स्कूल / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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“तुम्हें बताया न, गाड़ी छह घंटे लेट है,” --स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा-- “छह घंटे से पहले तो आएगी नहीं । कल से नाक में दम कर रखा है तुमने !”

“बाबूजी, गुस्सा न हों,” --वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली-- “मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए तीन दिन हो गए हैं...उसे कल ही आ जाना था ! पहली दफ़ा घर से अकेला बाहर निकला है...”

“पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?” औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।

“मति मारी गई थी मेरी,” ---वह रुआँसी हो गई, “...बच्चे के पिता नहीं हैं। मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी-भर चने लेकर घर से निकला है...”

“घबराओ मत...आ जाएगा ” --उसने तसल्ली दी।

“बाबूजी, वह बहुत भोला है। उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती...मेरे पास ही तो सोता है। हे भगवान !...दो रातें उसने कैसे काटी होंगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी नहीं हैं...” वह सिसकने लगी।

स्टेशन मास्टर फिर अपने काम में लग गया था। वह बैचेनी से प्लेटफार्म पर घूमने लगी। इस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर सन्नाटा और अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी ख़ुद से दूर नहीं होने देगी।

आख़िर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके, आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।

एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा । तनी हुई गर्दन...बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें... कसे हुए जबड़े... होठों पर बारीक मुस्कान...

“माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना चाहिए था !” अपने बेटे की गम्भीर, चिंता-भरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था । इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?