हाथी / जितेंद्र विसारिया

Gadya Kosh से
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...हम कबीरपंथी चमार थे। निडर होकर अपनी बात कहना और उस पर डटकर अमल करना, हमने अपने पूर्वजों से सीखा था। यही कारण था कि हम अपने इस खरेपन के लिए सारे गाँव में जाने जाते थे। जिसका परिणाम बाद में चाहे कुछ भी हुआ हो...|

ठाकुर ब्राह्मणों का बाहुल्य होने पर भी गाँव में धोबी, धानुक, तेली, कुम्हार, काछी आदि सभी जातियों के लोग रहते थे। एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते, एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल। ऊँच-नीच हर जगह और हर स्तर पर व्याप्त है, पर छुआछूत नहीं थी। कारण - गाँव में लेकर ब्राह्मण से लेकर मेहतर तक सबका एक ही कार्य था, कृषि। ...जिन पर खेत कम थे अथवा नहीं थे। वह बटाई पर लिए थे और जिन पर ज्यादा थे, वह बटाई पर दिए थे। आपस में मिल-जुलकर काम करना, शाम को चौपाल पर एक साथ उठना-बैठना और दिन में एक दूसरे पर क्या गुजरी उसका जायजा लेना एक सहज प्रक्रिया थी। ...तब ईसुरी की फागें, घासी दास के कन्हैया झगड़े, अछईं के चौबोला और गोठें, कबीर और रैदास के निर्गुण एक ही स्वर में गाए और सुने जा सकते थे। ...किसी को पर बिरादरी में न बेटी ब्याहनी थी न बेटा। सब कुछ अपनी-अपनी परिधि के अंतर्गत चल रहा था। किसी ने उसे लाँघने की कोशिश तक न की थी, कम से कम मेरे गाँव में। जहाँ पंचायत का दंड ही इतना कड़ा था कि उसकी याद आते ही आदमी पैर बढ़ाने से पहले ही खींच लेता था।

किंतु आज से दस-ग्यारह साल पहले हमारे उस बेहड़ीले गाँव के किनारे बहनें वाली चंबल नदी के खाई भरखों को पार करता हुआ, एक हाथी आया। ...उसे लाने वाले बड़े ही पहुँचे हुए महा आत्मा प्रतीत हो रहे थे। हमारा घर गाँव में घुसते ही तीसरा था। फिर भी वे अन्य दो घर छोड़ कर सबसे पहले हमारे ही द्वार पर आ विराजे। पिताजी हार से खेत जोत कर हल लिये, आकर बैठने ही जा रहे थे कि अचानक इन महानुभावों का आगमन हुआ। पिताजी ने पौली से दो खाटें निकाल कर द्वार पर खड़े नीम की छाया में बिछा दीं। और दौड़कर अंदर से उनके लिए हुक्का-पानी ले आए। तब कहीं जा कर उनके आने का कारण पूछा। वैसे तो हाथी के साथ दस-पंद्रह व्यक्ति होंगे, पर जबाब उनमें से नील आभा मंडित धवल वस्त्रधारी आर्कषक व्यक्तित्व के धनी महाशय ने दिया।

'देखिए, भाई साब हम शहर से आए हुए हैं और आपकी बिरादरी के ही हैं। इस समय अपनी कास्ट के ही एक महंत हैं जो देश के प्रधान महंत की गद्दी के दावेदार भी हैं। उन्होंने हम सबको आदेश दिया है कि अपने शहर से लेकर दूर-दराज के सभी दलित-पिछड़े, शोषित, पंथी आज से अपने-अपने घर में एक-एक हाथी रखेंगे जो उन्हें सदियों की शारीरिक और मानसिक गुलामी से मुक्ति दिलाकर, सबको बराबरी पर ला खड़ा करेगा।'

