स्टेटमेंट (कहानी) / रश्मि

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

“चल छोरी! मंदिर चल म्हारे साथ। थारा जी बहल जावेगा।”

“मन्ने नी जाना।”

कजरी जानती थी कि उसकी पोती जिस हादसे से निकली है, उसके ज़ख्म इतनी आसानी से नहीं भरने वाले। कभी वह खुद भी तो इस ज़ख्म से अपने तन-मन को छलनी कर चुकी थी इसलिए अपनी पोती के दर्द को बखूबी समझ सकती थी। वह तो फिर भी सोलह-सत्रह बरस की थी लेकिन उसकी फुलवा ...उसकी पोती वह तो अभी दस ही बरस की है और इतना बड़ा वज्र सह गई। कजरी को अपना लड़कपन याद हो आया। सोलह-सत्रह की ही रही होगी वो, जब गौना होकर अपने सासरे लौटी थी। ...और अपने ही गाँव के मुखिया की बदनियती का शिकार बन गई थी।

उसकी मुँह दिखाई के दिन की बात है, जब पूरे गाँव की लुगाइयाँ उसके आँगन में जुड़ आईं थीं तब सास ने सबके सामने कहा था – “बहुरिया! पूरे गाँव ने अपना ही घर मानिजो। यहाँ सब तेरे अपने ही रिश्ते-नातेदार हैं। कोई तेरी माँ समान है तो कोई तेरी भाभी समान ...कोई तेरी बहन सरीखी है तो कोई तेरी सहेली-सी। बीनणी! तू सबने अपना पिता और भाई मानिजो।”

मैंने भी हामी में अपना सर हिलाया था ...और सच भी था, मुझे पूरे गाँव का प्यार मिला। इतना प्यार कि अपने पीहर की भी सुध न रही थी। जो जो रिश्ते वहाँ पीहर में बिछुड़े, वो सब यहाँ सासरे में मिल गए थे। इन्हीं सब अच्छे लोगों के बीच एक इंसान, उसकी नियत कब बदल गई ...कि राम जाने वह पहले से ही ऐसा ही था, पता ही न चला। वह इंसान था म्हारे ही गाँव का मुखिया। मैं उसके आगे लाख गिड़गिड़ाई ...हाथ जोड़के मिन्नतें कीं ...अपने पेट से होने की दुहाई दी ...लानतें दीं ...तड़फी ...मचली और फिर सिसकती ही रह गई। मैं अपने दर्द को जिस्म में लिए आत्मा के भीतर दबा गई। मुखिया की धमकी और लोकलाज के भय से किसी के भी आगे अपना मुँह न खोला और साल दर साल बीतते गए। वह निगोड़ा मुखिया भी दूसरे ही बरस बीमारी के चलते राम जी को प्यारा हो गया। ...और मैं बड़े जतन करके उस काली याद को किसी अँधेरे कुएँ में दफना आई थी और अपनी आगे की ज़िन्दगी सँवारने लगी।

धीरे-धीरे समय बीता ...सात बच्चे जने ...फिर अपने बच्चों में ही रम गई। माँ बनी ...फिर दादी बनी। अब जब वही सब मेरी पोती के साथ दोहराया गया तो सालों बाद दर्द की सारी परतें फिर उघड़ गईं, ज़खम फिर से हरा हो उठा। उसी मुखिया के बिगड़े सपूत ने म्हारी फूल-सी पोती को मसल डाला। यह तो बेचारी अभी इन सबका मतलब भी न जाने थी। क्या होवे हैं आदमी-औरत के रिश्ते ...कैसी होवे है तन की भूख ...कुछ भी तो न जाने थी। उम्र ही क्या है अभी इसकी, दस बरस की ही तो है अभी म्हारी छोरी। दस बरस में वो क्या जानती तन के खिलवाड़ ...जिस्म के नोच-खंसोट। कजरी मन-ही-मन अपना जी कड़वा किये जा रही थी और सामने बैठी उसकी पोती फुलवा डलिया बिन रही थी।

महीने-भर पहले गाँव के मुखिया के छोरे ने फुलवा की इज्ज़त को तार-तार कर दिया था। घर आकर बहुत रोई बेचारी बच्ची। वह नादान तो अब तक ना समझ पा रही थी कि ‘आखिर उसके साथ ये हुआ क्या है!’

