सेंसर बोर्ड और घोस्ट टाउन / जयप्रकाश चौकसे

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सेंसर बोर्ड और घोस्ट टाउन
प्रकाशन तिथि :12 अगस्त 2016


खबर है कि कांतिभाई की फिल्म 'घोस्ट टाउन' से सेंसर बोर्ड द्वारा हटाए गए दृश्य जाने कैसे जोड़कर सम्पूर्ण फिल्म दिखाई जा रही है। सेंसर प्रमुख पहलाज निहलानी ने कांतिभाई को स्पष्टीकरण देने का आदेश दिया है परंतु कांतिभाई उनसे संपर्क ही नहीं कर रहे हैं और फिल्म सर्वत्र दिखाई जा रही है। इन हालात में सेंसर फिल्म का प्रदर्शन रोक सकता है। अभी तक सिर्फ बयानबाजी हो रही है। सेंसर द्वारा हटाए गए दृश्य पुणे फिल्म संस्थान में भेजे जाते हैं, जहां उन्हें गोडाउन में कचरे की तरह फेंक दिया जाता है, जबकि फिल्म के नाम के साथ उन्हें शोध करने वालों के लिए सलीके से सुरक्षित रखने का नियम है। आठवें दशक में डॉलर के लोभ में नियम बनाया गया था कि आप्रवासी भारतीय पांच हजार डॉलर भारत सरकार को देकर विदेश से फिल्म आयात कर सकते हैं। हॉलीवुड के प्रमुख स्टूडियो के निकट की गलियों में ऐसी फूहड़ फिल्में रची जाती हैं, जिन्हें अन्य देश खरीदकर अपने देश में दिखा सकें। ये फिल्में अमेरिका में प्रदर्शित नहीं की जाती हैं। अमेरिका में फिल्मों के साथ ही अनेक चीजें केवल निर्यात के लिए गढ़ी जाती है। उनका उद‌्देश्य केवल पैसा कमाना रहा है। वे हर तरह की अभद्रता व अश्लीलता परोसने में सिद्धहस्त रहे हैं। उन्होंने कभी यह विचार ही नहीं किया कि केवल स्वयं के देश को बचाते हुए अन्य देशों में कचरा परोसने से कभी वह कचरा उनके देश में वापस भी आ सकता है। संगठित अपराध के डॉन केवल उनकी फिल्मों में ही नहीं हैं वरन् उनके समाज में पैर पसारे बैठे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि डॉन की तरह प्रस्तुत ट्रम्प महोदय अगला चुनाव जीत जाएं। ऐसा होेने पर अमेरिका वैधानिक रूप से अपराधमय हो जाएगा। वे अपने युद्ध अभ्यास भी अपनी जमीन पर नहीं करते। इसके लिए कभी कोरिया, कभी वियतनाम का चुनाव किया जाता है।

उस आयात करने के दौर में 'सिराको' नामक फिल्म ने भारत में अकूत धन कमाया था। उसी दौर में केरल में 'हर नाइट्स, हर ड्रीम्स' इत्यादि फिल्में बनाई जाने लगी थीं। इस तरह के सिनेमा को 'नीले फीते का जहर' कहा जाता है। नीले फीते का जहर सतत बनाया जाता है और कमोबेश कभी न खत्म होने वाली 'लाल फीताशाही' की तरह है, जिसके तहत फाइलें खुलती ही नहीं। सामाजिक सोद‌्देश्यता की फिल्मों को भी कांटा-छाटा जाता है। सेंसर की कूपमंडूकता के कारण ही प्रेम दृश्य भावनाहीन से हो जाते हैं। वासनाविहीनता के नाम पर भावविहीनता को बढ़ावा दिया जाता है। सेंसर करने की प्रवृत्ति सिनेमा तक सीमित नहीं है। समाज में कुछ इस तरह की बंदिश है मानो प्रेम करना ही अपराध है। प्रेम पर हर तरह की रोक का ही एक भाग खाप पंचायतों की दादागिरी है। प्रेम से डर का कारण यह है कि प्रेम मनुष्य के विचार करने की क्षमता को बढ़ा देता है। सारे षड्यंत्र अंधकार बनाए रखने के लिए रचे जाते हैं और प्रेम के दिव्य प्रकाश से समाज के ठेकेदार भयभीत हो जाते हैं।

भारतीय समाज के तंदूर मंे दैहिकता के कोयले हमेशा सुलगते रहते हैं। इन्हें बुझाने के सारे प्रयास इसे और अधिक भड़का देते हैं। हमने अपने समाज को ऐसे प्रेशर कूकर की तरह गढ़ा है कि उसमंे कोई सेफ्टी वॉल्व भी नहीं है। सारी परदेदारियां केवल कुंठाओं को जन्म देती हैं। जाने क्यों हमारे समाज के ठेकेदार समाज को वयस्क से सीधा बुढ़ापे में धकेल देना चाहते हैं। फिल्मकार बाबूराम इशारा ने सातवें दशक में 'चेतना' नामक फिल्म बनाई थी। उसकी सफलता को बार-बार दोहराने के कारण उसकी धार खत्म हो गई। उनके शयन कक्ष में तूफान लाने के प्रयास ' चेतना' में उनके द्वारा प्रस्तुत रेहाना सुल्तान से शादी के साथ खत्म हो गए। बाबूराम इशारा एक स्टूडियो के केंटीन में वेटर की नौकरी करते थे। हास्य कलाकार असित सेन ने उन्हें प्रेरित किया और वे 'वेटर' से 'डायरेक्टर' हो गए। वे अपनी प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं नहीं कर पाए।

उनकी फिल्म 'चेतना' में एक युवा कालगर्ल की कहानी प्रस्तुत की गई थी। उस धंधे की नादिरा द्वारा अभिनीत अनुभवी पात्र युवा कन्या से कहती है, 'मैं तुम्हारा कल हूं और तुम मेरा बीता हुआ वर्तमान।' इस धंधे में मुस्कान के चेक उस समय तक भुनाए जा सकते हैं जब तक वानी का बैक बेलेंस होता है। अधेड़ होते ही चेक बाउंस होने लगते हैं। उन्हीं दिनों एक अमेरिकन लेखक ने अपनी 'कॉलगर्ल' नामक किताब में नेताओं को भी राजनीतिक कॉलगर्ल की तरह वर्णित किया था परंतु ये 'राजनीतिक कॉलगर्ल' बढ़ती उम्र के साथ अधिक धन कमाने लगते हैं। उनका चरित्रहीनता का बैंक बेलेंस असीमित होता है। 'चेतना' के प्रदर्शन वाले ही कालखंड में हॉलीवुड में '79 पार्क एवेन्यू' नामक फिल्म भी इसी व्यवसाय पर केंद्रित थी।