हर शह मुसाफिर सफर में जिंदगानी है / जयप्रकाश चौकसे

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हर शह मुसाफिर सफर में जिंदगानी है
प्रकाशन तिथि : 22 फरवरी 2014


सदियों से एक लोक गीत गाया जा रहा है जिसका आशय यह है कि पुत्री अपने पिता से प्रार्थना कर रही है कि उसकी शादी व्यापारी से नहीं करना, महल चौबारा देगा, सुनार से मत करना, गहनों से लाद देगा, मेरी शादी एक लुहार से करना जो मेरी बेडिय़ों को काट देगा। इम्तियाज अली की 'हाइवे' इन्हीं बेडिय़ों की बात कर रही है और इस फिल्म का 'लोहार' उसका अपहरणकर्ता है। जो स्वयं सारे समय अपनी मां द्वारा गाई लोरी की याद में खोया रहता है। वह ग्रामीण मां सारा समय कष्ट में बिताती है। पति से मार खाती है। परन्तु अपने बेटे को संसार के सारे कष्टों से बचाने के लिए तारों से सजी सेज पर सुलाना चाहती है। नायिका का बचपन भी भयावह अनुभव से गुजरा है। जिसमें बेहद अमीर और प्रभावशाली चाचा विदेशी चॉकलेट खिलाकर उसे बाथरूम ले जाकर विकृत कार्य करता है। और उसकी चीख नहीं निकल सके इसलिए उसके मुंह पर हाथ रख देता है। वह मुंह पर पट्टी बंधे जानवर की तरह रंभाती रहती है और जब अपनी मां को बताती है तो वह भी उसे मुंह बंद रखने के लिए कहती है। संभव है कि मां का मुंह भी सदियों से बंद ही रहा है और यक-ब-यक आपको शोएब मंसूर की 'बोल' याद आ जाती है।

शोएब मंसूर और इम्तियाज अली सृजन की एक ही तरंग पर सवार हैं। सबसे बड़ी बात की महान निर्देशक बचपन के यह दोनों दृश्य दर्शकों को दिखाता नहीं है। आपको उनकी जुगुप्सा से बचाता है, उनका केवल जिक्र होता है परन्तु उन त्रासदियों की समस्त भावना आपको एक अभिनव दृश्य में देखने को मिलती है। जब नायिका की कल्पना में उसकी ममतामयी गोद में बच्चे के रूप में नायक लेटा है और उसे थपकी देकर सुला रही है। यह फिल्म अपहरण की गई युवती व अपहरणकर्ता की प्रेम कहानी नहीं है। वरन वे एक दिव्य रिश्ते से बंधे हैं। जिसमें वह कभी उसकी मां है तो वह कभी उसका पिता है। दो भयावह अनुभवों से गुजरे टूटे हुए लोगों का बंधन है यह फिल्म। महेश भट्ट की पुत्री आलिया अत्यंत निष्णात कलाकार है और पात्र की भावना को बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत करती है। इतनी कम उम्र में इतनी विराट प्रतिभा है कि डर लगता है कहीं यह आलिया अपने ही ताप से झुलस नहीं जाए। हे ऊपरवाले इस मासूम की रक्षा करना, उस समाज से भी जिसके संगमरमरी विकृत बाथरूम में बचपन सिसकता और उस ग्रामीण क्षेत्र से भी जिसमें अभावों के पालने में बचपन पलता है। और इस आर्थिक उदारवाद द्वारा जन्मे तथाकथित विकास के प्रतीक 'हाइवे' से भी जो महानगरों के सांस्कृतिक खोखलेपन को ग्रामीण क्षेत्र की भूख-प्यास से जोड़ता है।

इम्तियाज अली द्वारा अकल्पित यह पहली फिल्म उनकी चौथी फिल्म के रूप में सामने आ रही है। और ये चारों फिल्में एक दूसरे से जुदा हैं तथा समान बात सिर्फ इतनी है कि सभी फिल्मों के पात्र निरंतर यात्रा पर रहते हैं। बाहरी यात्रा के साथ भीतर की यात्रा में अपने को खोज रहे हैं। इस फिल्म की नायिका अपने अपहरणकर्ता को कहती है कि उसे वहां नहीं जाना है जहां से उसे उठाकर लाया गया है और वह वहां भी नहीं पहुंचना चाहती है जहां यह राह समाप्त होती है। बस वह निरंतर यात्री बना रहना चाहती है। याद आता है महान 'रॉकस्टार' में इम्तियाज अली द्वारा दार्शनिक रोमी का हवाला देना कि मेरे महबूब मुझे वहां मिलना जहां न पाप है, न पुण्य है, न अच्छाई है, न बुराई है। गोयाकि वह स्थान जहां कोई कटघरा नहीं है, कोई बंधन नहीं है। एक दृश्य में नायक नायिका के हाथ से अपना रिवाल्वर वापस लेता है जिससे वह खिलौने की तरह खेल रही है और वह कहता है कि एक गोली चलने पर दो व्यक्ति मरते हैं - एक जिस पर गोली चली है और दूसरा जिसमे गोली चलाई है। गोयाकि हिंसा की वेदी पर जीता हुआ और पराजित दोनों ही स्वाहा होते हैं। यह फिल्म उदारवाद के बाद के रुग्ण श्रेष्ठिवर्ग का मुखौटा नोंचती है तो अभावों द्वारा जिनकी आत्मा तक हर ली है, उन कंकालों को भी प्रस्तुत करती है। यह एक महान फिल्म है।