स्वप्न-सत्य / प्रतिभा सक्सेना

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पता नहीं सो रही थी कि जाग रही थी लगा हल्की सी रोशनी चारों ओर छाई है। वातावरण कुछ बदला-बदला सा, जैसे कोई नया दृष्य उदित हो रहा हो। अचानक लगा कोई सामने आ खड़ा हुआ है। चौंक गई मैं। आँखो के आगे पीलावस्त्र लहरा गया, साँवली-सी, पहचानी सी आकृति! शोभन पुरुष माथे पर बिखरे-बिखरे बाल नेत्रों में उदासी। लगा मुझसे कुछ कहना चाहता है।

कौन?

मैं हूँ। पहचानती नहीं हो क्या?

कभी मिली नहीं। पहचानूंगी कैसे?

जानती हो, मेरे बारे में इतना! सबको जाने -क्या क्या जताती रहती हो। कितनी गलत बातें जोड़ दी गई हैं मेरे साथ। तुम भी उन्हीं को हवा दे रही हो।

लेकिन किसके बारे में? नाम तो बताओ।

राम हूँ मैं।

आश्चर्य चकित मैं। युग बीत गये तब तुम थे धरती पर, आज की बात थोड़े ही कि जब चाहो आ कर सामने खड़े हो जाओ।

हाँ था। पर अब भी हूँ। अस्तित्व समाप्त कहाँ होता है। बदल जाता है, इधर से उधर हो जाता है।

इधर से उधर?

उसके बाद भी धरती पर आया था, आवश्यकतानुसार। आता रहता हूँ।

हाँ, आये थे तुम। कृष्ण रूप में। बहुत प्रिय है वह रूप मुझे, जिसने जीवन को जीने का सुन्दर सूत्र दे दिया।

लेकिन अब आज इस। । जिस रूप में बात करनी है वही लेकर आया हूँ।

मुझे विस्मय हो रहा था, कैसी पहेली-सी सामने खुल रही है।

इन्हीं का दूसरा रूप था वह जिसने कर्मयोग को जीवन में जिया था।

जानती हो न, कि इस लोक से दूसरे लोकों में आना-जाना चलता रहता है। तुम भी न सदा यहाँ थीं, न यहाँ अधिक रह पाओगी। तुम्हारे जाने से पहले कुछ स्पष्टीकरण करना हैं मुझे। उन आरोपों से मुक्त कर दो मुझे, सुन कर मन भारी हो जाता है, जो मुझ पर लगाये गये हैं। और तुमने भी दोषारोपण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तुमने काफ़ी खोज-बीन की, और सब के लिये सहानुभूति दिखाई, तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। '

मुझसे इन्हें क्या आशा थी, ये मुझे जानते ही कहाँ थे।

जानता हूँ तुम्हें।

ये लोग क्या मन की बात पढ़ लेते हैं!

पहले सोचता रहा जाने दो -जो समझता है समझने दो क्या फ़र्क पड़ता है फिर लगा फ़र्क पड़ता है। बात हवा में नहीं उड़ा पाया। और मेरा तो इतना सुपरिचित व्यक्तित्व है कि लोग भ्रमित होने लगते ऊपर से तुमने जाने क्या-क्या लिख डाला।

मैंने जो जाना वही कहा। मुझे जो गलत लगा, तुम्हारे कुछ कामों का सामान्य जन पर जो प्रभाव पड़ा मुझे कल्याणकारी नहीं लगा। जन साधारण तुम्हारे उदाहरण दे-दे कर जो करते हैं वह प्रायः ही न्यायसंगत नहीं होता। मन में जो चुभता रहा उसे व्यक्त कर दिया।

तुमने जाना! तुम जानती ही कितना हो? अलग-अलग लोगों ने अलग अलग बातें लिखीं, सब अपने समय अपने-अपने आदर्शों के अनुसार मुझे ढालते रहे। मनमाने ढंग से प्रस्तुत करते रहे।

