स्नेह धाम / सुधा भार्गव

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एक गाँव था। उसमें बहुत से मंदिर थे। सुबह शाम लोग मंदिर जाते। दीया जलाते और कहते -भगवान हमारे मन का अंधेरा दूर कर दो । घंटे भी बहुत ज़ोर से बजाते मानो कह रहे हों –हमने अपनी बुराइयों पर विजय प्राप्त कर ली है।

उस दिन भी मंदिर में बड़ी भीड़ थी। जन्माष्टमी का व्रत था। मंदिर में काफी देर तक कीर्तन करने के बाद लोग घर लौट रहे थे। रात को बारह बजे व्रत तोड़ना था पर घर में फैली पूरी कचौरी हलुए की खुशबू उन्हें चैन नहीं लेने दे रही थी।

उस दिन एक छोटे से बच्चे ने भी व्रत कर रखा था। उसके एक हाथ में चुटकी भर चावल और दूसरे हाथ में दूध की छोटी सी लुटिया थी।

उसने एक घर की कुंडी खटखटाई। दरवाजा मोटी सी थुलथुल औरत ने खोला –झल्लाई सी बोली –क्या है?

-माई,मैं सुबह से भूखा हूँ। मेरी खीर बना दो। ये रहे चावल और दूध।

-उंह!गिनती के दाने और छटंकी भर दूध। इतने से कहीं खीर बनती है। भाग यहाँ से छटंकी लाल ।

बच्चे का मुंह लटक गया। हिम्मत करके उसने दूसरे का दरवाजा खटखटाया –माँ मेरी खीर बना दो,बहुत देर से मेरा पेट चिल्ला रहा है –भूख-भूख ।

-वैसे ही घर में बहुत काम है,तू और आ गया काम बताने । मुझे मरने की तो फुर्सत नहीं। भाग यहाँ से।

बच्चा भूख से रोने लगा। उसने एक बुढ़िया देखी जो लाठी के सहारे चल रही थी और उसकी कमर झुक गई थी।

उसे देखते ही बोला –बूढ़ी माँ मेरी खीर पका दो,बहुत भूखा हूँ। ये लो दूध और चावल।

-ला बेटा। मैं अभी तेरी खीर पका देती हूँ। तू जल्दी से मुंह धो कर आ जा। सारे दिन का भूखा !कैसा मुँह उतर गया है।

बुढ़िया ने खीर बनाने को चूल्हे पर छोटी सी कढ़ाई चढ़ाई। लुटिया का दूध कढ़ाई में डाला और जैसे ही उसे सीधा किया वह तो दूध से भर गई। बुढ़िया हैरान !उसने उसे भी कढ़ाई में उड़ेल दिया। अरे वह तो फिर भर गई। उसने न कभी ऐसा देखा न सुना। हैरान होने के साथ –साथ बुढ़िया परेशान भी हो उठी –जितनी बार वह लुटिया खाली करे,उतनी बार वह तो भर –भर जाए। कढ़ाई भी छोटी पड़ गई। बड़ी कढ़ाई उसने चूल्हे पर चढ़ाई। वह भी दूध से भर गई पर लुटिया ने खाली होने का नाम न लिया। हारकर उसने उसे नीचे रख दिया। चावल दूध के हिसाब से अपने आप ज्यादा हो रहे थे। खीर की खुशबू पूरे घर में फैल गई।

बुढ़िया बच्चे का इंतजार करने लगी –अब आए –अब आए। वह तो न आया पर बेचारी भूखी ही सो गई। उसे सपना आया –माँ उठ,खीर खा ले।

-माँ भला पहले खाती है क्या? पहले तू खा फिर मैं खाऊँगी।

-माँ तेरी भूख मुझसे देखी नहीं जा रही। पहले ही तू इतनी पतली है। तू खाले ---–समझना मैंने ही खाई है।

बुढ़िया ने पेट भर खीर खाई और बोली –ले मैंने खा ली अब तो तू खा ले। बहुत बची है।

-तू दुबारा खा ले। यदि बचे तो पास –पड़ोस को खिला दे। फिर भी बचे तो गाँव में बँटवा दे।

