स्वामी सहजानन्द सरस्वती और किसान / राहुल सांकृत्यायन

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होश सँभालते ही जिसे योग, वैराग्य और वेदांत ने अपनी ओर खींचा, जिसे मायामय संसार छोड़ अद्वैत ब्रह्म में लीन होने की एक समय भारी साध थी; किसको पता था कि वह संसार के सबसे उपेक्षित, शिक्षा-संस्कृति में सबसे पिछड़े भारतीय किसानों को अपने पैरों पर खड़ा करने की प्रतिज्ञा लेगा? वह एक मेधावी बालक के तौर पर शिक्षा के जिस रास्ते से जा रहा था, उससे वह विश्व विद्यालय का एक सम्मानित स्नातक बनता, कानूनपेशा वकील, सरकारी नौकर या प्रोफेसर बनता; मगर रास्ता एकाएक मुड़ा, और वह दूसरे - भारतीय प्राचीन विद्या के - रास्ते पर चला गया। वह विद्वान संन्यासी के तौर पर अपनी प्रौढ़ प्रतिभा और व्यापक ज्ञान से एक सर्वमान्य संन्यासी, सैकड़ों छात्रों और शिष्यों का गुरु होता; मगर ब्राह्मणों के मिथ्याभिमान ने व्यक्ति् नहीं, एक गौरवपूर्ण जाति को अपमानित करना चाहा और वह उसे बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने अपने दंड को उठाया और कुछ ही सालों में भूमिहार ब्राह्मणों में वह भाव भर दिया कि ब्राह्मणों को अपनी शेखी छोड़नी पड़ी। लेकिन समय आया, जब उसकी तीक्ष्ण प्रतिभा ने बतलाया कि उसका कार्यक्षेत्र इतना संकुचित नहीं होना चाहिए, फिर जेल गया। वहाँ पक्के गांधी-शिष्यों की करतूतों को देख कर उसकी देह में आग लग गई। राजनीतिक आंदोलन में उसे कोई भी आशा नहीं रह गई। जिसने योग-साधन, पवित्र जीवन और मोक्ष-प्राप्ति के लिए दर-दर की ठोकर खाई, वर्षों तकलीफें सहीं, उसके मन में इस तरह का भाव आना जरूरी था। वह सबको संत के रूप में देखने की आशा तो नहीं रखता था, मगर यह आशा जरूर रखता था कि गांधी जी के विश्वहसनीय भक्तख कुछ ज्यादा ईमानदार होंगे। उसने अपने जानते राजनीति से सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। वह नहीं जानता था कि उसके दिल में एक भारी कमजोरी है - वह गरीबों के ऊपर होते अत्याचार को सहन करने की शक्ति नहीं रखता। हुआ यही और अब वह नाव को डुबो कर परले पार उतर गया। भारत के किसान-आंदोलन को उठाने और आगे बढ़ाने में जो काम उसने किया है, वह सदा स्मरणीय रहेगा। वह व्यक्तिर है स्वामी सहजानन्द।

गाजीपुर जिले में दुल्लहपुर स्टेशन के पास देवा एक छोटा-सा गाँव है, यहाँ कुछ घर भूमिहार ब्राह्मणों के हैं। आज ये लोग भूमिहार ब्राह्मण हैं, लेकिन कुछ पीढ़ियों पहले ये बुंदेलखण्ड के जुझौतिया ब्राह्मण थे। दस-बारह शताब्दियों और पहले ये यमुना से पश्चििम हिमालय की तराई से मेवाड़ तक फैले यौधेय गण के नागरिक थे।

1889 ई. की शिवरात्रि को बेनीराय के घर उनका सबसे छोटा पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम नौरंग राय रखा गया। 3 बरस की आयु में ही माँ मर गई और नौरंग को माँ का नाम भी नहीं मालूम हो सका। माँ के मरने की क्षीण स्मृति नौरंग के दिल में सदा के लिए रह गई। लोग रो रहे थे। नौरंग की आँखों से आँसू निकले या नहीं, इसका उसे पता नहीं। लड़कपन से ही नौरंग का स्वास्थ्य अच्छा था; लेकिन उसे खेल से बिलकुल प्रेम न था।

गाँव में स्कूल न था, मगर पास के गाँव जलालाबाद में प्राइमरी स्कूल था। 1899 के शुरू में नौरंग को जलालाबाद के मदरसे में दाखिल कर दिया गया। यद्यपि पढ़ने की अवस्था के 4 साल उसने बरबाद कर दिए थे; लेकिन उसकी बुद्धि बहुत तीव्र थी, गणित से बहुत ही ज्यादा प्रेम था। मरदसे में हर साल वह दो-दो दर्जे पास करता और अपने दर्जे में सदा प्रथम रहता। 1902 तक 3 सालों के भीतर नौरंग ने 6 साल की पढ़ाई खत्म कर दी। अपर प्राइमरी पास लड़कों की जिला-प्रतियोगिता में उसने बीस में से उन्नीस अंक पाए।

अब नौरंग 13 साल का था। रामायण पढ़ने का उसे बहुत शौक था। किसी ने गीता का माहात्म्य बतलाया और उसे भी अपने पाठ में शामिल कर वह अच्छा-खासा पुजारी बन गया। जलालाबाद के एक अध्यापक भी पुजारी थे, नौरंग की पूजा में उनका प्रभाव अवश्य था। पूजा बिना देवता को खुश कैसे किया जा सकता है।

अब मिडिल में पढ़ने के लिए नौरंग गाजीपुर तहसीली स्कूल में दाखिल हुआ। दर्जे में अव्वल तो रहना ही था। सभी विषयों में उसकी गति थी। स्मृति भी तीक्ष्ण थी, 1904 में हिंदी मिडिल पास किया, सारे युक्तो प्रांत में नौरंग का नंबर छठा या सातवाँ था। उर्दू को नियमपूर्वक नहीं पढ़ा था; लेकिन उर्दू पढ़नेवाले विद्यार्थियों के साथ बराबर बैठना पड़ता, जिससे सुनते-ही-सुनते नौरंग को उर्दू आने लगी।

गाजीपुर में आ कर नौरंग की आक्रामक प्रवृत्ति और बढ़ गई। यहाँ उसे सनातन धर्म और आर्यसमाज के उपदेशकों के व्याख्यान सुनने को मिलते। धर्म पर श्रद्धा और जमती गई। वह आर्यसमाजी नहीं बना और रोज नियम से स्नान कर शंकर के ऊपर बेलपत्र और गंगाजल चढ़ाता। शिव जी का व्रत बड़े उत्साह के साथ करता। उस वक्तत अमृतराय वहीं अध्यापक थे। वे खुद भी प्रतिभाशाली थे; इसलिए प्रतिभाशाली लड़के की कदर करना जानते थे। नौरंग राय भी उन्हीं के साथ में रहता।

हिंदी मिडिल पास करने के बाद फिर नौरंग को छात्रवृत्ति मिली और वह गाजीपुर के जर्मन मिशन हाई स्कूल (आजकल के राजकीय सिटी इंटर कॉलेज, गाजीपुर) में प्रविष्ट हुआ। मारवाड़ियों के टोले में गुणेश्व रनाथ महादेव का मन्दिर है। उसी की एक कोठरी में नौरंग रहा करता था। वहाँ गंगा भी नजदीक थीं और पास में महादेव का मन्दिर भी। नौरंग राय को इन दोनों चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत थी। अब नौरंग राय के पाठ्यन में संस्कृत भाषा भी थी। अपने रटे महिम्न:स्तोत्र और गीता के श्लोनकों का अर्थ समझने की लालसा में वह उसे बहुत ध्यान से पढ़ता था।

नौरंग का पूजा-पाठ घरवालों को पसंद न था। देर करने में हानि समझ 16 वर्ष की अवस्था (1905) में नौरंग की शादी कर दी गई। लेकिन स्त्री एक ही साल बाद परलोक सिधार गई।

