हनीमून / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
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हम दोनों उनसे आशीर्वाद लेने गए थे। सोनी का बहुत आग्रह था। वे सोनी की प्रिंसिपल ही नहीं, बड़ी बहन और माँ जैसी रही थीं। ऑफिस के बाहर ही नेमप्लेट लगी थी–डॉ0 (कुमारी) माधुरी अरोड़ा...सोनी ने खट–खट किया और झिझकते हुए दरवाजा खोला। मेरी तरफ देखकर मुस्कराई. बहुत धीमे से अंदर आने को कहा। वे सामने ही बैठी थीं–पढ़ने का चश्मा लगाए गौर से कोई कागज देख रही थीं। सिर उठाकर सोनी की तरफ देखा–अंधेरे से उजाले में आ जाने वाले व्यक्ति की तरह सामने वाले को पहचानने की कोशिश की। मैं पीछे था। इसलिए हाथ पर लदी मालाएँ उन्होंने नहीं देखीं। सोनी को पहचान लिया था और उसकी मांग का सिंदूर देखते ही खिल पड़ी, "अरे सोनी, आओ, आओ...बहुत मुबारक हो शादी, कब कर डाली?"

खिलकर झेंपती हुई सोनी अंदर आई और झुककर छुए. बोली, "अभी–अभी, सीधे ही रजिस्ट्रार के यहाँ से चले आ रहे हैं..."

मैंने भी बहुत आदर से झुककर प्रणाम किया, "मगर जिद किए थी। कहा कि सबसे पहले डॉ.अरोड़ा के ही यहाँ चलेंगे...वही मेरी माँ हैं..."

दोनों हाथों में चश्मे की कमानियाँ पकड़कर सामने किए हुए डॉ. अरोड़ा का चेहरा उल्लास और भावावेग से पिघलने लगा था। आँखें भीग गईं, "चलो, बहुत ही अच्छा किया...मेरी तो बहुत प्यारी बिटिया है यह। अच्छा, पहले तुम्हें मिठाई खिलाएँ...बैठो, बैठो..." हम दोनों सामने बैठ गए. उन्होंने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया। पर्स से पचास का नोट निकालकर दिया, "फटाफट बढि़या मिठाई और चाय लाओ. देखो, अपनी सोनी शादी करके आई है।"

चपरासी ने भी परिचय से मुस्कुराकर नमस्कार किया।

पचासेक वर्ष की गरिमामयी मूर्ति। निश्चय ही अपनी उम्र में खासी सुंदर रही होंगी। उनकी निश्छल खुशी कहीं मुझे भी छूने लगी। "कहाँ बेकार की जगह ले जा रही है यह सोनी'का भाव' अच्छा हुआ, हम लोग यहाँ आ गए' ने ले लिया था। थोड़ी देर तो लगा जैसे मिस अरोड़ा कहीं खो गए हैं और उनके पास बात करने को कुछ नहीं है। शायद वे अपने भावोद्वेग पर काबू पा रही थीं। मेरे बारे में सोनी उन्हें पहले ही बता चुकी थी, सलाह भी ली थी। वे चश्मे की कमानियों को यों ही खोलती बंद करती रहीं। फिर मुस्कुराकर सोनी से पूछा," तुम्हारे पापा–मम्मी की प्रतिक्रिया अब क्या होगी? वहाँ जाओगी..."

"एकदम तो नहीं...हिम्मत नहीं पड़ रही। गुस्सा कुछ ठंडा हो जाए तो सोचेंगे..." सोनी बोली। फिर वे देर तक न जाने क्या–क्या बातें करती रहीं। मैं प्रसन्न और विनम्र दर्शक की तरह सुनता रहा। शायद उन्होंने कहा था, "अरे, ये गुस्सा–वुस्सा कोई रहने वाला थोड़े ही है। कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। कहीं मांस से नाखून अलग हुए हैं...लेकिन वाकई बड़ी हिम्मत कर डाली सोनी, तुमने...पच्चीस–तीस साल पहले ज़रूर..." फिर अचानक एक बार मेरी ओर देखा। "अच्छा, अब क्या करोगी सोनी? ...मेरा मतलब तुम दोनों..."

