सृजन / मंजरी शुक्ला

Gadya Kosh से
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कमरे की खिड़की का काँच लगातार तेज बारिश और हवा के कारण दीवार से टकरा कर एक अजीब-सी आवाज़ कर रहा था I हर आहट के साथ ही सुरभि का दिल किसी अज्ञात डर की आशंका से बैठा जा रहा था I बहुत कोशिशों के बाद भी वह उस सुन्दरकाण्ड को याद करने के बजाय अपने पति की राह देख रही थी जिसे अब से करीब तीन घंटे पहले आ जाना चाहिए था I सुरभि सोचने लगी कि एक ही वस्तु समय के अनुसार अपने कितने रूप बदल लेती हैं जिन पानी की ठंडी बूंदों में उसके प्राण बचपन से ही बसते हैं और काली घटाओं के छाते ही वह दौड़कर उनमें सराबोर होने के लिए छत पर साड़ी ऊँची करके बच्चों की तरह दौड़ जाती हैं वहीँ बरसात की नन्ही बूंदे बुँदे अँधेरी रात में उसके सीने में मानो नश्तर चुभो रही हैं I कम से कम दसियों चक्कर वह बिस्तर से लेकर खिड़की तक लगा चुकी थी पर उसकी बैचेनी कम नहीं हो रही थी I उसका गोरा मुहँ सूती साड़ी से पोंछते हुए लाल हो गया था और रोते हुए आँखे सूज गई थी पर जिसका इंतज़ार था उसका सूनी सपाट सड़कों पर कहीं भी अता पता नहीं था I बार-बार खिड़की से झांकते हुए उसके हाथ पैर भी डर और घबराहट के मारे काँप रहे थे I

बारिश से नहाई हुई सडकों के अलावा एकमात्र बूढा और सर्दी में कंपकपाता एक काला मरियल कुत्ता ही उसकी बैचेनी का एकमात्र साथी था जो सड़क के उस पार एक पेड़ के नीचे दुबका बैठा था और जो बारिश की भयानक गर्जना में रह रहकर चौंक कर इधर उधर देखकर भौंकता और फिर दुबक के बैठ जाता I जैसे ही घड़ी की सुई ने ११ बजाये सुरभि के हाथ पैरों ने जैसे साथ देना ही बंद कर दिया और वह फूट-फूट कर रोने लगी I उसे समझ ही नहीं आया कि अब इतनी रात में वह क्या करे अगर रवि को उससे नाराज़ होकर घर से निकलना ही था तो क्या इस समय तक घर नहीं आ जाना था I इतनी छोटी-सी बात थी कि उसे अपनी माँ के घर जाना था और रवि को उसकी माँ पसंद नहीं थी तो ये बात सुनते ही वह भड़क गया और अपने पैर पटकते हुए घर से बाहर चला गया I

जबसे शादी हुई हैं तब से वह अपने पति और माँ के बीच में चक्की के दो पाटों के बीच गेहूँ की तरह पिस रही हैं I माँ थी बहुत पुराने विचारों की और रवि के ख्यालात उससे बिलकुल भी नहीं मिलते थे I एक पूरब था तो दूसरा पश्चिम पर उसे तो सूरज बनकर ही एक की गोद से उगना और दुसरे के पहलू में अस्त होना था I उसने उन दोनों को समझाने की बहुत कोशिश की पर वह जितना समझाती उतनी ही बात बिगड़ती जाती I हारकर उसने उन दोनों के विषय में तटस्थ होना शुरू कर दिया I पर इस पर भी रवि को चैन नहीं था जब रवि के जूते पहनकर रसोईघर में जाने पर वह चुप रहती और माँ कुछ कहती तो रवि उसे हजारों बाते सुनाता और गुस्से में पैर पटकता हुआ बाहर जाकर होटल में खा लेता I देखा जाए तो इन बातों का कोई अर्थ नहीं था पर अगर विधाता ने सुरभि के जीवन में अनगिनत बेवजह के झमेलों को बढ़ाना लिखा ही था, तो ये मुद्दे उसके जीवन को नरक बनाने के लिए काफी थे I

आज सुबह ही माँ का फ़ोन आया था I उनकी आवाज़ से ही पता चल रहा था कि उनकी तबीयत बहुत ख़राब हैं और जैसे ही उसने उनकी भर्राई आवाज़ सुनी उसका कलेजा मुहँ को आ गया I एक माँ ही तो थी जिसने उसे आधे पेट खाकर भी उसे पाल पोसकर इस काबिल बनाया था कि वह अपने पैरो पर खड़ी हो सके I वरना पिताजी तो उसके तीन साल के होने के पहले ही रोड एक्सीडेंट में गुज़र गए थे I माँ से बात करने के बाद वह फूट-फूट कर रोने लगी और मायके जाने की जिद करने लगी I बस रवि यह सुनकर किसी बिगडैल घोड़े की भाँती बिदक गया और जेब में पैसे डालकर चल दिया I