जब फुलवा छोटी-सी थी, तभी से खूब मार खाती आई थी। अपने बापू से खूब पिटती थी। उसकी माँ भी कभी-कभार उसे झाड़ू या चिमटे से पीट देती। बड़ी अम्मा (कजरी) बस चिल्लाकर ही रह जातीं, एक वो ही थीं, जो उसे कभी पीटतीं न थीं। ...यहाँ तक कि उसका छुटका भाई भी जो हाथ आए वही फुलवा पे दे मारता था। इसलिए बचपन से ही मार-पिटाई सहने की खूब आदत थी फुलवा को। उसने देखा था कि जब उसके बापू को छुटके पर खूब गुस्सा आता तो वह उसकी बुशर्ट उतार कर नंगी पीठ पर मारता। इससे छुटके को खूब लगती ...सीधे चमड़ी पे। लेकिन फुलवा इस बात पर बड़ी हैरान होती कि उसकी माँ तो निरीह गाय-सी, पूरे दिन चुपचाप घर भर के काम करती रहती है ...किसी के भी साथ कोई फूटे बोल पलट के भी न बोलती है ...फिर काहे को उसका बापू हर दूसरे तीसरे दिन आधी रात को उसकी माँ का बदन उघाड़ कर पीटता है! दबोचता है! कचोटता है! काहे बेचारी पे चढ़ बैठता है और वह सिसकती रह जाती है ...बस यही बात फुलवा नहीं समझ पाती थी।

एक दिन फुलवा अपनी बनाई टोकरियाँ सिर पर धरकर पगडंडियों और खेतों से होती हुई मंडी की तरफ चली जा रही थी। रास्ते में मुखिया जी का छोरा मिल गया। बोला – “फुलवा! कहाँ ले जा रही है ये टोकरियाँ ? एक-आध म्हारे घर भी पहुँचा दे। अम्मा खुश हो जाएगी।”

“भाईसा! अपने पसंद के रंग और दाम बताओ। मैं कल ही बीन के हवेली पहुँचा दूँगी।”

“जे बात! तीन रंग-बिरंगी टोकरीं बीन के हवेली पहुँचा देना और उनके दाम इसी टेम यहीं पे आके म्हारे हाथों से ले जाना।"

‘हाँ’ में सिर हिलाकर फुलवा मंडी को चल दी । वह किसी से भी ज्यादा बोलती चालती ना थी। स्वभाव से वह अपनी माँ पर ही गई थी। काम से काम बस! न ज्यादा किसी से बोलना ...न ही बिना काम कहीं घूमना-फिरना। फुलवा उस दिन शाम ढले बाज़ार से लौटी, घर पहुँची और चटपट रंगबिरंगी टोकरियाँ बुनने बैठ गई । घर के बाकी लोग भी यह जानकर खूब खुश हुए कि हवेली में टोकरियाँ जावेंगी तो दाम भी अच्छे मिलेंगे । फुलवा अगले दिन बाजार न गई । दिन भर टोकरियाँ बीनती रही। सांझ तक तीन टोकरियाँ बनाकर हवेली पहुँचाने चल दी । हुकुम टोकरियों को देखकर बड़ी खुश हुईं और उन्होंने फुलवा को उनके दाम चुका दिए । जब फुलवा घर लौट रही थी तो गन्ने के घने खेतों के बीच मुखिया के छोरे ने उसे अपनी और घसीट लिया।

“क्यों री! तूने अम्मा से पैसे क्यों लिए, मैंने कहा था न कि मैं दूँगा।”

“मालकिन ने दे दिए तो मैं काईं करती भाईसा ?” उसने कसमसाते हुए और खुद को उसके चंगुल से छुड़ाते हुए कहा।

“लेकिन इब म्हने भी देने का मन है ...फुलवा मैं काईं करूँ ? इब म्हारे से भी ले ...|”

फुलवा हाथ जोड़कर माफी माँगती रही... रोती रही ...लेकिन उसके तन से एक-एक कपड़ा उतरता गया । नादान बच्ची अब तक यही सोचती रही कि जैसे मेरा बापू छुटके को (कभी भी) और माँ को (आधी रात को) कपड़े उतार कर पीटता है वैसे ही छोटे मालिक भी पीटेंगे ...और वह मासूम लड़की कुचली जाती रही, मसली जाती रही । जो फुलवा के साथ हो रहा था, वह उसका मतलब भी नहीं समझती थी। बस वह इतना ही जानती थी कि इससे पहले कभी किसी ने उसे इस तरह से नहीं पीटा है । उसकी जांघों के बीच से खून रिस रहा था । तन का हर हिस्सा दुख रहा था । वह समझ ही न पा रही थी कि उसे मारा गया है कि रौंदा गया है । वह इस उम्र में बलात्कार के मायने ही कहाँ जानती थी!

