हास्य एवं पागलपन सिनेमा के भेद / जयप्रकाश चौकसे

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हास्य एवं पागलपन सिनेमा के भेद
प्रकाशन तिथि : 21 जून 2014


साजिद खान और निर्माता वासु भगनानी की 'हमशक्ल' किशोर कुमार की पागलपन वाली फिल्में जैसे 'हॉफ टिकिट', 'झुमरू' इत्यादि को समर्पित की गई है परंतु किशोर कुमार ने संजीदा 'दूर गगन की छांव' भी बनाई है और सार्वकालिक महान हास्य फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' भी बनाई है। दरअसल बेसिर पैर की मखौल उड़ाने वाली फिल्मों की लंबी परम्परा रही है। हास्य फिल्म और पागलपन की फिल्मों में अंतर होता है। हास्य फिल्मों में गंभीर समस्याओं के प्रति चिंता जताई जाती है। मसलन चार्ली चैपलिन की 'गोल्ड रश' मनुष्य के लालच और अनर्जित सम्पदा के प्रति तीव्र आग्रह को रेखांकित करती है और उसके एक दृश्य में सोने की तलाश में निर्जन बर्फीले स्थान पर भूखा फंसा चैपलिन जूतों को उबालकर उससे कीले निकालकर ऐसे खाता है मानो हड्डी निकालकर मांस खा रहा हो। जीवन के प्रति दार्शनिक भाव रखने वाले फिल्मकार अपनी हास्य फिल्म को मुखौटे के रूप में गढ़ते हैं ताकि उनका दर्द दिखाई न दे अर्थात मूलत: वे त्रासदी ही हैं परंतु उन्हें हास्य का स्वरूप दिया गया है। आंसू और मुस्कान के बीच गहरा रिश्ता है और आंख व ओंठों के बीच के इंच दो इंच के फासले को तय करने में एक उम्र लग जाती है। कई बार सख्ती से बंद किए ओंठ रो रहे हैं और आंखें हंसती हैं। चार्ली चैपलिन के समकालीन बस्टर कीटन की फिल्मों को अनुराग बसु के 'बर्फी' में आदरांजलि दी गई थी। चार्ली चैपलिन से प्रारंभ राजकपूर से गुजरते हुए इस विधा का मौजूदा फिल्मकार वूडी एलेन है। आंसू-मुस्कान विधा की फिल्मों को अलसभोर की फिल्में कहना चाहिए जिनमें यथार्थ का अंधकार और आदर्श का उजाला गलबहियां करते नजर आते हैं जिसे शायर 'सुरमई उजाला और चम्पई अंधेरा' कहते हैं।

अपने में त्रासदी समेटे बनने वाली हास्य फिल्मों और हास्य के लिए बनने वाली 'चलती का नाम गाड़ी', 'पड़ोसन' और 'अंगूर' तथा 'गोलमाल' से अलग है पागलपन का सिनेमा जो तर्कहीनता को गरिमा देने का प्रयास करता है। यह सिनेमा अर्थहीन ठहाकों को ध्वनिपट्ट की तरह उपयोग करता है और किशोर कुमार तथा जैरी लिप्स ने इसे भी साधा है। क्षेत्र में महमूद ने भी कुछ फिल्में बनाई हैं। इस विधा के पुरोधा आइएस जौहर है, जिन्होंने 'जौहर मेहमूद इन गोवा', 'फाइव राइफल' इत्यादि अनेक फिल्में 'पागलपन सिनेमा' के तौर पर बनाई जो कहीं न कहीं व्यवस्था का मखौल बनाती है और उन सब लोगों पर हंसती है जो गंभीरता का मुखौटा लगाए घूमते हैं। हम समझदार लोगों को आदर देते हैं और यह जानने की चेष्टा नहीं करते कि समझदारी ओढ़ी हुई है या असल। आईएस जौहर इस बात का पर्दाफाश करते हैं। पागल का इलाज संभव है, पागलखाने भी होते हैं परंतु आपने कभी सुना कि मूर्खता के लिए मूर्खखाना है। जिस व्यक्ति ने पहली बार कहा था कि दुनिया गोल है, उसे पागल करार दिया गया। नए विचार के प्रति हमारे स्वभाव में एक विरोध है क्योंकि सदियों से हमें 'स्थापित' का सम्मान करना सिखाया गया है और विचार तथा कई क्षेत्रों में प्रश्न करने को जाने क्यों सम्मान करने का विरोध माना गया है। दरअसल जड़ता के जमे रहने से व्यवस्था के दलालों को लाभ होता है। कुछ लोगों की विचार श्रृंखला उनके नियंत्रण से बाहर हो जाती है और उन्हें पागल करार दिया जाता है। आवेग का नियंत्रण और संतुलन कठिन है।

पागलपन के सिनेमा में दो श्रेणियां हैं- एक में तर्कहीनता और पागलपन के बहाने कुछ गंभीर संकेत दिए जाते है, दूसरे में पागलपन पागलपन के लिए ही है जिसे स्लैपस्टिक कॉमेडी कहते हैं। स्लेप थप्पड़ को कहते हैं। बस्टन कीटन फिल्मों में एक मनुष्य दूसरे को थप्पड़ मारता है जो तीसरे को मारता है और वह पहले वाले को मारता है अर्थात थप्पड़ मारने वाले के पास ही लौट आता है। साजिद खान की 'हमशक्ल' में एक ऐसा ही दृश्य है और संवाद भी है कि इस थप्पड़ मार कॉमेडी को स्लैपस्टिक कहते है। साजिद की अब तक बनी सारी फिल्में इसी श्रेणी की हैं और तर्क वालों को यह अपना अपमान लग सकती है। दरअसल आज जारी अधिकांश कॉमेडी शो का आधार एक दूसरे का अपमान करना ही है और अपनी पत्नी का मजाक उड़ाने वाले को जाने क्यों सराहा जा रहा है।

आज के युग में पागलपन मात्र पागलपन के लिए सराहा जाना कठिन है, क्योंकि यह सूचना का युग है और लोग बहुत कुछ जानने लगे हैं। जानकारी से हरे-भरे काल खंड में यह कठिन है। बहरहाल इस फिल्म में रामकपूर ने आश्चर्यचकि किया क्योंकि सीरियल संसार में वे संजीदा भूमिकाएं करते हैं। भारतीय सिनेमा में पागलपन सिनेमा हमेशा सीमित बजट में बनाया जाता रहा है परंतु साजिद महंगी फिल्में बनाते हैं। बहरहाल पागलपन की फिल्म सफल हो तो हास्य मानी जाता है, असफल हो तो त्रासदी।