अचानक उसके पेट पर हलकी-सी लात पड़ी और उसके चेहरे पर अनोखे संतोष और हर्ष की लहर दौड़ पड़ी I सुरभि ने सोचा कि अगर यह नन्ही-सी जान उसके साथ न होती तो वह कब का माँ के पास पहुँच जाती I पर कैसे जाती हर घड़ी तो उसे उलटी आती हैं और वह जैसे अधमरी हो जाती हैं I और माँ के यहाँ जाने के लिए तो केवल सरकारी बसों का ही सहारा हैं और उन खतरनाक बसों को भगवान् का I कई बार उसे बसों में बैठकर हंसी भी आती कि जो लोग ईश्वर का नाम तक कभी अपनी जुबान पर नहीं लाते थे वह भी आँख मूंदकर प्रार्थना करते नज़र आते जब बस का ड्राइवर सर्कस के करतब सड़कों पर दिखाता नज़र आता I वह भी डर के माँ की गोदी में छुप जाती और माँ उसे प्यार से पुचकारती हुई सुन्दरकाण्ड का पाठ पढने लगती I

माँ का ध्यान आते ही सुरभि की आँखों के कोरों से आँसूं गिरने लगे और उसके मन में रवि के लिए नफरत जाग उठी I एक बार फिर उसने जाकर फोन चेक किया पर बारिश और बिजली के कारण वह भी शांत हो कर आराम से बैठा चुपचाप अपनी मेज पर उसे देखता हुआ उसके मजे ले रहा था I गुस्से में सुरभि ने उसे जोर से जमीन पर पटकने के लिए उठाया पर अपनी आर्थिक स्थिति का ध्यान आते ही उसने फोन को धीरे से उठाकर करीने से मेज के कोने में सजा दिया I

भूख के मारे अब उसकी आंतें खुल रही थी पर गुस्से में उसने आज सुबह से कुछ नहीं खाया था I अचानक उसके पेट में फिर हलकी-सी खूबसूरत आहट हुई जिस के साथ ही उसे अपने बच्चे की भूख का भी ख़याल आया और वह बेमन से चौके में दो निवाले निगलने के लिए गई I चौके में बत्ती जलाने के साथ ही उसका कलेजा मुहँ को आ गया I दीवाल पर एक काली-सी छिपकली एक बड़ी-सी तितली को निगलने की कोशिश कर रही थी I तितली अपनी जान बचाने के लिए तेजी से फडफडा रही थी और छिपकली बिलकुल शांत और निश्छल-सी उसे धीरे-धीरे अपने मुहँ के अन्दर कर रही थी I सुरभि के मन में आया कि वह जाकर तितली को बचा ले पर जैसे उसके पैर जाम हो गए और वह फिर से अपने दिन ब दिन गंदे पानी में ठहरे हुए अपने रिश्ते के बारे में सोचने लगी जिसका बहाव रूक गया था और अब वह सड़ांध मार रहा थाI

क्या ये उसके माँ के कारण ही था या कोई और कारण था वह नहीं जान पाई. पर बहुत सोचने के बाद भी अंतःकरण में उसे कभी अपनी माँ की गलती नहीं लगी I वह बेचारी कभी नौकर रखने का तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी I दिन भर हाड तोड़ मेहनत करने के बाद चार पैसे वह बड़ी मुश्किल से जुटा कर लाती और फिर से कोल्हू के बैल की तरह घर की लिपा पोती में जुट जाती I वह जब भी बड़े जतन के साथ पूरा घर चमकाती तो रवि हमेशा वहाँ खाना गिराता, झूठे हाथ भी वहीँ पर धोता और यहाँ वहाँ पान थूकता I जैसे ही माँ अपने ब्याह के लोकगीत गुनगुनाकर घर की देहरी पर बड़ी ही सुघड़ता से रंगोली सजाती तो रवि गंदे कीचड़ से सने जूते लेकर जान बूझकर रंगोली के ऊपर से लाता और सीधे घर के आखिरी कमरे तक चला जाता I शुरू में तो माँ चुप रहती थी पर धीरे-धीरे उन्होंने टोकना प्रारंभ किया और बस फिर क्या था जैसे रवि मानो इसी मौके का इंतज़ार कर रहा होता था I उसने साफ़ कह दिया कि अब वह और उसकी पत्नी इस घर में कभी पैर नहीं रखेंगे I माँ बहुत गिड़गिड़ाइ और हाथ जोड़कर दरवाजे तक माफ़ी मांगती रही पर रवि को उस विधवा बूढी औरत पर कोई दया नहीं आई और वह उसकी कलाई को बहुत जोर से मरोड़ता हुआ कांच की चूड़िया तोड़ता उसे लगभग घसीट कर वहाँ से चल दिया था I

