सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 18

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सातवीं दोपहर

सूरज का सातवाँ घोड़ा

अर्थात वह जो सपने भेजता है!

अगले दिन मैं गया और माणिक मुल्ला से बताया कि मैंने यह सपना देखा तो वे झल्ला गए : 'देखा है तो मैं क्या करूँ? जब देखो तब 'सपना देखा है, सपना देखा है!' अरे कौन शेर, चीता देखा है कि गाते-फिरते हो!' जब मैं चुप हो गया तो माणिक मुल्ला उठ कर मेरे पास आए और सांत्वना-भरे शब्दों में बोले, 'ऐसे सपने तुम अक्सर देखते हो?' मैंने कहा, 'हाँ' तो बोले, 'इसका मतलब है कि प्रकृति ने तुम्हें विशेष कार्य के लिए चुना है! यथार्थ जिंदगी के बहुत-से पहलुओं को, बहुत-सी चीजों के आंतरिक संबंध को और उनके महत्व को तुम सपनों में एक ऐसे बिंदु से खड़े हो कर देखोगे जहाँ से दूसरे नहीं देख पाएँगे और फिर अपने सपनों को सरल भाषा में तुम सबके सामने रखोगे। समझे?' मैंने सिर हिलाया कि हाँ मैं समझ गया तो वे फिर बोले, 'और जानते हो ये सपने सूरज के सातवें घोड़े के भेजे हुए हैं!'

जब मैंने पूछा कि यह क्या बला है तो और लोग अधीर हो उठे और बोले, यह सब मैं बाद में पूछ लूँ और माणिक मुल्ला से कहानी सुनाने का इसरार करने लगे।

माणिक मुल्ला ने आगे कहानी सुनाने से इनकार किया और बोले, एक अविच्छिन्न क्रम में इतनी प्रेम-कहानियाँ बहुत काफी हैं, सच तो यह कि उन्होंने इतने लोगों के जीवन को ले कर एक पूरा उपन्यास ही सुना डाला है। सिर्फ उसका रूप कहानियों का रखा ताकि हर दोपहर को हम लोगों की दिलचस्पी बदस्तूर बनी रहे और हम लोग ऊबें न। वरना सच पूछो तो यह उपन्यास ही था और इस ढंग से सुनाया गया था कि जो लोग सुखांत उपन्यास के प्रेमी हैं वे जमुना के सुखद वैधव्य से प्रसन्न हों, स्वर्ग में तन्ना और जमुना के मिलन पर प्रसन्न हों, लिली के विवाह से प्रसन्न हों, और सत्ती के चाकू से माणिक मुल्ला की जान बच जाने पर प्रसन्न हों, और जो लोग दुखांत के प्रेमी हैं वे सत्ती के भिखारी जीवन पर दु:खी हों, तन्ना की रेल दुर्घटना पर दु:खी हों, लिली और माणिक मुल्ला के अनंत विरह पर दु:खी हों। साथ ही माणिक मुल्ला ने हम लोगों को यह भी समझाया कि यद्यपि इन्हें प्रेम-कहानियाँ कहा गया है पर वास्तव में ये 'नेति-प्रेम' कहानियाँ हैं अर्थात जैसे उपनिषदों में यह ब्रह्म नहीं है, नेति-नेति कह कर ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण किया गया है उसी तरह उन कहानियों में 'यह प्रेम नहीं था, यह भी प्रेम नहीं था, यह भी प्रेम नहीं था', कह कर प्रेम की व्याख्या और सामाजिक जीवन में उसके स्थान का निरूपण किया गया था। 'सामाजिक जीवन' का उच्चारण करते हुए माणिक मुल्ला ने फिर कंधे हिला कर मुझे सचेत किया और बोले, तुम बहुत सपनों के आदी हो और तुम्हें यह बात गिरह में बाँध लेनी चाहिए कि जो प्रेम समाज की प्रगति और व्यक्ति के विकास का सहायक नहीं बन सकता वह निरर्थक है। यही सत्य है। इसके अलावा प्रेम के बारे में कहानियों में जो कुछ कहा गया है, कविताओं में जो कुछ लिखा गया है, पत्रिकाओं में जो छापा गया है, वह सब रंगीन झूठ है और कुछ नहीं। फिर उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने सबसे पहले प्रेम-कहानियाँ इसीलिए सुनाईं कि यह रूमानी विभ्रम हम लोगों के दिमाग पर ऐसी बुरी तरह छाया हुआ है कि इसके सिवा हम लोग कुछ भी सुनने के लिए तैयार न होते। (बाद में उन्होंने अन्य बहुत से कथारूप में उपन्यास सुनाए जिन्हें यदि अवकाश मिला तो लिखूँगा, पहले इस बीच में माणिक मुल्ला की प्रतिक्रिया इन कहानियों पर जान लूँ।)