मिडिल इंग्लिश में भी नौरंग राय का नंबर अच्छा रहा। 1906 में कुछ संन्यासी घूमते-घामते उसी महादेव के मन्दिर में ठहरे। नौरंग धर्म-प्रेमी तो था ही संन्यासियों का गेरुआ वस्त्र तथा उनके उन्मुक्ते जीवन उसे और भी आकर्षक मालूम हुए। एक साल पहले भी नौरंग भागकर बनारस और काकोरी तक गया था; लेकिन बरसात का दिन था और अभी दिल मजबूत नहीं हुआ था, इसलिए वहाँ से लौट आया। इस पहली उड़ान का घरवालों में से किसी को पता नहीं था और यह अच्छा ही हुआ, नहीं तो वे और कड़ी निगाह रखते। अबकी नौरंग ने बनारस के संन्यासियों से उनके मठ का पता पूछ लिया था। वह अपने लिए यही रास्ता पसंद कर चुका था।

अब (1907 में) नौरंग की उम्र 18 साल की थी। वह हाई स्कूल की आखिरी कक्षा का विद्यार्थी और बहुत तेज विद्यार्थी था। मैट्रिक परीक्षा में भी उसे छात्रवृत्ति जरूर मिलती और घर की मदद के बिना भी विश्वथविद्यालय की सभी सीढ़ियों को पार कर सकता था। वह जानता था कि वह एक अच्छा वकील बन सकता है, अध्यापक बन सकता है या डिप्टी कलेक्टर हो सकता है। लेकिन नौरंग का मन रह-रह कर कह उठता, 'और पढ़-लिख कर क्या करोगे? तुम्हें कोई दूसरा खिला देगा।' अब वह गीता को कुछ समझ सकता था। उसने लघुकौमुदी पढ़ी। भागवत को भी वह शौक से संस्कृत में पढ़ता। यही नहीं, छोटी-मोटी वेदांत की पुस्तकें भी पढ़ लेता, इससे उसका दिल वेदांत से रँग गया।

शायद घरवालों को कुछ भनक लगती जा रही थी। उन्होंने सोचा - जल्दी ही शादी कर दो, नहीं तो लड़का हाथ से बेहाथ होने जा रहा है। नौरंग को भी पता लग गया; खतरे की घंटी बजी - 'भागो अभी।'

शिवरात्रि (1907) के कुछ ही दिनों पहले नौरंग राय भाग कर बनारस चले आए। सिद्ध अपारनाथ मठ का नाम नोट किया हुआ था। गाजीपुर में पहले के परिचित संन्यासी भी मिल गए। शिवरात्रि जैसे महान पर्व को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। सलाह हुई, शिवरात्रि के दिन ही संन्यास ले लिया जावे। स्वामी अच्युतानन्द गिरि व्याकरण-मीमांसा के एक अच्छे पंडित थे। 18 साल के नौरंग उन्हीं से गिरिनामा संन्यासी बने। जब उनके बालमित्र हरिनारायण पांडेय को पता लगा, तो वे भी आकर संन्यासी हो गए।

चंद ही दिनों बाद-घरवालों को पता लग गया और लोग बनारस पहुँचे। स्वामी सहजानन्द को घर आना पड़ा। सब लोग समझाने लगे। खाकीजी बुला कर लाए गए। तरुण संन्यासी के मुँह से ज्ञान-वैराग्य की बात सुन कर कहने लगे - 'हमारी समझ से बाहर की बात है, हम क्या समझाएँ?' खाकीजी की इस देहात में बड़ी प्रसिद्धि थी। वह सिद्ध पहुँचे हुए महापुरुष समझे जाते थे। अन्त में हार मानकर घरवालों को स्वामी का रास्ता छोड़ना पड़ा। स्वामी फिर दुल्लहपुर स्टेशन से रेल पकड़ बनारस चले आए।

स्वामी और बालसखा हरिनारायण को संन्यास-जीवन और उससे भी ज्यादा योग-समाधि का शौक था। बनारस में कोई योगी नहीं मिला। उन्होंने अब योगी गुरु को ढूँढ़ निकालने का निश्चकय किया। दोनों गंगा के किनारे-किनारे पैदल ही पश्चिुम की ओर चल पड़े। भोजन के लिए दस घरों से मधुकरी माँग लेते। झूँसी (प्रयाग) तक किसी योगी से भेंट नहीं हुई। झूँसी में मठ की छत पर नंगे सोने से शरीर में दर्द और बुखार हो आया। किसी ने दवा समझ कर चाय पिलाई, मगर बीमार बेहोश हो गया। एक और साधु वैद्यक करने लगे और लोहा पीस कर पिला दिया। किसी समझदार आदमी ने कहा भी - 'जहर पिला रहा है, मर जावेगा'; मगर कई खुराक खा चुकने के बाद सारे शरीर में रोएँ-रोएँ पर फुंसियाँ निकल आयीं। आज इस घटना को हुए सालों बीत गए, और स्वामी खाने-पीने में बड़ा संयम रखते हैं; मगर आज भी लोहे का प्रभाव बिलकुल खत्म नहीं हुआ। महीने-भर झूँसी में बीमार पड़े रहे, बड़ी पीड़ा सहनी पड़ी।

शरीर के सँभलते ही फिर योगी की खोज। किसी ने बतलाया - चित्रकूट में योगी रहते हैं। दोनों ने चित्रकूट का रास्ता पकड़ा पैदल ही। मगर वहाँ भी दूर का ढोल सुहावना। जंगल की ओर बढ़े। अनुसूया के बैरागी बाबा को पीटकर चोर सोलह हजार रुपए ले कर चंपत हो गए थे। कादमगिरि में बैरागियों (वैष्णवों) के स्थान हैं, और शायद ही कोई योगिनी बिना हो। वहाँ रात को रहने के लिए कोई स्थान देने को तैयार न हुआ। चित्रकूट से निराश लौटे। तुलसीदास की जन्मभूमि 'राजापुर' देखी; फिर प्रयाग की सड़क पकड़ी और पश्चिाम की ओर मुँह किया। अब अँतरिया बुखार आने लगा था। भादों का दिन था, वर्षा हो रही थी। बुखार के दिन पूड़ी मिली, खा लिया, ऊपर से ठंडी हवा लगी। बुखार और बढ़ा। गाँव में शरण ढूँढ़ने गए, किसी ने बीमार परदेशी संन्यासी को जगह न दी। गाँव में एक टूटी चौपाल थी, जिसमें गोबर का कीचड़ भरा हुआ था, दुर्गंध का ठिकाना नहीं था, वहाँ बैठने के लिए भी स्थान नहीं था। पानी-बूँदी में जाएँ कहाँ? चौपाल में खड़े रहे, जब वर्षा बंद हुई, तो फिर उस गाँव को अभागे संन्यासी तरुणों ने सलाम किया। फतेहपुर के पहले महादेव का मन्दिर मिला था, जिसमें दोनों ठहरे। बुखार जाता रहा। पूड़ी ने बुखार को बढ़ाया, महादेव जी ने छुड़ा दिया। घूमने के अलावा इस वक्तब गीता और शिव-महिम्न:स्तोत्र का पाठ होता रहता। साथ में कुछ वेदांत की पुस्तकें थीं, कुछ उन्हें भी किसी-किसी समय देख लेते।

पता लगा, नर्मदा के तट पर योगी रहते हैं। कानपुर से कालपी की ओर मुड़े। उरई, झाँसी, ललितपुर सब पैदल गए। यहाँ 52 घंटे तक अन्न से भेंट नहीं हुई। श्रद्धा सारे भारत में एक-सी तो बँटी नहीं है। भूख ने दूर चले जाने को मजबूर किया। बेटिकट रेल पकड़ी और बीना में उतर पड़े। फिर पैदल। सागर में नर्मदा पार की। नरसिंहपुर होते हुए मानेपुर (जबलपुर जिला) में पहुँचे। यहाँ हरिनारायण जी के परिचित एक राजपूत गृहस्थ रहते थे। वह संन्यासियों के भक्ति और वेदांत के शौकीन थे। वेदांत पढ़ते-पढ़ाते तथा कुछ दवा भी करते थे। 15-20 दिन यहीं दोनों जने ठहरे।

पहले भी सुन चुके थे और मानेपुर में भी ओंकारेश्वुर के कमलभारती से योग सीखने की लालसा ले खण्डवा होते हुए ओंकार पहुँचे। योगी वहाँ से और उत्तर के जंगल में रहते थे। वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ, वह अनंत समाधि ले चुके हैं। किसी ने कहा - 'योगी-वोगी नहीं थे, कायाकल्प करते थे।' उनके चेले को भी कोई-कोई योगी कहते थे और उनका योग था - द्वार बंद कर दिन-भर सोते रहना।

