हड़ताल / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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प्रान बाबू उस समय इतने जोश और ख़ुशी में थे कि उन्हें देखकर सभी लोग चकित थे, लोग उनकी हर हरकत और हर बात को चकित हो-होकर देख-सुन रहे थे। किन्तु प्रान बाबू को अपनी अस्वाभाविक हरकतों और बातों का जैसे कोई होश ही न था। वह तो अपनी ही ख़ुशी और जोश में मस्त थे। उनकी कमजोर टाँगों में जाने कहाँ की ताक़त आ गयी थी कि वह तनिक-तनिक देर में इस मेज़ से उस मेज़ और उस मेज से उस मेज़ पर तुल-तुल चलकर पहुँच जाते। बड़ी गर्मजोशी के साथ मेज़ पर बैठे हुए लोगों से हाथ मिलाते और अपनी बात शुरू कर देते। उनकी गूँगी ज़बान आज जैसे कैंची की तरह चल रही थी। उनके सूखे चेहरे पर एक अजीब रौनक़ थी और उनकी निस्तेज, गढ़ों में धँसी हुई नम आँखों में एक अजीब चमक थी।

इधर बहुत दिनों से प्रान बाबू कॉफ़ी हाउस तो आते थे, लेकिन काफ़ी न पीते थे। कोई पूछता, तो अजीब-सा दयनीय मुँह बनाकर वह कह देते, ‘‘धन्यवाद! मन नहीं कर रहा है।’’ किन्तु आज कोई पूछता, तो वह झट बड़े उत्साह के साथ हँसते हुए कहते—‘‘क्यों न पीऊँगा? ज़रूर पीऊँगा! मँगाइए! हो, तो एक सिगरेट भी दीजिए!’’

कदाचित् उनकी ख़ुशी और जोश का मज़ा लेने के लिए ही हैरत में पड़े हुए कई लोग एक साथ ही उनकी ओर अपना-अपना पैकेट बढ़ा देते। तब प्रान बाबू एक के पैकेट से एक सिगरेट निकालते हुए दूसरों को आश्वस्त करने की ग़रज़ से कहते, ‘‘इनकी पी लूँ, फिर आप लोगों की भी पीऊँगा! धन्यवाद! धन्यवाद!’’

और सिगरेट जलाकर इतने ज़ोर से कश लेने लगते, जैसे वह सिगरेट नहीं, गाँजे का दम लगा रहे हों। पाँच-सात कश में ही वह एक सिगरेट ख़ त्म कर दूसरी जला लेते। यही हाल कॉफ़ी का भी था। कॉफ़ी आते ही वह उठा लेते और उसे ऐसे ग़टक जाते, जैसे वह गर्म काफ़ी न होकर ठण्डा पानी हो। वह आज कितनी बार कॉफ़ी ग़टक चुके थे और कितनी सिगरेटें फूँक चुके थे, इसका कोई हिसाब नहीं था।

इधर बहुत दिनों से उन्होंने जैसे अपना मुँह सी रखा था। कभी किसी ने औपचारिकतावश कुशल-समाचार पूछ ही लिया, तो वह जैसे बड़ी मुश्किल से अपने मुँह का एक टाँका खोलते और सिर झुकाये हुए ही भुन-से ‘ठीक है’ कहकर तुरन्त अपने मुँह का टाँका दुरुस्त कर लेते। इसी कारण कदाचित् लोग उन पर दया करते और उनसे कोई बात न करते। लेकिन आज वह मेज़ पर आते ही लोगों की ओर हाथ बढ़ाते हुए मुँह फाडक़र बोल पड़ते, ‘‘हमारे कार्यालय में तो मुकम्मल हड़ताल हो गयी!’’

लोग हैरत से उनका मुँह ताकने लगते, तो वह हँसकर कहते, ‘‘आप लोग मेरा मुँह क्या ताक रहे हैं? मैं पक्की बात कह रहा हूँ! अपनी आँखों से ही देखकर आया हूँ!’’

