सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 8

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तीसरी दोपहर शीर्षक माणिक मुल्ला ने नहीं बताया हम लोग सुबह सो कर उठे तो देखा कि रात ही रात सहसा हवा बिलकुल रुक गई है और इतनी उमस है कि सुबह पाँच बजे भी हम लोग पसीने से तर थे। हम लोग उठ कर खूब नहाए मगर उमस इतनी भयानक थी कि कोई भी साधन काम न आया। पता नहीं ऐसी उमस इस शहर के बाहर भी कहीं होती है या नहीं; पर यहाँ तो जिस दिन ऐसी उमस होती है उस दिन सभी काम रुक जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में क्लर्क काम नहीं कर पाते, सुपरिंटेंडेंट बड़े बाबुओं को डाँटते हैं, बड़े बाबू छोटे बाबुओं पर खीज उतारते हैं, छोटे बाबू चपरासियों से बदला निकालते हैं और चपरासी गालियाँ देते हुए पानी पिलानेवालों से, भिश्तियों से और मालियों से उलझ जाते हैं; दुकानदार माल न बेच कर ग्राहकों को खिसका देते हैं और रिक्शावाले इतना किराया माँगते हैं कि सवारियाँ परेशान हो कर रिक्शा न करें। और इन तमाम सामाजिक उथल-पुथल के पीछे कोई ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रगति का सिद्धांत न हो कर केवल तापमान रहता है - टेंपरेचर, उमस, एक-सौ बारह डिगरी फारिनहाइट! लेकिन इस उमस के बावजूद माणिक मुल्ला की कहानियाँ सुनने का लोभ हम लोगों से छूट नहीं पाता था अत: हम सबके-सब नियत समय पर वहीं इकट्ठा हुए और मिलने पर सबमें यही अभिवादन हुआ - 'आज बहुत उमस है!' 'हाँ जी, बहुत उमस है; ओफ-फोह!' सिर्फ प्रकाश जब आया और उससे सबने कहा कि आज बहुत उमस है तो फलसफा छाँटते हुए अफलातून की तरह मुँह बना कर बोला (मेरी इस झल्लाहट-भरी टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे क्योंकि पिछली रात उसने मार्क्सवाद के सवाल पर मुझे नीचा दिखाया था और सच्चे संकीर्ण मार्क्सवादियों की तरह से झल्ला उठा था और मैंने तय कर लिया था कि वह सही बात भी करेगा तो मैं उसका विरोध करूँगा), बहरहाल प्रकाश बोला, 'भाईजी, उमस हम सभी की जिंदगी में छाई हुई है, उसके सामने तो यह कुछ न नहीं है। हम सभी निम्नमध्य श्रेणी के लोगों की जिंदगी में हवा का एक ताजा झोंका नहीं। चाहे दम घुट जाए पर पत्ता नहीं हिलता, धूप जिसे रोशनी देना चाहिए हमें बुरी तरह झुलसा रही है और समझ में नहीं आता कि क्या करें। किसी-न-किसी तरह नई और ताजी हवा के झोंके चलने चाहिए। चाहे लू के ही झोंके क्यों न हों।' प्रकाश की इस मूर्खता-भरी बात पर कोई कुछ नहीं बोला। (मेरे झूठ के लिए क्षमा करें क्योंकि माणिक ने इस बात की जोर से ताईद की थी, पर मैंने कह दिया न कि मैं अंदर-ही-अंदर चिढ़ गया हूँ!) खैर, तो माणिक मुल्ला बोले कि, 'जब मैं प्रेम पर आर्थिक प्रभाव की बात करता हूँ तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढाँचा हमारे मन पर इतना अजब-सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएँ उससे स्वाधीन नहीं हो पातीं और हम-जैसे लोग जो न उच्चवर्ग के हैं, न निम्नवर्ग के, उनके यहाँ रुढ़ियाँ, परंपराएँ, मर्यादाएँ भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिला कर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र-मात्र रह जाते हैं हमारे अंदर उदार और ऊँचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब-सी जड़ मूर्च्छना हम पर छा जाती है।' प्रकाश ने जब इसका समर्थन किया तो मैंने इनका विरोध किया और कहा, 'लेकिन व्यक्ति को तो हर हालत में ईमानदार बना रहना चाहिए। यह नहीं कि टूटता-फूटता चला जाए।' तो माणिक मुल्ला बोले, 'यह सच है, पर जब पूरी व्यवस्था में बेईमानी है तो एक व्यक्ति की ईमानदारी इसी में है कि वह एक व्यवस्था द्वारा लादी गई सारी नैतिक विकृति को भी अस्वीकार करे और उसके द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओं को भी, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। लेकिन हम यह विद्रोह नहीं कर पाते, अत: नतीजा यह होता है कि जमुना की तरह हर परिस्थिति में समझौता करते जाते हैं। 'लेकिन सभी तो जमुना नहीं होते?' मैंने फिर कहा। 