हार / लाल्टू

Gadya Kosh से
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लिफ्ट से निकलते ही जैसे उसके पाँव जम गये, बाहर से आठ मंज़िला मकान देखकर उसे लगा तो था कि किसी बड़े रेस्तरां में जा रहे थे, पर अब जब गेटमैन द्वारा खोले गये विशाल दरवाजे के उस पार सबकुछ दिख रहा था, उसे अचानक महसूस होने लगा था कि इस दृश्य में वह 'फिट' नहीं होता। उससे चलते नहीं बन रहा था। दरअसल उस शाम खुद से नफरत का यह पहला झोंका था, जो उसे सहना था और भीतरी जड़ता के बावजूद उसने केवल मुस्कराकर कहा, “ह्वाओ”। भीतर जाते ही शायद घबराहट से उसे पेशाब आ गया था और वह कुर्सी पर बैठते बैठते उठ पड़ा था, “मुझे रेस्ट – रूम जाना है।”

साथ टुटुन भी आ गया था और मूतते हुए पेशाबखाने में लगे ऐंप्लीफायर से आती धुन सुनकर उसने मजाक में कहा, “यार यहां बीयर मत पिलाओ, ऐसे संगीत पर मूतकर बीयर नहीं जमता, यहां सीरियस कुछ पियेंगे।” वेस्टर्न आर्केस्ट्रा अचानक सितार में बदल गया था और उसे लगने लगा था कि यह धुन वह पहले कभी सुन चका है।

आनंदशंकर की वही धुन हॉल में भी थी। उन्होंने आर्डर दिया तो उससे पूछे बिना नहीं रहा गया, “ब्लडी मेरी में कितनी पेग वोदका डालते हैं आप ? स्ट्रांग बना सकते हैं क्या ?” उसकी ख्वाहिश पर बेरे ने डबल पेग ड्रिंक ला दी। वह जैसे वह शाम खो देने की तैयारी कर रहा था और आसन्न असफलता का आभास उसे तड़पा रहा था। उसका मन हुआ वह उड़कर कहीं दूर भाग जाये। अतीत की किसी प्रेमिका से आज शाम भर बिताने का आग्रह करे। यह उसका पुराना खेल है, जब वह सचमुच दूर भागता है , मन ही मन अपनी पुरानी प्रेमिकाओं सें बातें करने लगता है। जैसे यह टूट चुके पुलों पर खड़े होने की कोई अजीब कल्पना हो, उतनी ही घातक और दर्द से तड़पते, कुलबुलाते कीड़े को मसलती कोई ताकत ... पीड़ा को इस सीमा तक आकर वह समय को सरकने देता है।

“पेटी बिजनसमेन” ...वे लोग दूसरी ओर कांच की दीवार के साथ लगे मेज पर बैठे अधेड़ उम्र के लोगों पर टिप्पणी कर रहे थे, “या शायद ब्यूरोक्रेट हों ; वैसे अफ़सर तो इससे ज्यादा साफिस्टिकेटेड होते।”

उसने कांच की दीवार के उस पार उभरती शहर की अट्टालिकाओं और उन पर जगमगाती रोशनियों को देखा। सड़क पर चलते कभी ऐसा आभास तक नहीं होता कि इन बत्तियों में कितना सौंदर्य है। यहाँ ऊपर से लगता है जैसे आस्मां से सितारे ज़मीं पर उतर आये हों।

“क्यों पाप्पे, चुप क्यों बैठा है ?” शंकर ने उसे बुलाया तो वह गर्दन मोड़ते हुए बगल की मेज पर उसके ठीक उल्टी ओर बैठी शिफान की साड़ी पहनी उस युवती को एक नजर देख गया।

“बस यूँ ही, पुरानी बातें याद आ रही हैं।”

“कविता तो नहीं लिख रहा ? तेरा क्या ठिकाना है यार ? जहां देखो वहीं कविता लिखने बैठ गया ।”