उसे आश्चर्य तो तब होता जब अपने घर में घुसते ही सबसे पहले वह जूते खोलता और उन्हें अलमारी से सावधानी से रखता I उसने बहुत सोचा पर यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी I पर जिस शराब से उसे जीवन भर नफरत रही उसी ने उसे जीवन की सच्चाई से अवगत कराया I पहली बार आज उसने मानो आदमी के भेष में शैतान का चेहरा देखा I जैसे ही रवि दोस्तों के साथ पीकर लडखडाता हुआ घर में भीगा हुआ घुसा तो अचानक पता नहीं कहाँ से उसे जूते उतारते वक़्त माँ की याद आ गईं और फिर जो लावा उसके अन्दर से निकला उसमे सुरभि की अंतरात्मा तक झुलस गई I वह पल्लू मुहँ में ठूंसकर अपनी रुलाई रोके जा रही थी और रवि उसकी माँ पर गालिओं की बौछार करते हुए उसकी कमर पर जूतों के निशान बनाये जा रहा था I पर आज जैसे वह पत्थर की तरह तटस्थ हो गई थी I उसने अपने मन के ज़ख्मों को तन पर हावी नहीं होने दिया और बैठी मार खाती रही I बस वह अपने पेट को दोनों हाथों से बचाए हुई थी ताकि उस कसाई की मार से नन्ही-सी जान दुनियाँ में आने से पहले ही न चली जाए I

उसकी माँ का पुश्तैनी घर ना बेचना ही रवि का माँ से दुश्मनी का कारण था ये उसे आज पता चला I मन तो हुआ कि चीख-चीख कर पूछे-"अगर मेरी बीमार विधवा माँ क्या अपने सर की छत भी तुझ जैसे भेड़िये की खातिर बेच देगी तो क्या वह जाकर सड़क पर बने पुल के नीचे भिखारियों के साथ रहेगी I" पर उसके मन में घ्रणा और दुःख ने एक साथ ऐसा विरक्ति का भाव ले लिया था कि रवि से उसका यह भी पूछने का मन नहीं करा और वह आँखे बंद करके निर्विकार भाव से पिटती रही I दुसरे दिन सुबह जब उसकी आँख खुली तो उससे हिला भी नहीं जा रहा था I धीरे से उसने पेट पर हाथ फेरा और हल्की-सी आहट होने पर चैन की सांस ली I कुर्सी का पाया पकड़कर वह जैसे तैसे खड़ी हुई तो देखा, रवि मुस्कुराता हुआ कोई फ़िल्मी गाना गुनगुना रहा था I उसे देखते ही वह बड़े ही प्यार से उसके पास आया और बोला-"यह चाय पी लो और कुछ खा भी लो I फिर हम लोग माँ के पास चलते हैं आज सुबह ही उनका फोन आया था I"

सुरभि रवि के चेहरे को फटी-फटी आँखों से देख रही और यह समझ नहीं पा रही थी कि जो वहशी दरिंदा उसके पेट में बच्चे की परवाह न करते हुए उसे जूतों से आधी रात तक मार सकता हैं और उसकी माँ को दाँत पीस-पीस कर एक से एक अलंकारों से शोभित कर रहा था वह भला उसे माँ के पास क्यों ले जा रहा हैं I पर उसे कल की माँ की रुलाई याद आ गई और बिना कुछ कहे एक पालतू गाय की तरह चुपचाप वह उसके साथ चल पड़ी I जैसे ही वह टाँगे से उतरी तो उसने देखा कि घर में औरतो का जमघट लगा हुआ था और बाहर आदमी भी पान चबाते और बीड़ी फूंकते आपस में कहेकहे लगा रहे थे I सुरभि अपने घर के आगे यह हुजूम देखकर हैरान हो गई और तेज कदमों से चलती हुई माँ को ढूँढने के लिए दौड़ी I अन्दर जाकर देखा तो माँ चारपाई पर लेटी थी I शरीर से बहुत कमजोर लग रही थी पर उनका मुहँ ख़ुशी से दमक रहा था I सुरभि को देखते ही वह बिस्तर से उठने को हुई पर कमजोरी के कारण खड़ी नहीं हो पाई I यह देखकर वह दौड़कर माँ के गले लग गई और वह कुछ पूछती इससे पहले ही बगल में रहने वाली सुशीला चाची बोली-"बिटिया, तेरा बच्चा बड़ा ही भाग्यवान हैं आने से पहले ही अपनी नानी को लखपति बना गया I"

सुरभि ने कुछ भी ना समझ पाते हुए माँ की और प्रश्नवाचक द्रष्टि से देखा तो माँ बोली-"अरे क्या दामाद जी ने तुझे कुछ नहीं बताया?"