‘‘तो आप अपने कार्यालय गये थे?’’—कोई पूछ लेता।

‘‘गया नहीं था, तो क्या मैं कोई झूठ बोल रहा हूँ?’’—बड़ी दबंगई से वह जवाब देते।

‘‘नहीं-नहीं,’’ कोई बात को सँभालता, ‘‘इनका मतलब यह था कि जब हड़ताल में शामिल होना ही था, तो आपको अपने कार्यालय जाने की क्या ज़रूरत थी?’’

‘‘थी क्यों नहीं?’’ पटाखे की-सी आवाज़ में प्रान बाबू बोल पड़ते, ‘‘ज़रूरत क्यों नहीं थी? हम लोग न जाते, तो ग़द्दारों का मुँह काला कौन करता?’’

‘‘अच्छा-अच्छा! तो आपके कार्यालय में भी ग़द्दार हैं क्या?’’ कोई पूछ बैठता।

‘‘ग़द्दार कहाँ नहीं हैं?’’ प्रान बाबू नाक चढ़ाकर फट पड़ते, ‘‘लेकिन हमें देखकर ग़द्दारों का साहस छूट गया। वे भाग खड़े हुए और हमारे यहाँ मुक्कमल हड़ताल हो गयी!’’

‘‘हमने तो सुना है कि आपके कार्यालय पर पुलिस ने बड़ी गिरफ़्तारियाँ की हैं,’’—कोई कहता।

‘‘हाँ,’’ प्रान बाबू तपाक से कहते—‘‘काफ़ी गिरफ़्तारियाँ हुई हैं। हमारे भ्रातृमण्डल के प्राय: सभी नेता गिरफ़्तार कर लिये गये हैं। अफ़सरों ने खुद दौड़-दौडक़र नेताओं को पहचनवाया और पुलिस से गिरफ़्तार करवाया है। लेकिन इससे क्या? हड़ताल हमारे यहाँ मुकम्मल है। कोई भी कार्यालय नहीं गया, इतना मैं ताल ठोंककर कहता हूँ! अब आप अपने कार्यालय का हाल बताइए?’’

‘‘इनके यहाँ तो हड़ताल आंशिक ही मालूम होती है,’’ कोई उनकी ओर से आँखे बचाकर बताता।

‘‘क्यों?’’ प्रान बाबू जैसे बिगडक़र पूछते, ‘‘ऐसा क्यों हुआ? आप लोगों ने ग़द्दारों को कार्यालय में क्यों घुसने दिया?’’

‘‘उन्हें पुलिस की सुरक्षा प्राप्त थी,’’—वह बताता, ‘‘इन लोगों ने ग़द्दारों को रोकने की कोशिश की, तो पुलिस ने गोलियाँ चला दीं।’’

‘‘गोलियाँ चला दीं?’’ प्रान बाबू जैसे आँखें बाहर निकाल-निकालकर पूछते।

‘‘आपको नहीं मालूम?’’ वह बताता, ‘‘शायद एक-दो आदमी मरे भी हैं, घायल तो कई हुए हैं।’’

‘‘और आप लोग यहाँ...बड़े अफ़सोस की बात है!’’ और प्रान बाबू ललकारकर कहते, ‘‘पुलिस ने अगर हमारे यहाँ गोलियाँ चलायी होतीं, तो हम...हम...अब हम आपको क्या बताएँ!’’

‘‘आप लोगों का भ्रातृमण्डल बहुत ही शक्तिशाली है,’’ वह बेचारा जैसे शर्मिन्दा होकर कहता।

‘‘लेकिन,’’ तभी कोई दूसरा कह पड़ता, ‘‘हमने तो सुना है कि इनके यहाँ कितने ही लोग छुपकर अपनी हाजि़री के दस्तखत बना रहे हैं और रात तक रजिस्टर खुला रहेगा, ताकि लोग आयें और अपनी हाजि़री के दस्तख़ त बना जायें।’’

‘‘यह झूठ है! बिल्कुल झूठ है!’’ प्रान बाबू मेज़ पर घूँसा मारकर कहते, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता! हरगिज़ नहीं हो सकता! अफ़सरों ने यह अफ़वाह हमारे भ्रातृमण्डल में फूट डालने के लिए उड़ायी होगी। लेकिन इस अफ़वाह से हमारे यहाँ कोई भी धोखा खानेवाला नहीं है! हमारा भ्रातृमण्डल चट्टान की तरह ठोस और मजबूत है!’’