फिर पैदल। पैसे पास नहीं थे, खाने के लिए भिक्षा 'मधुकरी' माँग लेते, और रसवती मालव-भूमि में उसकी कमी नहीं हुई। हाँ, अब योग से निराश हो चले। 'दूर का ढोल सुहावना' की बात ठीक जँचने लगी। हाँ, वैराग्य पर दृढ़ श्रद्धा थी। भर्तृहरि का 'वैराग्यशतक' बड़ा सुंदर लगता था। इंदौर होते हुए उज्जैन गए। बीस दिन महाकालेश्वरर की नगरी में बीता फिर पैदल ही उत्तर का रास्ता लिया। मथुरा, हाथरस, हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश पहुँचे।

अब सन 1908 था। योग की आशा जाती रही थी। सोचा, कुछ वेदांत ही पढ़ डालें। कैलाश-आश्रम के किसी संन्यासी के पास 'वेदांत मुक्तारवली' पढ़ने लगे। मगर व्याकरण कच्चा था, इसलिए समझने में कठिनाई होने लगी। कुछ यह भी मन में होने लगा, 'संस्कृत की खान बनारस छोड़, यहाँ टक्करें मारने की जरूरत?'

यहाँ तक आए तो चलो हिमालय की तीर्थयात्रा ही कर डालें। अभी हिमालय के तीर्थ इतने आबाद नहीं हुए थे। रास्ते कठिन थे। धर्मशालाओं-सदावर्तों की आज की भरमार का नाम तक न था। कभी-कभी, दो-दो दिन तक खाना नहीं मिलता और दोनों पथिक ठिठुर कर लेट जाते। केदारनाथ हो कर जब तुंगनाथ पहुँचे, तो हरिनारायण जी से अलग हो जाना पड़ा। इतने दिनों के तजुर्बे ने बतला दिया कि यहाँ 'मन मिले का मेला' नहीं है। अब बिलकुल एकाकी-अकेले चलना, अकेले भूखे रहना। बदरीनाथ से ऋषिकेश लौट आए, मगर वहाँ कोई आकर्षण न था।

पाँव फट गए थे, इसलिए पैदल का खयाल छोड़ हरिद्वार में रेल पकड़ी। लक्सर में उतार दिया और मुरादाबाद में भी; लेकिन उतरते-चढ़ते आखिर बनारस पहुँच गए। शायद फिर किसी ने योगी की आशा दिलाई। फिर गंगा किनारे पैदल ही चल पड़े - अब की पूरब की ओर। बलिया तक गए, कहीं न योगी, न योगी की पूँछ दिखाई पड़ी। वर्षा आ गई थी, भरौली (उजियार) में चौमासा रहे। सोचा, अब छोड़ो योगियों के परपंच को, जिनको लोग योगी समझते हैं, वह हमारे लिए दिन के सोनेवाले या कायाकल्प करनेवाले से अधिक नहीं होते। अब अच्छा यही है कि चल कर संस्कृत पढ़ो; फिर यदि कोई वास्तविक योगी मिल गया तो देखा जावेगा।

बनारस में विद्याध्ययन - 1909 से बनारस में डटकर संस्कृत पढ़ने लगे। अपारनाथ के मठ में ठहरे। पास ही संन्यासी पाठशाला में अपने समय के प्रसिद्ध व्याकरणी पंडित हरिनारायण तिवारी पढ़ाते थे। उनसे सिद्धांत कौमुदी शुरू की। ढाई वर्ष लगाकर उसे खूब मन से पढ़ा। पढ़ाई आगे जारी ही रही। संस्कृत की जड़ मजबूत हो गई। पाठशाला के दूसरे अध्यापक शंकर भट्टाचार्य से न्याय पढ़ते थे। पं. नित्यानन्द पंजाबी मीमांसा और एक बलियावाले पं. वेदांत पढ़ाते थे। संन्यासी के लिए काशी में दुख क्या? पाँच क्षेत्रों में घूम जाते और भोजन के लिए पर्याप्त मधुकरी मिल जाती। रहते कभी किसी मठ में कभी किसी मठ में। विरक्ते संन्यासी थे, इसलिए परीक्षा देने का कभी खयाल नहीं आया।

स्वामी अब (1912 में) 23 साल के थे। अभी भी योग और दिव्य-शक्तिस पर से उनका विश्वा स उठा नहीं था। टक्कर मार कर असफल होने के बाद वह इतना ही समझ पाए थे कि योगी अब कलियुग में दुर्लभ हैं, भाग्य से ही कहीं मिल जाएँ। एक दिन उन्होंने एक बूढ़े दंडी संन्यासी का पता पा, जाकर उनके दर्शन किए। वहाँ एक चमत्कार देखने में आया - दंडी खर्राटे भरते सो रहे हैं और उनकी अंगुलियाँ माला के मनके गिन रही हैं। स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती - यही दंडी का नाम था - सीधे-सादे साधु थे, कुछ पढ़े-लिखे भी। तरुण संन्यासी ने जिसके लिए घर छोड़ा था, पूरा नहीं तो उसमें से कुछ तो मिला। स्वामी बार-बार जाने लगे। दंडी जी ने दंड ले लेने के लिए कहा। आखिर शंकराचार्य भी तो दंडी थे! अभी तक अपारनाथ के गिरि थे। अब उन्होंने स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती का शिष्य सहजानन्द सरस्वती बन दंड धारण किया। अद्वैतानन्द बड़े पंडित न थे कि सहजानन्द को उनसे ज्यादा ज्ञान प्राप्त होने की आशा होती। वह भक्ति -भाव वाले आदमी थे। भक्तिनपूर्ण कथा-प्रसंगों को सुनते वक्तो उनकी आँखों से आँसू की धारा बह चलती। उनकी एक मुख्य शिक्षा थी - 'अवगुणग्राही साधु, गुणग्राही असाधु जो कि लोक-प्रसिद्ध कहावत 'गुणग्राही साधु, अवगुणग्राही असाधु' का उलटा है, और जिसका अर्थ है, साधु पराए के गुणों को ग्रहण करते हैं और असाधु पराए के अवगुणों को। अद्वैतानन्द अपने सूत्र का अभिप्राय लेते थे - 'साधु अपने अवगुण को पकड़ते और असाधु अपने गुणों को।'

दंडी होने पर स्वामी सहजानन्द के नियम कुछ कड़े हो गए; लेकिन दंडियों का काशी में (और बाहर भी) बहुत मान है, पढ़ना पहले ही की तरह जारी रहा। व्याकरण में मनोरमा, शेखर और महाभाष्य पढ़ा। वात्स्यायन-भाष्य, न्यायवर्तक, तात्पर्य-टीका, न्याय कुसुमांजलि, आत्मतत्व विवेक जैसे प्राचीन न्याय के प्रौढ़ ग्रन्थों का अध्ययन किया। नैयायिक जीवनाथ मिश्र से पक्षता, सामान्य निरुक्ति , सिद्धांत-लक्षण तथा वाद के ग्रन्थ पढ़े। वेदांत तो अपने घर का जरूरी विषय था, उसके पढ़ानेवालों में बलिया के पं. अच्युतानन्द त्रिपाठी थे। उनसे उन्होंने खण्डनखण्ड खाद्य, संक्षिप्त शारीरिक, अद्वैतसिद्धि आदि ग्रन्थ पढ़े। जब वह मीमांसा में न्याय-रत्नखमाला आदि ग्रन्थों को पढ़कर आगे बढ़ना चाहते थे, उस वक्तन देखा कि उनके अध्यापकों को कठिनाई हो रही है। संतोष नहीं होता था। खुद सिर पटकने की कोशिश की; मगर उससे काम बनते नहीं दीख पड़ा। अब (1915 में) वह किसी प्रौढ़ मीमांसक गुरु की खोज में थे। साहित्य में नैषध आदि पढ़े थे। मगर योग-वैराग्य के शैदाई सहजानन्द को ये श्रृंगारपूर्ण ग्रन्थ पसंद न आते थे। पुराने युग की पुरानपंथी संस्कृत पुस्तकों तथा योग-वैराग्य के अतिरिक्त् और भी दुनिया है, इसका स्वामी को पता न था।