मैंने मानव जन्म लिया था भगवान बन कर नहीं आया था। परिवार का सबसे बड़ा पुत्र था। कोशिश की थी कर्तव्यपूर्ण करने की, निस्वार्थ भाव से सबको सुख पहुँचाने की। पिता के हृदय में समान अवस्था के चार पुत्रों में मेरे प्रति अति प्रेम, पक्षपात की सीमा तक। प्रेम तो माँ को भी बहुत था, उनका तो इकलौता पुत्र था मैं, पर वे धैर्यशीला और विचार शीला थीं। मैं उन्हें कभी सुख न दे सका। पिता कैकेयी माँ को विवाह के समय वचन दे चुके थे। फिर भी भरत की अनुपस्थिति का लाभ लेना चाहा वही भारी पड़ गया। । पिता ने जो किया उस का निराकरण करना चाहता था। जो उचित हो वही करने का प्रयत्न किया था पर एक निश्चित मर्यादा में रह कर मेरा सोच सीमित रह गया। बाद में मेरे ऊपर इतने आरोपण कर दिये गये कि स्वयं को पहचान नहीं पाता। वाल्मीकि ने जो लिखा उसमें फिर भी वास्तविकता है, लेकिन आगे इतनी अतिशयोक्ति, इतनी अत्युक्ति और कल्पनातीत बातें जोड़ते गये कि मैं इन्सान ही नहीं रहा। अंधभक्ति और अतिशय भावुकता ने लोगों का विवेक हर लिया। जो उन्हें ठीक लगता रहा वह मेरे ऊपर डालकर सिद्ध करते रहे और अपने आप में डूबे मूढ भक्त बिना सोचे-विचारे उसे सही मानते रहे। । स्वयं को जो भाया उसका उदाहरण मुझे बना कर खड़ा कर दिया।

तो तुमने भी बदल लिया अपने को। तो कृष्ण बन कर ठीक उलटा किया जो राम बन कर किया था। सारे आदर्श दूसरी बार में बदल डाले!

समय -समय की बात है। काल को कौन लाँघ पाया है? द्वापर में जो हुआ वह त्रेता में संभव नहीं था। जीवन का प्रवाह इतना आगे बढ चुका था। सोच, परिस्थितयाँ, समाज और व्यक्ति की ग्रहणशीलता, सारे मान-मूल्य भिन्न थे। फिर राम के रूप में मुझे जो अनुभव हुये जो सीखा था उससे भी अंतर पडा। पर देखो न इस रूप को भी लोगों ने विकृत कर डाला। अपनी वासना की सड़ाँध भरी गलियों में कैसे-कैसे रूप भरवाते रहे कृष्ण की भक्ति के नाम पर!

अच्छा! तो तुम भी सीखते हो।

चेतना के उत्तरोत्तर विकास की शृखला है जीवन। कोई उससे परे नहीं है। वही चेतना सब जीवों में है भिन्न-भिन्न स्तरों पर।

नारी और नर की चेतना के स्तरों में अंतर है?

दोनों एक ही वस्तु के दो पहलू हैं।

क्या सचमुच?

मेरे मन में उठा चन्द्रनखा के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया?

मैं समझ गया तुम सूपनखा हाँ, चन्द्र नखा की बात सोच रही हो? वह आई थी प्रणय निवेदन करने मैं। जिस परंपरा में पला बढ़ा वहाँ मर्यादित रहना पहला पाठ था। अपने पर सदा नियंत्रण। पुरुष का प्रणय-याचना करना अकल्पनीय था फिर एक युवा नारी का स्वयं आगे बढ़ कर प्रेम प्रस्ताव रखना वह भी जब छोटा भाई सामने खड़ा हो मै तो एकदम चौंक गया। बहुत अशोभनीय लगा था। विचित्र स्थिति थी एक दम अवाक्! लक्षमण भी बिमूढ़ क्या कहे -क्या करे। कसी तरह टालना चाहा था उसे।

मेरे साथ सीता थी। मैंने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण उस निर्वासन में भोगी नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने लौटा दिया उसे। वह फिर मेरे पास आई कि मैं क्या दो पत्नियाँ नहीं रख सकता। पर मैंने जनकपुरी में एक पत्नीव्रत लिया था। मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। उसे लगा उसका अपमान किया गया है। वह क्रोधित होकर धमकाने लगी। । मैंने धीरे से कहा था -लो इसकी तो नाक ही कट गई। मेरा मतलब था अपने को इतना निर्लज्ज, हीन और हँसी का पात्र बना डाला।

लक्षमण बोले -सचमुच अपनी नाक कटा ली इसने।

बात कहाँ से कहाँ पहुँची और लोगों ने क्या-क्या संभावनायें कर डालीं। अपनी विचारहीनता और अंधभक्ति में लोग विवेक को ताक पर रख दें तो मैं क्या करूं?देखो न,दशानन के नाम के आधार पर उसके दस सिर मान लिये गये!

