सौ साल की सड़क और मील के पत्थर / जयप्रकाश चौकसे

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सौ साल की सड़क और मील के पत्थर
प्रकाशन तिथि : 23 अप्रैल 2013


तीन मई १९१३ को गोविंद धुंडिराज फाल्के ने भारत की पहली कथा 'राजा हरिश्चंद्र' का प्रदर्शन किया था। इस वर्ष तीन मई को उसी अवसर को आदरांजलि देने के लिए 'बॉम्बे टॉकीज' नामक फिल्म का प्रदर्शन होने जा रहा है, जिसमें चार लघु कथाओं को चार निर्देशकों ने बनाया है। अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म में एक प्रशंसक की अमिताभ बच्चन से मिलने के प्रयासों की कथा है। करण जौहर की फिल्म एक टूटती शादी की कहानी है, जिसमें रानी मुखर्जी और रणदीप हुडा ने अभिनय किया है। जोया अख्तर की फिल्म में एक बच्चा किस तरह कैटरीना कैफ से मिलने के जतन करता है, यह दिखाया गया है। दिबाकर बनर्जी की फिल्म सत्यजीत रॉय की लघु कथा पर आधारित है, जिसमें एक युवा के सितारा बनने के संघर्ष की कथा है।

दरअसल, हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ साल में फिल्मकारों का जुनून, दर्शकों का दीवानापन और फिल्म अर्थशास्त्र का सनकीपन निर्णायक ताकतें रही हैं। फिल्म बनाने के लिए पैसा और अन्य साधन जुटाने पड़ते हैं, परंतु साधनों की विपुलता के बावजूद फिल्म नहीं बन पाती, जब तक फिल्मकार के पास जुनून न हो। सत्यजीत रॉय ने नौकरी करते हुए अपनी व्यक्तिगत बचत से हर सप्ताह शनिवार और इतवार को शूटिंग की। वे किसी संस्थान से प्रशिक्षित होकर नहीं आए थे और उनके तकनीशियनों के पास भी कोई गहन अनुभव नहीं था। सारे कलाकार भी नए थे। 'पाथेर पांचाली' ने अधिकतम अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते और बंगाल में बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही। राज कपूर ने बाइस वर्ष की अवस्था में अपने जुनून से 'आग' बनाई और उस समय वे सितारा भी नहीं थे। कुछ फिल्मों में काम जरूर किया था। वी. शांताराम और मेहबूब खान पढ़े-लिखे नहीं थे और कमसिन उम्र में ही फिल्म उद्योग से जुड़ गए थे। उनका जुनून ही उन्हें शिखर पर ले गया।

हिंदुस्तानी सिनेमा की सबसे बड़ी ताकत दर्शकों का दीवानापन रहा है। इस दीवानेपन की व्याख्या करना कठिन है। छोटे शहरों और कस्बों के युवा लोगों के जीवन पर फिल्मों का गहरा असर रहा है। दरअसल यह दीवानापन सिनेमा विधा के लिए नहीं होते हुए सितारों के लिए रहा है। इसी कारण कोई दर्शक फिल्मकार नहीं बना। अधिकांश के सपने सितारा बनने के रहे हैं। दर्शकों के सपनों ने फिल्मकारों के रूप में सपनों के सौदागर रचे हैं।

फिल्म उद्योग का पैसे का आना-जाना अर्थशास्त्र में सनकीपन को पैदा करता है। आज फिल्म की लागत में सबसे अधिक धनराशि उसका सितारा ले जाता है। फिल्म सितारे की आय भी अभिनय से अधिक विज्ञापन फिल्मों से आती है। फिल्म के समग्र बजट का ७० प्रतिशत सितारा मेहनताने में जाता है। इसी तरह फिल्म से प्राप्त समग्र आय का ७० प्रतिशत धन सैटेलाइट अधिकार, संगीत एवं डीवीडी अधिकार तथा विदेश क्षेत्र से आता है। भारतीय दर्शक की जेब से मात्र तीस प्रतिशत जाता है और देश की आबादी का ९० प्रतिशत सिनेमाघरों में नहीं, टेलीविजन पर फिल्म देखता है। मल्टीप्लैक्स की आय का अधिकतम हिस्सा पॉपकॉर्न, शीतल पेय एवं पार्किंग से आता है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में मात्र ९ हजार एकल सिनेमा और मल्टी के ढाई हजार स्क्रीन ही हैं। इस उद्योग के अर्थशास्त्र का सनकीपन उसी तरह तर्क के परे है, जैसा दर्शकों का दीवानापन और इन दो गिजाओं पर जीवित है फिल्मकार का पैशन। यह अजीबोगरीब गोरखधंधा है।

सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देश में फिल्म निर्माण का कोई उपकरण नहीं बनता और रॉ-स्टाक भी आयात किया हुआ है। यहां तक कि मल्टीप्लैक्स के प्रोजेक्टर भी आयात किए जाते हैं। एकल सिनेमा की प्रोजेक्शन मशीन भारत में बनती है। भारत के सिनेमाघरों में दर्शक की प्रतिक्रिया भी अन्य देशों से अलग है। यहां सीटियां बजाई जाती हैं, दर्शक नाचते हैं और दक्षिण भारत में तो पोस्टर की भी पूजा होती है। कस्बों में दर्शकों की फरमाइश पर हिट गीत दोबारा दिखाना पड़ता है, अन्यथा कुर्सियां तोड़ दी जाती हैं। कुछ कस्बों में मूल फिल्म में प्रतिबंधित अश्लील अंश जोड़ दिए जाते हैं। विदेशी फिल्में इसी आकर्षण के कारण वहां सफल होती है। भारत एकमात्र देश है, जिसमें अनेक भाषाओं में फिल्में बनती हैं, अन्य सभी देशों में एक ही भाषा में फिल्में बनती हैं। भारत में केवल मूक-युग की फिल्मों को ही राष्ट्रीय फिल्में कहा जा सकता है। ध्वनि के आगमन के बाद फिल्में क्षेत्रीय हो गईं। किसी भी भाषा का विशद्ध रूप फिल्मों में नहीं है। सभी जगह खिचड़ी भाषा का प्रयोग होता है। फिल्मों में प्रयुक्त भाषा समाज के बोलचाल में प्रयोग होने लगती है। सिनेमा ने तो नहीं, परंतु मधुर गीतों ने अवश्यहिंदी का प्रचार-प्रसार किया है।

विगत सौ सालों में सिनेमा ने अनेक लोगों को रोजी-रोटी दी है। सिनेमाघरों के इर्द-गिर्द बाजार पनपे हैं। सरकार को भांति-भांति के कर स्वरूप अकल्पनीय धन प्राप्त हुआ है। कुछ फिल्मों ने विदेशों में पुरस्कार जीते हैं। कुछ प्रतिभाओं का परिमार्जन भी हुआ है। राजा हरिश्चंद्र से लेकर १९४७ तक अनेक फिल्मों ने देशप्रेम की भावना जगाई है। आजादी के बाद छद्म देशप्रेम की फिल्मों की भीड़ के बीच कुछ सार्थक फिल्में भी बनी हैं। अनगिनत लोगों के दुख के दिनों में सिनेमा ने उन्हें मनोरंजन दिया और कई मधुर गीतों ने हमारे एकाकीपन में हमारी मदद की, परंतु सब मिलाकर हिंदुस्तानी सिनेमा ने समाज को कोई सार्थकता नहीं दी है। राष्ट्र निर्माण या राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में कोई विशेष योगदान नहीं है वरन पलायनवादी प्रवृत्ति को मजबूत ही किया है। जब इस देश की शिक्षा ने ही सच्चे संवेदनशील मनुष्य नहीं रचे तो इसके लिए सिनेमा उद्योग को क्या दोष दें? कहते हैं कि जनता के अनुरूप सिनेमा रचा गया है, परंतु इस अराजकता और बीहड़ में भी कुछ अत्यंत असाधारण और महान फिल्मों की रचना हुई है। गोया कि सौ साल की लंबी सड़क पर थोड़े-से ही मील के पत्थर रचे गए हैं।