उसके दिल में एक टीस सी उठी। कुछ लिखे हुए कितना समय हो गया है । सचमुच ऐसी मनोदशा में उसे कुछ तैयार करना चाहिए – पर अब जैसे उसका दिमाग पंगु हो गया है। वह फिर गर्दन मोड़कर शहर की बत्तियों को देखने ही वाला था कि उसने उस औरत को अपनी ओर देखते पाया, वह भी दो क्षण उसे देखता रहा। उसे पता है कि उसके हजार बार चाहते हुए भी वह कोई परिचिता नहीं निकलेगी। उसके चाहते हुए भी उस औरत का उसकी ओर ताकना महज एक संजोग के अलावा और कुछ न होगा। नहीं, इन बातों को अब वह इतनी गंभीरता से नहीं लेता कि खुद से नफरत का एक और झोंका अभी आ जाता। उसने काफी पहले यह समझ लिया था या यूँ कहें कि यह समझौता कर लिया था कि वह एक औसत पुरूष है - किसी खूबसूरत औरत को देखते ही एक ज़रूरत का महसूस होना उसे अब सहज लगता था। उसे लगने लगा था कि इस समझौते को न करने वाला या तो पाखंडी या फिर अतिमानव ही हो सकता है।

दोनों स्ट्रॉ को एक साथ उंगलियों से थामे उसने एक तगड़ा घूँट पिया। उन सबको अब हल्का हल्का नशा चढ़ने लगा था। राघव ने फिर धीरे धीरे वही पंद्रह साल पुरानी अपनी राजनैतिक गतिविधियों के बारे में सुनाना शुरू कर दिया था। जब भी राघव ने पी होती है, वह यही शुरू करता है। वे सब यह कई बार सुन चुके हैं। उन्हें मालूम है कि अब वह अपने पुराने साथियों को गालियाँ निकालेगा। फिर वह बतलायेगा कि कैसे उस गांव में वे छः लोग पकड़े गये और पुलिस ने उन्हें तंग किया ...। यह सब पुरानी बातें हो चुकी हैं, फिर भी हर कोई नये आग्रह से उसे सुन रहा था। उसे पता है कि शंकर और टुटुन भी केवल आग्रह का नाटक मात्र करते हैं। जैसे उन्होंने बचपने में कपड़े पहनने के साथ इस तरह नाटक करना भी सीखा हो। वह भी हर बार राघव से ये बातें चुपचाप सुनता है, पर उसके मन में थोड़ी सी सच्ची सहानुभूति भी होती है। उसे बस राघव की इस आदत पर गुस्सा आता है कि पीकर ही उसे यह सब क्यों कहना होता है। यह उसे अच्छा नहीं लगता। वैसे भी कोई नयी बात राघव अपनी कहानी में जोड़ देता है जिसे हर कोई चटोरेपन सा मजा लेकर सुनता है। इस बार भी कुछ कहेगा क्या वह ? उसे डर लगता है कि कहीं वह फिर किसी बौद्धिक विवाद में न फंस जाये। फिर उसे सहना पड़ेगा वही दस किताबों और उनके लेखकों के नाम, जो लोगों ने कहीं पत्रिकाओं में पढ़े होंगे और अब दारू के साथ नमकीन सा उन्हें जीभ पर चढ़ायेंगे। उसने फिर कुछ सोचने की कोशिश की और बगल की मेज की ओर देखा। पहले बैठी वह औरत चली गयी है। अब वहाँ एक परिवार आकर बैठ गया , एक युवा दंपति और शायद लड़के के माता पिता। वे आइसक्रीम मंगाते हैं, उस लड़के ने एक टी शर्ट पहना हुआ है, जिस पर एक फुटबाल का चित्र है। उसे अचानक बचपन में फुटबाल खेलने की याद आ गयी। मुहल्ले में अपनी उम्र का सबसे बढ़िया राइट हाफ था। नंगे पैरों जब वह गेंद के साथ दौड़ता तो मैदान के पास से गुज़रते हुए लोग भी स्तब्ध देखते रह जाते थे और देर तक खड़े रहते थे। उसे महसूस होता कि गेंद और उसका शरीर एक लय से दिव्य नाच नाच रहे हों, पर जल्दी ही जूते पहने किसी पांव से उसकी टक्कर हो जाती और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ता। वह कभी खेलने के जूते न खरीद सका और इसलिए जब कालेज की टीम के कप्तान ने उसे टीम में लेना भी चाहा, वह खेल न पाया था। उन दिनों उसका एक प्रतिद्वंद्वी भी था - आशीष। आशीष भी बहुत अच्छा खेलता, पर उसके जूतों की वजह से आशीष से वह हमेशा चिढ़ा रहता था। जब भी आशीष दूसरी ओर होता, उसे आशीष और उसके जूतों में कोई फ़र्क न दीखता था और वह उन जूतों को किसी तेज औजार से कुतर देना चाहता था।

