स्वयं विवेक वाले रोबो : उनसे भय और आशा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
स्वयं विवेक वाले रोबो : उनसे भय और आशा
प्रकाशन तिथि : 05 दिसम्बर 2014


मनुष्य की सेवा चाकरी करने वाले रोबो लंबे समय से बन रहे हैं आैर हमारे दक्षिण भारतीय शंकर रजनीकांत के साथ रोबो बना चुके हैं तथा शंकर से मतभेद के पश्चात शाहरुख खान भी 'रा.वन' बना चुके हैं। इसमें नया क्या है, हमारे फिल्मी पात्र भी प्राय: रोबो की तरह कुछ सड़ी-गली मान्यताआें से संचालित पात्र है जो कभी विश्वसनीय नहीं लगे। स्वतंत्र विचार शैली से संचालित पात्र कम ही गढ़े गए हैं। बहरहाल आज विज्ञान इतनी प्रगति कर रहा है कि शायद पांच-सात वर्षों में ऐसे रोबो रचे जाएंगे जो स्वयं का विवेक रखते हैं आैर अपना निर्णय ले सकेंगे। तब वे मनुष्य की तरह मनमौजी, सनकी आैर अतार्किक भी हो सकते हैं। अब तक रचे रोबो तयशुदा प्रोग्राम के बाहर नहीं जाते, वे मनुष्य का आदेश पालन के लिए रचे गए हैं परंतु स्वयं विवेक की क्षमता वाले रोबो मनुष्य के आदेश के परे जाएंगे आैर उस दिशा में वे संसार में अराजकता फैला सकते हैं। विज्ञान को यह भी भय है कि हॉलीवुड के विज्ञान फंतासी के स्टूडियो सेट की तरह दुनिया हो जाएगी।

ज्ञातव्य है कि मनुष्य द्वारा बनाए गए रोबो मनुष्य को ही आदेश देने लगेंगे। दशकों पूर्व बनी '2001: स्पेस आेडिसी' में यही भय अभिव्यक्त किया गया था आैर कुछ समय पूर्व बनी "मैट्रिक्स' श्रृंखला तो संकेत करती है कि मनुष्य अस्तित्व को अपनी बैटरीज बनाकर रोबो अपना स्वतंत्र संसार गढ़ेंगे। ये सब बातें हमें फिल्मी लगती रहीं परंतु हाल ही में विज्ञान ने सावधान किया है कि स्वयं विवेक वाले रोबो हमसे मात्र पांच या सात वर्ष दूर हैं। इस तरह के संकेतों से भारत को डर नहीं लगता क्योंकि हम तो कब के अपना विवेक खोकर बाजार के रोबो हैं आैर उन्हीं का आदेश मानते हैं। कई बार हम जानते भी नहीं कि हम कठपुतलियों की डोर किसके हाथ में है। हमें तो सदियों पूर्व तैयार किया गया था कि हम सब विष्णु के स्वप्न के पात्र हैं- हम जीते मरते नहीं हम में श्रीकृष्ण ही जीते हैं आैर मरते हैं। महाभारत में संजय की उक्ति है कि मुझे तो कुरुक्षेत्र में कृष्ण ही जीते-मरते, विजयी-पराजित होते दिख रहे हैं। पश्चिम में जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता आैर उसकी अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी नहीं है, उन्हें ही स्वयं विवेक संचालित रोबो से भय लग सकता है। ये सब उन्हीं के भस्मासुर हैं।

ज्ञातव्य है कि सिनेमा के पैरिस में प्रथम शो के समय वहां उपस्थित जादूगर जॉर्ज मेलिए ने आविष्कारक लूमियर बंधुआें की इस आस्था का खंडन किया था कि यह माध्यम केवल यथार्थ दिखाएगा। जादूगर जॉर्ज मेलिए ने 'जर्नी टू मून' के साथ 47 विज्ञान फंतासी रची आैर उनकी मृत्यु पागलखाने में हुई। जब कोई जादू आैर सिनेमा माध्यम के कॉकटेल का इस्तेमाल करेगा तो उसके पागल होने में कहां शंका रहती है। बहरहाल हॉलीवुड में प्रारंभ से विज्ञान फंतासी बनी परंतु उनका स्वर्ण-काल 1967 से प्रारंभ हुआ जब स्टीवन स्पिल बर्ग, मार्टिन स्कारसेस जैसे प्रतिभाशाली इससे जुड़े। हमारे राकेश रोशन ने विज्ञान फंतासी रची है। स्पीलबर्ग की 'आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस' में एक संतानविहीन युवा विधवा बाल स्वरूप में रोबो बनवाती है परंतु जब वह कैंसर पीड़ित है तब इस बाल रोबो की आंखों में आंसू है। स्पिलबर्ग की विज्ञान फंतासी में हमेशा इस तरह मानवीय करूणा का स्पर्श रहा है।

विज्ञान फंतासी साहित्य के पुरोधा एच.जी.वेल्स की 1833 में लिखी एक कहानी में रोबो बनाने वाला वैज्ञानिक अपनी षोडसी कन्या को चेतावनी देते हैं कि इसकी छाती के निकट नहीं जाना क्योंकि यह प्रोग्राम्ड है कि छाती के निकट आने वाले को अपने लौह पाश में जकड़ कर नष्ट कर दे। कन्या कहती है कि यह प्रेम निवेदन करता है, पिता कहता है कि यह असंभव है। एक दिन पिता लौटकर देखता है कि उसकी कन्या कुचली पड़ी है। वह उस रोबो के सारे पार्ट्स अलग करता है आैर ज्ञात होता है कि प्रयोगशाला के नीचे बाग में युवा प्रेमी बैठते हैं। संभवत: रोबो का मेमोरी यंत्र खुला रहा आैर प्रेमालाप उसने रिकॉर्ड किया। इस श्रेणी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म 'बायसेन्टिनियल मैन' है जिसमें रोबो आैर आैरत के प्रेम को कानूनी स्वीकृति उस समय आती है जब आैरत मृत्युशय्या पर लेटी है आैर रोबो की एक्सपायरी डेट भी उसी दिन की है। ये लैला-मजनू एक ही दिन स्वर्गवासी होते हैं।