रात होने को आई थी, आसमान धुंधलका हो चला था । फुलवा के मन के भीतर भी गहरी दुविधा मची थी, वह मासूम अब तक इसी ऊहापोह में थी कि छोटे मालिक ने उसका बदन उघाड़ के उसे क्यों पीटा ? क्या उन्हें टोकरियों के रंग पसंद नहीं आए ? ...या मैंने बड़ी मालकिन से पैसे ले लिए क्या इस कारण से नाराज़ हो गए ? ... बेचारी जैसे-तैसे उठी, खुद को समेटा और कराहती हुई घर चल दी । माँ की नज़र ज्यों ही बच्ची पर पड़ी वह दौड़ पड़ी और अपनी कोखजाई को आंचल में छुपाकर कोठरी के भीतर खींच लाई । माँ रोती जाती थी और फुलवा को बाहों में भींचती जाती भी । बापू, बड़ी अम्मा, छुटका सब उसके जिस्म से बहता खून देख-देखकर रो रहे थे । बड़ी माँ ने इतना ही पूछा था – “छोरी थारा जे हाल किस निपूते ने किया ?” ...और फुलवा के मुँह से ‘छोटे मालिक’ का नाम सुनके उसका बापू जहर बुझे सांप-सा बिलबिला के रह गया था । ...फिर कई दिन तक माँ ने फूलवा की देखभाल की । किसी ने भी उसे घर से बाहर ना जाने दिया ।

एक दिन फुलवा के बापू ने आकर कहा – “चल फुलवा, म्हारे साथ चल, उस छोरे की सिकायत मैंने सरपंच जी से की थी । सरपंच जी थारा सटेटमेंट लेवेंगे। वे जो भी पूछें सच्ची-सच्ची कह देना, सरमाना मत छोरी ...और ना ही घबराना। मैं तो उस दरिन्दे को कोरट-कचहरी तक खींचूँगा। बड़े होंगे तो अपने घर के। जेल की हवा न खिला दी तो ...|”

फुलवा सिर झुकाए बापू के पीछे-पीछे चल दी । सरपंच ने बच्ची के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कमरे के भीतर ले गए । अकेले में बड़े प्यार से उसका बयान लिया और उसके बापू को दो-तीन दिन बाद फिर आने की कह कर वापस भेज दिया । तीन दिन के बाद विधायक जी ने खुद उसे और फुलवा को हवेली में बुलवा भेजा । फुलवा का बापू समझ गया कि यह सब उसकी शिकायत का ही असर है और अब तो ज़रूर उस छोरे को सजा हो ही जावेगी। वह बेटी को लेकर विधायक की ड्योढ़ी पर पहुँचा ।

“राधे! मैं बच्ची से अकेले में बात करना चाहूँ हूँ।” ...और वह फुलवा को भीतर ले गया। बड़े प्यार से उसके तन पर हाथ फेर-फेर के बयान लेता रहा।

यूँ ही दो हफ्ते बीत गए । फुलवा की अम्मा ने उसके बापू को खूब समझाया कि, "बेटी की जात है, मत करो जिद्द ...इन ऊँची हवेली वालों को कोई सजा न होवेगी बल्कि हमारी ही इज्जत खाक में मिलती जावेगी । बिटिया के जखम हम मिलके भर देवेंगे । काहे बार-बार सबके सामने अपनी ही इज्जत को उघाड़ना । कोई बयान लेवेगा, कोई गवाही, तो कोई सटेटमेंट ...गरीब की कब कौन सुनता है ...हमें कब मिला है न्याय जो अब मिलेगा।”

बड़ी अम्मा ने भी माँ की बात को ही दोहराया – “बीनणी ठीक ही तो बोले है। तू क्यूँ छोरी ने लेके दर दर फिरे है ...चुप कर जा। अपणा-अपणा काम करो सब कोई ...म्हने ना चाहिए कोई न्याय । दो चार बरस बाद छोरी ने ब्याह देंगे ...अपणे घर जाके सुखी रहेगी । छुटके को जहीं पर रहना है, इन्हीं लोगन के बीच अपना काम-धंधा देखना है । मत कर इनसे बैर । हम गरीब लोग हैं । हमारी इज्जत इन्ही लोगन के हाथ में है।”