"क्या" सुरभि ने उनकी आँखों में झांकते हुए पुछा

"मैंने आज सुबह जब फोन किया था तो तू सो रही थी और इसलिए मैंने तुझे जागना ठीक नहीं समझते हुए दामाद जी से बताया था कि जिस मुक़दमे को हम सालों से लड़ रहे थे उसका फैसला हमारे हक़ में हो गया हैं और अब हमें दस लाख रुपये मिलेंगे I अब मैं इस उम्र में क्या करुँगी इस पैसे का इसीलिए तो तुम्हें साथ लेकर आने के लिए कहा था ताकि तुझे देख भी लू और सारा पैसा दामाद जी को दे दू आखिर वह भी तो मेरे बेटे जैसा ही हैं I"

सुरभि माँ की महानता देखकर फूट-फूट कर रो पड़ी I जिस मुक़दमे को लड़ते हुए उसकी माँ की जवानी कब बुढ़ापे में बदल गई उसे पता ही नहीं चला और वह आज अपने सारे जीवन की जमा पूँजी ख़ुशी खुशी उस राक्षस को देने जा रही थी जिसने कल रात में इस संसार का कोई अपशब्द माँ के लिए नहीं छोड़ा था और जो अपनी पत्नी को जब पीटते हुए थक जाने के बाद ही जाकर सोया I अब जाकर उसे सुबह को चाय का रहस्य समझ में आया I जब तक वह कुछ कहती रवि सामने आकर खड़ा हो गया और मुस्कुराते हुए बोला "माँ, मेरे पास सारे पैसे रखवा दो I घर में कितने लोगों का आना जाना लगा हुआ हैं, किसी की भी नीयत ख़राब हो सकती हैं और यह कहते हुए उसने सब पर एक व्यंगात्मक दृष्टी डाली I पड़ोस की चाची और ताई ने यह देखकर शर्म से नज़रे नीची कर ली कि सामने-सामने ही उन्हें चोर करार दिया जा रहा था जबकि वे तो माँ के दुःख सुख की साथी जीवन भर से थी बिना किसी स्वार्थ के ...केवल आत्मीयता के रिश्ते ही थे जिन्होंने प्रचंड तूफान के आने पर भी संवेदनाओं के महीन धागे कभी टूटने नहीं दिए I माँ का चेहरा भी दुःख के कारण पीला पड़ गया था I तब तक रवि दोबारा बोला-" चलो चलो, माँजी को आराम की सख्त ज़रूरत हैं अब सब लोग क्या पैसे लेकर ही जाओगे यहाँ से? "

बेचारी माँ ने काकी का हाथ जोर से पकड़ लिया जो उनका माथा सहला रही थी और माँ की आँखों से सुरभि को देखते हुए आँसूं बह निकले I

यह देखकर सुरभि का खून खौल उठा I वह शेरनी की तरह बिफ़री और रवि को दरवाजे के बाहर की तरफ धक्का देते हुए बोली अगर इस दुनियाँ में किसी की नीयत खराब हैं तो वह केवल तुम्हारी हैं I इसी वक़्त मेरे घर से निकल जाओ और पलटकर कभी मत आना वरना थाना यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं हैं और तुम्हारी मार के सारे ज़ख्म अभी भी मेरे शरीर पर ताजा हैं I "

रवि का चेहरा यह सुनते ही डर के मारे सफ़ेद हो गया क्योंकि शादी के पहले भी वह कई बार पुलिस के हाथों अपनी पूजा करवा चूका था I रवि ने देखा कि सभी की आँखों में आक्रोश था, कोई कुछ कहता इससे पहले ही वह तेज क़दमों से चलता हुआ वहाँ से भाग खड़ा हुआ I और सुरभि एक ठंडी सांस लेकर चल दी वापस अपनी माँ के पास जहाँ कम से कम वह इज्जत और सम्मान के साथ ईश्वर की दी हुई एक नन्ही ज़िन्दगी का हाथ थामे अपना जीवन भी जी सकती थी...