हमारी रसोई / सुनयना

Gadya Kosh से
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सुनयना, उम्र 22 साल। सुनयना, जन्म 1997, ‘अंकुर- कलेक्टिव ‘की नियमित रियाज़कर्ता। दक्षिणपुरी में रहती हैं।

दोपहर के तकरीबन एक बजे का समय था और गरम हवाओं के साथ मौसम कुछ नम था। ऐसी तपती दोपहर में जब काफी समय बाद घर लौटी तो पता चला कि मां घर में नहीं थी। कई महीनों बाद मैं दिल्ली लौटी थी, जहां मेरी मम्मी, पापा, भाई, बहन सब रहते हैं। घर में घुसते ही मैंने कुछ बदलाव महसूस किया।

मुझे देख दोनों छोटे भाइयों के चेहरों पर मुस्कान थी। घर का सन्नाटा भी दबे पांव बाहर निकल गया और चहल-पहल मेरे साथ दाखिल हुई। सभी आ-आकर मिल रहे थे, बातें कर रहे थे – कुछ यहां की तो कुछ वहां की, जहां मैं रहकर आई थी, पंजाब अपने गांव की। बस मां ही घर में नहीं थी जिनसे मैं ढेरों बातें करना चाहती थी। मैंने जब अपने भाइयों से पूछा तो उन्होंने बताया कि ‘मम्मी-पापा दोनों मौसी के घर गए हुये हैं, शाम तक ही लौटेंगे। तुम आओगी इसलिए हमें घर पर ही छोड़ गए, वरना हम भी उनके साथ जाते।’

उफ़्ह… मेरी वजह से इनका जाना रह गया, और तो और, इसका मतलब था कि आज का पूरा दिन मुझे ही संभालना था।

मैं सोच ही रही थी कि सबसे छोटे भाई ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा “बहुत भूख लगी है, जल्दी से कुछ खाने को दे दो।” मैंने दोनों भाइयों से कहा, ‘बस थोड़ी देर रुको, मैं कुछ बना देती हूं।’ एक लंबी सांस भरते हुये किचन का दरवाजा खोला जिसके किवाड़ आपस में भिड़े हुये थे। किवाड़ खोलकर जैसे ही सामने देखा तो गैस पर सुबह की चाय के बर्तन ज्यों के त्यों पड़े थे। कुछ चाय पिये हुये कप, चाय बनाने वाला बर्तन आदि गैस के पास ही फैले पड़े थे। चीनी, पत्ती और कुछ मसालों के डब्बे भी गैस के पास ही रखे हुये थे। रात के बर्तन भी ऐसे ही पड़े थे।

रसोईघर की यह हालत मैंने पहली बार ही देखी थी। वो भी मम्मी की गैरहाज़री में। मम्मी घर में होती है तो किचन की सारी चीजें अपनी जगह पर मुस्कुरा रही होती हैं। किचन कुछ ऐसी हालत में था जैसे सभी काम अधूरे में ही छूट गए हों।

मैं कुछ पल ठहरी फिर शांति से सोचा कि मुझे ही करना होगा। क्यों ना आज मैं किचन संभालकर देखूं। वैसे भी काफी दिन हो गए कुछ पकाए हुये। गांव में तो कुछ करना ही नहीं पड़ता था। पानी पीने के लिए फ्रिज का दरवाजा खोला तो देखा कि पानी की एक भी बोतल नहीं है। सारी खाली बोतल गैस की शेल्फ के नीचे सिलेंडर के पास बिखरी पड़ी थी। बस अपना हाथ आगे बढ़ाते हुये वहीं से शुरुआत कर दी। पानी की सभी बोतलें साफ की और पीने के पानी से भर कर ठंडी होने के लिए फ्रिज में लगा दी। सारे गंदे बर्तन साफ किए और दीवार के एक कोने पर कीलों से लटके रैक पर सजाना शुरू कर दिया। ग्लास, कटोरी, चम्मच, थाली सभी को छोटे-बड़े आकार के हिसाब से टिका दिया। फिर बड़े बर्तन सिलेंडर के पास खाली हो चुकी जगह पर एक के ऊपर एक रख दी। पहली बार मैंने किचन को अपने अनुसार सजाया था।

अब किचन बहुत ही अच्छा लग रहा था। पूरे घर के इस खास भाग में कुछ तो खास था जिसे आज मैंने पहली बार इत्मीनान से महसूस किया था। गैस की अजीब सी महक, एक कोने में रखी टोकरी से आती सब्जियों की महक, गले में धसक देते मसालों की महक, साथ ही साथ गैस पर पकने वाले खाने की महक। मैंने भाइयों के लिए खाना बनाना शुरू किया। जो अभी भी किचन के बाहर भूखे बैठे थे।

जब मसाले डालने की शुरुआत की तो मम्मी ने ना होकर भी मेरी मदद की क्योंकि मसाले के हर डिब्बों पर उनके नाम की पर्ची लगी हुई थी। जैसे चीनी के डिब्बे पर चीनी, नमक के डिब्बे पर नमक, मिर्च के डिब्बे पर मिर्च लिखा हुआ था और सभी ज़रूरत के हिसाब से ही रखे हुये थे। दालों के डिब्बे एक तरफ, मसालों के एक तरफ और चाय बनाने की सामाग्री एक साथ रखी हुई नज़र आ रही थी।

जब मैंने मसाले डालने के लिए एक के बाद एक कुछ डिब्बे खोले तो देखा सभी डिब्बों के अंदर एक छोटी चम्मच ज़रूर थी जो स्वादानुसार मात्रा के हिसाब से एक-एक चम्मच ही लेने को कह रही थी। इन सभी चीज़ों पर नज़र मारते हुये मैंने मसालों का इस्तेमाल किया और बहुत ही कम समय में दोनों भाइयो के लिए बिना किसी परेशानी के खाना बना लिया। गरम-गरम पुलाव के साथ जब मैंने प्लेट भाइयों के सामने रखी तो उसकी खुशबू को अपनी सांसो में भरते हुये दोनों खुश हो गए, जो उनके चेहरे से साफ झलक रहा था।

दो चार चम्मच खाकर एक भाई ने सी… सी… करते हुये पानी मांगा और पानी पीकर एकदम से कहा बहुत तीखा है। शुरुआत के दो चार चम्मचों में जैसे भूख की वजह से ये तीखापन गायब हो गया था। तीखा कम करने के लिए मैंने एक चम्मच देसी घी डाल दी। जिससे कुछ राहत मिली। दूसरा भाई खूब मजे से खाते हुये कहने लगा, यह बहुत स्वादिष्ट है।

हमारे किचन में सभी चीजें ऐसे खास तरीके से लगी होती है की किसी अनजान को भी वहां काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती।