सोप ओपेरा / विपिन चौधरी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय तो हमेशा की तरह धाराप्रवाह गति से बहता ही चला जा रहा है, पर इस जीवन की रफ्तार हमेशा से एक सी नहीं रहती उसकी किस्त –दर- किस्त एक दूसरे से तालमेल नहीं मिला पा रही, ठीक इस जीवन रुपी धारावाहिक की तरह जिसकी हर किस्त अलग होते हुए भी एक दूसरे से अलग नही दिखाई पड़ती. हर किस्त में दुनियादारी के तमाम दुःख बिना किसी लाग-लपेट के उतर आते हैं और कुंडली मार कर हमेशा के लिए बैठ जाते हैं, सभी किस्तों में एक उदास काली परछाई आ धमकाती है जो सच्च को उजला नहीं रहने देती, सपनों के लिए ऊँची मचान तैयार नहीं करती और अनचाहे रिश्तों के बीज जो एक बार जीवन में बो देती है तो फिर तमाम उसी रिश्ते की अच्छी या खराब फ़सल काटते हुए ही बीतती है.

मैं, अंकिता भी तो ऐसे ही एक अवांछित रिश्ते का पौधा हूँ जिसे कभी ठीक से सींचा ही नहीं गाया.

मेरा किरदार इस कदर नामालूम है कि अगर में अपनी कहानी कहते-कहते गायब हो जाऊँ तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कोई मुझे ढूँढने की कोशिश नहीं करेगा. हो सकता है कि कायम दस्तूर के अनुसार मैं भी कुछ समय के बाद धीरे-धीर सबके जहन से उतर भी जाऊँगी,पर जब तक मैं जीवन के ठीक बीचों बीच में मजबूती से खड़ी हूँ तब तक मुझे अपने भूत,भविश्य और तीनों से एक साथ लड़ते हुए चलना है.

मुझे लड़ते रहना है उन विरोधी किरदारों से जिन्हें मेरी उपस्थिति परेशान करती रही है. उन्हें मेरे व्यक्तित्व की संपूर्णता खलती है. वो हमेशा इसी प्रयत्न में लगे रहते हैं कि कब मैं ज़रा सा भी झुकूं और वे मुझ पर स्वर हो जाये. पर झुकना मेरे स्वभाव में नहीं है और यह प्रतिभा मुझे किसी और से नहीं अपने पिताजी से मिली है.

सीने में सात-सात गोलियाँ खाकर शहीद हो गए थे मेरे पिताजी, पर अंत तक नहीं झुके थे.

सियाचिन की बर्फीली तूफानों में तैनात थे पिताजी उस वक्त, देश की रक्षा में तन-मन से लगे पिताजी जब भी घर आते तो अपने साथ ढेरों खुशियाँ एक साथ ले लाते और इन खुशियों के रंग इतने गाढे होते थे कि अगली छुट्टियों में उनके आने तक मैं उन्हीं रंगों के साथ जीती रहती.

पिताजी की चिट्ठी आते ही घर में मानो खुशी की लहर आ जाती. जब दादाजी टेबल पर इतिमिनान से बैठकर खत का जवाब लिखते तो मैं उचक-उचक्कर उनका लिखा हुआ देखने की कोशिश करती और दादाजी खत के अंत में हमेशा मुझसे ही एक दो पंक्तियाँ लिखवाते और मैं भी चिठ्ठी में एक-एक शब्द को बड़े जतन के साथ लिखती, “पापा जल्दी घर आ जाओ. आप की बिटिया आपको बहुत याद करती है” और साथ ही मैं चिठ्ठी में भारत का झंडा भी जरूर बनती.

पिताजी छुट्टियों में घर आते तो घर के थके हुए माहौल को गति मिलती. वे आते तो अपने साथ जिने का एक उत्साह लाते,माँ की ढेरो मनुहारें करते, अपनी लाडली बिटिया से प्रेम जताते, अपने माँ-बाप की जी जान से सेवा कर आदर्श बेटे का दायित्व निभाते और अपने छोटे भाई को सीधे रास्ते पर चलते रहने का निर्देश देकर लौट जाते देश की सरहदों पर निगरानी रखने, पर मेरे भाग्य में इन मासूम खुशियों का सफर बस इतना ही था. पिताजी जीवन के इस धारावाहिक में एक मेहमान किरदार में आए थे. तभी तो अपनी छोटी-सी भूमिका को बेहद ईमानदारी से निभाकर जल्द ही मौत की उस अंधेरे झुरमुट की नीचें की और जाने वाली सीढ़ियाँ से उत्तर कर खो गए थे, जहाँ से कोई कभी लौट कर नहीं आया.