“उसके बाद जब हम लौटे,” राघव अपनी कहानी के भावुक चरण में आ पहुँचा था, "मैं श्यामल के घर कहने गया था कि उसकी मौत हो चुकी है।" राघव ने एक लंबा घूँट पिया और धूमिल आँखों से कहने लगा, "यार, मैं वह दिन कभी भूल नहीं पाता। श्यामल की माँ स्तब्ध खड़ी थी और मैं बुरी तरह चाह रहा था कि वह रो पड़े।"

"यार, कुछ खाने का आर्डर दे दिया जाये,” शंकर ने सुझाव दिया।

“नहीं, यहाँ नहीं ; खाना कहीं और खायेंगे, निजाम में चलेंगे”, टटुन ने कहा।

“साले पेटी बुर्जुआ” - उसने मन ही मन गाली दी और फिर जैसे अपने उद्गार को कहीं से टकराते हुए अपनी ओर आते महसूस किया और घबराहट में जल्दी से एक घूँट और पिया।

“फिर कलकत्ते में कुछ महीनों बाद जब शिवानी ने मुझे वापस लौटने को कहा,” ... उनके सबके कान खड़े हो गये। राघव नया कुछ कह रहा है। उसकी कहानी एक और कड़ी आगे बढ़ रही है, “मैं उससे झगड़ता रहा, मुझे पता तक न चला मैं कैसे धीरे धीरे उसके इश्क में डूबता गया और जब मैं समझ पाया, वह जा चुकी थी। अभी पिछले साल किसी ने मुझे बताया कि वह एक एन्काउंटर में मर चुकी थी।”

“इट इज इंटेरेस्टिंग। क्या क्या हो गया उन लोगों को”, शंकर ने जबरन विषय बदलते हुए कहा, “अरे, वह भानु याद है, साला मुझे न्यूयार्क में मिला। मैं वहां एक कान्फ्रेंस के लिए आया था और वह एक सेशन चेयर कर रहा था, बाद में मैंने उसे रोका तो पहचानते ही पहली बात उसने यह की थी कि देख भाई, मैं अब बिल्कुल बदल चुका हूँ। अब मुझसे यह सब बातें न करना .. कैन यू मैजिन ?”

“मैं जब भी वह सब सोचता हूँ, बहुत परेशान हो जाता हूँ”, राघव नर्वस सा सिर हिला रहा था।

उसका तनाव बढ़ता जा रहा था। वह चाहता था कि उनसे चुप करने को कहे, पर साथ ही वह उनकी बातें सुनना भी चाहता था। उसे लगा कि किसी भी क्षण वह उबल सकता है, पर उसे यह मालूम था कि इतनी ताकत शायद उसमें नहीं है।

“खैर, वह भानु जो छः महीनों में इंकलाब लाने वाला था, वह भी कैसे बदल गया !”