उन महानुभाव की ये बात सुनकर पिताजी सोच में पड़ गए। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। भला एक हाथी यह सब कैसे कर सकता है? फिर हम तो यहाँ किसी के गुलाम भी तो नहीं हैं और ना ही किसी के ठौर में बसते हैं जो किसी की दाब-धौंस पड़े। उन्होंने कुछ सोच-विचार कर स्पष्ट मना कर दिया, हमें किसी हाथी-बाती की जरूरत नहीं है। जिसे जरूरत हो उसे दे आओ। पर वह कब मानने वाले थे - उन्होंने अपनी लच्छेदार भाषा में पिताजी को कूप-मंडूक तक ठहरा दिया। जब बात इतने पर भी नहीं बनती दिखी तो उन्होंने बिरादरी का वास्ता देकर पिताजी को अपने पक्ष में कर लिया और हाथी हमारे द्वार पर बाँध कर अन्यत्र रवाना हुए।

हमारे पिताजी ने चमार होकर भी दबना नहीं जाना था। कछार की चालीस बीघा खेती। एक जोड़ी बैल। गाय-भैंसें और पिताजी सहित छह भाइयों का संयुक्त परिवार। बाबा भी बिरादरी के महतो थे। कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। पर थे गाँव के गँवार ही। हाथी जैसी चीज हमारे घर सात पुस्तों से या यों कहा जाए कि कभी रही ही न थी। और फिर हाथी रखने के लिए घर-द्वार बड़ा होना चाहिए। ...पर इस मामले में तो हमारा घर बहुत ही छोटा था। घरौंदा...। पिताजी दौड़े-दौड़े उनके पीछे गए। तब तक वे गली के मोड़ पर चतुरी चाचा के द्वार पर जा पहुँचे थे। उन्होंने आहिस्ता से उन महानुभाव के पास जा कर एक ओर कर पूछा, 'भैया, हम तो साँची कहत हैं... हमारे हाथी कबहूँ नहीं रहो... हाथ से ही काम चलाओ है! गाँव के आँखें होती हैं वाको डर हमें नईं पर हमारे इतनी जगह भी तो नहीं कि हाथी बनाए राखें।'

पिताजी की ऐसी सशंकित बाते सुनकर व अपना प्रभाव पड़ता देख, वे महाशय पिताजी से बड़े ही अभिमानपूर्वक बोले, 'देखिए रामस्वरूप जी, हाथी रखोगे तो द्वार बड़ा करना ही पड़ेगा। रही बात जगह की... तो सामने ऊँची-ऊँची हवेलियाँ और बड़े-बड़े घर देख रहे हो, जिनके आँगन में तुलसी के पेड़ और सालिगराम की मूर्तियाँ रखी हैं... वे घर जिनमें कभी हाथी रहते थे और रहते भी हैं लेकिन ध्यान रहे, उससे पहले भी वे हाथी अपने थे। धीरे-धीरे समय आ रहा है कि हम वे... और वे हाथी उनसे छुड़ा कर बराबर हो जाएँ।'

उनकी ऐसी बात सुन कर पिताजी सकते में आ गए। बे उबल पड़े, अच्छा! तो तुम हमारे गाँव में जाही को आए हो... आग लगाइवे। काहे को झूठी कह रहे हो कि वे हाथी पहले अपने ते, उनने छुड़ाय लए, अब हम छुड़ाय लें! वे ऊँची-ऊँची हवेली देख रहे हो... नाय मात्र को ही रह गई हैं। कई साल से सूखा पड़ रहो है, खेतन में कछु है रहो नईं है। गरीब आदमी शहर में मजूरी करि के पेट पाल लेत है, पर वे बिचारे शरम के मारे मँजूरी भी नईं कर सकत सो चोरी-भड़ियायी करत फिरत हैं। किसान को राजा कोऊ नईं करत, तासे तुम जाओ यहाँ से। हम तिहारे हाथ जोड़त हैं।