और अहल्या? उसका क्या अपराध था जो पत्थर बनने का शाप दिया गया और अपने पाँव से छू कर तुमने तारा।

यह नई बात जोड़ दी गई मेरे साथ।

जब गौतम ऋषि ने बताया कि वे अभी लौटे हैं और अहल्या के पास जो था वह इन्द्र था तो वह, सन्न रह गई ऐसी हतप्रभ, जैसे जड़ हो गई हो। किसी की बात सुन नहीं रही थी, कुछ समझ नहीं रही थी। पथराई सी होकर रह गई।

छली गई नारी की वेदना कितनी विषम होती है अपने आप से वितृष्णा, विवश क्रोध और आहत मन। पर लोग तो नारी को ही कलंक देते हैं। सारा दोष और प्रायश्चित उसी पर थोप दिया जाता है -मेरे स्वर में शिकायत थी।

हाँ, जो मुझे बताया गया वह जान कर मैने कहा था वे चरणस्पर्श के योग्य हैं। लोगों ने जो समझ लिया सत्य वह नहीं था। वे निर्दोष थीं पर उस घटना के बाद वे सामान्य जीवन नहीं जी सकीं थीं। उनकी वृद्धावस्था आ गई थी मेरी माता से भी अधिक वय की तपस्विनी थीं वे - उतनी ही पावन और पूज्य! मैंने उनकी वन्दना की थी। उन माता सम ऋषपत्नी को पाँव से नहीं छुआ, मैंने जब उनके चरण स्पर्श किये तो वे अभिभूत हो गईं। फिर सारे संसार ने उन्हें समझा और सम्मान दिया। वे इतनी पावन समझी गईं कि उनकी गणना पंच-कन्याओं में होती है। गौतम ऋषि ने उन्हें पूरी प्रतिष्ठा दी। रानी तारा और मंदोदरी को भी पंचकन्याओं में माना जाये मैने इसका प्रयास किया था। दोषी स्त्रियोँ नहीं वे छली पुरुष थे जो अपनी वासना में पशु बन गये थे।

मेरे मन का बोझ कुछ हल्का हुआ, सोचा करती थी जो प्रेम का मान रखने को शवरी के जूठे बेरों में आनन्द पाता है वह नारी और वह भी प्रिया पत्नी, के प्रति इतना संवेदनाहीन कैसे हो सकता है?

जो कहा गया लोगों ने वही सच मान लिया। जिसने जो लिख दिया उसे लेकर आरोप-आक्षेप लगा दिये मुझ पर! लोग तो जीवनकाल में ही क्या से क्या बना डालते हैं, मरने के बाद तो खुली छूट। कौन देखनेवाला और कौन रोकने-टोकनेवाला। एक और आरोप तुमने छोड़ दिया, आगे के लिये। ।

अरे, इन्हें मालूम है कि इन्द्रजित की पत्नी - मैं पूरा सोच भी नहीं पाई थी, उनकी बात सुनने लगी।

सुलोचना जब अपने पति की देह माँगने आई मैंने उन वनचारियों के बीच उससे सतीत्व को प्रमाणित करने की शर्त लगा दी - इतना गिरा हुआ हूँ मैं?

मेरा मन द्विविधा में था कि कुलवंती नारी, वह भी सद्य-विधवा राजवधू, का ऐसा तमाशा कोई बना सकता है!

