हरियाणवी लोकगीतोँ की संवेदना / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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लोकगीत लोकमानस का दर्पण है जिसमें समाज का सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, उत्थान-पतन प्रतिबिम्बित होता रहता है। सुख-समृद्धि की लहरें, जीवन-संघर्ष की कटुताएँ, सामाजिक बंधनों एवं रीति-रिवाजों का चक्र लोकभूमि से पातालभेदी जड़ों द्वारा रस सोखकर मुखरित होता रहता है। इतिहास जहाँ चुप रह जाता है, शास्त्र जहाँ उत्तर नहीं दे पाते, लोकगीत वहाँ आदि कवि का प्रथम छन्द बनकर पूरी व्यथा को ध्वनित कर देता है। इसका कारण है-लोक मानस की सरलता एवं निश्छलता। सत्य के संधान के लिए हृदय की सरलता अनिवार्य है। आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तन का जरा-सा परिवर्तन भी लोकदृष्टि से नहीं छूट सकता है। आडम्बरहीन मानस की सरल अनुभूति लोकगीतों में प्राण फूँक देती है। इस दिशा में

हरियाणवी लोकगीत भी पीछे नहीं। उत्तरप्रदेश का सीमावर्ती पश्चिमी क्षेत्र भी इन गीतों से प्रभावित है। रही बात अभिव्यक्ति पक्ष की, भावों की तीव्रता अभिव्यक्ति को आगे-आगे हाँकती चलती है। लोकगीतों में मँजे हुए कलाकार की कलात्मकता भले ही न हो परन्तु निसर्ग-सुन्दर हरी-भरी शैलमाला का सहज मोहक सौन्दर्य अवश्य होता है।

विरह-मिलन के आँसू और मुस्कान, रगों में अग्नि जगा देने वाली वीरता, विविध ऋतुओं के साथ जुड़ी मनोदशाएँ, जीवन एवं संसार की असारता, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागरण की चेतना अपने बहुआयामी रूपों में प्रकट हुई है। जिस प्रकार हर पुष्प मिट्टी से अपनी अलग सुगन्ध ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार लोकगीत अलग-अलग गलियों-चौराहों को पार करते हुए आँगन के छोटे से छोटे कोने में भी झाँक लेते हैं और अपने साथ निश्छल मानव-हृदय के संस्कार लेकर अनवरत रूप से आगे बढ़ते हैं।

किसान का सुख-दुःख उसके पालतू पशुओं-गाय, ऊँट, बैल आदि से भी बँधा होता है। जो गाय दूध पिलाती रही है। जिसके बछड़े बैल बनकर खेतों में अन्न पैदा करने में सहायक रहे हैं, उनका बुढ़ापा कितना करुण होता है। बूढ़े हो जाने पर इनकी उपेक्षा किस किसान को द्रवित नहीं करेगी? बूढ़ी गाय ने दूध देना बन्द कर दिया है। उसे बसाई के हाथों बिकने का डर पीड़ित करता है-

मेरा दूध पीवै संसार, घी तैं खावै खीचड़ी,

मेरे पूत कमावैं नाज, महँगे भा की रूई_

जब भी मेरे गल पै छुरी।

जब तक शरीर में दम रहा, बैल खेत में काम करता रहा। बुढ़ापा आने पर उसे कौन अपने खूँटे पर निठल्ला रखकर चारा खिलाएगा? बज्र-सी कठोर छाती करके उसके परिश्रम को भुला दिया जाता है। इस पर बैल उपालम्भपूर्वक कहता है—

अरै न्यूँ रोवै बुड्ढा बैल-मनैं मत बेच्चै रै पापी

तेरे कुआँ-कोल्हू में चाल्या, नाज कमा तेरे घर पाल्या

इब तनैं करली बज्जर की छाती——

ईख की खेती से एकमुश्त काफी पैसा मिलता है _ परन्तु इसके लिए कृषक परिवार की स्त्रियों को भी हरियाणा में खूब मेहनत करनी पड़ती है। यह परिश्रम अपनी कठोरता के कारण कष्टदायक बन जाता है तो वधू ईख को कोसने लगती है-

