स्टीवन स्पिलबर्ग के लिए बेकरारी / जयप्रकाश चौकसे

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स्टीवन स्पिलबर्ग के लिए बेकरारी
प्रकाशन तिथि : 12 मार्च 2013


अनिल अंबानी के निमंत्रण पर हॉलीवुड के स्टीवन स्पिलबर्ग भारत आ रहे हैं। अंबानी की कंपनी ने स्पिलबर्ग की कुछ फिल्मों में आंशिक पूंजी लगाई है। स्टीवन स्पिलबर्ग से मुलाकात के लिए अनेक भारतीय सितारे और फिल्मकार अत्यंत आतुर हैं, जिसका प्रथम कारण तो स्टीवन स्पिलबर्ग की विविध फिल्में हैं। १९६८ से हॉलीवुड में जो विज्ञान फंतासी का स्वर्ण-युग प्रारंभ हुआ, उसका शंखनाद किया था स्पिलबर्ग ने। उनकी विज्ञान फंतासी फिल्मों में मानवीय संवेदना का स्पर्श है और 'शिंडलर्स लिस्ट' तथा 'लिंकन' जैसी फिल्में भी उन्होंने बनाई हैं। डायनासोर नामक गुमी हुई प्रजाति को स्टीवन स्पिलबर्ग ने वर्तमान के बाजार में एक खूब बिकने वाला ब्रांड बना दिया और दुनियाभर के बच्चों के अवचेतन में उसे स्थापित भी कर दिया। उसने मार्केटिंग में नए प्रयोग किए - फिल्म निर्माण के भी पहले डायनासोर आधारित विविध खिलौनों के कारखानों में काम शुरू हुआ। उसने अपने बचपन में कॉमिक्स में डायनासोर को देखा था और फिल्म निर्माण के पहले उस पर उपन्यास लिखवाया तथा उसके बेस्ट सेलर होने के बाद उसके फिल्मांकन के अधिकार खरीदे। बहुत सोची-समझी बाजार नीति के तहत सारा काम इस ढंग से हुआ कि फिल्म बनने के पहले ही उसके लिए असंख्य दर्शक तैयार हो गए। स्टीवन स्पिलबर्ग ने हॉलीवुड का इतिहास ही बदल दिया। उस दौर में तीन युवा फिल्मकार स्टीवन स्पिलबर्ग, मार्टिन स्कोरसिस व फ्रांसिस फोर्ड कापोला ने मरते हुए व्यावसायिक सिनेमा में नई ऊर्जा भर दी। इन तीनों फिल्मकारों ने विश्व-सिनेमा को प्रभावित किया और जापान के जीनियस अकिरा कुरोसोव की इतिहास आधारित 'कागामूशा' में धन भी लगाया।

पश्चिम की प्रयोगशाला में नित नई मशीनों का आविष्कार हुआ और कुछ विचारकों को लगा कि मनुष्य मशीन के अधीन हो जाएगा और नए किस्म की गुलामी प्रारंभ होगी तथा इसी वैचारिक चिंता को सिनेमा में भी प्रस्तुत किया गया। 'स्पेस ओडिसी २००१' इस दिशा में पहला कदम था, तो स्टीवन स्पिलबर्ग की 'आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस' में तो बच्चे की आकृति में रचा रोबो अपनी सरोगेट मां समान स्त्री, जिसके ऑर्डर पर वह रचा गया था, की संभावित मृत्यु पर अश्रु भी बहाता है। स्टीवन स्पिलबर्ग की 'ई.टी.' में अन्य ग्रह से आया प्राणी वापस लौटते समय धरती के अपने मित्रों से विदा लेते समय रोता भी है।

स्टीवन स्पिलबर्ग की तरह ही उनके मित्र फ्रांसिस फोर्ड कापोला की 'गॉडफादर' शृंखला का भी विश्व सिनेमा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। कापोला ने 'गॉडफादर' भाग-एक के बाद यह दुख भी जाहिर किया कि अनचाहे ही उन्होंने अपराध जगत को आभामंडित कर दिया है और इसी भूल की सुधार का प्रयास भाग-2 और 3 में भी किया। अनिच्छुक अपराध सरगना की पत्नी उससे कहती है कि वह उसके और अपने बच्चे का गर्भपात करा रही है, क्योंकि जवान होकर वह भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलेगा और किसी दिन अकाल मृत्यु प्राप्त करेगा। अत: उसे जन्म देकर पाल-पोसकर जवान करने और फिर उसकी मौत का मातम मनाने से बेहतर है आज ही उस अजन्मे को मार दूं। सर्वशक्तिमान गॉडफादर कितना निरीह है, यह उसकी पत्नी उसे समझा देती है। मणिरत्नम की 'नायकन' में अपराध सरगना की इकलौती पुत्री एक ईमानदार पुलिस अफसर से प्रेम विवाह करती है, जिसने संगठित अपराध के खिलाफ युद्ध घोषित किया है। यह भी गॉडफादर की पत्नी की तरह ही किया गया कार्य है।

अनुराग कश्यप, अनुराग बासु, तिग्मांशु धूलिया इत्यादि युवा फिल्मकार स्टीवन स्पिलबर्ग से मिलने के लिए बेकरार हैं। इस मुलाकात से क्या नतीजा निकलेगा? महान फिल्मकार बनने की पहली शर्त होती है कि अपनी जमीन से जुड़ी फिल्म बनाई जाए। अपने देश के दर्शक की रुचियां परिमार्जित की जाएं, परंतु हमारे अनेक युवा फिल्मकार पश्चिम की प्रतिभा से आतंकित हैं और उनका अनुकरण करना चाहते हैं। देशज होने के साथ मौलिक दृष्टिकोण के बिना कुछ नहीं हो सकता। स्टीवन स्पिलबर्ग से मिलने का दूसरा कारण यही है कि उसकी सिनेमाई सोच भारत को दिखाएं। आज हमारे देश में अपनी मायथोलॉजी पर विदेशी नजरिये से रचनाएं बनाई जा रही हैं। टेलीविजन पर महादेव, रामायण, महाभारत लॉर्ड ऑफ रिंग्स तथा हैरी पॉटर की तर्ज पर रचा जा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि अकिरा कुरोसोव ने स्टीवन स्पिलबर्ग और कापोला से धन लिया, टेक्नोलॉजी भी आयात की, परंतु फिल्म जापान के गौरवमय इतिहास पर रची। सत्यजीत राय की सारी फिल्मों का आधार बंगाल का साहित्य और परिवेश है। यहां तक कि जब उन्हें 'दो' नामक लघु फिल्म अंग्रेजी में बनाने के लिए विदेशी पूंजी दी गई तो उन्होंने उसे मूक फिल्म की तरह गढ़ा जैसा कि हम 'हंस' में ओम थानवी के लेख द्वारा जानते हैं। हमारे यहां तो लॉर्ड ऑफ रिंग्स और दीपक चोपड़ा के प्रभाव से लिखे मायथोलॉजिकल उपन्यास भी खूब पढ़े जा रहे हैं। इतना ही नहीं, विकास के अमेरिका से आयात किए मॉडल को अपनाकर देश में आर्थिक खाई को विराट स्वरूप देने वाले छाती ठोंककर देशप्रेम की दुहाई दे रहे हैं।