हरसिंगार / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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गोविन्द ने जल्दी से वह बही खोली, और उसके पन्ने उलटने लगा। पर दो-ही-तीन पन्ने उलटकर उसने देखा, एक पन्ने से कुछ चिपका हुआ है, जिसे उसने यत्न से उतारा और हाथ पैर फैलाकर देखने लगा।

बहुत-से फूल एक-दूसरे में पिरो कर एक लड़ी-सी बनाई गयी थी, और उसके अन्तिम फूल जोड़कर उसकी माला पूरी कर दी गयी थी। यही न जाने कब से उस पुरानी बही में दबी हुई थी, और सूखकर पीली-सी झुरझुरी हो गयी थी; किन्तु आज भी प्रत्येक फूल अलग-अलग दीख रहा था।

गोविन्द हड़बड़ाया हुआ-सा भीतर आया था। हड़बड़ाये हुए ही उसने बही खोली थी। पर अपने हाथ में अतीत की इस थोड़ी-सी धूल को लेकर वह सब-कुछ भूल गया; शान्त-सा स्तब्ध-सा होकर आलमारी के पास पड़े हुए स्टूल पर बैठ गया और एक हाथ में बही, दूसरे में वह माला लेकर कभी एक की, कभी दूसरे की ओर देखने लगा।

उसकी आँखें न जाने क्यों बही में दर्ज हुई एक संख्या पर अटक गयीं। उसने पढ़ा ‘गुप्तदान-3)’ और इसके साथ ही उसकी स्मृति ने एक वाक्य जोड़ा, ‘नहीं, नाम की क्या ज़रूरत है?’

कहाँ सुने थे उसने ये शब्द? कभी कहीं अवश्य, नहीं तो क्यों वह बाढ़ की तरह एकाएक उसके मन में आये?

शायद बहुत बार सुने हैं-पर नहीं, उस खास लहजे में उस विशेष झिझक-भरे से काँपते स्वर में एक ही बार... एक ही बार...

और मन में धीरे-धीरे ये शब्द ‘एक ही बार... एक ही बार’ दुहराता गोविन्द उस सूखी माला की ओर देखने लगा। फूल। सूखे फूल। माला में गुँथे हुए। ‘नहीं, नाम की क्या जरूरत है?’ ‘गुप्तदान-3)’, फूलों की माला। हरसिंगार के फूल।

हरसिंगार...

गोविन्द के हाथ से बही छूटकर गिर पड़ी। माला भी गिर जाती-अगर वह इतनी हल्की न होती, और अगर पसीने से गोविन्द के हाथ से चिपकी हुई न होती। गोविन्द मानो उन्हें और अपने-आपको भूल गया; शून्य दृष्टि से सामने की सूनी मैली दीवार को देखता हुआ, स्वयं एक सजीव स्मृति बना हुआ, कुछ देखने लगा।

बीस वर्ष पूर्व...

गुमटी बाजार की गन्दी गलियों में से होती हुई वह मंडली धीरे-धीरे बाहर निकल आयी थी, और अब लाहौर शहर की दीवार के बाहर की बस्ती में होती हुई चली जा रही थी। जिस गली में से होकर वे जा रहे थे, उसमें साधारण मध्यम श्रेणी के लोग रहते थे-जिनके पास घर नहीं, रिहाइश है; धन नहीं, गृहस्थी है; जो विद्वान नहीं पढ़े-लिखे हैं; संस्कृत नहीं, शरीफ़ हैं। जो संसार की गति में सबसे बड़े विघ्न हैं, किन्तु जो दुनिया की हस्ती को बनाये हुए हैं और क़ायम रखते हैं। उस मंडली के चारों व्यक्तियों को इस श्रेणी के लोगों का कुछ भी अनुभव नहीं था-वे अनाथालय में पले हुए अनपढ़ भिखमंगे इनके बारे में इससे अधिक क्या जानते कि इन्हीं के छोटे-छोटे दान पर उनका अनाथालय चलता था, इन्हीं की दया पर उनकी रोटी का आसरा था? -पर फिर भी, इस मुहल्ले में प्रवेश करते हुए वे चारों एक स्थान पर रुक गये और एक-दूसरे की ओर देखने लगे। सबकी आँखों में एक ही प्रश्न था, पर कुछ देर तक कोई भी कुछ न बोला, सब देखते ही रहे।

हाँ, सिवाय एक के जो अन्धा था। वह देख नहीं सकता था, फिर भी उसकी नेत्रहीन आँखें उसके तीन साथियों की ओर लगी हुई थीं, और अन्धों की छठी इन्द्रिय सहज-बुद्धि से जान गयी थी कि किसी सभ्यता के क़िले, मध्यम श्रेणी के मुहल्ले में प्रवेश किया जानेवाला है। उसने अपने गले में एक मैली पगड़ी से बाँध कर टाँगा हुआ हारमोनियम अपने मैले हाथों से उठाकर, शून्य की ओर उन्मुख होकर कहा - “गोविन्दा, ज़रा मेरे कोट का कालर ठीक कर दे। सब सिमट आया है और चुभता है।”

उसके साथियों में से एक ने आगे बढ़कर उसका कोट थामते हुए कहा - “सूरदास बड़े हैं, पर वन-सँवरकर चलेंगे! ज़रा मेरा भी हाल देखो, जिसके पास कोट है ही नहीं!” कहते हुए उसने सूरदास का कोट ठीक कर दिया।

गोविन्द के शरीर पर वास्तव में कोट नहीं था। उसने अनाथालय के पीले रंग की मोटे खद्दर की कमीज़ और ऊँची धोती पहन रखी थी, और कुछ नहीं। पैर में जूता नहीं था, तलवों में फटी हुई बिवाइयाँ इतनी ऊपर तक आयी हुई थीं कि भूमि पर पड़े हुए पैर में भी दीख जाती थीं और पैरों के ऊपर, एड़ी तक, एक काली पपड़ी जमी हुई थी। सिर पर भी कुछ नहीं था, लेकिन बड़े-बड़े और उलझे हुए बालों में कोई बदबूदार तेल प्रचुर मात्रा में लगाया था, इतना कि वह माथे, गालों और कानों पर बह आया था; और बालों को बिना कंघी के, हाथ से चीरकर बिठाने की कोशिश की गयी थी। इसीलिए तो, माथे के दायीं ओर उलझे हुए बालों का एक बड़ा-सा गुच्छा आगे लटक रहा था और दाहिनी भौंह के ऊपर के किसी पुराने घाव के दाग़ को आधा छिपा रहा था। उसकी भवें, जो पहले ही से कुछ ऐसी थीं मानो पहले ऊपर उठने लगी हों और फिर राह भूलकर इधर-उधर हो गयी हों, इस घाव के कारण और भी विचित्र मालूम पड़ती थीं। पर उसका अंडाकार चेहरा और कमान की तरह खिंचे ओठ, जिनके कोने कभी-कभी काँप-से उठते थे, देखकर जान पड़ता था कि उसमें भावुकता की मात्रा ज़रूरत से अधिक है - इतनी जितनी अनाथालय में रहनेवाले लड़के की नहीं होनी चाहिए। और उसकी आँखें, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण, आतुरता और प्यास को व्यक्त करनेवाली-कुछ जानने को उत्सुक-सी, इस भावना को पुष्ट ही करती थीं। गोविन्द की बात सुनकर तीसरे लड़के ने कहा - “कोट नहीं तो क्या हुआ, ठाठ तो पूरे हैं!”

सूरदास हँसने लगा। बोला, “ठीक कहा, ‘हरि!”

