स्पर्श / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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उनका स्नेहिल स्पर्श मुझे आह्लाद से भर देता था। उस स्पर्श में माँ की ममता थी। पिता का वात्सल्य था। बड़े-बुज़ुर्गों का दुलार था। उस स्पर्श में पुचकार था। वह स्पर्श जैसे अपने में सब कुछ समेटे होता था। वह छुअन ऐसी थी जिसकी मुझे शिद्दत से प्रतीक्षा रहती थी। अपने सिर पर उनके हाथ का स्पर्श पा कर मैं आश्वस्त हो जाता था। वह स्पर्श मेरे अंत: करण में सुखद अर्थ भर देता था। वह स्पर्श पा कर लगता था जैसे मैं खिड़की के बाहर, लॉन के आगे, बाड़ के पार, पेड़ों के ऊपर, आकाश में तैर रहे उन्मुक्त बादलों पर ढलते सूरज की गुलाबी आभा देख रहा हूँ। बचपन में जब मैं बीमार होता था तब अपने माथे पर उनके हाथों का स्पर्श पाते ही मेरे आधी बीमारी ग़ायब हो जाती थी। उनका स्पर्श मेरे मन के अँधेरे कोनों में सैकड़ों बत्तियाँ जला जाता था। ऐसा था मेरे पिता का स्पर्श।

पिता की आत्मा किताबों में बसती थी। साहित्य के समुद्र में गोते लगा कर वे अनमोल हीरे-मोती ले आते थे। जबसे मैंने होश सँभाला, पिता को पढ़ते-लिखते हुए ही पाया। वे पहले कॉलेज में, फिर विश्वविद्यालय में छात्रों को पढ़ाया करते थे। माँ बताती हैं कि वे एक बेहद लोकप्रिय प्राध्यापक थे। दूसरी कक्षाओं के छात्र अपनी कक्षाएँ छोड़ कर पिताजी की कक्षा में उनके व्याख्यान सुनने के लिए आया करते थे। अपने विषय पर उनकी पकड़ लाजवाब थी। उनकी वाणी में ओज था। उनकी भाषा-शैली में मंत्रमुग्ध कर देने की असीम क्षमता थी।

मेरे बचपन में निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा और दुष्यंत कुमार आदि की रचनाओं पर हमारे घर में इस तरह चर्चा होती जैसे आजकल के घरों में सलमान, आमिर, शाहरुख़, ऋतिक, अक्षय कुमार, प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्य राय आदि का ज़िक्र होता है। मैं तब आठ-नौ साल का था और मुझे पिता सफ़ेद धोती-कुर्ते और घुँघराले बालों में एटलस साइकिल पर कॉलेज जाते हुए बेहद आकर्षक लगते थे। बचपन से ही मैं अपने पिता जैसा बनना चाहता

था। उनके जैसा दिखना चाहता था। वे मेरे आदर्श थे।

मेरे पास अपने बचपन की एक तसवीर है जिसमें मुझे गोद में लेकर पिताजी घर आए छात्रों को कुछ पढ़ा रहे हैं। उस तसवीर में भी उनका हाथ मेरे सिर पर है।

पिता की लिखावट बहुत सुंदर थी। उनके अक्षर मोतियों जैसे गोल होते

थे। मैं शुरू से ही पिता जैसा सुंदर लिखना चाहता था। जब मैं दस साल का था तब मैंने एक बार पिता से पूछा—"पापा, आप इतना सुंदर कैसे लिख लेते हैं?" तब पिता ने जो कहा था वह मुझे आज भी याद है—"बेटा, जब हम कोई भी काम अपने पूरे मन से करते हैं तब वह काम अपने-आप सुंदर और अच्छे ढंग से होता है।" बी.ए. की उनकी एक कॉपी आज भी मेरे पास है। जब मेरे बेटे ने पहली बार अपने दादाजी की सुंदर लिखावट देखी तो वह दंग रह गया। अब तो वह भी अपने दादाजी जैसे सुंदर अक्षर लिखने की कोशिश करता है।

मुझे बचपन में पिता की क़लम से लिखने की बहुत इच्छा होती थी। उनके पास तरह-तरह की क़लम होती थीं। लेकिन उनकी प्रिय क़लम बाँस की एक क़लम थी जिसे कोई रंगून से लाया था और उन्हें उपहार में दे गया था। मेरे दसवें जन्म-दिन पर जब पिता ने मुझसे पूछा कि मुझे क्या चाहिए तब मैंने उनसे उनकी बाँस की क़लम माँग ली। वह क़लम आज भी मेरे पास है।