मीमांसा की प्यास बुझी न थी। पता लगा दरभंगा के चित्रधर मिश्र नामक एक बड़े मीमांसक हैं। 1915 में वहाँ पहुँच गए और उन्हीं के पास 7 मास रह कर मीमांसा के कितने ही ग्रन्थ पढ़े। कुमारिल की दुर्लभ पुस्तक टुप्टी्का को हाथ से लिख कर पढ़ा। पं. बालकृष्ण मिश्र भी उस वक्ति वहीं थे। उन्होंने बड़े स्नेह से स्वामी को वाद (न्याय) तथा काव्यप्रकाश पढ़ाया। चलते वक्तव अपने प्रतिभाशाली शिष्य - परंतु धर्म में गुरु को अपने गुरु द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक भेंट की, जिस पर अपने हाथ से यह स्वरचित पद्य लिख दिया :

प्रेमैव माऽस्तु यदि स्यात् सुजनेन नैव,
तेनापि चेद् गुणवता न समं कदाचित्।

तेनापि चेद् भवतु नैव कदापि भङ्गो
भङ्गोऽपि चेद् भवतु वश्यमवश्यमायु:॥

'प्रेम ही मत हो, यदि हो तो सृजन के साथ नहीं, उससे भी हो तो गुणी के साथ कभी न हो। उससे भी हो तो कभी भी (प्रेम का) भंग न हो, भंग भी हो तो आयु अपने वश में जरूर हो।'

एक महायुद्ध हो रहा हो, हो नहीं सकता कि स्वामी सहजानन्द ऐसा तीव्र बुद्धि का व्यक्तिश अपनी चिर-समाधि को भंग न करे। 1915 से युद्ध की खबरों के लिए स्वामी को अखबार पढ़ने की चाह लगी। बाहर की दुनिया का ज्ञान जैसे-जैसे बढ़ता ही जा रहा था, वैसे-वैसे राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ चली। समस्तीपुर (दरभंगा) में उन्होंने फीरोजशाह मेहता के मरने की खबर पढ़ी और यह भी समझा कि संसार में देशभक्तिर भी कोई चीज है। लखनऊ-कांग्रेस में हिंदू-मुस्लिम समझौता हुआ, उसे भी उन्होंने पढ़ा। वह 'प्रताप' (कानपुर) को नियमपूर्वक पढ़ते थे, जिससे भारत की राजनीतिक अवस्था की झलक थोड़ी-थोड़ी सामने आने लगी। 'प्रताप' में तिलक की मृत्यु के बारे में इस पद्य को पढ़ कर बड़े प्रभावित हुए -

मुद्दतें काट दीं असीरी में, था जवानी का रंग पीरी में।
अब कहाँ मुल्क का फिदाई हाय, मौत उस मौत को न आयी हाय॥

स्वामी ने इसे पढ़कर एक दिन-रात खाना नहीं खाया। अब उनकी नजर गांधी जी की ओर लगी हुई थी। जलियाँवाला बाग कांड सुन कर उन्हें सख्त धक्का लगा। उसके बारे में हंटर की सरकारी रिपोर्ट को उन्होंने खूब अच्छी तरह पढ़ा। उसी वक्तउ 'खयाली क्रांति और कैसे उसे दबाया गया' नामक एक अंग्रेजी पुस्तक उनके हाथ आई। सुख-दु:ख अनुभव करने का एक नया संसार उनके सामने खड़ा हो गया। संस्कृत साहित्य में गोता लगाना छूट गया। ढूँढ़-ढूँढ़ कर रोज-रोज की ज्ञातव्य राजनीतिक बातें पढ़ते, अब उनके भाव देश के परतन्त्रकारियों के विरुद्ध हो गए। मृत्यु-शय्या पर पड़े तिलक को देखने गांधी जी बंबई के सरदारगृह में गए। तिलक ने कहा - 'Non-co-operation' चुप रहकर फिर 'Very high method ' यह कहते हुए लोकमान्य ने आखिरी साँस ली। स्वामी ने कहीं पर ये बातें पढ़ीं।

1920 में गांधी जी पटना आए। वहाँ मौलाना आज़ाद और कई दूसरे नेताओं के व्याख्यान सुने। आज़ाद के व्याख्यान का बहुत असर पड़ा। 5 दिसंबर को वे मौलाना मजहरुल्हुक के मकान पर गांधी जी से बात करने गए। संन्यास पर कुछ बात चली, फिर गांधी जी की राजनीति पर स्वामी ने तर्क करना शुरू किया और कहा कि खिलाफत के सवाल के हल हो जाने के बाद महम्मदअली शौकतअली मुल्क को धोखा तो नहीं देंगे? गांधी जी ने कहा - 'हम तर्क नहीं जानते, धोखा नहीं देंगे।' आरा की सभा में गांधी जी ने संन्यासी के इस वार्तालाप का जिक्र किया था। अब स्वामी ने निश्चधय किया - देश की सेवा बड़ी चीज है, मैं मुल्क की सेवा करूँगा।

राजनीतिक क्षेत्र में - स्वामी नागपुर कांग्रेस में गए। लौटकर (1921 में) बक्सर चले गए और वहीं काम शुरू किया। कांग्रेस ने कौंसिलों के बायकाट का निश्चसय किया था। हथुआ के महाराजा (जो खुद भूमिहार ब्राह्मण हैं) कौंसिल के लिए खड़े हुए। कांग्रेस के लोगों ने एक अनपढ़ धोबी को उनके खिलाफ खड़ा किया। स्वामी जी ने सभा में बोलते हुए कहा था - 'राजा-महाराजा से हमारा धोबी कहीं अच्छा है।' धोबी जीत गया। वहाँ तिलक स्वराज्य फंड के लिए चंदा जमा करने में सहायता की। कुछ लोगों ने रुपयों में गड़बड़ी की, जिसके कारण स्वामी जी का मन बिदक उठा और वे कांग्रेस का काम करने के लिए गाजीपुर चले गए।

अहमदाबाद कांग्रेस (1921) से लौटने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सजा पाकर गाजीपुर, बनारस, फैजाबाद, लखनऊ की जेलों की हवा खाते रहे। वहाँ पर भी आदर्शवादी स्वामी के हृदय में गांधी अनुयायियों की कितनी ही बातें खटकती थीं - (1) गांधी-सिद्धांत को वे दिखाने के लिए मानते थे; (2) कृपलानी, संपूर्णानन्द-जैसों का हिंदू-मुस्लिम-एकता में विश्वाथस नहीं था, तो भी वे उसका अभिनय करते थे; (3) फजूल बात के लिए जेलवालों से झगड़ते रहते; (4) जब राजनीतिक बन्दियों के डिवीजन (विभाग) का सवाल आया, तो लोगों का रुख देखकर पहले तो कह दिया - 'हम हलवा खाने जेल नहीं आए, हम चक्की चलाने आए हैं'; लेकिन जब डिवीजन कर के फैजाबाद भेज दिए गए, तब बाँदा के एक तिलक-भक्तै ने रोज आधा-सेर घी पाने के लिए भूख-हड़ताल कर दी। यह गलत बात है - इसे बहुत-से लोग मानते थे, तब भी दूसरों ने साथ दिया। खैर, हड़ताल तो टूटनी ही थी, चार दिन बाद सबने फिर खाना शुरू किया।

जनवरी (1923) में स्वामी जेल से छूट कर गाजीपुर लौट आए और कांग्रेस का काम करते रहे। अब आंदोलन शिथिल हो चला था। शिथिलता का प्रभाव स्वामी पर भी पड़ रहा था। 1924 में वे सेमरी (बिहार) चले गए और वहाँ 'कर्मकलाप' नामक पुस्तक लिखी।