हरि भी अपने घुँघराले बालों में उँगलियाँ फेरता हुआ, अपने बड़े-बड़े ओठ खोलकर हँसने लगा। उसकी छोटी-सी, चपटी-सी, किन्तु नोक के पास कुछ उठी हुई नाक और ऊपर उठ गयी, उसकी तीखी और चमकती हुई आँखें कुछ और चमकने लगीं।

हरि ने, और चौथे लड़के ने भी, अनाथालय की वर्दी-पीली धोती और पीला कुरता-पहन रखी थी। लेकिन दोनों के पैरों में जूता था, यद्यपि टूटा हुआ; हरि गले में एक बड़े-बड़े दानोंवाली रुद्राक्ष की माला पहने हुए था, और चौथे ने एक पुरानी, इकहरी खद्दर की टोपी से अपनी तीन तरफ़ से पिचकी और चौथी तरफ से फफोले की तरह उभरी हुई खोपड़ी को भूषित कर रखा था। उसकी टोपी विशेष सफ़ेद नहीं थी, लेकिन उसकी धँसी हुई छोटी-छोटी आँखें और फाड़कर बनाये हुए मुँह वाले साँवले बेवकूफ़ चेहरे के ऊपर वह मानो दर्शक की आँखों में चुभती थीं। इस व्यक्ति के हाथ में एक चन्दे की बही और कुछ काग़ज़ थे, जिन्हें वह लपेटकर डंडे की तरह थामे हुए थे।

क्षण-भर के मौन के बाद, सूरदास ने पूछा - “यहाँ क्या गाएँगे?”

हरि और गोविन्द ने एक साथ ही मुस्कराकर कहा - “घोंघे से पूछो। क्यों वे घोंघे, क्या गाएँ?”

‘घोंघा’ अपना घोंघा-सा मुँह उनकी ओर फिराकर तनिक हँस दिया, बोला नहीं।

सूरदास ने पूछा, “‘प्रभो डूबतों का’ की तर्ज़ याद है न?” और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये, मुँह उठाकर जल्दी-जल्दी हारमोनियम की धौंकनी चलाते हुए बजाने लगा। मंडली मुहल्ले की ओर चल पड़ी। उस तीखी समवेत आवाज़ से मुहल्ले की पुरानी खिड़कियों के चौखट गूँज उठे, उस आवाज़ से बच भागना मुश्किल जान पड़ने लगा, ऐसे हूल-हूलकर, प्राणी को घेर-घेरकर वह फैलने लगी-

प्रभो, डूबतों का तुही है सहारा-

सिवा तेरे दूजा नहीं है हमारा!

गली के मोड़ तक, केवल उन्हीं का स्वर मुहल्ले पर अखंड शासन कर रहा था, पर मोड़ पर आते ही उस मंडली को सुन पड़ा, आगे कहीं ढोल बज रहा है और कोई बड़ी पतली और तीखी आवाज़ में ढोल के साथ गा रहा है, ‘मंजनू हौके मारदा, लैला ओ गम दे बिच्च; मजनूँ हौके मारदा...”

मंडली ने देखा, गली में नट का तमाशा हो रहा है, और लड़के-लड़कियों की भीड़ से गली भी बन्द हो रही है। वे भी चुप होकर देखने लगे-उन्हें मनोरंजन की सामग्री कभी नहीं मिली थी, लेकिन उससे क्या उनकी चाह मर गयी थी? अभी, क्षण-भर तक वे स्वयं नाथ हैं, क्षण-भर बाद, जब अनाथ हो जाएँगे, तब पुकारेंगे कृष्ण को और माँगेंगे भीख-दुहाई देंगे हिन्दू धर्म की...

नट एक खेल दिखाने के बाद दूसरे की तैयारी करने लगा, और उसके साथ का वह अनवरत तीखा गान भी थोड़ी देर के लिए रुक गया, तब अनाथ मंडली ने एकाएक फेफड़ों की पूरी शक्ति लगाकर गाना शुरू किया-

तुझे ना सुनाऊँ तो किसको सुनाऊँ?

सुना, डूबतों का तुही है सहारा!

