हास्य की हवा और समाज के दुख / जयप्रकाश चौकसे

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हास्य की हवा और समाज के दुख

प्रकाशन तिथि : 29 जनवरी 2012

मधुर भंडारकर ने 'पेज थ्री', 'कारपोरेट' और फैशन की दुनिया पर केंद्रित 'फैशन' जैसी गंभीर फिल्में बनाई हैं। 'ट्रैफिक सिग्नल' और 'जेल' की नाकामी के बाद उन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धता की फिल्में बनानी बंद कर दीं और उद्योग की 'हवा' देखकर 'दिल तो बच्चा है जी' नामक हास्य फिल्म बनाई है। फिल्म उद्योग में बॉक्स ऑफिस की सफलता या सफलता का भ्रम रचने पर एक 'हवा' बनती है और पूंजी निवेशक तथा सितारे इसी 'हवा' को सत्य मानकर फैसले करते हैं। फिल्म निर्माण इतना महंगा हो चुका है कि जागरुक फिल्मकार भी मजबूर होकर 'हवा' के साथ चलने लगते हैं। आजकल की 'हवा' हल्की-फुल्की हास्य फिल्म बनाने की है, जबकि हास्य फिल्मों की सफलता का प्रतिशत भी उतना ही कम है, जितना अन्य प्रकार की फिल्मों का।

फिल्म उद्योग की इस 'हवा' का संबंध समाज से भी है। जीवन की कठिनाइयों और विसंगतियों के कारण आम आदमी बचाव और राहत के लिए पतली गलियां खोजता है। अत: लोकप्रिय संस्कृति में सतही बातों के पक्ष में राय बनाई गई है। मोबाइल पर हल्के और अभद्र जोक भेजे जाते हैं और लतीफेबाजी को हर क्षेत्र में स्थापित कर दिया गया है। टेलीविजन पर 'कॉमेडी सर्कस' चलाया जाता है। फूहड़ हास्य के सीरियल को लोकप्रियता मिल रही है। मित्रों की महफिल में चुटकुले सुनाने वालों को पसंद किया जाता है। बड़े लोग भी अपने दरबार में विदूषक को विचारवान व्यक्ति की तरह सम्मान देते हैं। इस तरह हमने अपने मनोरंजन को भी अपनी तात्कालिक सहूलियत के अनुरूप परिभाषित करना प्रारंभ कर दिया है। फिल्म उद्योग में 'हास्य की हवा' समाज में सतहीपन की स्थापना का ही एक हिस्सा है। छोटे-मोटे जायकेदार जुमले गढऩे को चतुर माना जाता है। क्या सचमुच हंसने से जीवन के तनाव में कमी आती है? मन में अवसाद की झील बन गई है और क्या चुटकुलों के कंकर-पत्थर उसमें लहरें बनाते हैं? क्या समाज और साहित्य में गंभीरता तथा विद्वत्ता को खारिज कर दिया गया है और फिल्मों में फूहड़ हास्य की तथाकथित सफलता का इसके साथ सीधा संबंध है? सुबह सैर पर जाने वाले समुदाय भी चंद क्षणों के लिए सामूहिक ठहाके लगाते हैं, जिसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है और लाफ्टर क्लब के चिकित्सकीय लाभ को भी स्थापित किया जाता है। गौरतलब यह है कि किसी बात पर दिल से निकला ठहाका दवा का काम करता है या जबरन लगाया गया ठहाका मदद करता है? क्या गंभीर फिल्मों को देखने से मनोरंजन नहीं होता? त्रासदी द्वारा मन के भावों के विरेचन सिद्धांत को सदियों ने मांजा और पुख्ता किया है।

विगत दशक में मीडिया ने भी सतही बातों को लोकप्रिय किया है। चुटकुलेबाजी, लतीफेबाजी हर दौर में रही है, परंतु उसे विद्वत्ता या दर्शन कभी नहीं माना गया, जैसे कि गुदगुदी होने को शरीर की कसरत नहीं मानते। यह संभव है कि अन्याय आधारित समाज में राहत की आवश्यकता पहले से अधिक हो गई है। राहत कभी निदान नहीं होती व तात्कालिक सुविधा होती है। हिंदुस्तानी सिनेमा में हमेशा हास्य रहा है। गुरुदत्त की गंभीर फिल्मों में जॉनी वाकर रहे हैं। हास्य और फूहड़ता की गड्डमगड्ड भी ताजी नहीं है।