सोहराई पेंटिंग का जादू / रश्मि शर्मा

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कुछ वर्ष पहले एनएच 33 पर राँची से रामगढ़ जाने वाली सड़क से गुजरी तो देखा, ओरमांझी बिरसा जैविक उद्यान के पास दीवारों पर बड़ी खूबसूरत पेंटिंग उकेरी गई है। इतनी खूबसूरत कि‍ नि‍गाहें फिर-फिर देखने को वि‍वश हो जाएँ। सोहराई पर्व तो जानती थी मगर पेंटिंग की तरह इसे दीवारों पर उकेरा हुआ पहली बार देखा था।

उसी क्षण इच्‍छा हुई कि‍ इन दीवारों पर कूँची चलाकर खूबसूरत बनाने वालों से मिलूँ और प्रत्यक्ष देखूँ कि‍ कैसे सधे हाथों से दीवारों पर रंग-बि‍रंगी आकृति‍ उकेरी जाती है।

हमारे झारखण्ड में सोहराई पर्व दीपावली के दूसरे दि‍न मनाया जाता है। बचपन की याद है कि दीपावली की दूसरी सुबह,यानी सोहराई के दिन जानवरों को सजाकर उन्मुक्त विचरने के लिए छोड़ दिया जाता था।

उस वक़्त सोहराई पेंटिंग तो नहीं जानती थी; मगर आसपास के घरों में दूधी मि‍ट्टी से दीवारों पर आकृति‍याँ बनाते देखा था घरों में। कई घरों में भिंडी का डंटल वाला हि‍स्‍सा काटकर, उसे रंग में डूबोकर दीवार पर फूल-पत्‍ति‍याँ उकेरी जातीं। कई दीवारों पर तो उँगलियों से ही इतनी सजीव चि‍त्रकारी होती थी कि मिट्टी के घर खिल उठते थे।

बचपन की यादों को ताज़ा करने के लिए शहर के विभिन्न हिस्सों समेत रेलवे स्टेशन में भी सोहराई पेंटि‍ग नजर आने लगी। सरकार स्थानीय कला को बढ़ावा दे रही, यह सोचकर बहुत अच्छा लगा।

कुछ लोगों से पता किया तो जानकारी मिली कि‍ दीपावली के आसपास हजारीबाग के कुछ गाँवों में जाने पर वहाँ की दीवारों पर रंग उकेरते कलाकार मि‍ल जाएँगे।

देखने की जि‍ज्ञासा तो जबरदस्‍त थी, इसलिए दीपावली के दूसरे दि‍न कुछ साथि‍यों के साथ एकदम सुबह नि‍कल पड़ी राँची से हजारीबाग की ओर। हजारीबाग से करीब 35 कि‍लोमीटर दूरी पर स्‍थि‍त है भेलवाड़ा गाँव, जहाँ की पार्वती देवी सोहराई की मँजी हुई कलाकार है।

हमारे एक साथी पहले भेलवाड़ा जा चुके थे; इसलिए सुबह करीब ग्‍यारह बजे हम लोग भेलवाड़ा गाँव में पार्वती देवी के घर के सामने खड़े थे। मैं तो उनके घर के बाहरी दीवार की खूबसूरत कलाकृति देखकर ही पागल हुई जा रही थी।

वि‍भि‍न्‍न प्रकार के फूल-पत्‍तों के साथ जानवरों की आकृति‍ से पूरी दीवार रँगी हुई थी। सफेद, काला, हल्‍का पीला और कत्‍थई या मि‍ट्टी के रंग का प्रयोग कर सभी आकृति‍याँ बनाई गई थीं। आकृति‍यों में स्‍पष्‍ट नजर आ रहा था- घोड़ा, साँप, मछली और कई अनचि‍न्‍हे से जानवर एवं फूल-पत्‍तियाँ।

हमारे साथ गये लोग पार्वती देवी को तलाशने लगे और मैं रंगों और पेंटिंग की दुनि‍या में खो गई। फटाफट कई एंगल से तस्‍वीरें नि‍कालने लगी।

पार्वती देवी अपनी गाय-बकरि‍यों को लेकर चराने गई थी। पड़ोस के एक आदमी को कह उनको अपने आने की खबर भि‍जवाई और हमलोग सोहराई पेंटिंग देखने में डूब- से गए। कहना न होगा कि‍ खपरैल घर भी इन रंगों और आकृति‍यों से इस कदर खूबसूरत लग रहा था कि‍ आज के टेक्‍सचर भी इसके आगे कुछ नहीं।

कुछ देर में ही पार्वती देवी आ गईं और उन्‍होंने घर के अंदर का दरवाजा खोला। हालाँकि‍ बाहरी कमरा खुला था, जि‍समें एक खाट बिछी हुई थी। बुलाने जाने से पहले उनका पड़ोसी इतनी मेहमाननवाजी नि‍भा गया कि‍ हमें घर के अंदर बि‍ठा दि‍या था। यह सम्मान भी गाँवों में ही मिलता है। शहर में अनजान लोगों को कोई घर के कमरे में नहीं बिठाता।

