हम सोये ही हुए हैं! / ओशो

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प्रवचनमाला

स्‍‌मरण रहे कि मैं मूर्छा को ही पाप कहता हूं। अमूर्च्छित चित्त-दशा में पाप वैसे ही असंभव है, जैसे कि जानते और जागते हुए अग्‍ि‌न में हाथ डालना। जो अमूच्‍‌र्छा को साध लेता है, वह सहज ही धर्म को उपलब्‍‌ध हो जाता है।

संत भीखण के जीवन की घटना है। वे एक रात्रि प्रवचन करते थे। आसोजी नाम का एक श्रावक सामने बैठा नींद ले रहा था। भीखण ने उससे पूछा- ‘‘आसोजी! नींद लेते हो?’’

आसोजी ने आंखें खोलीं और कहा- ‘‘नहीं महाराज!’’

थोड़ी देर और नींद फिर वापस लौट आई। भीखणजी ने फिर पूछा- ‘‘आासोजी सोते हो?’’

फिर मिला वही उत्तर- ‘‘नहीं महाराज।‘’ नींद में डूबा आदमी सच कब बोलता है!

और, बोलना भी चाहे तो बोल कैसे सकता है! नींद फिर से आ गई। इस बार भीखण ने जो पूछा वह अद्भुत था। बहुत उसमें अर्थ है। प्रत्‍‌येक को स्‍‌वयं से पूछने योग्‍‌य वह प्रश्‍‌न है।

वह अकेला प्रश्‍‌न ही बस, सारे तत्‍‌व-चिंतन का केंद्र और मूल है।

उन्‍‌होंने जोर से पूछा- ‘‘आसोजी! जीते हो?’’ आसोजी तो सोते थे। निद्रा में सोचा कि वही पुराना प्रश्‍‌न है।

फिर नींद में ‘‘जीते हो’’, ‘‘ सोते हो’’ जैसा ही सुनाई दिया होगा!

आंखें तिलमिलाई और बोले- ‘‘नहीं महाराज!’’ भूल से सही उत्तर निकल गया। निद्र में जो है, वह मृत ही के तुल्‍‌य है।

प्रमादपूर्ण जीवन और मृत्‍‌यु में अंतर ही क्‍‌या हो सकता है? जाग्रत ही जीवित है। जब तक हम जागते नहीं हैं- विवेक और प्रज्ञा में, तब तक हम जीवित भी नहीं हैं।

जो जीवन को पाना चाहता है, उसे अपनी निद्रा और मूच्‍‌र्छा छोड़नी होगी। साधारणत: हम सोये ही हुए हैं। और, हमारे भाव, विचार और कर्म सभी मूच्‍ि‌र्छत हैं। हम उन्‍‌हें ऐसे कर रहे हैं, जैसे कि कोई और हमसे कराता हो और जैसे कि हम किसी गहरे सम्‍‌मोहन में उन्‍‌हें कर रहे हों। जागने का अर्थ है कि मन और काया से कुछ भी मूच्‍ि‌र्छत न हो- जो भी हो, वह पूरी जागरूकता और सजगता में हो। ऐसा होने पर अशुभ असंभव हो जाता है और शुभ सहज ही फलित होता है।


‘’(सौजन्‍‌य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)