बहोत सताई ईखड़ै रै तन्नैं बहोत सताई रै।

बालक छोड्डे रोवते रै, तन्नै बहो सताई रै।

'ईखड़ै' कहकर ईख शब्द में उपेक्षा का भाव भी भर दिया है।

हरियाणा राष्ट्रीय चेतना और जनजागरण को उर्वरा भूमि रहा है। गाँधी जी के प्रभाव के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के प्रेम की प्रगाढ़ता भी कम रहीं रही है। आर्यसमाजी भजनीकों ने भी जनमानस को बहुत ही प्रभावित किया। आडम्बरों के प्रति उपेक्षा एवं विरोधका भाव प्रखर हुआ। बाबा बस्तीराम, स्वामी भीष्म जी एवं पृथ्वी सिंह 'बेधड़क' लोक गायक के रूप में छाए रहे। बेधड़क जी ने तीर्थों पर होने वाले कुत्सित कार्यों पर कटाक्ष किया है-

हरिद्वार हिन्दुस्तान में, मन्नैं देखे लोग लफंगे।

किसानों की झोंपड़ी और टूटी-टूटी छान है,

सोने के कलसों वाले ये मोड्ढों के मकान हैं।

राष्ट्रपिता बाबू की हत्या पर सारा देश शोक सागर में निमग्न हो गया। जनमानस की चीत्कार को कितनी मार्मिकता से व्यक्त किया है, इसके लिए निम्न उदाहरण पर्याप्त है-

भारत के चन्दरमाँ छिप ग्ये, रहे बिलखते तारे।

नत्थू नीच मरहठा था, जिन्नैं गांधी जी मारे।

अभी आज़ादी मिली ही थी। हिन्दुस्तान अनाथ हो गया। भारत अभी छोटे-छोटे बच्चों वाले परिवार जैसा असहाय था—

काच्या कुणबा छोड़ पिता जी, सुरग लोक नैं सोग्ये।

रे भारत के नरनारी बिना पिता के होग्ये।

इस गीत में मार्मिकता कूट-कूट कर भरी है।

प्रियतम के बिना भारतीय नारी के लिए सारा संसार सूना है। सुखद सावन पिया के न होने पर विरह की अग्नि को और अधिक भड़काने लगता है। विधवा का जीवन और भी उपेक्षित एवं कारुणिक हो जाता है-

कोए पी-पी पपैया हे बैरी बोलता

कोए बोलै से पीउ-पीउ के बोल

कोए पी-पी मेरे पीया का नाम

तूँ मत बोलै रै पपैया बैरी नीम में।

कभी परदेसी पिया नहीं आ पाता, तो उसकी मधुर स्मृति हिचकी का रूप लेकर आ जाती है। मानों वह हिचकी न होकर प्रियतम द्वारा भेजा गया समाचार हो-

मन्नैं आवै हिचकी, दिल तोड़ै हिचकी, याद सतावै हिचकी

परदेस गए बालम का ब्यौरा लावै हिचकी।

लहँगा सिलवाने के लिए पति से कितने मधुर शब्दों में आग्रह किया जाता है, किस प्रकार मधुर उपहास किया जाता है, यह देखते ही बनता है-

मेरा दामण सिमा दे, ओ नणदी के बीरा।

तन्नै न्यूँ-4, ढूंगे पै रक्खूँ ओ नणदी के बीरा।

पनघट पर जाते समय कुछ स्वच्छन्दता मिल जाती है। उसमें परदेसी से बोलने-बतियाने का अवसर मिल ही जाता है। परदेसी के बतियाने पर नायिका उत्तर देती है-