पिताजी की ऐसी मर्म भरी बातें सुनकर भी उन्होंने हार नहीं मानी। अपने पंथ जाल में फाँसते हुए बड़े ही सधे स्वर में बोले, 'देखिए भाई साहब, ये हाथी वाली बात हमें मालूम न थी... पर भला हो अपने उन बड़े स्वर्गीय महंत साहेब का जिन्होंने बड़े कष्ट सहकर हमें यह बात खोज कर बताई है। वरना हम भी औरों की तरह अज्ञानता के अँधेरे में पड़े-पड़े पद-दलित होते रहते। अब यही समय है कि हम माननीय श्री छोटे महंत जी के पक्ष में अपना अमूल्य मत देकर खोए हुए आत्मसम्मान को पुनः प्राप्त करें। इसके लिए हमें आगे चलकर इनके विरुद्ध क्रांति ही क्यों न करनी पड़े।'

पिताजी की समझ में बहुत कुछ आने लगा पर वे अपने विचारों की हार इतनी जल्दी होते नहीं देखना चाहते थे। जबकि उनके विचारों में कोई बल न था, फिर भी उन्होंने अपना तर्क प्रस्तुत किया - 'तुम कह रह हो कि खोजन कर के बताओ है तो वह काऊ जमाने की बात होयगी। अबे की तो नहीं है सो हम जायके लड़ मरें!'

'है कैसे नहीं, जानकर भी अनजान मत बनो रामस्वरूप जी! माना इस गाँव में तुम्हारी स्थिति अच्छी है तो क्या हुआ। बाहर तन की खाल तक उधेड़ने को तैयार हैं ये लोग और नोंच भी रहे हैं।'

उनकी यह बात सुनकर पिता जी शांत हो गए थे। उन्हें अपनी गलती समझ में आ गई थी। उस दिन से हाथी हमारी बिरादरी और घर परिवार की अस्मिता का सवाल बन गया। उस के प्रभाववश हमारी संकुचित दृष्टि का उन्मेष होना प्रारंभ हो गया था। एक ऐसा विस्तृत फलक हमारी आँखों के सामने घूमने लगा, जिसमें एक दृश्य था। दृश्य में समाहित था पंजाब से लेकर सारे सप्तसिंधु में एक आक्रमणकारी बर्बर जाति द्वारा वहाँ की मूल प्रजाति को नष्ट-भ्रष्ट करके व उन्हें अपना दास बनाकर उन पर समता विरोधी कानूनों का थोपा जाना। जिनके तले दबकर स्वतंत्रता की मुक्त वायु का एक अणु भी अपनी साँसों में प्रवेश कराने में असमर्थ एक जाति।

यह दृश्य देखकर हमारा मोहभंग हो गया। सत्यासत्य का निर्णय किए बगैर हमारे हृदयों में प्रतिशोध की अग्नि धधकने लगी। हम अपने वर्तमान संबंधों की उपेक्षा कर भूत अंध का प्रतिकार लेने के लिए कृतसंकल्प हो उठे। अब हम उसका मौका तलाशने लगे थे। कल तक जो गाली अपनत्व का भाव समझ कर दी जाती थी और उसे सुन कर हम कोई उचित गाली दे डालते थे अथवा हँसी-ठिठोली समझ कर चले जाते थे, अब वही गाली सवर्ण-दलित का जहर घुल जाने के कारण, लाठी और गोली तक की नौबत खड़ी करने लगी। यह देखकर गाँव का वह हर एक व्यक्ति जो गाँव को गाँव को गाँव नहीं एक कुल मानता था, स्तब्ध रह गया। ऊँच-नीच हर जगह होती है। वह हर स्तर पर व्याप्त है। पहाड़ छोटे-बड़े होते हैं। वृक्ष भी ऊँचे-नीचे होते हैं। आदमी भी कद-अनुसार लंबा और ठिगना होता है। उन्हें चीर कर छोटा या बड़ा नहीं किया जा सकता। हाँ, आदमी के द्वारा बनाई गई ऊँच-नीच की व्यवस्था को अवश्य ही समाप्त किया जा सकता है और किया जाना भी चाहिए। पर हम व्यवस्था के स्थान पर अंध-प्रतिशोध लेने के लिए कृतसंकल्प हो उठे थे।

एक रात क्वार का महीना था। असंख्य तारों के प्रभाव को नष्ट करता सा चंद्रमा, मेघ रहित स्वच्छ आकाश में अपना एकाधिकार प्रदर्शित कर रहा था। जिसके तले पृथ्वी पर टूटती परंपराओं को जोड़ने का असफल प्रयास करते हमारे गाँव और घर के लड़के-लड़कियाँ!