जब प्रतिद्वन्द्वियों की इस मंडली को देखकर नट ने और उसके साथ के लड़के ने मिलकर ऊँचे स्वर से आलाप आरम्भ किया, तब इन्हें भी जोश आया, इनका स्वर भी अधिक तीखा हुआ, और सूरदास तो हारमोनियम पर इस प्रकार पटक-पटककर हाथ चलाने लगा कि उसका ‘खट्-खट्’ स्वर मानो तबले का काम करने लगा... तभी, एक घर में से एक लड़का बाहर निकला और गोविन्द के पास आकर कहने लगा, ‘भाई-तुम ऊपर आकर गाना सुनाओ।” गोविन्द उस प्रतियोगिता में इतना तन्मय था कि जब लड़के ने अपनी बात दुहरायी और सूरदास ने डपटककर कहा, “सुनता नहीं है?” तभी उसने समझा कि उसे क्या कहा जा रहा है।

मंडली उस लड़के के पीछे-पीछे ऊपर चली गयी। ऊपर पहुँचते ही किसी पुरुष के भारी-से स्वर ने कहा - “यहाँ बैठ जाइए, चटाई पर।” हरि और घोंघा बैठ गये, और गोविन्द ने सूरदास से कहा, “सूरा, यह चटाई है, बैठो!” और हाथ पकड़कर उसे बिठा दिया।

उसी भारी-से स्वर वाले व्यक्ति ने कहा - “कोई अच्छा-सा भजन सुनाओ।”

हरि ने उँगली सूरदास की पसली में गड़ाकर इशारा किया कि वह चुना हुआ भजन हारमोनियम पर आरम्भ करे। सूरदास कुछ सोचता हुआ-सा हारमोनियम पर उँगलियाँ फेरने लगा।

इस अरसे में गोविन्द ने कमरे की वस्तुओं और उसमें बैठे हुए व्यक्तियों को देख लिया।

मंडली दरवाज़े के पास ही चटाई पर बैठी थी। उनके सामने की ओर, चारपाई पर एक लड़की कम्बल ओढ़े लेटी हुई थी। उसकी मुद्रा से जान पड़ता था, वह बहुत दिनों की रोगिणी है, और जिस स्थिर, अपलक किन्तु औत्सुक्यशून्य दृष्टि से, वह मंडली की ओर देख रही थी, उससे उसके भविष्य के बारे में आशा का भाव नहीं होता था। उसके पैताने एक प्रौढ़ा स्त्री-शायद उसकी माँ, बैठी थी, और सिरहाने से कुछ हटकर, आरामकुर्सी पर वही व्यक्ति, जिसके भारी-से स्वर ने उन्हें बैठने को कहा था। गोविन्द की दायीं ओर, दीवार के सहारे दो युवतियाँ खड़ी थीं, जो आकृति से रोगिणी की बहिनें जान पड़ती थीं।

ऊपर दीवार पर, विभिन्न मुद्राओं में कृष्ण के तीन-चार चित्र टँगे थे, सूत का एक बड़ा-सा लच्छा टँगा हुआ था, और उसके सामने एक अधमैला गीला तौलिया! खिड़की के चौखटे में एक कंघी, शीशा, साबुन, मंजन की डिबिया, एक पत्थर का गिलास और दवाई की दो-एक शीशियाँ पड़ी थीं।

एक बार यह सारा दृश्य देखकर गोविन्द की दृष्टि दुबारा रोगिणी के कम्बल से उठती हुई धीरे-धीरे उसके मुख की ओर जा रही थी। धीरे-धीरे डरते-डरते, सशंक कि कोई देख न ले... वह ठोड़ी तक पहुँची थी, कि सूरदास ने एकाएक गाना आरम्भ कर दिया, उसका ध्यान लौटकर भजन की ओर गया, और वह भी एक गहरी साँस भरकर गाने लगा-

अपना पता बता दे ओ बेनिशान वाले!

तू किस जगह निहाँ है...