सामने के इस बड़े कमरे की दीवार पर आज जहाँ माँ, चाचा और चिंटू की बड़ी सी तसवीर लगी हुई है, वहां कभी पूरी दीवार पर पिताजी की ढेर सारी तस्वीरें और मैडल सजे हुए थे, पिता के दिवंगत होते ही उनकी हर निशानी को नेस्त्नाबुत कर दिया गाया. म्रेरे लाख ढूँढने के बावजूद पिता की तस्वीरे घर में कहीं नहीं मिली, पता नहीं माँ ने उन सब को कहाँ दफन कर दिया.

बहुत खोजने पर पिताजी की एक्मात्र तसवीर मुझे दादाजी के पुराने बक्से में मिली थी, जिसमें पिताजी हाथों में बंदूक थामे हुए खड़े हैं. उस ब्लैक एंड वाईट तस्वीर में पिताजी की उजली मुस्कुराहट देर तक बाँधे रखती है. उनकी मुस्कराती हुई तस्वीर बेहद खुशी देती है उनकी खुली सी हँसी जब उनके हाथों में थमी हुई बंदूक से टकराती है तो एक खूबसूरत चमक पैदा करती है.

मुझे पिता को याद करते हुए कई बार लगता है आज पिताजी जीवित होते तो यह घर महज चार दीवारी न होकर घर ही होता. मुझे अपनी सहेलियों शायंती और दीपिका के घर वाकई में घर लगते. जहाँ उनके पिता, पिता की तरह ही दिखे देते और माँ बिलकुल माँ की तरह ही दिखाई पड़ते.

उनके घर मेरे घर से हर मायने में अलग थे उनके घरों में चाचा को पिता कहने को मजबूर नहीं किया जाता और उस औरत को माँ नहीं मानना पड़ता जो माँ की भूमिका कैद हो एक झूठा नाटक करती रहती थी. मेरी ये दोनों पक्की सहेलियाँ अपने छोटे बहन-भाइयों के साथ घंटों खेलती रहतीं. पर छोटे चिंटू को मुझसे हमेशा दूर ही रखा जाता. जब कभी चिंटू दीदी-दीदी कह कर मेरे पास आने की कोशिश करता तो माँ उसे आँखें दिखाकर अपने पास बुला लेती. तब मुझे अपने अकेलेपन का सबसे घना एहसास होता, पिता यदि जीवित होते तो मैं उनकी सुरक्षित गोद में दुबकी रहती. तब यह घर यकीनन चहकता हुआ घोंसला होता, जहाँ हजारों रंग-बिरंगे सपने खुशी-खुशी उतरते और अपने पुरे पंख खोलकर इधर फुदकते, पर इस धारावाहिक की स्क्रिप्ट इसी तरह से लिखी गई थी जिसमें किसी भी तरह की फेरबदल की कोई गुंजाइश नहीं दी थी इसके निर्देशक नें.

पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद दादाजी ने ही मुझे संभाला था. वे कयामत के दिन थे और क़यामत की परछाइयां सांझ होते-होते लंबी होती चली जाती तब मैं डर जाती और भाग कर दादाजी की टांगों से लिपट जाती. बस स्कूल में ही मन लगता जब दादाजी घर ने नहीं होते तो मन ही नहीं लगता. गर्मी की लंबी छुट्टियों में सुबह ही दादाजी के साथ खेतों की लंबी सैर पर निकाल जाते . दादाजी कहीं रात को मुझे सोते हुए छोड़कर अकेले ना चले जायें, यह डर मुझे हमेशा बना रहता.

माँ के पास अपने गहने कपड़ों, अड़ोस-पड़ोस की कहानियों के लिए खूब वक्त था, मेरे लिए नहीं.