चिड़ियों की चहचहाट से वह जागी। गर्दन घुमाकर चारों तरफ देखा। बच्चा तो कोई दिखाई नहीं देया पर उसकी बात नहीं भूली। उसने कटोरा भर कर खीर बच्चे को निकाल दी। खुद ने खाई और रिशतेदारों को खिलाई। खीर ने तो तब भी खतम होने का नाम न लिया। पूरे गाँव को न्यौता दे बैठी। ऐसी स्वादिष्ट खीर इससे पहले किसी ने न खाई थी। सब बूढ़ी की तारीफ करने लगे।

सोते समय उसे बालक की सुध आई और बोली –भोलेबाबा तुम्हारे हिस्से की खीर रखी है। अब तो आ जाओ।

उसे सुनाई दिया –माँ मैंने तो तभी खाली जब खीर तूने खाई और दूसरों को खिलाई। मेरा भी पेट बहुत भर गया है और नींद आ रही है। तू भी सोजा। बची खीर ढककर रख दे। भूख लगी तो आधी रात आकर खा लूँगा।

बिस्तर पर लेटते ही बुढ़िया खर्राटे भरने लगी। सुबह उठी तो देखा –खीर उघड़ी पड़ी है और चावल के दाने सोने की सी रंगत लिए चमक रहे हैं। बुढ़िया ने अपना हाथ खीर में डाला और मुट्ठी भर चावल निकाल कर पानी से धोये। अब तो चावल जगरमगर करने लगे। उसे विश्वास हो गया कि ये सोने के हैं। उसने सावधानी से उन्हें एक डिब्बे में रख दिये और बच्चे के आने का इंतजार करने लगी।

जब तीसरे दिन भी वह नहीं आया तो परेशान होकर पुकार उठी –बेटा तुम जहां कहीं भी हो आ जाओ। मेरे पास तुम्हारे दिए चावल बचे हैं उन्हें ले जाओ। मुझे किसी की वस्तु रखना पसन्द नहीं। तभी उस बालक का हँसता चेहरा दिखाई दिया जो कह रहा था –माँ मेरे चावल कहाँ से आ गए? मैंने जब एक बार तुझे दे दिये तो तेरे हो गए। अब तू चाहे इन्हें रख या बाँट दे।

बुढ़िया ने सोचा –मैं इतने चावलों का क्या करूंगी। जरूरत के अनुसार रखकर सब बाँट देती हूँ। उसने डिब्बे का ढकना खोला तो देखती ही रह गई –चावल के दाने तो मूंगफली के दानों के बराबर हो गए थे। जिसको भी वह दाना देती पूछता –माँ यह कहाँ से आया? यह दाना है या सोने की गिन्नी।

-अभी तो मुझे बहुत काम है,फुर्सत से बताऊँगी। उसका एक ही जबाव होता।

एक दिन उसने अपने घर में कीर्तन रखा और पूरे गाँव को बड़े प्यार से बुलाया।

लेकिन यह क्या !जो भी उसके घर में घुसता बच्चों के मुस्कराते चेहरे देख ठिठक जाता जो लकड़ी के फ्रेम से झांक रहे थे।

बूढ़ी माँ उन्हें बताती –बच्चे ही तो भगवान का रूप हैं जो इन्हें प्यार करता है भगवान भी उसी का साथ देते हैं। जन्माष्टमी के दिन एक बालक थोड़े से चावल और कुलिया में दूध लेकर मेरे पास आया था –

-अरे हाँ,वह तो मेरे पास भी आया था। लेकिन उसकी खीर बनाने का मुझे समय कहाँ था। पड़ोसन बोली।

-वह तो बड़ा भूखा था, उसे मना करके तुमने ठीक नहीं किया। मैंने ही उसकी खीर बनाई। वह खीर तुम सब में बांटने पर भी खतम न हुई और उसके चावल भी सोने के हो गए। मुझे तो लगता है वह कोई साधारण बालक न था बल्कि बच्चे का रूप रखकर भगवान ही अपने भक्तों की परीक्षा लेने आए थे। वे ही ऐसा करिश्मा कर सकते हैं । बुढ़िया ने गहरी सांस ली।

-माँ,सच में बच्चे का जी दुखाकर मैंने बड़ी गलती की । अपने बच्चों से तो हमें लगाव है पर दूसरे के बच्चों को प्यार करना नहीं आता था। यह पाठ तुमने हमें अच्छी तरह सीखा दिया है।

कुछ दिनों में ही वह गाँव स्नेह धाम कहलाने लगा।