पर गाते-गाते उसे अवसर मिला इधर-उधर देखने का, तो वह न जाने क्यों अपने ही साथियों की ओर देखने लगा। और देखने लगा एक नयी दृष्टि से, जिसमें एक नयी और गहरी आलोचना थी, और था एक अपरिचय का-सा भाव...

गोविन्द ने देखा, हरि बीच-बीच में आँख चुराकर दीवार के पास खड़ी दोनों युवतियों की ओर देख लेता था, और तब तक देखता रहता था जब तक कि, इस आशंका से कि वे उसकी ओर देख न लें, उसे अपनी दृष्टि हटानी पड़ जाती थी। और घोंघा बिलकुल अपलक दृष्टि से उनकी ओर देख रहा था, उसकी आँखों में कुछ भी भाव नहीं था, वे थीं किसी समुद्री जन्तु की आँखों की तरह खुली-खुली, बर्फ़-सी पथरायी हुई, किन्तु चमकदार...

गोविन्द की दृष्टि फिर उस रोगिणी की ओर गयी। उसने अब की बार देखा, उसके सिरहाने के पास कुछ-एक फूल पड़े थे। और वह कभी-कभी आँख उठाकर उनकी ओर देख लेती थी। और फिर इस मंडली की ओर, या फिर शून्य की ओर देखने लग जाती थी।

तभी गाना समाप्त हो गया और गोविन्द की दृष्टि फिर सिमट गयी, अपनी चटाई के कुछ आगे के फ़र्श तक जाकर रुक गयी।

एक युवती ने कहा - “पिताजी, इनको कहिए, कोई अच्छा-सा भजन सुनाएँ। ये तो हमारे सुने हुए हैं।”

पिता ने मंडली की ओर देखकर कहा - “हाँ, भाई, कुछ और सुनाओ!”

गोविन्द को एकाएक लगा, उसने अपने पाँच वर्ष के अनाथ जीवन में जो कुछ सीखा सब व्यर्थ, रद्दी, छिछोरा है - “ये तो हमारे हुए हैं!” वह टटोलने लगा अपने जीवन को, खोजने लगा कि क्या है उसमें, जो इतना सस्ता नहीं हो गया है, जो कि ‘सुना हुआ’ नहीं है, जिसका आदर है, कुछ मूल्य है...

कुछ नहीं...

उसने फिर अपने साथियों की ओर देखा-क्या उनके मन में भी कुछ ऐसा ही बोल रहा है? घोंघे के मन में? गोविन्द का अन्तर एक बड़ी उपहासपूर्ण हँसी से भर उठा - जिसके बाद आयी एक आत्मग्लानि की लहर-इसी व्यक्ति के साथ मैं इतने वर्षों तक रहता आया हूँ, सख्य का बर्ताव रखता आया हूँ - इस मिट्टी के लोंदे के साथ! हरि के मन में? शायद... पर उसके मन में शायद और ही कोई भाव है-वह क्यों ऐसे उन युवतियों की ओर देख रहा है? गोविन्द को याद आया अनाथालय में पढ़ते-पढ़ते लड़के-जिनमें वह भी था, वह भी! - अपनी स्लेटों पर स्त्रियों के शरीर के कल्पनात्मक चित्र (देखे कब थे उन्होंने स्त्रियों के शरीर?) बना-बनाकर उन पर भद्दे-भद्दे वाक्य लिखकर, मास्टर की आँख बचा-बचाकर एक-दूसरे को दिया करते थे... हरि की दृष्टि को देखते हुए, गोविन्द को वे सब वाक्य याद आ गये, और वह रोगिणी की ओर देखता हुआ सोचने लगा कि कैसे वह इसमें भाग ले सकता था, कैसे वह इन सब पशुओं में एक होकर रह सकता था...