नारी के मृत पति के साथ चिता में जल मरने का महिमा-मंडन अपनी सुख-सुविधा के लिये, स्वार्थी लोगों ने क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाये! मैंने तो सुग्रीव पत्नी तारा को भी सम्मान दिया, जिसे बालि ने छीन लिया था।

उनकी बात ठीक लग रही थी। मेरे मन को कुछ समाधान मिल रहा था। अब तक सोचती थी कि जो इतना आदर्शवादी है वह नारी के प्रति इतना संवेदनाहीन कैसे हो सका।

तुम क्या समझती हो हम पूर्ण हैं। हर जन्म कुछ आगे बढाता है। राम बन कर पाया नारी का अपना अस्तित्व है। उससे सिर्फ़ त्याग और कर्तव्य की ही अपेक्षा नहीं जीवन के रस और आनन्द का भाग भी मिलना चाहिये। सह-धर्मिणी है वह। उसके अपने अधिकार भी हैं। उसकी कामनाओं और को भी स्वीकृति मिलनी चाहये। अपनी माताओं और पत्नी के जीवन देख चुका था। युग का अतिक्रमण तो नहीं किया जा सकता। अतिशय मर्यादा और आदर्श बनने की चाह में कुछ गलतियाँ भी हुई थीं। मानव का सहज स्वभाव! पूर्ण कौन है यहाँ? पर भूलों को सुधारना भी था। व्यवहार कोरे आदर्शों पर आधारित हो और वस्तुस्थिति को आँक कर यथार्थ के दायरे मे ही रहे दोनो में बहुत अंतर आ जाता है। वही अंतर है दोनो में।

लेकन कुछ मूल्य कभी नहीं बदलते। जैसे वयो-वृद्ध जनों को सम्मान देना।

तो मैंने क्या किया। किसका अपमान किया?

रावण भी तुम्हारे पिता की अवस्था का था। फिर महापंडित और स्वतंत्र राजा, जिसका तुमसे कोई बैर नहीं था। बल्कि सीता पिता होने के नाते पूज्य था।

हाँ, मै मानता हूँ। पर मैंने कब उसे नीचा दिखाया।

क्यों उससे कहलाया था नीच, पापी, मेरी शरण में आ जा।

वह महापंडित,नीतिज्ञ,क्षेष्ठ ब्राह्मण थे पूज्य। लोगों ने उन्हें राक्षस बना डाला। संग्राम विभीषण का षड्यंत्र था। सब आगे लिखनेवालों की। मनमानी है। वाल्मीकि ने रावण के लिये ऐसा कुछ नहीं लिखा था पढ़ा होगा तुमने तो। न मैं रावण का कुलनाश करना चाहता था। मैंने तो अपने यज्ञ मे उन्हे पुरोहित बनाया था। उनका पांडित्य और व्यक्तित्व दोनों के लिये मेरे मन में सम्मान था।

फिर?

विभीषण की कारस्थानी। उसने हनुमान और अन्य नायकों से मिलकर षड्यंत्र रचा था। स्वयं राजा बनने के लिये उसने सारे कुचक्र चलाये।

पर वाल्मीकि ने भी तो बहुत सी बातें इस प्रकार की कहीं।

विजयी को साथ चमत्कार जुड़ते चले जाते हैं और हारे हुये पर सब दोषों का आरोपण। वही विषय वस्तु का स्थान लेते गये। तथ्यों से वे भी परिचित नहीं थे, नारद से सलाह ली। नारद को संसार का, लोक-जीवन का क्या अनुभव? एक आदर्श संसार के सामने रखना चाहते थे अपनी कल्पना कथा ऋषि को सुना डाली। ऋषि के मन को जो रुचा रचना में ढाल दिया। सत्याभास देने के लिये एक भौतिक आधार-कथा की आवश्यकता थी वह अयोध्या के घटना-क्रम से पूरी कर दी।

अब तक का जाना-बूझा मस्तिष्क में कौंध गया। कवि अपने आदर्श कल्पित करते हैं और आरोपित कर देते हैं चरित्र-नायक पर, तथ्यों को जानने का अवकाश कहाँ है! एक से दूसरे मुख में जाते-जाते किसी भी बात मे परिवर्तन आता जाता है। सब अपनी अपनी कल्पना से कुछ न कुछ जोड़ते चलते हैं। एक सीधी सहज बात को जटिल और रहस्यपूर्ण बना देते हैं। जो अच्छा लगे और जो बुरा लगे दोनों के साथ ऐसी बातें जोड़ते चलते हैं कि दूसरे को प्रभावित कर लें। रचनात्मक आनन्द मिलता है लोगों को इसमें।