ब्रज और बुंदेलखंड में खेला जाता है टेसू और झेंझी का खेल। जो पूरे क्वार के महीने में कुँवारे लड़के लड़कियों द्वारा तरैयाँ और सुअटा से प्रारंभ होकर, शरद पूर्णमा पर टेसू और झेंझी के अधूरे विवाह के साथ समाप्त हो जाता है। पंद्रह दिन तरैयाँ नौ दिन नौरता और शेष सात दिन टेसू और झेंझी। टेसू और झेंझी को लेकर वे कुँवारे लड़के-लड़कियाँ अलग-अलग होकर टेसू-झेंझी से संबंधित गीत गाकर उनके विवाह के लिए अनाज और पैसा इकट्ठा करके, पूर्णिमा के दिन रात में उनका विवाह रचाकर वर्षा ऋतु में वर्जित विवाहों का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।

हमारे घर में भी बनाये गए थे, रंग-बिरंगे टेसू-झेंझी। और माँगने चले जाते थे हर घर में बेझिझक। क्या ब्राह्मण क्या मेहतर। पर इन चार छह सालों में हमारे लिए गाँव गाँव नहीं रहा। हमारी भावनाएँ बदल चुकी थीं। बदलते परिवेश में परिवर्तन की फंतासी लहर तथा अतीत के अत्याचारों के प्रतिशोध की भावनाओं को निहायत ही निजी स्वार्थ के चलते, बार-बार उभारे जाने के कारण हमारी वर्तमान शांति नष्ट कर दी गई थी।

उस दिन हमने लाख मना किया कि टेसू उनके घर माँगने मत जाया करो। पर उन्होंने एक नहीं मानी। उन पर ये असर अभी अप्रभावी था और वे आँख बचा कर जाने कब हमसे बगैर पूछे चले गए थे। उनके घर टेसू माँगने... अपने इन पड़ोसियों के प्रति बनती इस नवीन धारणा ने सत्यता का जामा पूर्ण रूप से पहन लिया... और मैंने जो सोचा था वही हुआ। उस दिन हमारे घर से टेसू माँगने गए लड़कों के टेसू की टाँग, श्याम बिहारी पुरोहित के लड़के अनंदू ने तोड़ दी। उन्हें मार-पीट कर भगा दिया था।

पर वास्तविकता यह थी कि जैसे ही उसने टेसू में रखे दीए से तेल लिया तो हड़बड़ाहट में वह गिर पड़ा और उसकी टाँग टूट गई। ऐसा विश्वास किया जाता है कि टेसू के दिए का तेल माथे से लगाने पर साल भर सिर दर्द नहीं होता है। टेसू की टाँग टूटी तो लड़ाई निश्चित थी। हमारे चाचा के लड़के रबिया ने गुस्से में आकर टेसू - जो तीन लकड़ियों को बीच में बाँध कर उस पर मिट्टी लपेट कर टूटी चूड़ियाँ, कौड़ी, कंचे और मोर पंख द्वारा बनाई गई मानवाकृति होता है जिसके बीच में जलता दीपक रखा जाता है - को उठाकर पुरोहित के लड़के के सिर पर दे मारा। तो उसने भी भैंस की सानी के काम आने वाला बाँस का नुकीला डंडा इनके सिर में ठोंक दिया था। जिसकी नोक छिदने से कुछ खून भी निकल आया था।

यह बात जब टेसू के लिए अनाज लेने गई पंडिताइन को पता चली तो उन्होंने बीच में ही आकर अपने लड़के को ही पीट कर मामला शांत कर दिया। और सिर में डंडे की चोट से हुए घाव में सूती कपड़ा जलाकर उसकी राख भर दी। और उलाहना न आए इस डर से घर जाकर न कहने का निर्देश दे कर उन्हें विदा किया।

मैं गली के मोड़ पार खड़ा रेडियो पर 8:45 के समाचार सुन रहा था। तभी मेरे छोटे चाचा के छोटे लड़के संदीप ने जो कुछ ज्यादा ही चंचल है, सबसे पहले आकर हाँफते हुए खबर दी कि भैया ओ भैया! पुरोहित के मोड़ा ने रवि भइया को मूँड़ फोर डारो और टेसूअउँ...'