देर होती जा रही थी, और गाना आरम्भ नहीं हुआ था। तीनों व्यक्ति अब सूरदास की ओर देखने लगे थे। गोविन्द सोचने लगा, “इस समय मैं ही भजन बना सकता, तो क्या ऐसा भजन नहीं बना सकता, जो नया होता, अभूतपूर्व? जो ‘सुना हुआ’ की श्रेणी में न आ पाता, आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं, इतना अभूतपूर्व होता वह...

आखिर सूरदास ने गाना आरम्भ किया :

कोई तुझ-सा ग़रीब-नवाज़ नहीं,

तेरे दर के सिवा कोई दर न मिला।

पर गोविन्द को लगा, यह गाना, जो उसने अनाथालय के बाहर कभी नहीं गाया था, वहीं अभ्यास के लिए गाया था, यह गाना भी पुराना है, सड़ा हुआ है, क्योंकि पराया है, उसका बनाया नहीं है, उसके हृदय का अभिन्न निचोड़ नहीं है... वह गा नहीं सका। उसने घोंघे के हाथ से काग़ज़ वगैरह ले लिये, और जेब से एक घिसा हुआ पेंसिल का टुकड़ा निकालकर चन्दे की कॉपी के अंक जोड़ने लगा...

पर उसमें मन कैसे लगता? उसके मन में आयी एक अशान्ति, जो हटाये नहीं हटी। उसे लगा, उसके जीवन में अब तक कुछ नहीं हुआ। जो कुछ है, उसके जीवन के बाहर ही है, बाहर ही रहेगा। वह सोचने लगा, वह माँ के मरने पर अनाथ नहीं हुआ, बाप के मरने पर नहीं, समाज से निकलकर नहीं पर, अनाथालय में आकर वह अनाथ हो गया, क्योंकि वहाँ आकर स्वयं उसकी आत्मा मर गयी उसे अकेला छोड़कर... अब वह क्या है? बहुत-सी निरर्थक मशीनों को चलता रखने के साधन बटोरनेवाली एक बड़ी मशीन का निरर्थक पुर्जा... भोजन उतना पाओ कि जीते रह सको, जियो ऐसे कि भोजन पाने में समर्थ हो सको; चन्दा माँगो कि पढ़-लिख सको; पहन सको; पहनो ऐसा कि चन्दा माँगने में सहायक हो... व्यक्ति में समाज का, समाज में व्यक्ति का, धर्म में दोनों का और धर्म का दोनों में विश्वास बनाए रखने के लिए, कीड़े बनकर आओ और कीड़े बन कर रहो...

गोविन्द का विचार फिर रुक गया, सामने पड़ी रोगिणी की ओर देखकर। क्या ये भी उन्हीं में से है, जो हमें कीड़ा बनाए रखने के उत्तरदायी हैं?

ये शायद हमें कुछ चन्दा देंगे। और, औरों की तरह अपने से और संसार से सन्तुष्ट होकर और रुपया बटोरने लग जाएँगे। औरों में और इनमें क्या भेद है? कुछ नहीं, कुछ नहीं...

पर उसकी आत्मा नहीं मानी, नहीं मानी। विद्रोह करके कहने लगी, यही तो तुम्हें कीड़े से कुछ अधिक बनाने के साधन हैं...

गाना समाप्त हो गया। तभी, रोगिणी के पैताने बैठी हुई स्त्री ने उठकर रोगिणी के सिरहाने के नीचे से दो रुपये निकाले और बोली - “बेटी, इन्हें छू दे। इनको देने हैं।”

बेटी ने कम्बल के भीतर से एक क्षीण उँगली निकालकर उन्हें छू दिया।

पिता की भारी-सी आवाज़ ने कहा - “लो भई, यह हमारी ओर से - और चुप हो गये। माँ ने हाथ बढ़ा दिया।

गोविन्द ने उठकर रुपये थामते हुए पूछा - “रसीद में क्या नाम लिखूँ?”

कोई उत्तर नहीं मिला। उसने रसीद बनाकर फिर पूछा, “नाम बता दीजिए तो”

“नहीं, नाम की क्या ज़रूरत?”