अनन्य भक्त बनने के लिये आराध्य के गुणों को दर्शाते-दर्शाते दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में प्रस्तुत कर देता है ता है या सर्व-समर्थ ईश्वर मान उन्हें जायज़ ठहरा देता है अथवा उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है। मनुष्य को मनुष्य बनाये रखे तो उसे लगता है उनका गौरव घट जायेगा। यह हठ-धर्मी उसका स्वभाव बन जाती है। और महिमा-मंडन में सारी सीमायें लाँघ जाते है सार्जनिक दृष्टि से जो कुछ अनुचित है उसका महिमामंडन आगे जा कर, उपहास और कौतुक का कारण बन जाता है। पक्का भक्त वह है जो आराध्य की कमियों को सुनना भी न चाहे, समझना-सोचना तो बाद की बात है। यहाँ वह गाँधी जी के तीन बंदरों का अनुकरण करता है, आपने इष्ट की त्रुटि या आलोचना, न देखो, न सुनो, न बोलो। लेकिन ज़माना देखने सुनने, साबित करने का है, अंधविश्वास का नहीं, यहीं हम अपने धर्म के आलोचकों से मात खा जाते हैं और रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं।

वे चुप देख रहे थे जैसे मेरा मन पढ़े जा रहे हों,बोले -

हाँ,जैसे कवियों को किसी रचना के साथ अपनी पंक्तियाँ जोड़ देने में। जैसे दूध में पानी मिला दे कोई।

फिर लोक में वही चल पड़ता है। वही मान्यतायें आगे बढ़ती हैं नई-नई संभावनायें की जाती हैं और मूल चरित्र छूटता जाता है पीछे -बेचारा! जिसके मन में जो आये उढ़ा देता है उसे।

लोगों को गलत संदेश जाय इससे उन्हें कोई मतलब नहीं! बात कैसी भी हो तुमसे जोड़ कर ऐसा महिमा-मंडन करते हैं कि बाकी सब अँधेरे में पड़ा रह जाता है। अँध-भक्त आँखें बंद कर लेता है। तुम जो करो वाह -वाह! तुम तो सबसे ऊपर हो समाज, मर्यादा, औचित्य सबसे परे। भगवान कह कर संदेह या प्रश्न की संभावनायें समाप्त कर दी जाती है। मानव बुद्धि बेकार हो जाती है। कोई कुछ पूछ दे तो पापी है, । जो उनने सोच लिया है उससे अलग बे कुछ नहीं सुनेंगे। भक्ति की फितरत के खिलाफ़ है यह।

वह सब उनके दिमाग़ का फितूर है।

जो कुछ अव्यावहारिक है, समाज से निरपेक्ष, उचित-अनुचित के विचार से परे अगर उनके भगवान के नाम पर होता हैं तो। । । !

तो वह लोगों के लये करणीय कैसे हो सकता है? वह आदर्श कहाँ रहा?

नारी के विशेष रूप से पत्नी के प्रति संवेदनाहीन हो रहना संस्कृति के अनुसार या मर्यादा के अंतर्गत है सीता की अग्नि परीक्षा, निर्वासन?

कुछ देर चुप रहे राम- कुछ सोचते से

पिर धीरे धीरे बोले - बिल्कुल गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। मैंने न सीता की अग्नि परीक्षा ली थी न निर्वासन दिया। हाँ, लंका विजय के बाद उसका शृंगार देख कर पालकी पर लाये जाते देख कर मन कुछ खिन्न हुआ था। यह भी लगा था कि सीता ने लक्ष्मण की बात सुन ली होती तो यह सब न हुआ होता। उस समय कह बैठा, 'सीता लंका में पितृगृह के वैभव में रही हो, मुझ वनवासी के साथ रहने में कैसा लगेगा?

पर वह क्षोभ क्षणिक था। रानी मंदोदरी की अंतिम इच्छा के अनुसार विभीषण ने ही प्रबंध किया था कि जानकी पुत्री के समान बिदा पाये।


कैसा समय था वह! अपनी सेना के आगे श्रमित, धरती पर खड़ा मैं, विमान से आती रत्नाभूषणों और राजसी वस्त्रों से भूषित पत्नी को देख सहज नहीं रह सका। वह कैसे रही थी, पितृकुल का नाश देख कर उस पर क्या बीती होगी यह भी भूल गया। ऐश्वर्यशाली पिता के घर से मुझ वनवासी के साथ आनेवाली पत्नी को देख मन अपनी विवशता पर ग्लानि से भर गया था।

और निर्वासन? कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ आती हैं मानव के सामने! उसने उस समय जो व्यवहार या आचरण जिस मनस्थिति में किया उसे समझाना संभव नहीं। बाद में लोग उसे कैसा विरूप कर सामने लाते हैं कैसे-कैसे मतलब निकालते हैं। लोगों पर किसका बस है?