‘‘हो सकता है, आप ठीक कहते हों,’’ वह कहता, ‘‘मैंने तो जो बात सुनी है, कह दी है।’’

‘‘आप लोग ऐसी अफ़वाहों से गुमराह न हों!’’ प्रान बाबू तब और भी जोश में आकर कहते, ‘‘हमारे यहाँ हड़ताल शत-प्रति-शत सफल हुई हैै और सभी जगहों पर भी हड़ताल अवश्य सफल हुई होगी। जहाँ पुलिस के ज़ुल्म से हड़ताल पूरी तरह सफल न हुई हो, वहाँ भी हम हड़ताल को सफल ही मानेंगे। आज हमारे देश के बाबू वर्ग ने जिस अद्भुत साहस का प्रदर्शन किया है, वह हमारे देश के इतिहास में अभूतपूर्व है...और मैं कहता हूँ कि क्रान्ति अब दूर नहीं है। हमारे दु:खों का अन्त निकट है। ...हुँ:! सरकार सोचती थी कि वह हमें अध्यादेशों से डरा देगी! हमें देखना है कि अब वह कितने हज़ारों-लाखों कर्मचारियों के विरुद्घ कार्रवाई करती है? कैसे हमारी माँगों को स्वीकार नहीं करती? मैं कहता हूँ कि अगर अब भी सरकार के होश ठिकाने न आये, तो फिर वह हड़ताल होगी, वह हड़ताल होगी कि सरकार का तख़्ता उलट जाएगा...

उस दिन दोपहर से रात के आठ बजे तक कॉफ़ी हाउस में प्रान बाबू की यही वक्तृताएँ गूँजती रहीं। इस बीच कितने ही लोग आये और गये, लेकिन प्रान बाबू जमे रहे, जमे रहे और अपनी ख़ुशी, जोश और वक्तृताओं से लोगों को चकित करते रहे।

प्रान बाबू कॉफ़ी हाउस आने-जानेवालों की मँझली पीढ़ी के सदस्य थे। आज कोई विश्वास नहीं करेगा, लेकिन यह बिल्कुल सच है कि एक ज़माने में प्रान बाबू को लिखने-पढऩे का शौक था और इसी नाते वह बराबर, पेशे से एक क्लर्क होते हुए भी, कॉफ़ी हाउस आते थे और साहित्यकारों, पत्रकारों और विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसरों की मेज़ों पर बैठते थे। बहसों में अधिक हिस्सा न लेते हुए भी वह उनमें गहरी दिलचस्पी रखते थे और जो बात उन्हें कहनी होती थी, उसे बड़ी निर्भीकता से स्पष्ट शब्दों में कह देते थे। वह बड़े ही सीधे, नम्र और स्पष्ट वक्ता थे, इसी कारण लोग उन्हें, उनके क्लर्क होते हुए भी, अपनी मेज़ों पर नापसन्द न करते थे।