मेरे सिर पै बंटा-टोकणी, मेरे हाथ मैं लेजू डोल

मैं पतली-सी कामनी।

सास और जेठानी तो न जाने कब से लोकगीतों की खलनायिकाएँ बनती रही हैं। ससुर-जेठ को थोड़ी छूट मिली हुई है। इनकी तरफ पीठ करके लड़ने से ही काम चल जाएगा-

ससुर लड़ैगा तै पाच्छा फेर कै लडूँगी

आज्या री सासड़ तेरे धान से छड़ूँगी।

तेरी घाणीं-सी भरूँगी, तेरी घाणी-सी भरूँगी।

विवाह के गीतों में पीर-पैगम्बरों एवं मजारों की पूजा को भी स्थान दिया है। इन मांगलिक गीतों में अमंगलकारी बाधाओं को दूर करने की कामना की है-

पाँच पतासे पानाँ का बिड़ला, ले सैयद पैर जइयो जी.

जिस डाली म्हारा सैयद बैठ्या, वो डाली झुक जइयो जी.

बारात आकर बगिया में ठहर गई. प्रियतम के दर्शन की आकांक्षा बहुत बलवती होती जा रही है। दर्शन किस प्रकार किए जाएँ, इस समस्या को गीत में प्रश्नोत्तर शैली द्वारा सुलझाया गया है। निम्न गीत हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत प्रचलित है—लाड्डो बुज्झै दादा नै, ओ दादा

मैं किस बिध देखण जाऊँ, रँगीले आ उतर्ये बागाँ मैं। -हाथ डालड़ियाँ फूल्लाँ की हे लाड्डो

मालणिया बणकै जाय, रँगीले आ उतर्ये बागाँ मैं। '

विदाई के समय पुत्री लखपती पिता से उलाहने भरे स्वर में कहती है कि तुमने भाइयों को महल-दुमहले दे दिये _ लेकिन मुझे परदेस भेज दिया। हम (बेटियाँ) मुँडेर पर बैठी चिड़िया की तरह हैं, जिन्हे कंकड़ मारकर जब चाहे उड़ाया जा सकता है-

भाइयाँ नै दिये महल-दुमहले, हमें दिया पर देस रे,

काहे को ब्याही विदेस रे लक्खी बाबुल मेरे।

हम रे बाबुल मण्डेरे की चिड़िया, कंकरी मारे उड़ जाएँ रे लक्खी—

बाबुल का घर छोड़ने पर बेटी पराई हो जाती है। विदा करते समय परिवार वालों का मन भारी हो उठता है। आँखों में आँसू भर आते हैं-

बाबुल का घर छोड़ कै लाड्डो, हुई आज पराई

दादा भी रोवै उसकी दादी भी रोवै

बाहर खड्या उसका बीरा रोवै, बिछड़ गई माँ जाई.

पति का घर तो एकदम पराया है। वहाँ उसके दुःख-दर्द को समझने वाले लोग कहाँ? वहाँ रहने के लिए जीवन को सहज बनाना पड़ेगा। निम्न गीत में बिदा के समय यही उपदेश दिया है-

सहज-सहज पग धरो मेरी लाड्डो, देस पराए जाणाँ है

ना वहाँ बाबा, ना वहाँ दादी, किसको दरद सुणाणाँ है। '

पौराणिक प्रसंग भारतीय लोकमानस को सदा से प्रेरित करते रहे हैं। हरिश्चन्द्र ने धर्म के कारण कष्ट उठाए. पाँचों-पाण्डव और द्रौपदी भी वन में भटकते फिरे। ये सब दुःख के दिनों में भी सांत्वना देते हैं-

लोगो धरम कदी न छोड्डो, थोड़ी-सी जिन्दगानी है।

धरम के कारण हरिचंद नै, भर्या नीच घर पाणी है।

आप बिक्या और लड़का बेच्या, बेच्ची तारा राणी है।

धरम के कारण द्रौपदी माता हुई बनों की राही।

पाँचों पाण्डव लिये साथ मैं भरती फिरी तबाही । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लोकगीत जनमानस सजीव चित्र है, समाज की सहज धड़कन है। -0—