हाँ, सीता वन में क्यों रही, यह बताऊँगा। । सीता रावण की पुत्री थी मैं जानता था। मैने अपने परिवार में किसी को नहीं बताया था पर कैकेयी माँ को पता लग गया। परिवार में ही सीता को लेकर आशंकायें वातावरण में तैरने लगीं थीं।

इन्द्राणी शची भी तो पुलोमा दैत्य की पुत्री थी और बहुत उदाहरण हैं।

अचानक एक नई बात झटका दे जाती है। अपने वंश की शुद्धता और संस्कारशीलता पर बड़ा गर्व था हमारे परिवार को।

परंपरावादी परिवार में प्रखर और प्रबुद्ध नारी कुछ अलग-थलग पड़ती जाती है,सबकी सहानुभूति अर्जित करना उसके लिये संभव नहीं हो पाता।


सीता अदीनभाषणी थी -स्पष्ट कहने की आदी। किसी दबाव में उससे कुछ कराया नहीं जा था। जो ठीक लगता वही करने का स्वभाव। मेरी माँ तो साक्षात् प्रेम और त्याग की देवी थीं पति के प्रति एकदम समर्पित। उनके अधिकार कैकेयी ने ले लिये फिर भी विरोध नहीं किया। कैकेयी के प्रति पिता अधिक कृपालु थे तो भी परिवार की सुख-शान्ति और पति के लिये समर्पित, बिना कोई तर्क किये जो उनसे अपेक्षित है करती रहीं। सुमित्रा माँ ने भी कभी मुँह खोल कर कोई बात नही कही। इसे नारी की मर्यादा या उसका धर्म कह लोक-मन में आदर्शनारी की यही कल्पना थी। हाँ, कैकेयी माँ थोड़ी प्रखर और तर्कशीला रहीं थी। लेकिन परस्थितयों ने उन्हें दबा दिया। सिंहासन पर भरत का अधिकार था -विवाह की यही शर्त थी। पर मेरी माँ के शान्त स्वभाव और किसी का विरोध न करने के स्वभाव ने हम भाइयों के मन में कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं उत्पन्न होने दी थी। घर का प्रभाव तो था ही। बड़ों के सामने बोलने का साहस नहीं होता जो वे कह दें ठीक। विनयपूर्वक आज्ञा मानना छोटों का कर्तव्य था। अपने वंश की इस मर्यादाशील परंपरा हमें अभिमान था।

लक्ष्मण का स्वभाव थोड़ा उग्र था, उसमे भी विचार शीलता थी सुमित्रा माँ ने इन्हें भी नियंत्रण मे रखा।

सीता का कहना था मर्यादाओं की दुहाई देकर अन्तर में उठनेवाली आवाज़ को चुप कैसे कराया जा सकता है।

उसका विचार था अगर मेरे लिये पति का साथ देना धर्म है तो उर्मिला के लिये क्यों नहीं? छोटी बहन मर्यादा के नाम पर वंचित कर दी गई क्योंकि वह अपनी बात नहीं कह सकी। सीता को लगता था इतना भेद-भाव क्यों? राम ने कहा मुझे लगा उर्मिला की 14 बरस की वेदना सीता के हृदय में बसी हुई है। उसे लगता था राम लक्ष्मण के साथ दोनों बहने आई होतीं तो जीवन कितना सुन्दर हो जाता। एक को वंचित कर दूसरा केसे सुख पा सकता है?