..उसे अब ध्यान न था कि कौन क्या कह रहा है, वह सुनता जा रहा था और अचानक उसके मुँह से निकला, “शुक्र खुदा का कि यह सब हुआ।”

“क्या मतलब ?” राघव ने तुरंत प्रतिक्रिया दी।

“अगर यह सब नहीं होता तो हम लोग क्या करते ?”

“यार तू कैसी बातें करता है, वह सब रबिश था... बड़े बड़े शब्दों को गाँवों में जाकर उगल देना कोई इंकलाब नहीं होता।”

टुटुन राघव को शांत करने की कोशिश कर रहा था। शंकर दोनों हाथों से सिर पकड़े हुए चुपचाप बैठा था।

“कौन कहता है वह इंकलाब था ? भई, इतना फायदा तो हुआ कि हम समझ पाये कि ऐसा करना कोई मायने नहीं रखता।” वह जानता था कि वह नासमझ जैसी बातें कर रहा है, पर उसके अंदर कुछ पिघलने लगा था, जिसे रोक पाना अब संभव न था।

“यह कोई बात नहीं हुई, इस तरह हिस्ट्री का विश्लेषण नहीं किया जाता ...”, कौन कह रहा था यह सब ...।

“तो क्या यहाँ बैठकर दो चार सुविधापरस्तों के आधार पर एक समूचे आंदोलन को गालियाँ देते रहना ही विश्लेषण है ?”

अब शंकर ने सिर उठाकर कहा, “बस शुरू हो गया - अमाँ यार, कोई पते की बात करो, क्या बेमतलब के झगड़े में फँस रहे हो?”

“वह कितनी बड़ी गलती थी”, राघव फिर भावुक होकर बोलता गया, उनसे पूछो जो हमेशा के लिए खत्म हो गये...।"

“और वह जो आज बिहार और आंध्र में लड़ रहे हैं ? वे क्या हवा से आये हैं ?”

“देख यार, तुझे आईडालाइज करना है तू कर ; हमें जो गलत लगता है, उसकी आलोचना तो हम करेंगे - तुझे कोई एतराज है ?”

एतराज़ उसे क्या हो सकता था - वह आशीष की लँगड़ी खाकर गिर चुका था और निर्णय ले रहा था कि अब आये साला गेंद लेकर मेरे पास, ऐसी मारूंगा घुटने पर कि बच्चू रो देगा।

उसने एक दफा अपनी शिराओं को जैसे जबर्दस्ती पकड़कर धीरे धीरे कहा, “इसका क्या फायदा ? हम लोग यह क्यों नहीं सोचते कि हमें करना क्या है ? कब तक इस तरह हम केवल आलोचक बने रहेंगे ? क्या हमारी यह जिम्मेदारी नहीं कि हम लोगों को जोड़ने की कोशिश करें - क्या तुम लोग इसकी जरूरत नहीं महसूस करते ?”

टुटुन उसकी ओर अजीब सी निगाह से देख रहा था। मानो पूछ रहा हो कि साले तुझे रहना तो हमारे साथ है और बातें करता है यह सब। वह धीरे धीरे नियंत्रण खोता जा रहा था। उसे लग रहा था कि अब अधिक देर तक इस तरह सँभलकर वह बातें नहीं कर पायेगा।

राघव अब हंसने लगा था, “यार, तू सचमुच बड़ा तंग करता है, वैचारिक एकता के बिना कैसे लोग जुड़ेंगे ?”