पिताजी अक्सर मुझे कहानियाँ सुनाते थे—सच्ची कहानियाँ। कैसे एक बार किसी जंगल के पेड़ों ने काटे जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने पंख उगा लिये और वे सभी पेड़ उड़ कर दूर कहीं चले गए ... कैसे जब दुनिया में प्रदूषण बढ़ने से गर्मी बढ़ जाती थी तब पहाड़ रोते थे क्योंकि उन पर जमी बर्फ़ पिघल जाती थी और इससे नदियों में बाढ़ आ जाती थी ... कि एक बार जब किसी दुष्ट ने एक पेड़ काटा तो उसके भीतर से वन-देवी प्रकट हुई और उसने पेड़ काटने वाले को दण्ड दे कर उसे पत्थर बना दिया ... कि जो लोग नदी-नालों को गंदा करते थे, उन्हें जल-देवी शाप देती थी और वे उसी गंदे जल में डूब जाते थे ... कि जो बच्चे झूठ बोलते थे और बड़ों का कहना नहीं मानते थे, उनकी सींगें निकल आती थीं ...

जिस साल मैं दस बरस का हुआ उस साल खूब बारिश हुई थी और पिता अक्सर झूम-झूम कर 'अरे वर्ष के हर्ष, बरस तू बरस-बरस रसधार, पार ले चल तू मुझको' गीत गाते थे। बाद में मैंने जाना कि यह निराला का गीत था।

कभी-कभी जब पिताजी कॉलेज गए होते, मैं उनकी 'स्टडी' में चला जाता और उनकी लाइब्रेरी की किताबें उलटने-पलटने लगता। उन दिनों मैं न जाने क्या-क्या पढ़ जाता था। कई बार मेरे सपनों में भी पिताजी के पुस्तकालय में रखी किताबों के पात्र आ जाते क्योंकि एक बार माँ ने मुझे बताया था कि कभी-कभी मैं नींद में साहित्यिक-सा कुछ-कुछ बड़बड़ाने लगता था। माँ यह सब सुनकर डर जाती पर बगल में सो रहे पिताजी जाग कर मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते थे और सभी पात्र वापस अपनी किताबों में भाग जाते थे। मैं उनका आश्वस्त कर देने वाला स्पर्श पा कर शांत हो कर सो जाता था।

शाम का समय खेल-कूद का होता था। पिता जितना अच्छा गाते थे, उतना ही बढ़िया बैडमिंटन खेलते थे। पिता को बैडमिंटन में हरा पाना बेहद कठिन था। उनके 'स्मैश' और 'ड्रॉप' लाजवाब होते थे। वे जहाँ चाहते, शटल-कॉक विपक्षी खेमे में ठीक वहीं गिरती। गर्मी की छुट्टियों में पिताजी हम सब भाई-बहनों के साथ शतरंज भी खेलते। उन्होंने ही हम सब को शतरंज खेलना सिखाया था। उन्हें शतरंज में हरा पाना भी असम्भव था। बरसों बाद सैकड़ों 'गेम' हारने के बाद जब एक बार मैंने उन्हें शतरंज में हरा दिया तब खुद मुझे इस बात पर यक़ीन नहीं हुआ। मेरा तेरहवाँ जन्म-दिन आने वाला था। जन्म-दिन के मौके पर उस साल पिता ने मुझे संगमरमर का शतरंज ख़रीद कर दिया था। उन दिनों रोज़ रात में सोने से पहले पिता मुझसे

'श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भव भय दारुणं' वाली श्रीराम स्तुति सुनते थे।

