हरियाणा में ऑक्सफोर्ड और ऑक्सफोर्ड में हरियाणा / जयप्रकाश चौकसे

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रीमेक के मौसम में 'अपन जन'
प्रकाशन तिथि : 29 नवम्बर 2012


संगीतकार विशाल भारद्वाज विज्ञापन फिल्मों के लिए जिंगल्स बनाते थे और आरवी पंडित नामक धनाढ्य प्रकाशक ने गुलजार की 'माचिस' का निर्माण किया था, जिसमें पहली बार गुलजार के गीतों की धुनें विशाल भारद्वाज ने बनाई थीं। इसके सारे गाने लोकप्रिय हुए थे और 'चप्पा-चप्पा चरखा चले' तो आज भी गुनगुनाया जाता है। 'माचिस' की सफलता के बाद गुलजार-विशाल की टीम ने कई फिल्मों के लिए साथ में काम किया और विशाल गुलजार के मानस पुत्र की तरह हो गए। विशाल ने शबाना आजमी के साथ 'मकड़ी' बनाई और पंकज कपूर तथा तब्बू के साथ शेक्सपीयर की 'मैकबैथ' से प्रेरित होकर 'मकबूल' बनाई, जो अत्यंत प्रभावोत्पादक फिल्म थी। उन्होंने शेक्सपीयर के 'ऑथेलो' का भारतीय संस्करण अजय देवगन, करीना कपूर और सैफ अली खान अभिनीत 'ओमकारा' बनाई, जो अधिकांश वितरण क्षेत्रों में असफल रही। दरअसल ऑथेलो एक वीर योद्धा हैं, जो अश्वेत होते हुए श्वेतों के राष्ट्र की रक्षा करता है तथा सत्ताधारी मंत्री की पुत्री अपने पिता की इच्छा के विपरीत अश्वेत ऑथेलो से विवाह करती है। इस असमान लोगों के बीच प्रेम को कूपमंडूक लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते और हमारे खाप की तरह षड्यंत्र रचकर प्रेम को नष्ट कर दिया जाता है। दरअसल खाप की तरह कूपमंडूक संस्थाएं दुनिया के सारे देशों में हमेशा सक्रिय रही हैं, परंतु भारत की तरह वे संविधान को चुनौती नहीं देतीं। बहरहाल, विशाल ने अपने ऑथेलो को एक स्वार्थी, धूर्त नेता का दास और गुंडे रूप में प्रस्तुत किया, जबकि शेक्सपीयर का नायक उदात्त और युद्धभूमि में चमकने वाला सितारा है। चरित्र के इस परिवर्तन के कारण उसकी त्रासदी से दर्शक की आंख नम नहीं होती। विशाल अनेक विदेशी फिल्में देखते हैं और टारंटिनो के भक्त हैं। उनकी 'कमीने' और 'ओमकारा' में रात के दृश्य यथार्थवाद के नाम पर ऐसे शूट किए गए कि कुछ नजर ही नहीं आता। उनकी फिल्मों की पेटियां कई शहरों से दूसरे दिन ही वितरक को वापस भेज दी गईं कि 'अदृश्य सिनेमा' को कैसे दिखाएं। इसी पथ पर अग्रसर होते हुए विशाल ने 'सात खून माफ' नामक सिनेमाई हादसा रचा, जिसके कारण सितारों में उनकी साख घट गई है और वितरक भी भारी घाटे सह चुके हैं। एक भारतीय प्रतिभाशाली छोटे शहर का युवा महानगर में आकर विदेशी फिल्मकारों और लेखकों से चमत्कृत होकर कैसे खो जाता है, विशाल भारद्वाज इसका उदाहरण हैं। बताया जाता है कि उन्होंने सबक सीख लिया है और वे टारंटिनों से मुक्त हो चुके हैं। उनके सहायक की 'इश्किया' आंशिक रूप से सफल हुई थी, अत: अवचेतन में 'इश्किया' रखकर अब वे देशज फिल्म या कहें की गांवठी फिल्म बनाने की ओर चल पड़े हैं। उनकी नई फिल्म का नाम है 'मटरू की बिजली का मंडोला।' इसमें मंडोला हरियाणवी करोड़पति है, जो दिन के समय अपनी पश्चिमी छवि बनाए रखते हुए दौलत का अभद्र प्रदर्शन करता है, परंतु रात में देसी ठर्रा पीकर अपने मूल हरियाणवी स्वरूप में आ जाता है। इसी गांव में नायिका का नाम बिजली है, क्योंकि उसकी मां ने पहला जनरेटर खरीदा था। नायक युवा मटरू का परिवार मंडोला का सेवक रहा है और फिल्म में गुलाबी नामक एक भैंसा भी है, जिसके कारण कई घटनाएं घटती हैं। बहरहाल, मूल बात यह है कि तेजी से बदलते भारत में परंपरा और आधुनिकता की कश्मकश के कारण एक किस्म का सनकीपन सामने आ रहा है और यह फिल्म पात्रों के सनकीपन की कथा है। कोई आकस्मिक आए धन से बौरा गया है, तो कोई धन के अभाव में पगला गया है। संभवत: पूरब और पश्चिम के मिलन से उत्पन्न परिवर्तन की यह फिल्म है। दरअसल सनकीपन शाश्वत और वैश्विक है। इस पर किसी देश विशेष या कालखंड का एकाधिकार नहीं है। बौद्धिकता और सनकीपन के बीच एक महीन रेखा है। इस पार छलांग लगाने वाले को सनकी या पागल कहते हैं। इरविंग वैलेस ने एक किताब लिखी थी - 'स्क्वेयर पेग इन ए राउंड होल', जिसमें कुछ अत्यंत प्रसिद्ध हुए सनकियों का जीवन-चरित्र संकलित है। दुनिया को गोलाकार मानने वाा व्यक्ति भी पहले पागल ही करार दिया गया, बाद में सत्य सिद्ध होने पर जीनियस मान लिया गया। हर प्रतिभावान अत्यंत बौद्धिक व्यक्ति के अवचेतन में दूर कहीं पगला बैठा होता है। स्थापित बातों से विरोध करके ही नया खोजा जाता है। एक निहायत ही नॉर्मल व्यक्ति, जो पारंपरिक ढंग से जीता है, वह औसत बुद्धि का होता है। असाधारण और विलक्षण की बुनावट में ही पागलपन निहित होता है। एक ही व्यक्ति के अनेक स्वरूप होते हैं और रावण के दस सिर उसके दस स्वरूपों के प्रतीक हैं। वह विलक्षण कीमियागार भी था, ज्योतिषी एवं खगोलशास्त्री भी था। हमारे अपने विशाल भारद्वाज 'माचिस', 'मकड़ी' और 'मकबूल' में विलक्षण लगे और 'ओमकारा' में बहके तथा 'कमीने' में पगला गए। बहरहाल, पांचवें दशक में पीएल संतोषी नामक फिल्मकार ने अनेक फिल्में रची थीं, 'सरगम' जैसी सफल फिल्म भी बनाई थी। फिर एक दिन पगला गए और बनाई 'शिन शिनाकी बबला बू'। मौजूदा फिल्मकार राजकुमार संतोषी के पिता थे पी.एल. संतोषी। हमारे जीनियस किशोर कुमार ने भी सनकीपन को आदर देते हुए अनेक फिल्में बनाई थीं।