यह सुनकर मेरे गुस्से का पारावार नहीं रहा। रेडियो पर भी उस समय कुछ ऐसी ही खबरें आ रही थीं... कि फलाँ दलित महिला को सवर्णों ने निर्वस्त्र होकर घुमाया और बलात्कार किया या कहीं दलितों के घर जलाए गए। जो स्वाभाविक आत्म-रोष पैदा करने वाली थीं। उस पर ये! मैंने खट्ट से रेडियो का वॉल्यूम बंद किया और रोष में एक थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया था, 'कमीना! हमने पहले ही नाईं करी थी कि बम्हननि के घर टेसू माँगन मत जइयो... पर तुम कायको मानत हो। जे हमारे कबहू अपने नहीं होंयगे। मतलब के यार हैं!!!'

...हमारे मन की आग शांत नहीं हो रही थी। उस पर छोटे महंत जी के शब्दों का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। जिनके ओजस्वी प्रवचन सुनने के लिए हम ट्रेक्टर में सवार होकर 30-40 लोग गाँव से उसी दिन शहर की एक भव्य रैली में गए थे। उन प्रवचनों में एक स्वप्न था। वर्तमान को दरकिनार करता भविष्य का, जिसमें निहित संदेश था अपने तले सब और सबके ऊपर हम होंगे का यूटोपिया...।

मैं लाठी लेने जैसे ही घर की ओर मुड़ा तो एक 'आग' हमारे घर के ऊपर से उठती नजर आई। जो रसोई की मड़ैया को पार करती हुई फागुन में होलिका-दहन जैसा दृश्य पैदा कर रही थी। पुरवाई के तेज झोंके ने ढिबरी की बड़ी बाती से मिलकर, मड़ैया की पूर्ण आहुति दे डाली। अम्मा और घर के अन्य सदस्य गोंड़ा में भैंस ब्या रही थी, उसकी साँग-सोट में लगे थे।

हमारे घर के ठीक पीछे वाली गली में उन पुरोहित का घर था। हमसे पहले आग की लपट देख आग बुझाने के लिए बाल्टी में पानी भर कर वह आ पहुँचे थे। और चिल्लाकर आग बुझाने के लिए सबको इकट्ठा कर लिया था। ...किंतु हमें यह तथ्य स्वीकार न था। आग लगाकर पानी को दौड़ने वाला मुहावरा हमने उन पर आरोपित कर दिया।...

उसके बाद तो क्वार की उस स्निग्ध चाँदनी रात में हमारी रसोई की मड़ैया के साथ-साथ जले-अधजले घरों से एक ऐसी चिराँयध गाँव की ओर दौड़ी, जिसने फूलों की भाँति महकते हँसते-खेलते गाँव को ऐसा दुर्गंधमय बना दिया कि उसमें हर भले आदमी का रहना दूभर हो गया। ...दूसरे दिन मसाला-पसंद अखबारों के साथ-साथ बड़े-बड़े अखबारों की सुर्खियों में, बड़ी विश्वसनीयता के साथ लोगों ने पढ़ा,

'जातीय दंगे में सवर्णों ने शारीरिक उत्पीड़न के साथ-साथ छह दलितों के घर जलाए'

ऐसी खबर पढ़ कर हमें भी प्रसन्न होना चाहिए था और हुए भी थे। ...पर आज जब इसके औचित्य पर विचार करता हूँ तो मन के किसी कोने में से आवाज आती है कि - यह जो हुआ या हो रहा है उसमें कुछ अनुचित है और आत्मघाती भी। ...पर...?