जहाँ हम लोग चुप हो जाते थे सीता को लगता था अपनी बात सामने रखना या किसी के मन में कोई तर्क या प्रश्न उठता है तो उसे व्यक्त करना अनुचित नहीं है। आगे प्रश्न था संतान के भविष्य का। नारी अपनी संतान की कीमत पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं होती।

कैसा परिवार जहां कोई अपनी बात भी नहीं कह सकता। यहाँ इतनी सीमायें हैं कि मेरे बालक कुंठित हो जायेंगे। शरीर और मन के स्वस्थ विकास के लिये खुलापन और मुक्त परिवेश -पग पर वर्जनायें कुंठित कर डालेंगी। बड़े भाई के सामने बराबर का भाई भी मुँह नहीं खोल सकता तो वे तो सबसे छोटे होंगे और इतने लोगों के सामने मर्यादित रहते रहते उनका व्यक्तित्व दबा रह जायेगा। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि पिता और परिवार के आश्रय के बिना संतान का समुचित पोषण और विकास संभव है। । उनका लालन -पालन यहीं होना है यह मेरा निर्णय था।

कहीं और क्यों नहीं, क्योंकि प्रश्न उनके समुचित वकास का है - सीता का प्रश्न था।

न कुछ शिक्षा, न संस्कार, जीवन के हर क्षेत्र में कोरे रह जायेंगे।

क्यों? माँ इतनी असमर्थ होती है?

और जैसे कोई चुनौती स्वीकार ली सीता ने।

मेरा मन खिन्न था, मैं नहीं जाऊँगा इस अवस्था में तुम्हें वन में पहुँचाने। मुझसे नहीं देखा जायेगा।

लक्ष्मण ने कहा था भाभी भइया यह ठीक नहीं कर रहे।

दोष तुम्हारे भइया का नहीं, जो हो रहा है उसमें कारण मैं हूँ।

और सीता ने स्वयं को सिद्ध कर दिया। उसने मेरे नाम का सहारा तक नहीं लिया। किसी को जानने नहीं दिया कि किसके पुत्र हैं, लोग जान पाते तो। । । । ।

और हाँ भाइयों को राज भले ही न मिला हो अपने जीवनकाल में ही उनकी संतानों को विभिन्न भू-भागों का राज दे कर मैंने अपना दायित्व पूरा किया।

अब मुझे कुछ नहीं कहना था।

अनायास ही पूछ बैठी -

तुम तो वहाँ रहते हो, एक काम कर दोगे?

क्या?

मुझे मालूम है समय कम रह गया है। कुछ कर जाना चाहती हूँ बहु-कुछ अधूरा पड़ा है। साधन, परिस्थितियाँ अनुकूल कभी नहीं रहीं मेरे लिये। बस मन मे इच्छा रही। हो सकता है प्रयत्नों में भी कमी रह गई हो! बहुत बहुत कमियाँ रही होंगी - मेरी तरफ से भी पर उन सीमाओं से उबर नहीं पाई। जो करना चाहा था नहीं हो पाया। तुम तो उधर हो अधिक समर्थ हो जितना हो सके समिटवा देना कुछ तो पूरा करवा देना।

लेकिन काम क्या?

मेरे मन में है। तुम्हारा मन पढ़ लेगा। उधर के लोग तो टेलिपेथी जानते हैं। जब चाहोगे खुद समझ जाओगे।

वे कुछ बोले नहीं।

राघव, एक बात और बताये जाओ।

क्या?

मैं सचमुच कौन हूँ और कब तक यहाँ हूँ?

यह सब बताने की बातें नहीं हैं। समय आयेगा तो अपने आप पता लग जायेगा।

तुम आज मेरे पास आये हो। ऐसों का आना कभी निष्फल नहीं जाता।

वह मन्द मुस्कराये।

क्या चाहिये?

कुछ अधिक नहीं मेरे कल्याण हेतु जन्म-जन्मान्तर तक अपनी प्रसन्नता का प्रसाद प्रदान करते रहना और अंत-काल में कृष्ण-रूप में सम्मुख रह मेरी चित्तवृत्तियाँ अपने में लीन कर लेना।

वाह!

तुम्हीं तो हो, यह नहीं वह सही।

एक क्षण मुझ देखा, मंद मुस्कराये और ओझल हो गये।

अँधेरा कुछ गहरा हो गया था। मैं अकेली रह गई। सिर चक्कर खा रहा था।

यह सब क्या घट गया मैं नहीं समझ पाई- सच या सपना!

निर्भ्रान्त मौन चतुर्दिक्! शान्त सुस्थिर मन - कैसी विलक्षण अनुभूति!