स्त्री की स्वछन्दता की अभिलाषा और पुरुष / अनुराधा सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिमोन दी बोउवा की ‘द सेकंड सेक्स’ अब भी पढ़ी जा रही है कहीं-कहीं, गलत और सही दोनों सन्दर्भों में. अपने ऊटपटांग तरीकों से स्वच्छंदता घोषित करने वाली पीढ़ी के दिन भी भले ही चढ़ते जा रहे हों महिला आबादी का अधिकतर हिस्सा अब जिस नए रोग से ग्रस्त हो रहा है वह है उनकी आज़ादी की गलत व्याख्या. पुरुष तो दिलो जान से चाह रहा है कि औरत आज़ाद हो जाये. आज़ाद हो जाये बाहर की स्त्री. वह पुचकार कर कहता है, तुम्हारा पति/ पिता तुम्हें अपना गुलाम समझता है, तोड़ दो सारे बंधन और आ जाओ मेरी पनाहों में. मैं दिखाता हूँ तुम्हें दुनिया कितनी हसीन है. औरत बहल जाती है इस छद्म में, इस छल में. अपने स्थिर शांत जीवन की मोनोटनी से उकताई वह औरत जिसके जीवन में अब और नए व रोमांचक सम्बन्ध नहीं बनने वाले, अचानक अपने प्रति अब तक हुई सब ज़्यादतियों का हिसाब वक़्त से मांगती है. मर्यादा का सदर दरवाज़ा खोल कर खुली हवा में आ जाती है. साथ चल रहे जुलूस में सबसे आगे यही पुरुष है, उसकी आज़ादी का हिमायती.

स्त्री, कभी इस पुरुष के आँगन में भी झाँक कर देखो कि वह अपने घर की स्त्रियों को कितनी स्वच्छंदता देता है. साँस लेने की पूरी हवा भी आती है उन सलाखों के भीतर?

अपने घर की स्त्री से अब भी सबकी वही घिसी पिटी अपेक्षाएं हैं. ऐसे दोहरे चेहरे पहने हुए बहुत लोग मिलेंगे जो कहेंगे ‘देह तुम्हारी है मन तुम्हारा, बाहर निकलो रूढ़ियों से. तुम्हारा पति केवल तुम्हारा मालिक है. प्रेमी तो मैं हूँ’. स्त्री की इसी यौनिक स्वच्छंदता की पैरवी करते लोग अपने अधिकार क्षेत्र में आती स्त्रियों को एक फेसबुक अकाउंट तक खोलने की इजाज़त नहीं देते हैं. मेरी एक कविता ‘तोड़ दो वह उंगली’ यही जिरह करती है —

लोग जो लपकती आँखों से ताक रहे थे लिखते अमृता की उँगलियों को इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम उन्हें नागवार है बेटियों का मयफोटो फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल

मुंबई के एक वरिष्ठ लेखक से पूछती हूँ, ‘अबकी बार पुरुषों की उदारता पर लिखूँ?’ तो वे सोच में पड़ जाते हैं. “लेकिन पुरुष तो बहुत चालाक होता है, बहुत कपटी”. फिर वे कुछ नाम गिनाते हैं, कुछ मामले, कामयाब कपटी पुरुषों के. सोचती हूँ कि अगर यह बात है तो अब आगाह करना है उन्हें जिन्हें छद्म स्वतंत्रता का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है. ब्रूस ली के कहे हुए शब्द ‘शक्ति तुम्हें ज्ञान से मिल सकती है लेकिन सम्मान चरित्र से ही मिलेगा.” आज और हमेशा माकूल रहेंगे. मध्य प्रदेश के एक कवि कहते हैं, ‘दरअसल जिन्हें समाज चरित्रहीन या चालू स्त्रियाँ कहता है वे मूर्ख होती हैं, अक्सर थोड़ी कम भीतरी समझ की औरतें. वे नहीं जानती हैं कि समाज के सामने अपना कौन सा पक्ष प्रस्तुत करना है, कौन सा छिपा लेना है.’