अब बिहार में कांग्रेस ने कितने ही डिस्ट्रिक्ट बोर्डों को दखल कर लिया था। सरकार परस्तों के सिरमौर सर गणेशदत्त सिंह (भूमिहार) मिनिस्टर थे। स्वामी जी का प्रभाव वे जानते थे, इसलिए उनकी बहुत लल्लोचप्पो करते थे। लोग बराबर उनका कान भरा करते थे कि कायस्थ कांग्रेस के नाम पर भूमिहारों के प्रभाव को खत्म कर देना चाहते हैं। बिहार के बड़े जमींदारों में बहुत अधिक संख्या भूमिहारों की है, यह स्वामी जी जानते थे। साथ ही साथ वे यह भी जानते थे कि कांग्रेस कर्मियों में उनकी संख्या कम नहीं है। इसलिए भूमिहारों का अस्तित्व खतरे में, यह बात तो उनके मन में नहीं आती थी; लेकिन तब भी गढ़-गढ़ कर कितने ही उदाहरण उनके सामने पेश किए जाते थे। सर गणेश ने एक बार बड़े तपाक के साथ स्वामी जी के सामने कहा था - 'पहले देश, फिर बिरादरी'; लेकिन जब गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को उन्होंने कांग्रेसियों के हाथ से निकालने के लिए तोड़ दिया, तो स्वामी जी के मन पर इसका बहुत बुरा असर हुआ। सर गणेश ने बताया कि गवर्नर ने जबरदस्ती ऐसा कराया।

1926 आया। कांग्रेस ने कौंसिलों में जाना तय किया और भिन्न-भिन्न चुनाव-क्षेत्रों के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार खड़े किए जाने लगे। उस वक्तक कुछ योग्य कांग्रेस कर्मियों को ठुकरा कर दूसरों को वे स्थान दिए गए। स्वामी जी के आस-पास अब भी जात-पाँत की मनोवृत्तिवाले लोग ज्यादा रहते थे। उन्होंने कायस्थ-पक्षपात, भूमिहार-विद्वेष आदि कह कर भड़काना शुरू किया। स्वामी जी ने अन्याय के खिलाफ गांधी जी को एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा; लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। सर गणेश और बाबू रजनधारी सिंह जैसे गणमान्य नेता स्वामी जी का चरणामृत ले रहे थे। अन्त में स्वामी जी को खींचने में वे सफल हुए। एक चुनाव-क्षेत्र में स्वामी जी और इन पंक्ति्यों के लेखक दो विरोधी उम्मीदवारों के समर्थक थे। यद्यपि लेखक मानता था और जिले के अधिकांश कांग्रेस कर्मी भी समझते थे कि जिस उम्मीदवार का स्वामी जी समर्थन कर रहे हैं, उसने कांग्रेस के लिए ज्यादा काम किया है, वह ज्यादा जनप्रिय है; किंतु जब कांग्रेस ने दूसरे उम्मीदवार को खड़ा कर दिया, तो कांग्रेसियों के लिए उसका समर्थन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।

धीरे-धीरे स्वामी जी को बिलय्या भक्तों का पता लग गया। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सभापतित्व के लिए जब मेरठ के कांग्रेस-नेता चौधरी रघुवीर नारायण सिंह का नाम आया, तो उन्होंने किसी राजा-महाराजा को उस जगह बैठाना चाहा। खैर, वे इसमें सफल नहीं हुए और चौधरी साहब ही सभापति बने। गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के तोड़ने के बारे में स्वामी जी ने सर गणेश को फटकारते हुए कहा - 'अब तुम्हारे यहाँ हम फिर नहीं आएँगे।'

किसानों के नेता - भूमिहार सामंतों और जमींदारों की मनोवृत्ति को भीतर से देखकर स्वामी जी की आँखें खुलने लगीं। वह समझने लगे कि मुट्ठी-भर जमींदारों, राजा-महाराजाओं के सिवाय सबकी-सब भूमिहार जनता किसान है और इन दोनों के हित एक-दूसरे के खिलाफ हैं। भूमिहार किसानों और गरीबों के वही हित हैं, जो कि भारत के सभी किसानों और गरीबों के। इसलिए सबका उद्धार भारत के सारे किसान-वर्ग के उद्धार में ही है। अब वह पटना जिले में ज्यादा रहते थे। वहीं उन्होंने पहले-पहल भूमिहार किसानों से भूमिहार जमींदारों के अत्याचार सुने। इसके लिए 1927 के अन्त में उन्होंने पश्चिसम पटना किसान-सभा बनाई। अभी भी उनका विश्वा1स था कि परस्पर सहयोग से किसान और जमींदार का भला हो सकता है; लेकिन साथ ही वह समझते थे कि किसानों के मजबूत हुए बिना जमींदार सहयोग नहीं करेंगे। 4 मार्च, 1928 को स्वामी जी ने पश्चि म पटना किसान सभा का बाकायदा संगठन किया। एक पैसा मेम्बरी फीस रखी गई। घूम-घूम कर गाँवों में किसानों के हित पर स्वामी जी व्याख्यान देने लगे - भरतपुरा के भूमिहार जमींदार की जमींदारी के गाँवों में सभाएँ खासतौर से ज्यादा हुईं।

अगले साल तथा 1929 का भी बहुत-समय बीत गया, स्वामी जी उसी तरह अपनी धुन में लगे हुए थे। उसी साल बिहार में काश्तकारी कानून में सुधार करने की बात जोर-शोर से चलने लगी। सरकार किसानों के रुख को समझ रही थी और चाहती थी कि जिन अत्याचारों के बोझ से - नाजायज नजरानों और करों के बोझ से किसान जनता पिसी जा रही है, उन्हें कुछ कम करना चाहिए, नहीं तो यह मवाद भयंकर हो उठेगा। जमींदारों को भी अभी किसी कांग्रेसी मिनिस्टरी का तजुर्बा न था। वे समझते थे कि कांग्रेसी नेता जिन लंबी-लंबी बातों को कहते हैं, मिनिस्टर बन कर वैसा कर बैठेंगे; इसलिए चाहते थे कि सौदा सस्ते में इसी समय पटा लिया जावे। उधर किसानों के भी कुछ नामधारी प्रतिनिधि थे, जो कि कुछ मामूली सुधार कराकर अगले चुनाव के लिए अपने वास्ते रास्ता साफ करना चाहते थे। लेकिन, सरकार ने कह दिया कि जमींदारों और किसानों के समझौते से जो बिल पेश होगा, सरकार उसी का समर्थन करेगी। उस समय एक जमींदार मुखिया ने जमींदारों की ओर से एक बिल पेश किया था और कांग्रेस के भगोड़े एक दूसरे सज्जन ने किसानों की ओर से एक दूसरा बिल रखा था। मिनिस्ट्री के रस से अनभिज्ञ कांग्रेसी नेता घबड़ा रहे थे कि कहीं दोनों समझौता कर के कोई कानून न पास कर दें और श्रेय उनको मिल जावे। कांग्रेस नेता बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेंबली के स्पीकर) ने स्वामी जी के पास आकर कहा कि किसान-सभा का काम जोर से होना चाहिए और सारे प्रांत के किसानों का संगठन करना चाहिए। इससे 8 साल पहले 1921 में सोनपुर-मेला के समय इन पंक्तिकयों के लेखक ने भी कुछ कांग्रेसकर्मियों को मिलाकर एक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा कायम की थी; मगर यह बात समय से बहुत पहले की गई; इसलिए वह सिर्फ कागजी रह गई। अब स्वामी जी के किसानों में ठोस प्रचार तथा कांग्रेस-विरोधियों की चाल से भयभीत कांग्रेस-नेताओं के सहयोग से उसी सोनपुर मेले में 17 नवंबर (1929) को प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस हुई। कॉन्फ्रेंस के सभापति थे स्वामी सहजानन्द सरस्वती। उन्होंने काश्तकारी बिल के षडयंत्र की पोल खोली और उसका खूब विरोध किया। प्रांत के कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता वहाँ मौजूद थे। प्रस्ताव आया, सारे प्रांत की एक किसान-सभा बनाई जावे। बेनीपुरी ने कांग्रेस के कमजोर हो जाने की बात कह कर उसका विरोध किया, स्वामी जी ने समर्थन किया। प्रस्ताव पास हुआ। बिहार प्रान्तीय किसान-सभा का पहला चुनाव हुआ :

- सभापति - स्वामी सहजानन्द सरस्वती

- मन्त्री - बाबू श्रीकृष्ण सिंह (पीछे बिहार के मुख्यमन्त्री)