कथा-क्रम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए उन्होंने कहा कि सात दोपहर तक चलनेवाला यह क्रम बहुत कुछ धार्मिक पाठ-चक्रों के समान है जिनमें एक किसी संत के वचन या धर्म-ग्रंथ का एक सप्ताह तक पारायण होता है और रोज उन्होंने हम लोगों को एक कहानी सुनाई और अंत में निष्कर्ष बाँटा (यद्यपि इसमें आंशिक सत्य था क्योंकि कहानियों में उन्होंने निष्कर्ष बतलाया ही नहीं!) माणिक-कथाचक्र में दिनों की संख्या सात रखने का कारण भी शायद बहुत-कुछ सूरज के सात घोड़ों पर आधारित था।

अंत में मैंने फिर पूछा कि सूरज के सात घोड़ों से उनका क्या तात्पर्य था और सपने सूरज के सातवें घोड़े से कैसे संबद्ध हैं तो वे बड़ी गंभीरता से बोले कि, देखो ये कहानियाँ वास्तव में प्रेम नहीं वरन उस जिंदगी का चित्रण करती हैं जिसे आज का निम्न-मध्यवर्ग जी रहा है। उसमें प्रेम से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है आज का आर्थिक संघर्ष, नैतिक विश्रृंखलता, इसीलिए इतना अनाचार, निराशा, कटुता और अँधेरा मध्यवर्ग पर छा गया है। पर कोई-न-कोई ऐसी चीज है जिसने हमें हमेशा अँधेरा चीर कर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुन: स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस,सत्य के प्रति निष्ठा उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं। कहा भी गया है, 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।'

तो वास्तव में सूर्य के रथ को आगे बढ़ना ही है। हुआ यह कि हमारे वर्ग-विगलित, अनैतिक, भ्रष्ट और अँधेरे जीवन की गलियों में चलने से सूर्य का रथ काफी टूट-फूट गया है और बेचारे घोड़ों की तो यह हालत है कि किसी की दुम कट गई है तो किसी का पैर उखड़ गया है, तो कोई सूख कर ठठरी हो गया है, तो किसी के खुर घायल हो गए हैं। अब बचा है सिर्फ एक घोड़ा जिसके पंख अब भी साबित हैं, जो सीना ताने, गरदन उठाये आगे चल रहा है। वह घोड़ा है भविष्य का घोड़ा, तन्ना, जमुना और सत्ती के नन्हें निष्पाप बच्चों का घोड़ा; जिनकी जिंदगी हमारी जिंदगी से ज्यादा अमन-चैन की होगी, ज्यादा पवित्रता की होगी, उसमें ज्यादा प्रकाश होगा, ज्यादा अमृत होगा। वही सातवाँ घोड़ा हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिन पर हो कर भविष्य का घोड़ा आएगा; इतिहास के वे नए पन्ने लिख सकें जिन पर अश्वमेध का दिग्विजयी घोड़ा दौड़ेगा। माणिक मुल्ला ने यह भी बताया कि यद्यपि बाकी छह घोड़े दुर्बल, रक्तहीन और विकलांग हैं पर सातवाँ घोड़ा तेजस्वी और शौर्यवान है और हमें अपना ध्यान और अपनी आस्था उसी पर रखनी चाहिए।

माणिक मुल्ला ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए माणिक-कथाचक्र की इस प्रथम श्रृंखला का नाम 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' रखा था। संभव है यह नाम आपको पसंद न आवे इसीलिए मैंने यह कबूल कर लिया कि यह मेरा दिया हुआ नहीं है।

अंत में मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस लघु उपन्यास की विषय-वस्तु में जो कुछ भी भलाई-बुराई हो उसका जिम्मा मुझ पर नहीं माणिक मुल्ला पर ही है। मैंने सिर्फ अपने ढंग से वह कथा आपके सामने प्रस्तुत कर दी है। अब आप माणिक मुल्ला और उनकी कथाकृति के बारे में अपनी राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।

धर्मवीर भारती कृत उपन्यास "सूरज का सातवाँ घोड़ा" समाप्त