स्वाभािवक रंगों से बोलतीं दीवारें / जयप्रकाश चौकसे

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स्वाभािवक रंगों से बोलतीं दीवारें
प्रकाशन तिथि :13 अगस्त 2015


आजादी के लिए संघर्ष के अंतिम दशक में 'कला देश के लिए' के उद्‌देश्य से पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थिएटर की स्थापना की थी। यह फिल्म उद्योग के लिए, पुणे फिल्म संस्थान के पहले, पहला फिल्म संस्थान सिद्ध हुआ, जिसने फिल्म उद्योग को अनगिनत लेखक, कलाकार और फिल्मकार दिए। उनका एक नाटक था 'दीवार' जो भाइयों और धर्मों के बीच आई दीवार के खिलाफ बगावत थी। दशकों बाद सलीम-जावेद ने 'दीवार' नामक फिल्म लिखी। अपने माता-पिता के साथ हुए अन्याय के खिलाफ दो पुत्र खड़े हैं- एक कानून की सरहद के दूसरी ओर है और एक इस ओर है। इन्हीं के बीच की दीवार की कथा थी। आश्चर्य यह है कि 'दीवार' जैसे लोकप्रिय टाइटल का प्रयोग बार-बार नहीं हुआ। आम जीवन में कानाफूसी करते समय लोग कहते हैं कि धीरे बोलो दीवारों के कान होते हैं और सीसीटीवी कैमरा लगने के बाद अब दीवारों की आंखें भी होती हैं। धीरे-धीरे दीवार का नाक-नक्श उभर रहा है, व्यक्तित्व उजागर हो रहा है।

अमेरिका का शेयर बाजार 'वॉल स्ट्रीट' कहलाता है और मुंबई का शेयर बाजार 'दलाल स्ट्रीट' पर है। डिपार्टमेंटल स्टोर्स की एक शृंखला वॉल मार्ट भी है, जिसे चीन में प्रवेश इस शर्त पर दिया कि वे चीन में बना माल दुनिया में अपनी शृंखला में बेचेंगे। इस तरह घटिया माल से दुनिया पाट दी गई है। चीनी भोजन दुनिया भर में खाया जाता है पर भारत में चीनी पकवानों में भारतीय तड़का लगा होता है। हमारी मौलिकता केवल हमारा 'तड़का' है। दुनिया के सारे सृजनशील लोग और अन्वेषक हमारे लिए ही काम कर रहे हैं, क्योंकि हम उनके मौलिक कार्यों पर अपना 'तड़का लगाकर उसे अपना बना लेते हैं। कितना विशाल है हमारा हृदय, जो यूं ही 'विश्व को कुटुम्ब' नहीं मानता वरन् हर खोज को अपना लेता है। हम स्वयं कोई खोज नहीं करते। इस 'तड़का' लगाने को भी 'मेक इन इंडिया' कह सकते हैं।

बहरहाल, इस दीवार दास्तां का असली उद्‌देश्य यह है कि बिहार में सुजाता नामक स्थान पर निरंजना पब्लिक वेलफेयर स्कूल है, जहां जाकर 'आउट लुक' की पत्रकार डोला मित्रा ने एक सामाजिक क्रांति के शैशव काल को देखा। सुजाता के हाथ का बना दूध-चावल महात्मा बुद्ध ने खाया था और बोधगया में एक वृक्ष के नीचे उन्हें दिव्यज्ञान का प्रकाश मिला। जापान, चीन और श्रीलंका के अनेक बौद्धमत मानने वाले इस धार्मिक स्थान पर आते हैं। यह उनका पवित्रतम धाम है। 2010 में जापान के तीर्थयात्रियों ने समाज के निम्न आर्थिक वर्ग के बच्चों के लिए बने निरंजना पब्लिक वेलफेयर स्कूल की दीवारों के स्वाभाविक रंग देखे और ग्रामीण भारत के मकानों के रंग गेरू इत्यादि स्वाभाविक रंगों को पसंद किया, जिन्हें देख आंखों को शांति मिलती है। गोबर से लिपी-पुती दीवारों पर सूर्यप्रकाश पड़ते ही उनमें छिपा सुनहरा रंग दिखाई देता है। सफेद रंगोली से आंगन में उतारी आकृतियां मनभावन लगती हैं।

उन तीर्थयात्रियों ने स्कूल के संरक्षक से आज्ञा ली कि वे उन्हें स्कूल दीवारों और छतों पर आकृतियां बनाने दें और स्कूल के छात्रों ने स्वाभाविक रंग खोजने में उनका सहयोग दिया। गाय के गोबर में गाय के चारे को मिलाया गया, अनेक पत्तियों को कूटकर हरा रंग प्राप्त किया, नींबू के छिलकों से पीला रंग प्राप्त किया। घरेलू काजल से काला रंग प्राप्त किया। उड़ीसा और झारखंड की लाल मिट्‌टी का भी प्रयोग किया गया। अकिको ओग्योनी और कजनोरी हमाओ ने भारत के चित्रकारों को भी आमंत्रित किया। जनजातियों की कला से प्रेरित राजेश चैनी बांगर और राजकुमार पासवान भी शामिल हुए। कुछ ही समय में स्कूल की सारी दीवारें और छतों पर कलाकृतियां बनाई गईं और दीवार कलाकृति के छोटे-से आंदोलन का श्रीगणेश हुआ। इस स्कूल के अधिकारी देवेंद्र पाठक ने इस आंदोलन के संरक्षण का कार्य किया और अब उन्होंने महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र के एक स्कूल को चुना है और स्थान गुप्त रखने का कारण मात्र इतना है कि इस पवित्र आंदोलन को मीडिया की चमक-दमक से बचाना है।

मैंने सागर विश्वविद्यालय में 'दीवार समाचार-पत्र' का प्रयोग देखा, जिसमें छात्र अपनी रचनाओं को दीवार पर बने एक बॉक्स में लगाते थे। बाद में बुरहानपुर के सेवा सदन में भी 'दीवार समाचार-पत्र' का प्रयोग किया था। कुछ दिन पूर्व ही श्रवण गर्ग नेमुझसे अंग्रेजी फिल्म 'लेटर्स ऑफ जूलियट' का जिक्र किया था। जूलियट के घर की दीवार पर लोग अपने पत्र छोड़ जाते हैं। उस मकान की देखभाल करने वाले प्रयास करते हैं कि पत्र सही जगह भेज सकें। पूरी फिल्म एक लड़की द्वारा वर्षों पूर्व लिखे ऐसे पत्रों को सही पते पहुंचाने का प्रयास है। यह फिल्म मानवीय भावनाओं का दस्तावेज है। बहरहाल, दीवारों को स्वाभाविक रंगों से सजाने और 'दीवार समाचार-पत्र' का आंदोलन सब जगह पहुंचे ताकि अनसेंसर्ड भावनाएं किसी माध्यम से तो फैले।