

माणिक के सामने कोई रास्ता नहीं था और सच तो यह है कि भइया का कहना भी उन्हें ठीक लगता था कि माणिक का और इन लोगों का क्या मुकाबला, दोनों की सोसायटी अलग, मर्यादा अलग, पर माणिक मुल्ला सत्ती से कुछ कह भी नहीं पाते थे क्योंकि उन्हें पढ़ाई भी जारी रखनी थी, और इसी अंतर्द्वंद्व के कारण उनके गीतों में गहन निराशा और कटुता आती जा रही थी।

और फिर एक रात एक अजब-सी घटना हुई। माणिक मुल्ला सो रहे थे कि सहसा किसी ने उन्हें जगाया और उन्होंने आँख खोली तो सामने देखा सत्ती! उसके हाथ में चाकू था, उसकी लंबी-पतली गुलाबी उँगलियों में चाकू काँप रहा था, चेहरा आवेश से आरक्त, निराशा से नीला, डर से विवर्ण। उसकी बगल में एक छोटा-सा बैग था जिसमें गहने और रुपए भरे थे। सत्ती माणिक के पाँव पर गिर पड़ी और बोली, 'किसी तरह चमन ठाकुर से छूट कर आई हूँ। अब डूब मरूँगी पर वहाँ नहीं लौटूँगी। तुम कहीं ले चलो! कहीं! मैं काम करूँगी। मजदूरी कर लूँगी। तुम्हारे भरोसे चली आई हूँ।'

माणिक का यह हाल कि ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे। कविता-उविता तो ठीक है पर यह इल्लत माणिक कहाँ पालते! और फिर भइया ठहरे भइया और भाभी उनसे सात कदम आगे। माणिक की सारी किस्मत बड़े पतले तागे पर झूल रही थी। पर आखिर दिमाग माणिक मुल्ला का ठहरा। खेल ही तो गया। फौरन बोले, 'अच्छा बैठो सत्ती! मैं अभी चलूँगा। तुम्हारे साथ चलूँगा।' और इधर पहुँचे भइया के पास। चुपचाप दो वाक्यों में सारी स्थिति बता दी। भइया बोले, 'उसे बिठाओ, मैं चमन को बुला लाऊँ।' माणिक गए और सत्ती जितना इसरार करे जल्दी निकल चलने को कि कहीं महेसर दलाल या चमन ही न आ पहुँचे उतना माणिक किसी-न-किसी बहाने टालते जाएँ और जब सत्ती ने चाकू चमका कर कहा कि 'अगर नहीं चलोगे तो आज या तो मेरी जान जाएगी या और किसी की' तो माणिक का रोम-रोम थर्रा उठा और मन-ही-मन माणिक भइया को स्मरण करने लगे।

सत्ती उनसे पूछती रही, 'कहाँ चलोगे? कहाँ ठहरोगे? कहाँ नौकरी दिलाओगे? मैं अकेली नहीं रहूँगी!' इतने में एक हाथ में लाठी लिए महेसर और एक में लालटेन लिए चमन ठाकुर आ पहुँचे ओर पीछे-पीछे भइया और भाभी। सत्ती देखते ही नागिन की तरह उछल कर कोने में चिपक गई और क्षण-भर में ही स्थिति समझ कर चाकू खोल कर माणिक की ओर लपकी, 'दगाबाज! कमीना!' पर भइया ने फौरन माणिक को खींच लिया, महेसर ने सत्ती को दबोचा और भाभी चीख कर भागीं।

उसके बाद कमरे में भयानक दृश्य रहा। सत्ती काबू में ही न आती थी, पर जब चमन ठाकुर ने अपने एक ही फौजी हाथ से पटरा उठा कर सत्ती को मारा तो वह बेहोश हो कर गिर पड़ी। इसी अवस्था में सत्ती का चाकू वहीं छूट गया और उसके गहनों का बैग भी पता नहीं कहाँ गया। माणिक का अनुमान था कि भाभी ने उसे सुरक्षा के खयाल से ले जा कर अपने संदूक में रख लिया था।

बेहोश सत्ती को भइया और महेसर उठा कर उसके घर पहुँचा आए और माणिक मुल्ला डर के मारे भइया के कमरे में सोए।

दूसरे दिन चमन ठाकुर के घर पर काफी जमाव था क्योंकि घर खुला पड़ा था, सामान बिखरा पड़ा था, और चमन ठाकुर तथा सत्ती दोनों गायब थे और बहुत सुबह उठ कर जो बूढ़ियाँ गंगा नहाने जाती हैं उनका कहना था कि एक ताँगा इधर से गया था जिस पर कुछ सामान लदा था, चमन ठाकुर बैठा था और आगे की सीट पर सफेद चादर से ढका कोई सो रहा था जैसे लाश हो।

लोगों का कहना था कि चमन और महेसर ने मिल कर रात को सत्ती का गला घोंट दिया।