उनकी इस ख़ूबी के कारण ही कॉफ़ी हाउस के उनके सभी मित्रों को उनके विषय में सब-कुछ ज्ञात था। उन्हें यह ज्ञात था कि प्रान बाबू अपने पेशे में कोई तरक़्की इस कारण न कर पाये, क्योंकि वह अपने पेशे को निहायत कमीना पेशा मानते थे और हमेशा इस प्रयत्न में रहते थे कि साहित्य में कुछ जम जाएँ, तो इस पेशे को लात मार दें। उन्हें यह ज्ञात था कि प्रान बाबू साहित्य में इस कारण न जम सके, क्योंकि उन्हें अपने पेशे के कारण साहित्य में काम करने का अवकाश ही न मिलता था। उन्हें यह ज्ञात था कि इसी कशमकश के बीच, पन्द्रह-बीस वर्षों में उन्होंने पाँच लड़कियाँ और दो लडक़े पैदा कर लिये और बिल्कुल टूट गये। उन्हें यह ज्ञात था कि इस टूटन के बाद प्रान बाबू क्लर्की और साहित्य, दोनों को समान रूप से गालियाँ देने लगे और साहित्य को इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि वह क्लर्की न छोड़ सके, क्योंकि उनके एक अदद बीवी और सात अदद बच्चे थे। उन्हें यह ज्ञात था कि प्रान बाबू के इस निर्णय के बाद उनके सामने केवल उनका जीवन-संघर्ष शेष रह गया और इस संघर्ष के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता थी, उसे वे ठर्रे का सेवन करके प्राप्त करने लगे थे।

उन्हें यह भी ज्ञात था कि जब ठर्रे का परिणाम बहुत बढ़ जाने से प्रान बाबू के घर की विपन्नता बहुत अधिक बढ़ गयी, तो उन्होंने ठर्रे को लात मारी और भंग के गोले का सेवन करने लगे—सस्ता और बालानशीं! उन्हें यह ज्ञात था कि इस स्थिति को पहुँचते-पहुँचते प्रान बाबू पक्के औलिया बन गये, उन्हें न तो अपने तन की सुध रही, न मन की, न कपड़े की, न जूते की, न घर की, न मित्रों की। उन्होंने अपने मुँह को सी लिया और कॉफ़ी पीना बन्द कर दिया, सिगरेट पीना बन्द कर दिया, क्योंकि अब नशे के राजा से उनकी दोस्ती हो गयी थी। उन्हें यह ज्ञात था कि फिर भी प्रान बाबू ने कॉफ़ी हाउस आना बन्द न किया। लेकिन उन्हें यह एक बात ज्ञात न हो सकी कि इस स्थिति में भी प्रान बाबू ने कॉफ़ी हाउस आना क्यों बन्द न किया था, क्यों अब उन्होंने अपने मुँह को सी लिया था, क्यों अब वह कुछ बोलते ही न थे।

ऐसे प्रान बाबू सबको चकित करके जब कॉफी हाउस से निकलकर बाहर आये, तो स्वभावत: उनकी चाल में भी अन्तर आ ही गया था। और दिनों की तरह डगमगाते हुए चलने की जगह आज वह बिल्कुल ठीक तरह चल रहे थे और तेज भी चल रहे थे। उनकी कुछ झुकी हुई पीठ आज सीधी दिखाई दे रही थी। गढ़ों में डूबी गीली-गीली आँखों की मुँदी-मुँदी-सी रहने वाली पलकें आज पूरी तरह खुली हुई थीं। उनका ठिगना क़द लम्बा-सा दिखाई दे रहा था। सिले हुए-से रहने वाले होंठ आज कुछ खुले-खुले थे और उन पर मुसकराहट भी आ-जा रही थी और वे हिल भी रहे थे। पहले सडक़ पर चलते समय वह इधर-उधर बिल्कुल न देखते थे, लेकिन आज वह जान-बूझकर अपने चारों ओर देखते हुए चल रहे थे और कोई परिचित दिखाई पड़ जाता था, तो दौडक़र उससे हाथ मिलाते थे और हड़ताल की बात करते थे, किसी-किसी के तो वह गले भी लिपट जाते थे।