मेम्बरों में बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेंबली के स्पीकर), बाबू अनुग्रहनारायण सिंह (पीछे बिहार के अर्थ-सचिव) आदि सभी कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। ब्रजकिशोर बाबू ने यह कहकर उसमें रहना पसंद नहीं किया कि यह बहुत खतरनाक काम हो रहा है। पीछे ब्रजकिशोर बाबू की बात सच निकली, या यों कहिए दूसरे नेताओं ने अपनी क्षमता को जाने बिना ही इतना भारी जोखिम अपने सिर पर लेना चाहा।

लाहौर कांग्रेस (1930) के पहले बिहार में वल्लभ भाई पटेल आए। जगह-जगह बड़ी-बड़ी सभाएँ हुईं। स्वामी जी अपने व्याख्यानों से किसानों में नया जोश भर रहे थे। वल्लभभाई भी उसी सभा में किसानों को उत्साहित कर रहे थे। सीतामढ़ी में वल्लभ भाई ने कहा - जमींदारों की क्या जरूरत? पकड़ कर दबा दूँ तो चूर-चूर हो जाएँ। अभी बात बनाने का समय था, काम करने का नहीं, वह तो सात वर्ष बाद आनेवाला था, फिर 'वचने का दरिद्रता' मुंगेर में प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ। वहीं प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस भी हुई। कॉन्फ्रेंस ने प्रस्ताव पास किया कि राजनीतिक मामलों में किसान-सभा कांग्रेस के विरुद्ध नहीं जावेगी; किसान-सभा सरकारी काश्तकारी बिल का विरोध करती है और गवर्नमेंट को चाहिए कि उस बिल को उठा ले। पीछे सरकारी मेम्बर ने कौंसिल में यह बात कहते हुए बिल को वापस ले लिया कि किसान-सभा इसका विरोध कर रही है। किसानों के कौंसिली स्वयंभू नेता उस वक्त मुँह ताकते रह गए।

लाहौर कांग्रेस के बाद स्वतन्त्रता दिवस (26 जनवरी, 1930) आया। नमक-सत्याग्रह छिड़ा। स्वामी जी पकड़कर छह महीने के लिए हजारीबाग जेल में बंद कर दिए गए। गांधी-भक्तन नेताओं की कमजोरियाँ पहली जेलयात्रा की तरह अब अभी दिखलाई पड़ने लगीं। जरा-जरा-सी सुविधा के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते थे। स्वामी जी को बहुत शोक हुआ। अभी भी राजनीति में स्वामी जी गांधीवादी थे। उनको घोर निराशा हुई - ऐसे चरित्रहीन लोग कैसे स्वराज्य लेंगे? राजनीति से वे अब उदास हो चले। सन 1931 आया। स्वामी जी अब 42 साल के थे। अब उनका ज्ञान और तजुर्बा बहुत विस्तृत था। घर छोड़ते समय उनके सामने जो आदर्श थे, उनका स्थान एक दूसरे उच्चतर आदर्श ने ले लिया था। वैयक्तिसक मोक्ष की जगह वे अब सारी जनता को मुक्तस देखना चाहते थे। जनता में भी गरीबी और अत्याचार से अत्यन्त पीड़ित किसान ही उनके हृदय में सबसे अधिक स्थान रखते थे। वे किसानों से अलग शहरों के मुहल्लों में बैठकर किसानों का हित-चिंतन नहीं करते थे। वे गाँवों में घूमते, जहाँ कोई किसान आकर कहता - 'स्वामी जी, हमारे जुतते खेत में से छीनकर हमारे हल-बैलों को जमींदार के आदमी ने जिरात (सीर) जोतने में लगा दिया।' कोई कहता - 'हम नाजायज नजराना और रसूमों के साथ मालगुजारी हर साल बेबाक करते रहते हैं; लेकिन जमींदार रसीद नहीं देता, हमारे ऊपर सूद और तावान के साथ 4-4 साल की बाकी मालगुजारी की डिग्री करवाकर हमको तबाह कर रहा है।' कहीं वे सुनते कि गाय-भैंस न रहने से मुफ्त दूध न दे सकने पर जमींदार ने अपने आदमी से किसान की स्त्री का दूध निकलवाया। कहीं वे देखते, किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत जमींदारों के हाथ लुटते देखकर भी कानून कुछ भी मदद करने में असमर्थ है। वे संसार को सुखी देखना चाहते थे और देख रहे थे जनता की सबसे अधिक संख्या - सबसे मेहनती-समुदाय किसानों की नरक की जिंदगी भोगती। यह भावनाएँ थीं, जिन्होंने स्वामी जी को किसान-सभा तक पहुँचाया। लेकिन, वेदांती, आदर्शवाद, संन्यासियों का एकांती जीवन और उच्च सदाचार के हाथ में तराजू - ये बातें अब भी उनके दिमाग पर जबर्दस्त प्रभाव रखती थीं। इसीलिए जब उनकी अपनी पुरानी भावुक वृत्तियों पर किसी ओर से चोट पहुँचती, तो उनका कोमल भावुक हृदय तिलमिला उठता। इस तिलमिलाहट में उनका हृदय जनता की व्यथावाले भाग को भूल जाता और सिर्फ अपनी तत्कालीन चोट को लेकर पुन: 18 साल की उम्र में गाजीपुर से भागने का अभिनय करता।

1931 में बिहार में किसानों की दुर्दशा की कांग्रेस की ओर से जाँच हुई। नेताओं ने लंबे-लंबे व्याख्यान दिए। लेकिन उसके परिणामस्वरूप जो परिवर्तन करने पड़ते, उन पर बिहारी कांग्रेस-नेता जो कि खुद जमींदार थे, अभी दूर तक सोच नहीं सके थे। 1932 के आंदोलन में स्वामी जी शामिल नहीं हुए। दोस्तों ने बहुत कहा, मगर उनका भावुक हृदय हजारीबाग के जेल के दृश्य को भूल नहीं सकता था। लेकिन इसी वक्‍त दूसरी परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं और अपने हृदय के गहन कोने में छिपे स्वामी को फिर बाहर आने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ अवसरवादी लोगों ने एक और किसान-सभा बनाई। किसानों के कुछ स्वयंभू नेता कौंसिल में इस नकली किसान-सभा की मदद से फिर कोई कानून पास करवा लेना चाहते थे। इस समय कौंसिल के कांग्रेसी मेम्बर जेलों में बंद थे, यह उनके लिए सुनहरा अवसर था। इन स्वयंभू किसान-नेताओं ने - जो कि सरकार और जमींदारों के हाथ में खेल रहे थे - जमींदारों के साथ चुपके-चुपके एक समझौता भी कर डाला था और चाहते थे कि उसे उस नकली किसान-सभा से मंजूर करा लिया जावे। 1933 की जनवरी के मध्य में उक्तक किसान-सभा को बुलाने का दिन भी निश्चितत कर लिया गया। स्वामी जी ने बहुत आश्चेर्य से पत्रों में इस समाचार को पढ़ा। कुछ क्षोभ भी हुआ, मगर उन्होंने अपने को दबाया। एक किसान कार्यकर्ता स्वामी जी के पास दौड़े-दौड़े पहुँचे और खतरे की खबर देकर आगे आने के लिए कहा - 'स्वामी जी आइए, नहीं तो सारा काम चौपट हो जावेगा।' स्वामी जी ने दृढ़तापूर्वक 'नहीं' कहा। कार्यकर्ता ने बहुत तरह से समझाया, रात को देर तक गिड़गिड़ाते रहे; मगर स्वामी जी की 'नहीं' को नहीं बदल सके। किसान कार्यकर्ता को एक सख्त फोड़ा निकला हुआ था और उस पर से बुखार भी था, जिसके दर्द के मारे उनके मुँह से आह निकलती रहती थी। बीच-बीच में स्वामी जी के पास लेटे उस निस्तब्ध रात्रि में उनके मुँह से शब्द निकल आते - 'स्वामी जी नहीं चलेंगे?... चलते तो... क्या करें!' कार्यकर्ता के इन आह भरे शब्दों ने स्वामी जी को सोचने के लिए मजबूर किया। धीरे-धीरे उन्हें मालूम होने लगा कि यह आह एक किसान कार्यकर्ता की नहीं है, यह है करोड़-करोड़ पीड़ित किसानों के दिल की आह।

सवेरे बिना पूछे ही स्वामी जी ने कार्यकर्ता से कह दिया - 'मैं चलूँगा।'