दादा अपनी हारी-बीमारी अपने दुख दर्द भुलाकर मेरे साथ बिल्कुल बच्चे की तरह खेलते. मैं हर रोज़ नई कहानी सुनने की जिद करती और दादाजी हमेशा एक ही कहानी में कुछ नया जोड़- घटकर सुनाते, इस पर जब मैं नाराज़ हो जाती तब वे ज़ोर-ज़ोर से हँसते. कभी इस पुश्तैनी घर के सबसे मज़बूत स्तंभ हुआ करते थे मेरे दादाजी. होनहार रिटायर्ड कर्नल रमेश चंद्र.वे अपनी बहादुरी के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे. उनका फौजी जीवन कल कई शौर्य गाथाओं से भरा था. शाम को गांव की चौपाल पर बाकायदा उनके किस्सों को सुनने के लिये भीड़ इकट्ठी हुआ करती थी, जिसमें उनकी बुलंद आवाज़ और हुक्के की गुङ्गुङाहट दोनों की देर रात तक जुगलबंदी चलती रहतीं थी.

एक वक्त था जब उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. उनके दोनों बेटे उनकी हर बात मानने को तत्पर रहते. अपने पिता की आज्ञा का प्लान करने के लिये ही मेरे पिता ने संगीत से गहरे लगाव को छोड़ कर अपने हाथों में बंदूक थमी थी. दादाजी के स्वभाव का दस्तूर ही ऐसा था कि कोई उनके सामने कोई नहीं ठहरता था. पर दादाजी के अंतिम दिनों में तब एक बसंत ऐसा भी आया जब उन्हें लगाने लगा कि सबकुछ उनके हाथों से छूटता जा रहा है. वे जान गए थे कि उनका वक्त का एक बड़ा हिस्सा गुजर चुका है और इस नये वक्त में वे एक बेबस और कमजोर इनसान रह गए हैं. अपने ही घर-परिवार के हालातों की बेबसी वे ज्यादा वक्त तक नहीं सहन कर सके और आखिरी वक्त में अपने पुराने दिनों के पांव पकड़कर ही जीने की कोशिश करते रहे. जवान बेटे की मौत का गम तो वे सहन कर गए थे पर उनकी स्वयं की पुत्रवधु ने जो त्रिया-चरित्र भरे-पूरे गाँव के सामने पेश किया उससे वे कभी उबर नहीं सके. गाँव के घर-घर में उनकी बहू के कारनामों का जिक्र हो रहा था. कर्नल रमेशचंद्र की बरसों जोड़ी हुई इज़्ज़त को उनकी बहु ने पल-भर में भस्म कर दिया.

पिताजी की लाश घर की चौखट पर रखी हुई थी , तिरंगे में लिपटी हुई. सेना का बैंड मातमी धुन बजा रहा था. आंखों में नमी लिये हुए सारा गांव सिर जोड़े खड़ा था. इस गांव का जवान जो कभी गांव की धूल में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था आज ख़ुद मिटटी में मिलने जा रहा था. मेरे साहसी पिताजी ने चार आतंकवादियों को मार गिराया था. मंत्री, विधायक सभी हाथ जोड़े खड़े थे. मुख्य मंत्री ने पिताजी के नाम पर स्टेडियम बनवाने की घोषणा कर दी थी. इस शौकग्रस्त माहौल में भी मेरी माँ कमाल की भूमिका निभा रही थी. अपने कुशल अभिनय का नमूना दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोडी थी उसने. वैसे तो वह तो जीवन की हर किस्त अपने अभिनय के जौहर दिखती आई हैं. पर पिता की मौत की इस ह्रदयविदारक घड़ी में माँ का अभिनय सर्वश्रेष्ठ था.

पिता के सामने जब वह अपने झूठे प्रेम का प्रदर्शन करती थी तब माँ के नाटक को देखकर कोई भी उनके बेवफा होने पर शक़ नहीं कर सकता था. जब वह पिता की मौत पर दहाडे मार-मार कर बेहोश हो रही थी तब भी वह पूरे गांव की सहानुभूति की प्रबल दावेदार बनी हुई थी. दुनिया के सामने दादा- दादी की सेवा का पाखंड भी वह बखूबी कर लेती थी.

आज भी जब वह मुझसे स्नेह का स्वाँग रचती है तो मुझे अपनी माँ यानि श्रीमती रमा चंद्र के अभिनय की असली सच्चाई को जानते हुए भी उसके कौशल की दाद देनी पड़ती है.

पिता की मौत के तेरह दिन पूरे होने से पहले ही माँ ने छोटे चाचा का पल्ला ओढ़ लेने की स्वत: ही घोषणा कर दी थी. माँ के मुहँ से यह सुन कर सभी ने अपने दाँतों तले उँगलियाँ दबा ली थी. चरित्रहीनता की कई किस्से गांव में जड़ जमाए हुए थे पर ऐसी बेहयाई तो कभी किसी बहु-बेटी ने नहीं दिखाई थी. पूरे गांव में यह ख़बर आग की तरह फैल गई कि मोहनचंद्र की विधवा ने शोक के दिन पूरे होने से पहले ही अपने देवर का पल्ला ओढ़ लिया.