यों मिलते-मिलाते प्रान बाबू बाज़ार से आगे निकल आये तो अचानक ही सुनसान, अँधेरी-सी सडक़ पर उन्हें एक धक्का-सा लगा और उन्हें अब जाकर याद आया कि आज शाम को मैंने गोला तो लिया ही नहीं! यह याद आना था कि उनके पाँव भंग की दुकान की ओर मुड़ गये। लेकिन ज़रा दूर जाकर वह ठिठक गये और कुछ सोचने लगे। उन्हें अचानक ही यह ख़ याल आया कि गोला लेने के बाद न तो मैं किसी से ठीक तरह मिल सकूँगा और न बातें ही कर सकूँगा। अभी तो मुझे अपनी बीवी से मिलना है, बच्चों से मिलना है और उनके साथ बातें करनी हैं। फिर आज गोले की ज़रूरत भी क्या है? आज तो अपने-ही-आप मन मौज में है। और उन्होंने पलटकर अपने घर की सडक़ पकड़ ली।

दो मील पैदल चलकर वह अपने घर पहुँचे थे, लेकिन उन्हें थकावट बिल्कुल न थी। उनके जोश और ख़ुशी में कोई भी कमी न आयी थी। उन्होंने पहले की तरह बेजान-से हाथों से बन्द दरवाज़े की जंजीर न बजायी बल्कि जानदार हाथों से जंजीर इतने ज़ोर से बजायी कि अन्दर उनकी पत्नी चौंक उठीं और उन्होंने पुकारकर कहा, ‘‘कौन है? बाबूजी घर पर नहीं हैं!’’

‘‘अरे भाई, दरवाज़ा खोलो!’’ —खनकती हुई-सी आवाज़ में मुसकराते हुए प्रान बाबू बोले, ‘‘मैं हूँ! दया का बाबूजी!’’

यह दया के बाबूजी ही हैं, पत्नी को आश्वस्त हो जाना चाहिए था, किन्तु ऐसा न हुआ। वह और भी चौंक उठीं। उनका माथा ठनक गया। आज यह कैसी आवाज़ है दया के बाबूजी की! कभी उनकी ऐसी आवाज़ थी, अब तो उन्हें यह भी याद न था।

उन्होंने मन-ही-मन परेशानी का अनुभव करते हुए दरवाज़ा खोला ही था कि प्रान बाबू ने उन्हें अपने अंक में भर लिया और हँसते हुए बोले, ‘‘जानेमन! हमारी हड़ताल सफल हो गयी है! अब तुम कोई चिन्ता मत करो! हमें जल्दी ही हमारी आवश्यकता के अनुकूल वेतन मिलेगा! हमें अब कोई तंगी न रहेगी!’’

पत्नी ने ज़बरदस्ती अपने को छुड़ाते हुए कहा, ‘‘छोडि़ए, यह क्या कर रहे हैं आप!’’

लेकिन प्रान बाबू ने उन्हें न छोड़ा। वह उन्हें बेतहाशा चूमने लगे।

‘‘बच्चे अभी सोये है...जाग जाएँगे...,’’ हताश पत्नी ने कहा, ‘‘छोडि़ए, मैं दरवाज़ा बन्द करूँ।’’

उन्हें छोडक़र प्रान बाबू कमरे में आ गये। कमरे में फ़र्श पर सातों लडक़े-लड़कियाँ एक क़तार में सोये हुए थे। प्रान बाबू ने एक-एक कर उन्हें बड़े ध्यान से देखा और फिर उनके सिरहाने बैठकर एक-एककर उनका सिर सहलाने लगे।

दरवाज़ा बन्द कर पत्नी कमरे में आयीं, तो उन्हें लडक़े-लड़कियों का सिर सहलाते हुए देखकर बोलीं, ‘‘यह आप क्या कर रहे है? उन्हें छोड़ दीजिए, वे जाग जाएँगे। जल्दी हाथ-मुँह धोकर खाना खा लीजिए, तो मैं भी खा-पीकर आराम करूँ। दिन-भर की थकी-हारी हूँ। आज हड़ताल थी, फिर भी आपसे न हुआ कि जल्दी घर आ जाएँ।’’

‘‘मैं खाना नहीं खाऊँगा,’’ पत्नी की ओर मुसकराकर देखते हुए प्रान बाबू बोले, ‘‘आज मैंने कई कप कॉफी पी है, बहुत-कुछ खाया भी है। पेट भरा हुआ है।’’

‘‘आपने कहाँ से खाया-पिया?’’ विश्वास न करके पत्नी ने पूछा, ‘‘आपके पास पैसा तो था नहीं!’’