'हाँ, लेकिन जो इस नैतिक विकृति से अपने को अलग रख कर भी इस तमाम व्यवस्था के विरुद्ध नहीं लड़ते, उनकी मर्यादाशीलता सिर्फ परिष्कृत कायरता होती है। संस्कारों का अंधानुसरण! और ऐसे लोग भले आदमी कहलाए जाते हैं, उनकी तारीफ भी होती है, पर उनकी जिंदगी बेहद करुण और भयानक हो जाती है और सबसे बड़ा दु:ख यह है कि वे भी अपने जीवन का यह पहलू नहीं समझते और बैल की तरह चक्कर लगाते चले जाते हैं। मसलन मैं तुम्हें तन्ना की कहानी सुनाऊँ? तन्ना की याद है न? वही महेसर दलाल का लड़का!' लोग व्यर्थ के वाद-विवाद से ऊब गए थे अत: माणिक मुल्ला ने कहानी सुनानी शुरू की - अकस्मात ओंकार ने रोक कर कहा, 'इस कहानी का शीर्षक?' माणिक मुल्ला इस व्याघात से झल्ला उठे और बोले, 'हटाओ जी, मैं क्या किसी पत्रिका को कहानी भेज रहा हूँ कि शीर्षक के झगड़े में पड़ूँ। तुम लोग कहानी सुनने आए हो या शीर्षक सुनने? या मैं उन कहानी-लेखकों में से हूँ जो आकर्षक विषय-वस्तु के अभाव में आकर्षक शीर्षक दे कर पत्रों में संपादकों और पाठकों को ध्यान खींचा करते हैं!' यह देख कर कि माणिक मुल्ला ओंकार को डाँट रहे हैं, हम लोगों ने भी ओंकार को डाँटना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि जब माणिक मुल्ला ने हम लोगों को डाँटा तो हम लोग चुप हुए और उन्होंने अपनी कहानी प्रारंभ की - तन्ना के कोई भाई नहीं था। पर तीन बहनें थीं। उनमें से जो सबसे छोटी थी उसी को जन्म देने के बाद उसकी माँ गोलोक चली गई थी। रह गए पिताजी जो दलाल थे। चूँकि बच्चे छोटे थे, उनकी देख-भाल करनेवाला कोई नहीं था, अत: तन्ना के पिता महेसर दलाल ने अपनी यह इच्छा जाहिर की कि किसी भले घर की कोई दबी-ढँकी सुशील कन्या मिल जाए तो बच्चों का पालन-पोषण हो जाए, वरना अब उन्हें क्या बुढ़ापे में कोई औरत का शौक चढ़ा है? राम राम! ऐसी बात सोचना भी नहीं चाहिए। उन्हें तो सिर्फ बच्चों की फिक्र है वरना अब तो बचे-खुचे दिन राम के भजन में और गंगा-स्नान में काट देने हैं। रही तन्ना की माँ, सो तो देवी थी, स्वर्ग चली गई; महेसर दलाल पापी थे सो रह गए। बच्चों का मुँह देख कर कुछ नहीं करते वरना हरद्वार जा कर बाबा काली कमलीवाले के भंडारों में दोनों जून भोजन करते और लोक-परलोक सुधारते। लेकिन मुहल्ले-भर की बड़ी-बूढ़ी औरतें कोई ऐसी सुशील कन्या न जुटा पाईं जो बच्चों का भरण-पोषण कर सके, अंत में मजबूर हो कर महेसर दलाल एक औरत को सेवा-टहल और बच्चों के भरण-पोषण के लिए ले आए। उस औरत ने आते ही पहले महेसर दलाल के आराम की सारी व्यवस्था की। उनका पलँग, बिस्तर, हुक्का-चिलम ठीक किया, उसके बाद तीनों लड़कियों के चरित्र और मर्यादा की कड़ी जाँच की और अंत में तन्ना की फिजूलखर्ची रोकने की पूरी कोशिश करने लगी। बहरहाल उसने तमाम बिखरती हुई गृहस्थी को बड़ी सावधानी से सँभाल लिया। अब उसमें अगर तन्ना और उनकी तीनों बहनों को कुछ कष्ट हुआ तो इसके लिए कोई क्या करे? तन्ना की बड़ी बहन घर का काम-काज, झाड़ू-बुहार, चौका-बरतन किया करती थी; मँझली बहन जिसके दोनों पाँवों की हड्डियाँ बचपन से ही खराब हो गई थीं, या तो कोने में बैठे रहती थी या आँगन-भर में घिसल-घिसल कर सभी भाई-बहनों को गालियाँ देती रहती थी; सबसे छोटी बहन पंचम बनिया के यहाँ से तंबाकू, चीनी, हल्दी, मिट्टी का तेल और मंडी से अदरक, नींबू, हरी मिर्च, आलू और मूली वगैरह लाने में व्यस्त रहती थी। तन्ना सुबह उठ कर पानी से सारा घर धोते थे, बाँस में झाड़ू बाँध कर घर-भर का जाला पोंछते थे, हुक्का भरते थे, इतने में स्कूल का वक्त हो जाता था। लेकिन खाना इतनी जल्दी कहाँ से बन सकता था, अत: बिना खाए ही स्कूल चले जाते थे। स्कूल से लौट कर आने पर उन्हें फिर शाम के लिए लकड़ी चीरनी पड़ती थी, बुरादे की अँगीठी भरनी पड़ती थी, दीया-बत्ती करनी पड़ती थी, बुआ (उस औरत को सब बच्चे बुआ कहा करें यह महेसर दलाल का हुक्म था) का बदन भी अकसर दबाना पड़ता था क्योंकि बेचारी काम करते-करते थक जाती थी और तब तन्ना चबूतरे के सामने लगी हुई म्यूनिसिपैलिटी की लालटेन के मंद-मधुर प्रकाश में स्कूल का काम किया करते थे। घर में लालटेन एक ही थी और वह बुआ के कमरे में जलती-बुझती रहती थी।


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