पिता हम भाई-बहनों को बड़े चाव से पढ़ाते थे। उनसे पढ़ने में हम सब को बहुत मज़ा आता था। पहले हिन्दी में 'डिक्टेशन' दी जाती। फिर पिता कॉपी जाँचते और ग़लतियों को दस बार लिख कर दिखाना होता। फिर अंग्रेज़ी में 'डिक्टेशन' दी जाती और ग़लतियाँ सुधारने का वही क्रम दोहराया जाता। फिर एक से बीस तक के पहाड़े याद करके सुनाना होता। ग़लती होने पर उसे फिर से रटना होता। बीच-बीच में पिताजी अकबर-बीरबल और तेनालीराम के रोचक क़िस्से भी हमें सुनाते थे ताकि हम भाई-बहनों का मन लगा रहे। फिर पिता याद करने के लिए हमें कोई पाठ दे देते। सुभद्रा कुमारी चौहान की लम्बी कविता 'सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी ... खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी' कंठस्थ कर लेने पर पिताजी ने मुझे अपनी लाइब्रेरी से स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक इनाम में दी थी। इसके पहले पृष्ठ पर अंग्रेज़ी में लिखा था: "अराइज़, अवेक एंड स्टॉप नॉट टिल द गोल इज़ रीच्ड।"

"इस पंक्ति को हमेशा याद रखना।" किताब देते हुए पिता ने कहा था।

कई बार जब रात का खाना बनने में देर हो जाती और हम भाई-बहन बिना खाना खाए सोने लगते तब पिता हमें बारी-बारी से गोद में उठा कर दीवार पर उँगलियों की परछाइयों से कुत्ते-बिल्लियों के आकार बना कर हमारा मन लगाए

रखते। थोड़ी देर में खाना आ जाता। खाना खा कर हम भाई-बहन उनसे कहानियाँ सुनते हुए तथा उनका स्नेहिल स्पर्श महसूस करते हुए उनके पास सो जाते। उनका आत्मीय स्पर्श शुरू से ही मेरा सम्बल था, मेरी सबसे बड़ी पूँजी थी।

जिस वर्ष मैं तेरह साल का हो गया था उसी साल गर्मी की छुट्टियों में हम दादा-दादी से मिलने गाँव गए थे। वहाँ हम सभी भाई-बहनों के मज़े लग गए. हम रोज़ सुबह पिता के साथ खेत-खलिहानों में घूमने निकल जाते। पिताजी हमें फ़सलों और पेड़-पौधों के बारे में बताते। हम पुआल के बड़े-बड़े ढेरों पर चढ़ कर कूदते फिरते या उनमें छिप जाते। गाँव के तालाब में चपटे पत्थर से 'छिछली' खेलते। गाँव के कुएँ पर नहाते। एड़ियाँ उठा कर गाँव के मंदिर की घंटियाँ बजाते। दादाजी के कुत्ते

'टॉमी' की पूँछ खींचते या 'हुश्श' कह कर गाँव के दूसरे आवारा कुत्तों से उसे

लड़ाते। गाँव के पास बहती नदी में पिता के साथ मछलियाँ पकड़ने जाते। बाक़ी बचे समय में हम बच्चे दादाजी से परदादाजी की वीरता की कहानियाँ सुनते कि कैसे एक बार परदादाजी ने केवल अपने हाथों से एक खूँखार बाघ का जबड़ा फाड़ कर उसे मार डाला था।

एक दिन गाँव के कुएँ में एक बछड़ा गिर गया। तब पिता अकेले ही रस्सी के सहारे कुएँ में नीचे उतरे और दूसरे गाँववालों की मदद से बछड़े को सही-सलामत निकाल कर ऊपर ले आए. जब लोग पिताजी के गुण गा रहे थे, मेरी छाती गर्व से चौड़ी होती जा रही थी। मेरे मन में पिता जैसा बनने की इच्छा और बलवती हो गई.

एक सुबह नाश्ता करने बाद मैं और पिता गाँव के पास बहती नदी में मछलियाँ पकड़ने गए. पिता अच्छे तैराक थे। वे एक बार में ही पूरी नदी पार करके उस किनारे पर जाने के बाद बिना रुके वापस लौट कर इस किनारे पर आ जाते थे। मैं भी थोड़ा-बहुत तैर लेता था। बहुत सारी मछलियाँ पकड़ने के बाद हम दोनों नदी में तैरने लगे। पिता तैरते हुए नदी के बीच में चले जाते थे जबकि मैं नदी के किनारे-किनारे ही तैर रहा था।

तैरते-तैरते मैंने डुबकी लगाई तो अचानक मेरे पैर नदी के तल में उगी झाड़ियों में फँस गए. मैंने छूटने के लिए ज़ोर लगाया पर मेरे पैर झाड़ियों के जाल में और उलझते चले गए. मेरे लिए पानी के भीतर ज़्यादा देर तक साँस रोकना मुश्किल हो रहा था। मैं छटपटा कर मुँह और नाक से पानी निगलने लगा। मुझे लगा जैसे मैं डूब जाऊँगा।

अचानक मुझे अपने सिर पर एक स्पर्श महसूस हुआ। फिर किसी ने नीचे जा कर मेरी दोनों टाँगें झाड़ियों में से छुड़ाईं और मुझे खींच कर ऊपर ले आया ...