गुलाब बाग (पटना) में उक्ते सभा की तैयारी थी। किसानों की सभा में राजा सूरुजपुरा और मिस्टर सच्चिदानन्द सिंह जैसों को भी बैठे देखकर स्वामी जी का माथा ठनका। सभा के संयोजकों में से एक ने बाबू गुरुसहाय लाल ने पूछा - 'यह क्या?' गुरुसहाय लाल ने जमींदारों के साथ हुए समझौते को स्वामी जी के सामने रखकर कहा - 'इसे पास हो जाना चाहिए।' स्वामी जी ने समझाना शुरू किया कि पास कराना है तो उसे चोरी-चोरी पास नहीं कराना चाहिए। प्रान्तीय किसान-सभा मौजूद है, उससे पास कराओ, दूसरी तारीख मुकर्रर करो। फिर समझौते की बात छेड़ी गई। स्वामी जी ने कहा - 'समझौता किसने किया है?' राजा साहब बोल उठे - 'यह तो कुछ दो और कुछ लो का सवाल है।' स्वामी जी ने सीधा जवाब दिया - 'हाथी के लिए एक चावल देना कुछ भी नहीं है; किंतु चींटी के लिए वह जीने-मरने का सवाल है।' गुरुसहाय लाल को स्वामी के सामने दबते देख कर मिलीभगतवाले लोगों को असंतोष हुआ। नामधारी किसान-सभा के एक नामधारी मन्त्री ने मिस्टर सिंह को धन्यवाद देने के लिए प्रस्ताव रखना चाहा। उस समय पता लगा कि सभा बुलाने में मिस्टर सिंह की उदारता सहायक हुई है। खैर, चाहे जैसे भी हो, लुक-छिप कर किसानों की सभा बुलवाई जावे, लोग स्वामी के प्रभाव, उनके तर्क और भाषण-शक्तित को जानते थे, और यह भी जानते थे कि स्वामी के विरोध करने पर कोई प्रस्ताव पास नहीं हो सकता। सिंह साहब को धन्यवाद नहीं मिला, उसका कितनों को खेद रहा। सभा में प्रस्ताव पास हुआ कि समझौते के मसौदे को छापकर बाँटा जावे और 30 मार्च को किसान-सभा की बैठक की जाय। उसी समय कौंसिल का भी अधिवेशन होनेवाला था। किसान-सभा 30 मार्च को तीसरे पहर से 10 बजे रात तक समझौते के हर पहलू पर विचार करती रही और सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ शिवशंकर झा किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं, गुरुसहाय लाल कौंसिल में जाकर बिल का विरोध करें, कोई इस तरह का कानून पास होना चाहिए। पीछे गुरुसहाय लाल को हिम्मत न हुई।

अब उस काश्तकारी बिल को लेकर सारे बिहार में वह स्मरणीय आँधी चली, जिसने सदियों से सोए किसानों की आँखों को खोल दिया। जमींदारों और सरकार के स्नेहभाजन गुरुसहाय लाल और शिवशंकर झा सभा कर के किसानों को समझाने की कोशिश करते; मगर स्वामी की सभाओं और उनके प्रचार के सामने कौन टिकता? स्वामी जी बवंडर की तरह बिहार में घूमते हुए किसानों के दिलों में आग लगा रहे थे और बतला रहे थे कि कैसे पीठ पीछे गला काटने की कोशिश की जा रही है। जमींदार उस कानून को पास कराने के लिए बहुत उत्सुक थे; क्योंकि उसमें जमींदारी में 100 एकड़ पर 10 एकड़ अपनी खास जिरात (सीर) में लाने का अधिकार दिया गया था। आंदोलन का यह फल हुआ कि उस 10 सैकड़ा जिरात वाली बात को निकाल देना पड़ा। कानून पास कर दिया गया और कुछ छोटे-मोटे अधिकार किसानों को मिले। सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि किसानों को भ्रम में नहीं डाला जा सका, स्वामी और किसान-सभा की यह पहली सफलता थी।

1934 में बिहार में भूकंप आया। कांग्रेस-नेता जेलों से छूट कर बाहर चले आए। सभी पीड़ित-सहायता के काम में लग गए। गांधी जी भी पटना आए थे। स्वामी जी ने फिर उनसे राजनीति-संबंधी कुछ सवाल पूछे, जिनका जवाब स्वामी जी को इतना असंतोषजनक मालूम हुआ कि उन्होंने वहीं गांधी जी के सामने गांधीवाद को आखिरी सलाम किया।

1927 में किसान-सभा गुमनाम तौर पर पैदा हुई। 1929 में प्रांत के बड़े-बड़े कांग्रेस-नेताओं का उसे सहयोग और आशीर्वाद मिला। अब वह 7 साल की थी। इस बीच उसका जो रूप स्पष्ट होता जा रहा था, उससे जमींदार, कांग्रेसी नेता शंकित होने लगे। तत्कालीन डिक्टेटर सत्यनारायण सिंह ने नोटिस निकाली कि किसान-आंदोलन में किसी कांग्रेसी को भाग नहीं लेना चाहिए। यह भी पता लगा कि जिस समझौते के विरोध में बिहारी किसानों की इतनी जबर्दस्त राय है, कितने ही कांग्रेसी नेता उसके पक्ष में हैं। उनकी ओर से स्वामी जी के दिल पर यह दूसरा सख्त धक्का लगा। किसान भूकंप के सर्वनाशकारी प्रभाव से एक ओर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं और एक ओर बिहार के एक जमींदार साहब अपने आदमियों के नाम से सर्कुलर निकाल रहे हैं कि जहाँ-जहाँ रिलीफ (सहायता) बँटे, वहाँ-वहाँ पहुँचे रहो और उसी वक्तह मालगुजारी वसूल कर लो। बिहार के कमिश्नकरों की बैठक में तय किया गया कि जब तक कोई भीषण अवस्था नहीं दीख पड़े तब तक किसानों को छूट-छाट देने की जरूरत नहीं। दरभंगा की जमींदारी की कितनी ही शिकायतें भेजी गईं, जिस पर गांधी जी कहते थे - गिरींद्र मोहन मिश्र (दरभंगा राज्य के सहायक मैनेजर) अच्छा आदमी है, उससे कहो, वह सभी शिकायतें दूर कर देगा। गिरींद्र मोहन कांग्रेसी माने जाते थे। गांधी जी ने यह भी कहा कि हर एक किसान अपनी शिकायतों को अलग-अलग लिख कर दे। स्वामी जी को बहुत निराशा हुई, किसानों की सभी तकलीफों के बारे में कांग्रेसी नेताओं को टालमटोल करते देखा। यहीं से उनके प्रति स्वामी जी का भाव बदल गया।

1935 में किसान-सभा-कौंसिल में जमींदारी प्रथा को उठा देने का प्रस्ताव रखा गया। स्वामी जी ने विरोध किया - अभी भी उनके दिल में जमींदारों के लिए कुछ कोमल स्थान था। स्वामी जी के विरोध करने पर भी कौंसिल ने प्रस्ताव पास कर दिया; लेकिन जब स्वामी जी हटने लगे तो लोग घबड़ा गए और प्रस्ताव को लौटा लिया गया।

इसके बाद ही अमाँवा राज्य की जमींदारी के पचास गाँवों में किसानों पर होते अत्याचारों की स्वामी जी ने जाँच की, उन्हें उन्होंने अमाँवा के राजा के सामने रखा। हटा देने का वचन मिला। मैनेजर से 3.30 घण्टा बात करने के बाद भी जवाब गोलमटोल रहा। स्वामी अनुभव को अपना गुरु मानते हैं। इन पचास गाँवों के किसानों के ऊपर होते अत्याचारों को आँख से देखकर और सुलह-समझौते के साथ उसके हटाने के लिए विफलप्रयत्ने होने के बाद उनकी समझ में आ गया कि जमींदारी प्रथा को हटाना होगा। नवंबर में हाजीपुर की प्रान्तीय कॉन्फ्रेंस में उन्होंने खुद जमींदारी प्रथा हटा देने के लिए प्रस्ताव पास कराया।