दादा, माँ के इस फैसले के सख्त खिलाफ थे. पर माँ और चाचा अपनी जिद्द पर अड़े रहे मेरे पिता उन दोनों की राह में काँटा थे और वे अब आसानी से हट गए थे.

दादा ने भी उसी समय घर छोड़ देने का फैसला लिया. वे मुझे और मेरी दादी को लेकर उसी समय अपनी पुश्तैनी हवेली में आ गए और अपानी बाकी की जिंदगी वहीं काटी.

पर मन में दो-दो चोट खा कर दादाजी लडखडा गए थे और पिताजी के गुज़र जाने के दो साल बाद वे भी इस दुनिया से रुखसत हो गए. दादा के चले जाने के बाद इस विशाल हवेली में घर में रह गए थे हम जन दो, दादी और मैं. बेहद कमजोर और टूटी हुई दादी और बेहद उदास और बुरी तरह बिखरी हुई मैं. कभी मैं दादी को सम्भलती तो कभी ख़ुद को. जब दादी को सम्भालती तो ढेर सारे आँसू मेरे हिस्से आते और में जब ख़ुद को संभालनेकी कोशिश करती तो मेरे जले हुए सपनों की राख मेरी झोली में आ गिरती. आज दादी को गुजरे हुए तीन महीने हो चुके हैं. वह भी कभी जिंदगी के इस धारावाहिक में शामिल थी, बिना किसी ठोस पहचान के. जब वह जीवित थी तब उनकी स्थिति मानव शरीर में पाये जाने वाले उस अंग की तरह ही थी जिसकी शरीर को आवश्यकता नहीं होती. मानव सभ्यता के विकास में कभी उस अंग की जरूरत रही होगी, पर समय के बढते क़दमों के साथ बाद में वह अंग एक कोने में जैसे सिमट कर रह गया हो.

मेरी दादी महज चौदह वर्ष की उम्र में ही इस गांव की इसी हवेली की देहरी पर उतार दी गई थी , अपने ही घर में दादी कभी अपनी व्यापक पहचान नहीं बना पाई. पहले दादा के कड़क स्वभाव और बाद में अपनी बहु के कुटिल स्वभाव के कारण दादी का व्यक्तित्व बिल्कुल ही दब गया था. धीर-धीरे वह घर के उस कोने में चली गई थी जहाँ उजाला अपने पंख फङ्फङाते हुए भी डरता है. बाद के दिनों दादी के हिस्से में घर की खिड़की तो क्या, एक अदद रोशनदान भी नहीं था. जिससे वह स्वच्छ हवा ले पाती. दादी अकसर अपनी माँ को याद करती और घंटों आँसू बहाती. दादी अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी थी.पढ़ा-लिखी में कभी उनका मन नहीं लगा. एक बार स्कूल गयी थी उस दिन की मास्टर की मार के बाद उन्होंने फिर कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा. दादी की माँ बेहद सरल महिला थी उनकी सरलता ही उनके परिवार में बिखराव का कारण बनी.

गांव के छोड़ पर सड़क बनाने वाले खानाबदोश लोगों में से एक महिला ने मेरी दादी की माँ से इस कदर दोस्ती कर ली कि थोड़े ही दिनों में उसने दादी के समूचे घर में अपना कब्जा जमा लिया और धीरे- धीरे दादी के पिता भी उस महिला के गिरफ्त में आ गए. अपनी उस नयी नवेली सहेली के इस बदले हुए रूप ने दादी की माँ को इस कदर हिला दिया कि दादी की माँ गहरी विक्षिप्तता की स्थिति में चली गई और बाकी की उम्र उसने अपने ही घर में नौकरानी की तरह बिताई.

मैं अपनी इस कमजोर दादी कों लेकर अक्सर चिंतित रहती थी और दादी को लेकर माँ से मेरा हमेशा झगडा होता था. दादी मुझे चुप रहने को कहती पर कभी-कभी मुझे इतना गुस्सा आता कि सारी सीमायें पार कर जाता और सबसे ज्यादा गुस्सा तो मुझे अपने चाचा पर आता जो अपनी पत्नी यानि मेरी माँ की शह लेकर मुझ पर चिल्लाने लगते.