“हां, हम लोग वैचानिक बुनियाद के लिए लड़ते रहें और फायदा किसको मिले - फायदा मिले भिंदरावलों को।”

उसे अभी भी याद है वह खेल। आशीष गेंद लेकर दौड़ता हुआ आया, उसके जूते के स्पाइक्स लकड़ी के बने थे। उन दिनों शायद प्लास्टिक के नहीं बनते थे। उसने रोका तो आशीष का जूता उसके पैर पर चढ़ आया। दर्द से उसकी शिराएँ तन गयी और जैसे ही आशीष उसे छोड़ आगे बढ़ा, उसने पीछे से घुटने पर लात मारी।

आशीष गिर पड़ा था। उसका चेहरा कीचड़ से भरा था। वह समझ ही न पाया था कि क्या करे और आशीष का दायाँ पैर उसकी नाभि के नीचे रफ्तार से दौड़ते हुए आया था। वह हार गया था। अब वह हारना न चाहता था।

वह मुस्कराया और बोला, “क्या केवल मात्र पढ़ते रहना ही हमेशा एक समस्या नहीं रही है, अपनी सीमाओं को कब समझेंगे हम लोग ? जिनकी तुम आलोचना कर रहे हो, उन लोगों ने कुछ कम पढ़ा था क्या ? जरा बतलाओगे मुझे एक असहाय गरीब के दर्द को किस किताब में पढ़ा है तुमने ?”

राघव चिढ़ चुका था। उसने गुर्राते हुए कहा, “देख, अगर हमारी बातचीत तुझे पसंद नहीं, तू उसमें हिस्सा न लिया कर। ऐसी फालतू बेमतलब बातों में हमें कोई काम नहीं।”

उसका सिर खौलने लगा था। उसने बगल वाली मेज पर देखा, वह चार सदस्यों का परिवार अभी तक मेज पर आईसक्रीम खा रहा था। वह जवान लड़की सँभल सँभलकर माता पिता से बातें कर रही थी। अचानक लड़की के चेहरे पर उसे अपना बचपन दिख गया। लगा जैसे उसकी आँखें, नाक व मुँह दरअसल उसके बचपन के नंगे पैर हैं, जो आशीष के जूतों से बचने के लिए सँभल सँभलकर कर दौड़ रहे हों। उसे लगा वह उठकर उस औरत तक जाये और उसे कहे, “इतना घबराती क्यों हैं ? इतना सँभलकर क्यों बात करती हैं आप ? आपको पता नहीं कि ये लोग भी आपसे डरते हैं?”

पर ऐसा कुछ नहीं किया उसने ...'क्या सोच रहा हूं मैं ; बेतुकी बातें', उसने मन ही मन सोचा, फिर राघव की ओर ताका। थोड़ी देर चुप चाप ताकता रहा ; वे सब चुपचाप उसके जवाब का इंतजार कर रहे थे। टुटुन ने कुछ कहना चाहा। उसके पहले ही वह धीरे से बोल पड़ा, “हर पाछे के नीचे से कुर्सी खिसक सकती है ; हम सब कुर्सी खिसकाने में सक्षम हैं। राघव, तुम्हारा जी करता है तुम जाओ।”

राघव गुर्राकर कुछ कहने वाला था। उसने सोचा, 'नहीं, अब मैं नहीं हारूंगा। बहुत हो गया।' वह उठा और फिर खुली आवाज में कहा, “सुन ले भैनचो...। मैं ही जा रहा हूं और यह सोचकर जा रहा हूँ कि फिर कभी ऐसी जगह नहीं आऊँगा।”

आस पास के लोग उनकी ओर ताकने लगे थे। वह धीरे धीरे हाल से निकला। नीचे उतर आया तो ताजी हवा में सांस ली। वह थोड़ी देर पिछली घटनाओं के बारे में सोचता रहा। 'क्या सचमुच मैंने गाली निकाल दी ? साला, फिर हार गया।' अचानक उसे महसूस हुआ जैसे वह कोई ग़लती कर बैठा है। खुद को बहुत छोटा महसूस करते हुए वह अगले क्षणों के लिए तैयार होने लगा। मन ही मन वह अब टुटुन, शंकर वा राघव को समझाने लगा था कि उसको उठना क्यों पड़ा। शहर की असुंदर बत्तियाँ उसे राह दिखा रही थीं।