1936 में लखनऊ कांग्रेस के वक्ता पहला अखिल भारतीय किसान-सम्मेलन हुआ और स्वामी जी उसके पहले सभापति थे। यहीं किसानों का चार्टर तैयार हुआ, जिसके कारण अगले साल फैजपुर-कांग्रेस को कितनी ही बातें स्वीकार करनी पड़ीं। किसानों की जाँच का सवाल भी स्वामी जी कांग्रेस के सामने लाए। कितने ही लोग विरोध कर रहे थे। जवाहरलाल ने कहा - 'जरूर लाना चाहिए, हम इसके लिए स्वामी जी को धन्यवाद देते हैं।' लखनऊ में किसान-जाँच-कमेटी का प्रस्ताव पास हुआ। उसके अनुसार कितने ही प्रांतों में जाँच हुई। रिपोर्ट भी तैयार हुई। मगर बिहार के कांग्रेस-नेता किसान-आंदोलन को कुछ नजदीक से देख चुके थे, इसलिए वे कान में तेल डाल लेना चाहते थे। फैजापुर में फिर पूछताछ हुई, अब क्या करते? जाँच कमेटी के लिए जब स्वामी जी का भी नाम पेश किया गया, तो प्रान्तीय कार्यकारिणी के दूसरे मेम्बरों ने यह कह कर विरोध किया कि रिपोर्ट में हम एकमत चाहते हैं।

कौंसिल के नए चुनाव के लिए कांग्रेस उम्मीदवार नामजद करने लगी। प्रान्तीय नेता इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कोई किसान-पक्षी नेता न आ जावे। किशोरी प्रसन्न सिंह (हमारे कामरेड) जैसे जबर्दस्त जनप्रिय तथा कांग्रेसकर्मी के लिए कोई स्थान नहीं और उनकी जगह एक ऐसे आदमी को स्थान दिया गया, जिसने कांग्रेस में कभी कुछ नहीं किया और स्वयं जमींदार होते हुए एक बड़ी जमींदारी का मैनेजर रहा। इस अन्धे खाते को देख कर स्वामी जी ने प्रान्तीय कांग्रेस कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन, कांग्रेस चुनाव में सरकारपरस्तों से लोहा लेने जा रही थी, यह समझ कर उन्होंने अपना इस्तीफा लौटा लिया। स्वामी जी ने चुनाव के लिए खूब परिश्रम किया। कौंसिल के पुराने प्रेसीडेंट और एक बड़े जमींदार बाबू रजनधारी सिंह (भूमिहार) एक साधारण कांग्रेसकर्मी के सामने चारों खाने चित्त हो गए। ऐसे ही और भी कितने ही उदाहरण मौजूद हुए।

फैजापुर कांग्रेस के समय (1936) भारतीय किसान सभा की दूसरी कॉन्फ्रेंस हुई। अब की स्वामी जी जनरल सेक्रेटरी हुए। तब से स्वामी जी (जब कभी भारतीय किसान-सभा के सभापति नहीं हुए) जनरल सेक्रेटरी बराबर बने रहे। भारत में किसान-आंदोलन अब स्वामी जी के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। तीसरी कॉन्फ्रेंस (कुमिल्ला) के स्वामी जी सभापति हुए।

किसानों की जिन-जिन लड़ाइयों में स्वामी जी ने भाग लेकर नेतृत्व किया, उनमें से एक-एक के लिए एक-एक पोथी लिखी जा सकती है, (और वह इस लेख का विषय नहीं है) बड़हियाटाल (मुंगेर) के किसान-संघर्ष में स्वामी जी साथी कार्यानन्द की सहायता में पहुँचे रहते। दरमपुर (बिहार शरीफ) के किसानों के संकट में स्वामी जी साथ थे। सोलहंडा को लीजिए या रेवड़ा को, मझियावाँ को लीजिए या अमवारी को; सभी जगह स्वामी जी किसानों का उत्साह बढ़ाते थे। यह लड़ाइयाँ अब कांग्रेस-मिनिस्टरी के जमाने में हो रही थीं। कांग्रेस-मिनिस्टरी और कांग्रेसी बड़े नेता अब अपने असली रूप में सामने आ रहे थे। उन्होंने स्वामी जी को गिरफ्तार करा के अपने को बदनाम करना पसंद नहीं किया, लेकिन और तरह से स्वामी जी को नीचा दिखाने में कोई कसर उठा नहीं रखी। उन्हें अनुशासन के नाम पर कांग्रेस से सालों के लिए बाहर कर दिया गया। कांग्रेसी अखबार स्वामी जी के खिलाफ कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिए स्वतन्त्र थे; लेकिन स्वामी जी ने कभी इसकी परवाह न की। उन्होंने किसानों के लिए (मजदूरों के लिए) अपना जीवन अर्पण किया है। उनकी रण-गर्जना को सुन कर किसानों के दिल बल्लियों उछलने लगते और जालिम-जमींदारों के प्राण सूखने लगते हैं। वे कर्ममय हैं। साक्षात देखने पर चुप रहते समय पर उनकी आँखें बोलती मालूम होती है, गालों पर उछलती हँसी अत्याचारियों का परिहास करती है, रोएँ-रोएँ सजग हो कुछ आवाज-सी निकालते दिखाई पड़ते हैं।

महायुद्ध आया। स्वामी जी ने साम्राज्यवादी युद्ध के बारे में हर तरह के समझौते का विरोध किया। रामगढ़ में (अप्रैल 1940) दिए हुए व्याख्यान के लिए उन पर मुकदमा चलाया गया और 3 साल की सजा हुई। जिस वक्ता हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया, उसी वक्तय हर एक चीज को किसान और शोषित वर्ग के हित की दृष्टि से देखनेवाले स्वामी जी को यह समझने में देर नहीं हुई कि अब युद्ध का स्वरूप बदल गया; आज फासिस्टवाद के विजयी होने पर किसानों के लिए कोई आशा नहीं, मजदूरों के लिए कोई आशा नहीं, भारत जैसे परतन्त्र देश की स्वतन्त्रता चाहनेवाली जनता को कोई आशा नहीं। स्वामी जी ने अपने सहकर्मियों को बुला कर और दूसरे जरिए से इसे समझाया।

(मार्च 1942) में समय से कुछ पहले स्वामी जी जेल से छोड़ दिए गए। कांग्रेस के कितने ही विरोधी भाइयों ने कहना शुरू किया कि स्वामी जी सरकार को वचन दे कर छूटे हैं। स्वामी जी किसी को वचन नहीं देते - उन्होंने अपना वचन सिर्फ किसानों और भारत की शोषित जनता को दिया है, और उसे वे आखिर तक निबाहेंगे। 9 अगस्त के (1942) स्वतन्त्रता युद्ध के नाम पर जो आत्महत्या-कांड शुरू हुआ, स्वामी जी ने उसका सख्त विरोध किया; यद्यपि इसके लिए भी विरोधियों ने तिल का ताड़ बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी। किसान जानते हैं - उनका स्वामी निर्भय है, जेल क्या, मृत्यु भी उसे डरा नहीं सकती। किसान जानते हैं, उनका स्वामी निर्लोभ है, उसने चरणामृत पीनेवाले सरों और महाराजाओं को दुत्कार दिया। किसान जानते हैं, उनका स्वामी उनकी आवाज को दुनिया के सामने रखने में गजब की शक्ति रखता है। फिर वे स्वामी पर क्यों न विश्वा स करें, क्यों न न्योछावर हों? हाँ, स्वामी में दोष भी हैं - कौन नहीं जानता कि गुस्सा में वे द्वितीय दुर्वासा हैं; लेकिन दिल कितना मधुर, कितना सरल है! बिलैया दंडवतवाले कभी-कभी उसे धोखे में डाल देते हैं; लेकिन महान उद्देश्य से उसे जरा भी विचलित नहीं कर सकते। और सभी दंडौतियों को पहचानने की उसके पास एक जबर्दस्त कसौटी है। किसान और शोषित जनता के लिए जो वस्तुत: मरने-जीनेवाला है; बस वही उसका अपना रहेगा। उसका पढ़ा वेदांत और बाल की खाल निकालनेवाली पुरानी पोथियाँ अब बहुत कुछ भूल-सी गई है; मगर कभी-कभी वह अनजाने में धर दबाने का प्रयास करती है, और उस समय स्वामी जी कुछ विचलित-से दीख पड़ते हैं। लेकिन अब वह उन पोथियों के हाथ में नहीं रह गए हैं, अब वह हैं साधारण जनता के हितों के हाथ में।