हँसकर प्रान बाबू बोले, ‘‘लोगों ने खिला-पिला दिया, दया की माँ, माने ही नहीं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम जाओ, खा-पी लो।’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहे हैं न?’’ पत्नी ने फिर विश्वास न करके कहा, ‘‘खाना है, उठकर खा लीजिए!’’

‘‘नहीं, भाई, झूठ क्यों कहूँगा?’’ जेब से कुछ पैसे निकालकर पत्नी की ओर बढ़ाते हुए प्रान बाबू बोले, ‘‘ये पैसे रख लो, आज मैंने गोला भी नहीं लिया! ज़रूरत ही नहीं पड़ी...! इस तरह क्या देख रही हो? जल्दी खा-पी लो! अब मैं आराम करूँगा।’’

पत्नी रसोई की ओर चली गयीं, तो प्रान बाबू अपने उन्हीं कपड़ों में एक किनारे सबसे छोटे बच्चे के पास लेट गये और उसकी देह पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे। अब वह चाहते थे कि उनका मन स्थिर हो जाए और वह सो जाएँ। उन्होंने कोशिश भी की, लेकिन उनका मन स्थिर न हो रहा था। उन्होंने सोचा कि अगर मैं किसी काम में अपने मन को लगाऊँ, तो शायद वह स्थिर हो जाएगा। लेकिन इस समय वहाँ कौन-सा काम रखा हुआ था? वह सोचते हुए उठे और सबसे बड़े लडक़े दयानन्द के पास, जो दूसरे किनारे सोया पड़ा था, गये। उसके सिरहाने कई किताबें और कापियाँ बेतरतीब पड़ी हुई थीं। वह किताबें और कापियाँ तरतीब से रखने लगे। तभी उनकी दृष्टि एक जासूसी उपन्यास पर पड़ी। वह उसे हाथ में लेकर देखने लगे। उन्हें ग़ुस्सा आया कि लौंडा फिर जासूसी उपन्यासों में पैसा और समय बरबाद करने लगा! इसी के लिए उन्होंने कितनी बार लौंडे को डाँटा और पीटा था! लेकिन आज उनका यह ग़ुस्सा क्षणिक ही रहा। बल्कि उन्होंने एक अजीब सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से लौंडे को देखा और उपन्यास हाथ में लिये ही अपनी जगह पर आ लेटे।

वह उपन्यास खोलकर पढऩा शुरू करने वाले ही थे कि दरवाज़े से पड़ोस के कृपाल बाबू की पुकार सुनाई पड़ी, ‘‘प्रान बाबू! प्रान बाबू! प्रान बाबू, हो क्या?’’

‘‘हाँ-हाँ, कृपाल बाबू! मैं हूँ, भाई, हूँ! रुको, दरवाज़ा खोलता हूँ!’’ बड़े उत्साह के साथ उठते हुए प्रान बाबू ने ललकार कर आवाज़ दी।

उनकी इस समय ऐसी ललकार-भरी आवाज़ सुनकर कृपाल बाबू चौंक उठे। उनका तो ख़ याल था कि इस समय प्रान बाबू गोले के प्रभाव से होश-हवास खोये हुए पड़े होंगे।

प्रान बाबू ने दरवाज़ा खोला और एकदम उनसे लिपट गये, तो उनकी हालत ख़ राब हो उठी। हकलाते हुए वह बोले, ‘‘क्या बात है, प्रान बाबू, क्या बात है? आप...’’

‘‘अरे भाई!’’ उनसे लिपटे हुए ही हँसते हुए प्रान बाबू बोले, ‘‘बधाई! बधाई! हमारी हड़ताल शत-प्रतिशत सफल रही!’’