‘गुप्तदान-3)’... रसीद देकर क्षण-भर गोविन्द कुछ नहीं कर सका, न उसके साथी ही हिले-यद्यपि यह तो सभी जानते थे कि अब उठकर बाहर जाना ही है - सड़क पर, गलियों में, माँगते हुए...

आगे-आगे सूरदास का हाथ थामे घोंघा, फिर हरि और फिर गोविन्द, सीढ़ी उतरने लगे। गोविन्द को लग रहा था कि वह कहीं से उठकर आया है, और ऐसे ही नहीं जा सकता। कुछ अभी होना चाहिए, कोई घटना घटनी चाहिए...

गोविन्द ने सुना, रोगिणी अस्पष्ट स्वर में कुछ कह रही है, और तभी बड़ी युवती ने पुकारकर कहा - “यह भी ले जाओ।”

गोविन्द ने लौटकर देखा। वही हरसिंगार की माला उसे दी जा रही थी। उसने उसे लेते हुए युवती के मुख की ओर देखा, फिर सबकी ओर, फिर रोगिणी की ओर, और उतर गया।

तब अभी नट का साथी गा रहा था, “मजनूं हौके मारदा लैला दे ओ गम दे बिच्च; मजनूं हौके मारदा...”

गोविन्द के मन में प्रतियोगिता का भाव नहीं उठा। उसे लगा, वह स्वर बड़ा मधुर है, वह भाव बहुत सत्य, बहुत महत्त्वपूर्ण - ‘मजनूं हौके मारदा लैला दे ओ गम दे विच्च’ वह भी तो किसी कमी का द्योतक है।

वहाँ से सड़क पर। गलियों में। माँगते हुए। पर क्या माँगते हुए? पैसा ? दान? दया? शिक्षा? माँगते हुए तृप्ति, माँगते हुए अनुभूति, माँगते हुए जीवन... जो सड़क पर, गलियों में नहीं मिलता, जो मिलता है - कहाँ मिलता है?

बस इतना ही तो! बीस साल बाद, याद करने को, इतनी-सी एक बात!

पर गोविन्द को याद आया, वह इतनी-सी बात नहीं थी। जो बात सारे अस्तित्व को, सारे संसार को बदल दे चाहे क्षण-भर के लिए ही, वह कैसे क्षुद्र हो सकती है!

सड़क पर आकर जब गोविन्द का ध्यान अपने साथियों की ओर गया, तब वे उसकी इस अन्यमनस्कता पर आलोचना कर रहे थे। और उस अन्तिम उपहार पर, जो उसे मिला था। वे आलोचनाएँ क्या थीं, गोविन्द अपने मन के सामने नहीं आने देगा-यद्यपि इस समय भी वे भोंड़ी छुरी की तरह चुभती हैं उसके मन में...

गोविन्द चाहता था, उन्हें पकड़-पकड़कर पीट डाले, जो बातें वह स्वयं नित्य कहा करता था, वही कहने के लिए उन्हें घोंट-घोंटकर मार डाले। उसके भीतर एक शान्ति थी, जो इतने दिनों के निरर्थक जीवन को सफल किये दे रही थी; उसके भीतर एक अशान्ति थी, जो इतने दिनों से जमे हुए जीवन के प्रति स्वीकृति का भाव नष्ट किये डालती थी।

वह चाहता था, एकदम इन सबके जीवन से निकल जाये, इन्हें अपने जीवन से निकाल फेंके; इन्हें इनके अनाथालय को, इनकी स्मृति को। इससे भी अधिक वह चाहता था कुछ, पर उसके अनाथालय के क्षुद्र जीवन ने उसे ‘कुछ’ के लिए उपयुक्त शब्द नहीं दिये थे, वह स्वयं अपने सामने प्रकट करने में असमर्थ था। तभी वह बिना शब्दों के, बिना वाक्यों के, बिना व्याकरण के बन्धनों के, अपने-आपसे कह रहा था, ‘स्त्री के बिना कुछ भी अच्छा नहीं है, कुछ भी मधुर नहीं है, कुछ भी मृदुल नहीं है, कुछ भी सुन्दर नहीं है, स्त्री-जो केवल स्त्री ही नहीं, संसार की कुल सुन्दर और मधुर वस्तुओं की प्रतिनिधि है...