बड़ी-बड़ी लाल आँखों वाले चाचा मुझे कभी अच्छे नहीं लगे. चाचा इस सोप ओपेरा में सबसे कमज़ोर किरदार में हैं. उन्हें हमेशा अपने सीधे खड़े होने के लिए माँ की बैसाखियाँ चाहिये.

पहले पिता ,फिर दादा और अब दादी के चले जाने के बाद मैं बिलकुल अकेली हो पड़ गयी थी. दादी के गुजर जाने के बाद लगता था की पिता, दादा और दादी तीनों की आत्माओं ने मुझे इस बुरी तरह से जकड़ लिया था कि एक वक्त मैं भी गहरे अवसाद की चपेट में आ गई. कभी दादा सफेद कुर्ता पजामा पहने अपनी उंगली मेरे सामने दिखाते हुए नजर आते तो कभी दादी का उदास चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमता रहता. पूरे एक साल बाद जब मैं सामान्य मन:स्थिति की ओर लौटी तो अपने आपको माँ के घर में अकेला पाया.

अब मैं अपनी माँ के साथ उसी घर में हूँ जहाँ पिता की यादे कोने-कोने में बसी हुयी हैं. माँ जो इस धारावाहिक की सबसे नकारात्मक किरदार में होने के बावजूद केंद्रीय भूमिका में है. मेरा यहाँ बिलकुल भी मन नहीं लगता. सोलह साल की हो गयी हूँ मैं पर लडकपन मेरे जीवन में सिरे से ही गायब है बूढों जैसी रेखाएं मेरे चेहरे पर अपना ठिकाना खोजते-खोजते आने लगी हैं. और मेरे दुखों भी अब विकलांग हो गए हैं कहीं नहीं जाते बस चौबीसों घंटे मेरे करीब ही अपना आसन जमाए बैठे रहते हैं. अपना जीवन मुझे एक बोझ लगाने लगा है. किस्त दर किस्त दुःख की काली छाया मेरे पीछे ही चली आ रही है वह चपल छाया मुझसे पहले ही, आने वाले जीवन की किस्त में पहुँचने की कोशिश में लगी रहती है.

आज फिर मेरा माँ से भयंकर झगड़ा हुआहै. वह मुझसे छुटकारा पाना चाहती है. इसके लिए उसके सामने मेरी शादी ही सबसे सरल उपाय है. वह अपने पहले पति की निशानी यानि मुझे भी उसी तरह दफन कर देना चाहती है जैसा उसने पिताजी की हर निशानी के साथ किया. आज मुझे माँ से टक्कर लेनी होगी. मामला आर-पार का होगा. फिर चाहे कुछ भी हो जाए.

अन्दर ड्राइंग रूम में मुझे लेकर ही बातें हो रहीं है. घर आए मेहमानों को बताया जा रहा है कि इसके दादा-दादी ने इसे बिगाड़ दिया है.

मैं जानती हूँ सभी उस पर विश्वास कर लेंगे. आखिरकार माँ एक मंजी हुई अभिनेत्री है.

पर आज उसका तिल्लिस्म टुटेगा. आज जब वह मेरी शादी एक अधेड़ व्यक्ति से करवाने के चक्कर में है. फिर से मुझे अपने पिताजी की याद आ रही है, दादा की परछाई मेरे नजदीक आने की कोशिश में है. मै अपने पिता, दादा दादी की तरह माँ के कुशल अभिनय का शिकार नहीं होना चाहती.

मैंने सीधे भीतर प्रवेश किया ओर माँ को तेज़ आवाज़ में कहा-माँ, बहुत हो चुका, अब मैं तुम्हारे अभिनय का अंतिम शिकार नहीं बनूंगी. मेरे भीतर एक फौजी परिवार का खून बह रहा है. मुझे मालूम है घर के सद्स्य एक-एक कर तुम्हारे ही कारण शहीद होते चले गए.

सबके सामने मेरा यूँ मुहँ खोलना माँ के लिए यह सब अप्र्याशित था. वह और बाकी मौजूद लोग आँखें फाडे देखते रहे. पर अब पूरी कहानी उलटी जा चुकी थी ओर मैं आज अपनी भूमिका बीच में ही छोड़ मंच से बाहर जा चुकी थी. मुझे अगला रोल क्या मिलेगा, मेरे साथ आप भी इसकी प्रतीक्षा कीजिये.

हाँ, अब मेरा पता वह नहीं है.