‘‘नहीं, प्रान बाबू,’’ जैसे रोकर कृपाल बाबू बोले, ‘‘हमारी हड़ताल...’’

उन्हें छोडक़र प्रान बाबू अचकचा कर बोले, ‘‘क्या कहते हो, कृपाल बाबू, सुबह हमने अपनी आँखों से ही...’’

‘‘सुबह की बात ठीक है,’’ कृपाल बाबू ने मुँह लटकाकर कहा, ‘‘लेकिन, भाई, बाद में लोग छुपकर रजिस्टर पर अपनी हाजि़री के दस्तख़ त बना आये हैं। इस समय भी दस्तख़ त बन रहे हैं। मुझे तो शाम को शंकर बाबू ने बताया कि ऐसा हो रहा है। मैंने जाकर देखा, तो शंकर बाबू की बात ठीक निकली। क्या करता, मैं भी दस्तख़ त बनाकर अभी लौटा हूँ, भाई! सोचा, पता नहीं, तुमको मालूम है कि नहीं, सो चला आया तुम्हें बताने। साहब कहते थे, रात-भर दस्तख़ त बनेंगे। भाई, तुम भी जाकर बना आओ!’’

सुनकर प्रान बाबू के दिल की धडक़न ही जैसे बन्द हो गयी। उन्हें लगा कि अभी बैठ न गये, तो गिर पड़ेंगे। वह माथे पर हाथ रखकर वहीं बैठ गये।

‘‘भाई, मुझे भी बड़ा अफ़सोस है,’’ कृपाल बाबू ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘लेकिन किया ही क्या जा सकता है? जाओ, फ़िलहाल दस्तख़ त बना आओ, फिर देखेंगे...ठीक है न?’’

प्रान बाबू को जैसे कुछ भी सुनाई न दिया। वह जवाब क्या देते?

‘‘मैंने अभी खाना नहीं खाया है, बच्चे इन्तज़ार कर रहे हैं। तो मैं चलूँ न?’’ —कृपाल बाबू ने उन पर झुककर पूछा।

फिर भी प्रान बाबू कुछ न बोले, तो वह सीधे होकर बोले, ‘‘सोच लो, भाई! लेकिन मैं तो यही कहूँगा कि अब ख़ामखाह के लिए सिर कटाने से कोई फ़ायदा न होगा!’’

कहकर कृपाल बाबू चले गये। प्रान बाबू सुन्न-से वहीं सिर पर दोनों हाथ रखे बैठे रहे।

रसोई उठा पत्नी दरवाज़े पर आयीं और उन्हें उस तरह बैठे हुए देखा, तो उन्होंने पूछा, ‘‘वहाँ क्यों बैठे हैं? कृपाल बाबू चले गये क्या?’’

उनसे कोई उत्तर न पा, पत्नी उनके पास आयीं और उनकी बाँह पकडक़र उन्हें उठाती हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ? कृपाल बाबू ने कुछ कहा है क्या? चलिए, अन्दर चलिए!’’

यह सहारा देकर उन्हें अन्दर ले आयीं और उन्हें उनकी जगह पर बैठा दिया।

दरवाज़ा बन्द करके वह लौटीं, तो प्रान बाबू लेट गये थे। वह उनसे कुछ पूछने को हुईं, लेकिन फिर यह सोचकर वह चुप रह गयीं कि यह आराम करने का समय है, सुबह देखा जाएगा। मच्छर भिन-भिना रहे थे, इसलिए उन्होंने उन्हें चादर ओढ़ा दी।

हमेशा की तरह सुबह चाय बनाकर पत्नी उन्हें जगाने आयीं। उन्होंने कई बार उन्हें पुकारा, लेकिन प्रान बाबू न तो सुगबुगाये और न ही उनमें कोई हरकत हुई। तब पत्नी ने चादर हटायी और उनकी नज़र प्रान बाबू की टँगी हुई आँखों पर पड़ी ही थी कि वह चीख मारकर गिर पड़ीं।

प्रान बाबू मर गये थे।