जब मुझे होश आया तो मैं नदी के किनारे पेट के बल लेटा हुआ था और पिता मेरे भीतर चला गया पानी निकाल रहे थे। वह पिता ही थे जो मुझे मौत के मुँह से वापस खींच लाए थे। बचपन में एक बार मैंने सिलाई-मशीन का तेल पी लिया था। तब भी पिता मुझे समय रहते डॉक्टर के पास ले गए थे। बचपन में ही एक बार छोटा भाई पलाश घर के पास वाले नाले में गिर कर लगभग पूरा ही डूब गया था। तब भी पिता ने ही समय रहते उसे नाले से बाहर निकाल लिया था और उसकी जान बच गई थी। कुछ बरस बाद पतंग लूटते हुए मैंने घर के गेट के बगल की चारदीवारी से छलाँग लगाई थी और मेरा गला गेट के ऊपर लगे भाले की नोक खच्च् से फँस गया था। तब भी पिता ही मुझे समय रहते अस्पताल ले गए थे और मेरी जान बच गई थी ...

हमारी छुट्टियाँ ख़त्म होने वाली थीं। माँ-पिता गाँव से वापस शहर लौटने की तैयारी करने लगे थे। हम बच्चे भी अपना ज़्यादा-से-ज़्यादा समय दादा-दादी के साथ गाँव की बोली बोलते हुए बिताने लगे थे।

एक शाम अचानक पिताजी ने सीने में दर्द की शिकायत की। थोड़ा आराम करने पर उनका दर्द ठीक हो गया। पर बीच रात में गाँव के चौकीदार ने घर के कुत्ते टॉमी को पूर्णिमा के गोल चाँद की ओर मुँह करके रोते हुए देखा।

सुबह तड़के घर की महिलाएँ विलाप करने लगीं। मैं घबरा कर उठा। पिताजी नींद में ही चल बसे थे। बाद में डॉक्टर ने बताया कि उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था।

मेरी दुनिया अचानक वीरान हो गई थी। सुबह का समय था लेकिन मेरा सूर्य अस्त हो चुका था। लगा जैसे अँधेरा रोशनी को साबुत निगल गया था। पिता चले गए. मैं उन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं कर सका था।

सब रो रहे थे, हालाँकि बिस्तर पर पड़े पिता को देखकर लग रहा था जैसे वे मरे नहीं थे, जीवित थे। जैसे उनका दिल अभी भी हम लोगों के लिए धड़क रहा था। जैसे वे अभी उठ खड़े होंगे और दोबारा हमें सच्ची कहानियाँ सुनाने लगेंगे। जैसे वे अभी अपना हाथ उठा कर मेरे सिर पर रखेंगे और उनका स्पर्श मुझे फिर से आश्वस्त कर देगा ...

जीवन की आपा-धापी में कभी-कभी मुझे वे छात्र मिल जाते हैं जिन्हें पिताजी ने पढ़ाया था। वे आज भी पिताजी के गुण गाते हैं।

पिताजी को गए हुए बरसों बीत गए हैं। पर अब भी जब कभी मैं अपरिचित लोगों से भरे अजनबी शहरों में दुखी और उदास होता हूँ, जब कभी भी मैं भीतर-बाहर से अँधेरों में घिरने लगता हूँ, मुझे लगता है जैसे उन्होंने मेरे सिर पर अपना आत्मीय हाथ रख दिया हो। लगता है जैसे वे कभी गए ही नहीं, जैसे वे अब भी यहीं हैं—हमारे बीच। लगता है जैसे वे मेरे माथे को धीरे-धीरे सहला रहे हों। मेरे गाल थपथपा रहे हों और उनका स्नेहिल स्पर्श पा कर मैं फिर से तनाव-रहित और आश्वस्त हो जाता हूँ। जीवन के तूफ़ानी समुद्र में उनके आत्मीय स्पर्श का अहसास मेरे लिए हर बार आश्रय देने वाला एक हरा टापू बन जाता है।