मैं उनकी यह बात मान लेती हूँ लेकिन महत्वाकांक्षा भी कुछ कम नहीं खेल रही है स्त्री की खैरियत से. वे आतीं हैं और मुझसे एक परिचित पुरुष के चरित्र के विषय में तहकीकात करती हैं और मैं अचानक उनकी सलामती के लिए चिंतित हो जाती हूँ, “मुझसे मत सलाह लो अंधे कुएँ में कूदने से पहले, इसकी तली नहीं है. यह एक सूखा कुआं हैं. मरते वक़्त एक बूँद पानी को तरस जाओगी, हाथ पैर टूटेंगे सो अलग. जाओ औरत अपने घर जाओ, अपने पढ़ने लिखने की मेज पर ” लेकिन तभी वे दृश्य से गायब हो जाती हैं, फिर लौटने के लिए. अब वे लगभग हर जगह दिखाई देती हैं, उसी पुरुष की छाया बनी, लगभग छाई हुई. अब वे मुझे नहीं जानती हैं, अब वे उस पुरुष का चरित्र भी नहीं जानना चाहती हैं, जिसने उनकी कमज़ोर नस पकड़ ली है. ऊब और घुटन. थोड़ी सी तारीफ़, थोडा सा सोलह साल वाला प्रेम, एक गुनगुनी नज़र गुज़रती हुई जवानी पर, थोड़ा नाम, थोड़ी शोहरत और एक साथ जन्म भर के लिए. बस करो, वह तथाकथित सात जन्मों वाला साथ तो तुम पीछे छोड़ आई हो और यह साथ तुम्हें छुटपुट कामयाबी से अधिक पछतावा और झुरन देगा. कितनी बेवफ़ाई के साथ वफ़ा चाह रही हो तुम औरत, और किससे/ जिसने तुम्हें बेवफाई सिखाई.

रूमी कहता है “तुम पिंजरे से बच निकली हो, तुमने अपने पंख पसार लिए हैं, अब उड़ो.” मैं कहती हूँ दूसरे पिंजरे में मत कैद करो खुद को, पिंजरे का जवाब आसमान है, पंख कतरने की कैंची नहीं. देखो स्त्री, कहीं तुम्हें रिश्तों से आज़ाद होने की यह चाह और कैद न कर दे, कहीं यह क़तर न डाले तुम्हारी अस्मिता के पंख.

अपनी आज़ादी के लिए किसी और के साथ का मुंह क्यों ताक रही हो? जो तुम करोगी वही नज़ीर तुम्हारी बेटी लेगी अपने जीवन के लिए. अपनी बेटियों को कराटे सिखाओ, कत्थक सिखाओ दुनिया भर की तमाम कलाओं में पारंगत कर दो, लेकिन सबसे पहले उन्हें खुद से प्रेम करना सिखाओ. उन्हें उस व्यक्ति से प्रेम न करना भी सिखाना जो उन्हें बदले में प्रेम और सम्मान न दे सकता हो. तुम्हें लगेगा यह उनकी बहुत व्यक्तिगत बात है लेकिन एक माँ यह भी सिखा सकती है (पिता भी). उन्हें सफलता के शार्टकट लेना मत सिखाना. मैं देखती हूँ बहुत योग्य और सफल लड़कियां अपनी इसी कमजोरी से एक नहीं बार बार छली जाती हैं. हमें अपनी बेटियों और बेटों को यह सिखाना ही पड़ेगा कि प्रेम के लिए ही नहीं सफलता के लिए भी किसी का मुंह जोहना ठीक नहीं. इस तरह तो हम अपने ही शोषण के दरवाज़े पर दस्तक दे देती हैं.

तुम्हारी आज़ादी तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे विचारों में, तुम्हारे शब्दों में तुम्हारे व्यवहार में. उसे अपने कपड़ों और भाषाई खुलेपन से मत नापो. कोई रोकने नहीं आएगा बल्कि कई लोगों की पाँचों उंगलियाँ घी में हो चुकी हैं, वे ही जो पीछे से तुम्हें गलत कहेंगे, बहुत गलत. तुम्हारे अपने भी एक दिन हार मान जायेंगे और गिरने देंगे उस खाई में जहाँ से ऊपर आने के लिए कोई सीढ़ी, कोई रस्सी नहीं है.. खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर नुकसान स्त्री का ही होगा, छले जाने की, क्षति की पीड़ा अलग. प्रेम करो मन से देह से लेकिन कुछ पाने की चाह में जो समझौता करती हो उसे प्रेम मत कहना. अपनी कामनाओं को खुद के लिए पहचानना, अपनी आज़ादी की ख्वाहिश को अपने खिलाफ हथियार मत बनने देना. अच्छी रहो स्त्री.