...लेकिन फुलवा का बापू अब पीछे हटने को तैयार न था । वह न्याय चाहता था । वह उस दरिंदे जेल को सलाखों के पीछे देखना चाहता था जिसने उसकी बच्ची की जिंदगी नरक बना दी थी । मासूम फुलवा अपने बापू, बड़ी अम्मा और माँ की शक्लें देखती और कयास लगाती रहती - 'हो न हो कुछ तो गलत हुआ है उसके साथ' तभी तो गांव वालों की दया और माँ बापू का दुलार उसके प्रति बढ़ता जा रहा था।

...और बढ़ता जा रहा था, आए दिन हर किसी ओहदेदार के आगे दिया जाने वाला फुलवा का स्टेटमेंट ।

उसकी जांघों के बीच का जख्म भरने को ही नहीं आ रहा था और आत्मा के ज़ख्म...| वो और उसकी आत्मा दोनों ही अब गूंगे हो चुके थे। पहले से ही कम बोलने वाली फुलवा अब और चुप रहने लगी थी। जहाँ तक होता अपने हाथ या सिर को हिलाकर ही जवाब दे देती और काम चल जाता। अब तो एकदम चुप हो गई थी।

कल ही फुलवा अपने जिले के कलैक्टर को अपना स्टेटमेंट देकर आई थी। और आज! ...आज उसके बापू ने कहा है कि शहर में किसी वकील से बात हुई है। आज उसके पास चलना है।

“इब कहीं नहीं जाणा बापू।” फुलवा रो पड़ी “म्हारे से अब और सटेटमेंट नहीं दिया जाता बापू। थक गई दे देके... म्हने नई देना किसी को भी कोई सटेटमेंट।”

राधे ने बच्ची को पुचकारा – “सुन बिटिया! वकील साहिबा बहुत भली औरत हैं। वे जरूर हमें न्याय दिलवाएँगीं । बस तू इबकी चल म्हारी छोरी ...फिर तन्नै कहीं ना लेकर चालूंगा।"

फुलवा ने अपने बापू की बात मान ली । अगले ही दिन तड़के दोनों बाप बेटी शहर चल दिए । फुलवा अभी भी ठीक से न चल पाती थी, शायद जख्म पूरे भरे न थे । बस में कई लोग बाप-बेटी को घूर के देख रहे थे । राधे ऐसा ठिठका बैठा था मानों कोई बड़ा गुनाह का गठ्ठर सर पर धरे बैठा हो । मुस्कुराते हुए अपने आस-पास के लोगों से बोला – “म्हारी छोरी की तबियत ठीक कोणी ...डॉक्टर को दिखाने सहर ले जा रहा हूँ।”

राधे और फुलवा तय समय से पहले ही वकील साहिबा के दफ्तर पहुँच गए। मैडम के असिस्टैंट ने उनका नाम रजिस्टर में लिखकर मय हाजिरी अंदर पहुँचा दिया और वहीँ पड़ी बैंच पर बैठकर इंतजार करने को कहा । बच्ची बहुत घबराई हुई थी । अब तक न जाने कित्तों के आगे अपने ज़ख्म खोलती आई थी । दूसरों से क्या... अब तो खुद से भी डरने लगी थी। वह शाम याद करके सिहर उठती । अब वह कुछ भी याद नहीं करना चाहती... नहीं देना चाहती अब किसी को भी कोई स्टेटमेंट। उसका अपना ही बापू उसका दर्द क्यों नहीं समझता! वह यहाँ से भाग जाना चाहती है । उसका सिर भनभना उठा ।

दस वर्ष की मासूम फुलवा जो इन सबके मायने भी नहीं जानती थी, अब तक न जाने कितनों को अपने स्टेटमेंट दे चुकी थी ।

उसने मन ही मन तय किया कि, ‘बस! आज यह आखिरी बार है। आज के बाद वो कोई गवाही, कोई बयान, कोई सटेटमेंट नहीं देगी । वकील साहिबा खुद एक औरत हैं और वे उसका दर्द ज़रूर समझेंगी । बस! वह उन्हें ही आज अपना आखिरी सटेटमेंट देगी इसके बाद कभी किसी के पास जाने को राज़ी ना होगी । कह देगी बापू से कि बस! नहीं चाहिए मुझे न्याय। बार-बार ज़ख्म हरे करके ही अगर न्याय मिलेगा तो नहीं चाहिए ऐसा न्याय।’