मगर हम लोगों को बैठना कहाँ था? हमें तो पेंटिंग की बारीकी देखनी और समझनी थी। यह सब बि‍ना पार्वती देवी के आए संभव नहीं था। उनके आने तक मैंने आसपास के जमा हुए लोगों से इतनी जानकारी प्राप्‍त कर ली कि‍ गाँव की आबादी करीब दौ सौ की है, जि‍नमें कुछ घर करमाली और अधि‍कतर कुर्मी महतो के हैं। यह भी देश के सामान्‍य गाँव की ही तरह है; मगर अब इस गाँव की पहचान सोहराई आर्ट बन गया है। गाँव के अधि‍कतर घरों में सोहराई पेंटिंग होती है, मगर पार्वती देवी ने सोहराई को अंतरराष्‍ट्रीय पहचान दी है।

अब हम लोग पार्वती देवी के आँगन में पहुँच गए। चारों तरफ की दीवार पर पेंटिंग की हुई थी। सामने गोहाल था, जि‍समें बकरी और गाय बँधे थे। लि‍पाई कर मि‍ट्टी की दीवारों को चि‍कना कर दि‍या गया था और उसके ऊपर कलाकारी की गई थी।

कि‍न रंगों का प्रयोग कर आकृति‍याँ उकेरती हैं आप?, इस सवाल पर जवाब में पार्वती देवी ने बताया कि केवल प्राकृति‍क रंगों का ही इस्‍तेमाल करती हैं वे।

पेंटिंग करने की प्रक्रिया में दीवारों को पहले गोबर से लीपा जाता है। इसके बाद नागरी मि‍ट्टी से उसकी पुताई कर एक तरह से कैनवास बना दि‍या जाता है, फि‍र हाथों के इस्‍तेमाल से वि‍भि‍न्‍न आकृति‍याँ बनाने लगती हैं दीवारों पर।

यह हुनर उन्‍हें वि‍रासत में मिला है। कहती हैं कि‍ जब वह बारह साल की थी, तभी अपनी माँ से यह सब कुछ सीखा था। सोहराई पेंट करके वह घोड़ा, खरगोश, कदंब के पेड़ और फूल-पत्‍ति‍याँ उकेरती हैं दीवार पर।

मैंने सोहराई पेंटिंग में हाथी, साँप, मोर और हरि‍ण की भी आकृति‍ देखी थी, मगर पार्वती देवी ये सब आकृति‍याँ नहीं बनातीं। क्‍योंपूछने पर कोई स्पष्ट कारण नहीं बता पाईं। बस इतना कहा कि हमें शुरू से ही मना कि‍या गया है; इसलि‍ए नहीं बनाते। कई कलाकार दूसरे रंगों का भी इस्‍तेमाल कर लेते हैं; मगर हम केवल प्राकृति‍क रंग का ही उपयोग करते हैं।

जाहिर है, मन में उठा सवाल होंठो पर आ गया- रंग कहाँ से लाती हैं ?

अलग-अलग रंगों की मि‍ट्टी होती है, जि‍से चरही से दस कि‍लोमीटर दूर सदरा गाँव से लाया जाता है। काली, पीली और गेरूआ मि‍ट्टी को पीसकर पहले चलनी से चालकर फूलने के लिए छोड़ दि‍या जाता है। उसके बाद उस मि‍श्रण में गोंद मि‍लाकर रंग तैयार कि‍या जाता है।

सोहराई कला का इति‍हास तलाशने की कोशि‍श की, तो पता चला कि‍ इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं। इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बादम क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ था, जि‍से बादम राजाओं ने काफी प्रोत्साहित किया।

आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्व जीवन में उन्नति से लगाया गया था, तभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर किया जाता था। जिससे कि धन और वंश दोनों की वृद्धि हो सके।

पार्वती देवी के बताने से याद आया कि‍ कोबहर की प्रथा अब भी कई परि‍वारों में है, जहाँ शादी के बाद दूल्हा–दुल्‍हन को एक कमरे में ले जाया जाता है जिसे 'कोहबर' कहते हैं।

कमरे की दीवार पर रंगों से कुछ आकृति‍याँ बनाई जाती थी, जि‍समें फूल-पत्‍ते, जानवर और कई बार दुल्‍हन की डोली लिये कहार की आकृति‍ भी होती थी। मैंने कई शादि‍यों में देखा है इस प्रथा को निभाते। कोहबर के आगे दूल्हा-दुल्‍हन बैठकर अँगूठी छुपाने-ढूँढने का खेल खेलते हैं और दुल्‍हन की सहेलि‍याँ दूल्हे के साथ चुहल करती हैं।

पता लगा कि‍ बादम राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता था, उस कमरे की दीवारों पर उस दिन को यादगार बनाने के लिए कुछ चिह्न अंकित किए जाते थे और किसी लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था, जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे।

