सूरज का सातवाँ घोड़ा / भूमिका / धर्मवीर भारती

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आगे बढ़ो,

सूर्योदय रुका हुआ है!

सूरज को मुक्त करो ताकि संसार में प्रकाश हो,

देखो उसके रथ का चक्र कीचड़ में फँस गया है

आगे बढ़ो साथियो!

सूरज के लिए यह संभव नहीं कि वो अकेले उदित हो सके

घुटने जमा कर, सीना अड़ा कर

उसके रथ को कीचड़ से उबारो!

देखो, हम सब उसको सहारा दे रहे हैं

क्योंकि हम सब

सूरज के अंश हैं।

- एंजेलो सिकेलिय


त्रिलोकी-द्वय

कातिक और गोपेश को

अमित स्नेह से


भूमिका

(प्रथम संस्करण से)

लेखक को दो चीजों से बचना चाहिए :

एक तो भूमिकाएँ लिखने से, दूसरे अपने समवर्ती लेखकों के बारे में अपना मत प्रकट करने से। यहाँ मैं ये दोनों भूलें करने जा रहा हूँ; पर इसमें मुझे जरा भी झिझक नहीं है, खेद की तो बात ही क्या। मैं मानता हूँ; कि धर्मवीर भारती हिंदी की उन उठती हुई प्रतिभाओं में से हैं जिन पर हिंदी का भविष्य निर्भर करता है और जिन्हें देख कर हम कह सकते हैं कि हिंदी उस अँधियारे अंतराल को पार कर चुकी है जो इतने दिनों से मानो अंतहीन दीख पड़ता था।

प्रतिभाएँ और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेख्य है। पर उनसे धर्मवीर जी में एक विशेषता है। केवल एक अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक ही नहीं हैं; वे नई पौध के सबसे मौलिक लेखक भी हैं। मेरे निकट यह बहुत बड़ी विशेषता है, और इसी की दाद देने के लिए मैंने यहाँ वे दोनों भूलें करना स्वीकार किया है जिनमें से एक से तो मैं सदा बचता आया हूँ; हाँ, दूसरी से बचने की कोशिश नहीं की क्योंकि अपने बहुत-से समकालीनों के अभ्यास के प्रतिकूल मैं अपने समकालीनों की रचनाएँ पढ़ता हूँ तो उनके बारे में कुछ मत प्रकट करना बुद्धिमानी न हो तो अस्वाभाविक तो नहीं है।

भारती जीनियस नहीं हैं : किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण दे कर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, यह हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यवेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परंपराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और-हाँ, - एक गहरी विनय। भारती में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और भारती में एक चीज और भी है जो प्रतिभा के साथ जरूरी तौर पर नहीं आती - हास्य।

ये सब बातें जो मैं रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने भारती की अन्य रचनाएँ भी पढ़ी हैं, जैसे कि मैंने पढ़ी हैं। जिसने वे नहीं पढ़ीं, वह सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली-पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' पर भी धर्मवीर की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।

सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की - बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं - अलफलैला वाला ढंग, पंचतंत्र वाला ढंग, बोकैच्छियो वाला ढंग, जिसमें रोज किस्सागोई की मजलिस जुटती है, फिर कहानी में से कहानी निकलती है। ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस जमाने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मजे ले कर कही जाती थी। पर क्या भारती को वैसी कहानी वैसे कहना अभीष्ट है? नहीं, यह सीधापन और पुरानापन इसीलिए है कि आपमें भारती की बात के प्रति एक खुलापन पैदा हो जाए; बात वह फुरसत का वक्त काटने या दिल बहलाने वाली नहीं है, हृदय को कचोटने, बुद्धि को झँझोड़ कर रख देनेवाली है। मौलिकता अभूतपूर्व, पूर्ण श्रृंखला-विहीन नएपन में नहीं, पुराने में नई जान डालने में भी है (और कभी पुरानी जान को नई काया देने में भी); और भारती ने इस ऊपर से पुराने जान पड़नेवाले ढंग का भी बिलकुल नया और हिंदी में अनूठा उपयोग किया है। और वह केवल प्रयोग-कौतुक के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वह जो कहना चाहते हैं उसके लिए यह उपयुक्त ढंग है।

'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। प्राचीन चित्रों में जैसे एक ही फलक पर परस्पर कई घटनाओं का चित्रण करके उसकी वर्णनात्मकता को संपूर्ण बनाया जाता है, उसमें एक घटना-चित्र की स्थिरता के बदले एक घटनाक्रम की प्रवाहमयता लायी जाती है, उसी प्रकार इस समाज-चित्र में एक ही वस्तु को कई स्तरों पर, कई लोगों से और कई कालों में देखने और दर्शाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे उसमें देश और काल दोनों का प्रसार प्रतिबिंबित हो सके। लंबाई और चौड़ाई के दो आयामों के फलक में गहराई का तीसरा आयाम छाँही द्वारा दिखाया जाता है; समाज-चित्र में देश के तीन आयामों के अतिरिक्त काल के भी आयाम आवश्यक होते हैं और उन्हें दर्शाने के लिए चित्रकार को अन्य उपाय ढूँढ़ना आवश्यक होता है।

वह चित्र सुंदर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; क्योंकि उस समाज का जीवन वैसा नहीं है और भारती ने चित्र को यथाशक्य सच्चा उतारना चाहा है। पर वह असुंदर या अप्रीति कर भी नहीं, क्योंकि वह मृत नहीं है, न मृत्युपूजक ही है। उसमें दो चीजें हैं जो उसे इस खतरे से उबारती हैं - और इनमें से एक भी काफी होती है : एक तो उसका हास्य, भले ही वह वक्र और कभी कुटिल या विद्रूप भी हो; दूसरे एक अदम्य और निष्ठामयी आशा। वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही सूरज का सातवाँ घोड़ा है,

'जो हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिस पर हो कर भविष्य का घोड़ा आएगा।'

इस वस्तु का इतना सुंदर निर्वाह, उसके गंभीरतर तात्पर्यों का इस साहसपूर्ण और ईमानदार ढंग से स्वीकार, और उस स्वीकृति में भी उससे न हार कर उठने का निश्चय - ये सब 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' को एक महत्वपूर्ण कृति बनाते हैं।

'पर कोई-न-कोई चीज ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीर कर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुन: स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास,साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।' ये पुस्तक के कथा-नायक और प्रमुख पात्र माणिक मुल्ला के शब्द हैं। किसी उक्ति के निमित्त से एक पात्र के साथ लेखक को संपूर्ण रूप से एकात्म करने की प्रचलित मूर्खता मैं नहीं करूँगा, पर इस उक्ति में बोलने वाला वह विश्वास स्वयं भारती का भी विश्वास है, ऐसा मुझे लगता है; और वह विश्वास हम सबमें अटूट रहे, ऐसी मेरी कामना है।

वसंत पंचमी, वि. सं. 2008 - अज्ञेय