वह और उसका बापू दोनों ही अपने-अपने दर्द के समंदर में डूबे हुए थे। ...एक दूसरे के दर्द के साझेदार या किंचित एक दूसरे के दर्द से बेज़ार । वकील साहिबा ने उन्हें भीतर बुलाया । दोनों उठ खड़े हुए और वकील साहिबा के सामने पहुँच गए । उनके आगे एक खूब बड़ी-सी मेज रखी थी और तीन कुर्सियाँ ।

"बैठिए आप दोनों, प्लीज़ । आप पानी लेंगे ?" और उन्होंने अर्दली को पानी लाने का हुक्म दिया ।

"मैडम! म्हारी छोरी के साथ बहुत अन्याय हुआ है। हमें अब आपका ही आसरा है। दर दर की ठोकरें खाने के बाद अब आपके पास तक पहुँचे हैं। म्हारी फूल-सी छोरी सबको अपना सटेटमेंट दे देकर पत्थर हो चली है।”

“हाँ! हाँ! बिल्कुल रघुदेव जी। आप मुझ पर भरोसा रखें। अब हम उस दरिंदे को सलाखों के पीछे करके ही चैन लेंगे। लेकिन मुझे उसके लिए फुलवा से कुछ बातें पूछनी होंगीं ...मुझे भी उसका स्टेटमेंट एक बार तो लेना ही होगा।”

फुलवा सिहर उठी। अब तक वह चुप्पी साधे बापू और वकील साहिबा की बातें सुन रही थी लेकिन जैसे ही अपने स्टेटमेंट की बात सुनी वह ऊपर से नीचे तक काँप गई।

“मुझे बच्ची के साथ अकेले में बात करनी है। क्या प्लीज़ आप बाहर बैठ सकते हैं ?”

रघु अपने दोनों हाथों को जोड़े हुए ही खड़ा हो गया और एक बार फिर आशा भरी निगाह से वकील साहिबा को देखते हुए बाहर निकल गया। फुलवा के लिए भी यह कोई नई बात नहीं थी। अब तक जितने लोगों ने भी उसका स्टेटमेंट लिया था, सभी ने अकेले में ही लिया था। बस वो हैरान थी तो इस बात से कि, ‘आखिर वकील साहिबा एक औरत होकर भी उसका सटेटमेंट कैसे ले सकतीं हैं ? क्या एक औरत होते हुए भी उसका दर्द नहीं महसूस सकतीं!’

अब वह सहमी-सी अकेली बैठी थी उनके सामने। वकील साहिबा कुर्सी से उठकर फुलवा के नज़दीक आईं और उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखा। फिर उसे कोने में पड़े अपने सोफे पर ले गईं। अपने पास बिठाया और कुछ सवाल पूछे। मसलन –

जब तुम्हारे साथ यह हादसा हुआ तो तुम कहाँ जा रहीं थीं ?

उस वक्त क्या समय हो रहा था ?

तुमने कपड़े कैसे पहने थे ?

तुम्हारे साथ और कोई था कि नहीं ?

क्या तुम उस लड़के को पहले से जानतीं थीं ?

क्या कभी उससे पहले भी अकेले में कहीं मिलीं थीं या कोई झगड़ा वगैरह ?

घर वालों की आपस में कोई कहासुनी वगैरह वगैरह ...|

हालांकि वे खुद भी जानतीं थीं कि दस वर्ष की यह बच्ची इस कुकर्म के बारे में इससे पहले जानती भी क्या रही होगी ...लेकिन केस फ़ाइल करने के लिए कुछ सवालात तो करने ही थे।

वकील साहिबा उठीं और अपनी मेज़ के पास चल दीं। उन्होंने फुलवा को अभी कुछ देर और वहीँ बैठने के लिए कहा - “फुलवा! मैं अभी तुम्हारा और स्टेटमेंट लूँगी, ज़रा वहीँ बैठना।” ...और वे अपने मेज़ के पास आकर कुछ लिखने लगीं। वापिस पलटीं तो सन्न रह गईं ...फुलवा अपने सलवार को नीचे तक खिसका कर सोफे पर लेटी थी।

“फुलवा! क्या है ये सब!”

“मैडम जी! आपने मेरा सटेटमेंट तो लिया ही नहीं!”

वकील साहिबा लपक के उसके पास पहुँचीं और ज़मीन पर ही बैठकर उसकी सलवार का नाड़ा जल्दी-जल्दी बाँधने लगीं और यह सोचकर रो पड़ीं कि, ‘यह मासूम बच्ची अब तक तो न जाने कितनो को अपना स्टेटमेंट दे चुकी होगी ......!!’