बाद के दिनों में इस लिपि की जगह कलाकृतियों ने ले ली और फूल, पत्तियाँ एवं प्रकृति से जुड़ी चीजें उकेरी जाने लगीं। कालांतर में इन चिह्नों को सोहराई या कोहबर कला के रूप में जाना जाने लगा। धीरे-धीरे यह कला राजाओं के घरों से निकलकर पूरे समाज में फैल गई। राजाओं ने भी इस कला को घर-घर तक पहुँचाने में काफी मदद की।

कहा जाता है कि‍ यह यह कला हड़प्‍पा संस्‍कृति‍ की समकालीन है। इसका प्रयोग वि‍वाह के बाद वंश वृद्धि‍ और दीपावली के बाद फसल वृद्धि‍ के लि‍ए इस्‍तेमाल करते हैं। मान्‍यता है कि‍ जि‍स घर की दीवार पर कोहबर और सोहराई की पेंटिंग होती हैं, उनके घर में वंश और फसल की बढ़त होती है।

पार्वती देवी बताती हैं कि‍ इस कला के बदौलत वह वि‍देश घूम आई और इन सबके पीछे बुलू इमाम का हाथ है, जो तीन दशकों से ज्यादा वक्त से इस कला को मुकाम देने की कोशिश में जुटे हैं।

पार्वती की आंखों में वि‍देश में कला प्रदर्शन कर लौटने की चमक तो है, मगर नि‍यमि‍त आमदनी नहीं होने का मलाल भी है। कहती हैं - नाम तो मि‍ला हमें; मगर रोजगार नहीं। अगर सरकार इस कला को सहेजती है, तो परंपरा जीवि‍त रहेगी, वरना खत्‍म हो जाएगी।

बात करते करते हम बाहर नि‍कल आए। साथ में कुछ तस्‍वीरे ले ही रहे थी कि‍ दूर से एक झक सफेद कपड़ों में झुकी कमर को लाठी का सहारा देकर हमारी ओर आती एक स्‍त्री दि‍खी। वे पार्वती की 80 वर्षीया माँ थीं। पास आने पर बताया कि‍ नदी में नहाने गईं थी और वहीं से लोटे में पानी भरकर ला रही हैं।

बातचीत में वो तनिक रुष्‍ट लगीं। सब लोग आते हैं देखने, मगर कोई पैसा देने नहीं आता। कैसे चलेगा हमारा काम।

हमने उनकी कुछ मदद तो की, मगर इस तरह की थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद से काम नहीं चलेगा उनका। हम जानते थे; परंतु ज्यादा कुछ तुरन्त कर पाना हमारे लिए भी संभव नहीं था।

पार्वती देवी वहाँ से उठाकर हमें घर के दूसरे हि‍स्‍से पर ले गईं। वहाँ देखा कि‍ सोहराई कला को कपड़े पर उतारा जा रहा है। कपड़े की तह लगाकर रंगीन मोटे धागे से सि‍लाई कर वैसी ही आकृति‍ उकेरी जा रही है जैसी दीवारों में है। इसे इधर ‘ लेदरा’ कहते हैं, जि‍से बि‍छाने या ओढ़ने के काम में लि‍या जाता है। समझि‍ए कि‍ दोहर का ही एक रूप है।

पार्वती ने बताया कि‍ इसकी माँग है, इसलि‍ए हम लोग लेदरा में पेंटि‍ग करने लगे हैं। इससे कुछ पैसे की आमदनी हो जाती है। एक तरह से काथा स्‍टि‍च जैसा ही लग रहा था, देखने में और सुंदर भी।

देर हो चुकी थी और हमलोगों को राँची वापस भी आना था। हमें लौटने का उपक्रम करते देख पार्वती ने थोड़ी उदासी के साथ कहा - " हमलोग तो एक बार में ही पूरी आकृति‍ दीवार पर उकेर देते हैं, मगर आने वाली पीढ़ी पता नहीं इसे सहेज पाएगी कि‍ नहीं? अब तो घर भी पक्‍के बनने लगे हैं। कहाँ उकेरेंगे इसे और सीखेगा कौन?

फिर धीमे स्‍वर में कहा - "अबकी आइएगा, तो पुराने कपड़े लेते आइएगा। हमारे लेदरा बनाने के काम आएगा।"

जाने दोबारा कब जाना हो, मगर एक कसक लिये हम लौटे कि‍ इतनी सुंदर कला कहीं गुम न हो जाए। यह ठीक है कि‍ इन दि‍नों रेलवे स्‍टेशन, शहर की कई दीवारों, और एयरपोर्ट पर हमें सोहराई पेंटिंग दि‍ख रही है, जो नजरों को खूबसूरत तो लगती ही है और देश-वि‍देश में भी ख्‍यात हो गई है। मगर जब तक इसे रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा, युवा पीढ़ी इसे अपनाएगी नहीं। वॉल पेंटि‍ग से नि‍कालकर सोहराई को कैनवास और कपड़ों पर उतारने के प्रयास में ज्‍यादा ध्‍यान देने की आवश्‍यकता है, ताकि मिथिला पेंटिंग की तरह इसका बाजार बन सके।

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