वह क्यों नहीं आयी उसके जीवन में? मनुष्य के जीवन की सारी प्रगति जिस एक दिव्य अनुभूति की ओर, जिस अचरज की ओर है, वह क्यों नहीं हुआ उसके जीवन में? पहले वह अन्धा था, किन्तु जब उसकी आँखें खुल गयीं, तब भी इतनी प्रतीक्षा करके भी उसे कुछ क्यों नहीं दीखा? क्यों धीरे-धीरे उसी अनाथालय ने उसे फिर घेर लिया, जिसे एक बार उसने असह्य घृणा से ठुकरा दिया था?

गोविन्द ने धीरे-धीरे, जैसे कष्ट में झुककर, वह बही ज़मीन पर से उठा ली। वह हरसिंगार के फूलों की राख यथास्थान रखी। बही को बन्द कर दिया। उठ खड़ा हुआ।

गोविन्द ने एक बार अपने चारों ओर, धूल के पर्दे में ढँके हुए कमरे की दीवारों और फ़र्श की ओर देखा। और सोचा कि इस अनाथालय की इस अनात्म यथार्थता ने उस अचरज को नष्ट कर दिया-उसे होने नहीं दिया।

पर साथ ही उसने पूछा, क्या यह सब यथार्थ है, वास्तविक है? यह टूटी मेज़, यह कुर्सी, यह बही...उस फूल की राख से, उससे उत्पन्न होनेवाली छायाओं से, अधिक यथार्थ, अधिक वास्तविक, अधिक सत्य?

गोविन्द ने आवाज़ दी, “राम! केशो! देवा! तैयार हो जाओ!”

चार-पाँच लड़के इकट्ठे हो गये। एक अन्धा भी, हारमोनियम गले में डाले। वही फटे-पुराने पीले कपड़े, वही तेल में चुपड़े हुए बाल, वही ओछा शृंगार, वही... वही मंडली, वही भीख...

गोविन्द सोचने लगा, पच्चीस साल से वह भीख माँग रहा है, शायद पच्चीस साल और माँगता रहेगा। यही सत्य है, यही यथार्थ है। बीस वर्ष पहले एक क्षण आया था, आज बीस वर्ष बाद फिर आया, जिसमें उसने इस अनाथ जीवन की सारी कटुता, कठोरता, विषाक्त निस्सहायता का अनुभव किया; पर वह अनाथ ही है, अब अनाथ ही रहेगा। अनाथ जीवन का वासनाओं, पीड़ाओं, संघर्षों, अँधियारी घटनाओं से अनाहत और अक्षुण्ण रहनेवाली प्रकांड शून्यता को भरने के लिए कुछ भी नहीं होगा।

लेकिन बाहर निकलकर जब उसने लड़कों से कहा, “गाओ, ‘सुना दे, सुना दे, सुना दे किशना’, ...तब एकाएक कोई विश्वास उसके मन में जागकर पूछने लगा, “एक ही बार स्त्री ने उसके जीवन में पैर रखा, वहीं पद-चिन्ह्न की तरह पड़ी है फूलों की एक माला; तब क्या आगे के इस विराट् अन्धकार में एक भी किरण नहीं है; इस मरुस्थल में, जिसे उसने नहीं बताया, क्या एक भी कली न खिलेगी! वहाँ बाहर, सड़क पर, गलियों में, क्या एक भी घर नहीं होगा, एक भी स्त्री-मुख, एक भी मधुर पुकार - अनाथ जीवन की इस विषैली रिक्तता को भरने के लिए एक भी स्मृति, हरसिंगार का एक भी फूल?”

(लाहौर, दिसम्बर 1934)