"कुछ नहीं। अपनी–अपनी नौकरी।" सोनी की आवाज में उत्साह नहीं था।

"और हनीमून?" उन्होंने अधिकार से पूछा।

"छुट्टी ही नहीं है। न इन्हें, न मुझे..." सोनी ने बुझने का लाचार भाव दिखाया।

"अरे छुट्टी क्या होती है!" वे नाराज हो गईं।

"शादी क्या रोज–रोज होनी है? तुम लोग अपने–अपने बॉसों से बोलो न...मेरा खयाल है, कोई भी इतना इन ह्यूमन नहीं होगा...नहीं, हनीमून पर तो तुम्हें ज़रूर ही जाना चाहिए. वाह, कोई बात हुई? नौकरी तो जिंदगी–भर करनी ही है।" चश्मे की दोनों कमानियाँ एक मुट्ठी में पकड़े बाकायदा धमका रही थीं।

"अच्छा, कहाँ जाएँ?" मैं मुस्कराया, "कुल्लू, मनाली, नैनीताल, कश्मीर..."

"कहीं मत जाओ तुम लोग, बस, चहल चले जाओ" , वे धीरे–धीरे सोचती–सी बोलीं, "सच कहती हूँ सोनी, इतनी खूबसूरत जगह है, इतनी खूबसूरत जगह है, इतनी खूबसूरत जगह है कि कश्मीर–वश्मीर उसके सामने कुछ भी नहीं, है। मैं समझती हूँ कि हनीमून के लिए तो सि‍र्फ़ एक जगह है और वह है चहल। शिमला से पहले ही नाहन होकर रास्ता है और वहाँ कॉटेजें बनी हैं। अरे, वहाँ तो अलग से खास हनीमून कॉटेजें भी हैं। इतने अच्छे ढंग से सजाई हैं कि मैं तुम्हें क्या बताऊँ...रीयली टेस्टफुल...सामने खुलती हुई घाटियाँ दूर-दूर तक फैलती चली गई हैं, क्षितिज तक फैलती चली गई हैं...तरह–तरह के फूल, हरियाली, नदियों और झरनों की रेखाएँ...बिल्कुल ऐसा लगता है जैसे रुपहली जरीवाली हरी साड़ी किसी ने उतारकर लापरवाही से फेंक दी हो...पहाड़ों की तुम जानो, अपनी ही खूबसूरती होती है...कॉटेजें तो सचमुच इतनी आरामदेह हैं कि आने को तुम्हारा मन ही नहीं करेगा...एकदम प्राइवेसी...राजा–महाराजाओं जैसे, गुदगुदे, गेदार पलंग, फानूस फर्नीचर...क्या तुम्हारे ये फाइव–स्टार होटल वाले देंगे..." डॉ. अरोड़ा के सामने जैसे चहल की फ़िल्म चल रही थी, "वैसे तो किचन–विचन का भी इंतजाम है, लेकिन तुम्हें होश कहा होगा! बैरे से जो मन हो, सो सामान मंगवाकर बनवाना...शाम को कुर्सियाँ डालकर बाहर बैठोगे, धूप उतर रही होगी तो ऐसा लगेगा कि बस, स्वर्ग यही है...भाप निकलती गर्म–गर्म चाय। तुम्हारा म नहीं-नहीं होगा वहाँ से उठने का...सुबह झीनी–झीनी गुलाबी नाइटी में उठकर जब तुम परदे हटाओगी तो धूप इस तरह सारा बदन सहलायेगी...सुबह...शाम फूलों की ऐसी प्यारी खुशबू कि बस...तुम कहोगी जिंदगी–भर हम यहीं बने रहें...ऐसे माहौल में एक–दूसरे को जैसे अच्छे ढंग से समझ सकते हैं, वह यहाँ की झक–झक में बरसों नहीं हो पाएगा...वैसा सुकून यहाँ कहाँ...! तुम कहोगी, मैं कैसी बातें कर रही हूँ, लेकिन अब तो तुम्हें सुनने का हक है, न कपड़ों का होश रहेगा, न एक–दूसरे को बांहों से छोड़ने का...तुम मो वैसे भी नाजुक हो, सारे शरीर में दाग ही पड़ जाएंगे..."

मैं मुग्ध–सा उन्हें देखता रहा। आँखें बंद थी और ऐसा लगता था जैसे पलकें भीगने लगी हैं। हम दोनों ने एक–दूसरे की तरफ देखा और हल्के से मुस्कराए, "क्या आहिस्ता से उठकर चलें...?"