स्वतंता दिवस / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
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सोनू रोज ही सिग्नल पर कभी गुब्बारे, कभी पैन, कभी मूंगफली बेचता दिख जाया करता था और अक्सर रमा उससे बिना ज़रूरत के भी चीजें खरीद लिया करती। सोनू की उम्र लगभग दस साल होगी। एक अनकहा-सा खिंचाव महसूस होने लगा था रमा को उसके प्रति। रमा की आँखें उसे सब तरफ ढूँढ रही थी पर वह कहीं नहीं दिखा। हरी बत्ती भी हो गई पर रमा से एक्सीलेटर न दबाया गया। पीछे से गाड़ियों के तेज भौंपू की आवाजें सुन अनचाहे उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी। घर आ के भी उसका मन बैचैन था।

आज सुबह ही कोई उसे रात सिगनल पर हुए भयानक हादसे के बारे में बता रहा था जिसमें कई जानें चली गई थी। बहुत कोशिश की रमा ने ध्यान बटाने की पर मन तो फिर मन है न। गाड़ी उठाई और फिर चल दी उसी सिग्नल पर। आँखें चमक गई रमा की। दूर से ही दिख गया सोनू भाग-भाग के झंडे बेचता। गाड़ी साईड लगा रमा तेज कदमों से सोनू के पास पहुँची और जाने किस हक से डाँट कर बोली:

"क्यों रे सुबह कहाँ था तू? आवारागर्दी तो नहीं शुरू कर दी।"

"अरे नहीं-नहीं मैडम जी, वह आज स्वतंता दिवस है न"

" स्वतंत्रता दिवस होता है, पर उससे तुझे क्या? "

"अरे! मैं बड़े वाले मैदान गया था। जहाँ बड़ी-बड़ी सफेद गाड़ियों में वह क्या कहते है...हाँ...नेता आते है झंडा फहराने और बहुत जनता होती है वहाँ मैडम जी."

"तो तू परेड़ देखने गया था।"

"हीहीही...मैडम जी मैं तो वहाँ काम से गया था।"

मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि देख कर सोनू हंसते हुए बोला।

"मैडम जी वहाँ पहले तो खूब जोर-जोर से लोग हाथ में झंडे ले के चिल्लाते है भारत माता की जय...जय हिंद। और न जाने क्या-क्या, पर जैसे ही जलसा खत्म होता है सब उन झंडो को फेंक के चल देते है। मैं फटाफट खूब सारे झंडे बटोर लेता हूँ। बहुत से तो खराब हो जाते है लोगों के पैरों के नीचे दब के, पर जो बच जाते है वह मैं सिग्नल पर आ के बेच देता हूँ। ये एक दिन के लिए कार पर झंडा लगाने वाले बहुत आते है स्वतंता दिवस पे।"

"स्वतंत्रता दिवस"

"हाँ वई तो मैं कह रहा हूँ। आप भी लोगे मैडम जी."

रमा ने न में सर हिलाया और सोनू को एक चाॅकलेट पकड़ा गाड़ी की तरफ चल दी। अचानक बहुत थकान महसूस हो रही थी, बस एक ही शब्द ज़हन में गूँज रहा था उसके "स्वतंता दिवस"।