हास्य के बाजार में चुटकुले की चांदी / जयप्रकाश चौकसे

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हास्य के बाजार में चुटकुले की चांदी
प्रकाशन तिथि :09 सितम्बर 2015


फिल्म उद्योग में आधा दर्जन सितारे और आधा दर्जन फिल्मकार ऐसे हैं, जिनके नाम से फिल्म बनने के पहले बिक जाती है और मजे की बात यह है कि फिल्म बेचने की क्षमता रखने वाले फिल्मकारों में एक सिरे पर राजकुमार हीरानी हैं तो दूसरे सिरे पर रोहित शेट्‌टी खड़े हैं। फिल्म जगत में ऐसे अजूबे होते रहते हैं- एक जमाने में रामानंद सागर और प्रकाश मेहरा को भी फिल्मकार माना ही जाता था। बहरहाल, मुद्‌दे की बात यह है कि इस आधा दर्जन सफलता क्लब के बाहर अनेक फिल्मकार हैं, जिनमें से कुछ दशकों से सक्रिय रहे हैं परंतु उन्हें आज के सितारे मिलने से भी इनकार कर देते हैं। एक जमाने में धर्मेंद्र और जितेंद्र "शोले' और "धरमवीर' जैसी भव्य फिल्में करते थे तो गुलजार की फिल्में भी। परंतु आज के सितारे अपने चुनिंदा फिल्मकारों के साथ ही काम करना पसंद करते हैं। उनका उठना-बैठना भी अपने चहेतों के साथ है। फिल्म समाज में भी श्रेणीभेद हो चुका है, इस समाज का श्रेष्ठि वर्ग अन्य समूहों के साथ काम नहीं करता। यहां रोटी-बेटी की तो बात ही नहीं है! आनंद राय को तीन सफल फिल्में बनानी पड़ीं, शाहरुख के बंगले 'मन्नत' के द्वार तब जाकर खुले। गौरी शिंदे की 'इंग्लिश-विंग्लिश' की सफलता के कारण करण जौहर और शाहरुख मिलकर उनकी नई फिल्म का निर्माण कर रहे हैं।

पूरे देश के हर क्षेत्र में एक श्रेष्ठि वर्ग है व अन्य सब हाशिये के बाहर खड़े हैं। अब भारतीय समाज के पन्ने पर हाशिये के लिए अस्सी प्रतिशत स्थान रहेगा और श्रेष्ठि वर्ग बीस प्रतिशत स्थान पर रहकर भी पूरे पन्ने को अपने रंग में रंग देगा। एक ही रंग का पन्ना 'विविधता में एकता' के हजारों वर्ष के निचोड़ को नष्ट कर देगा। ऐसे में भूला-बिसरा गीत याद आ जाए तो क्या कीजिए, 'कोरा कागज था ये मन मेरा..' हर सृजनधर्मी जानता है कि लिखने के समय कोरा पन्ना चुनौती होता है व विचार न आने पर कोरा पन्ना मखौल उड़ाता है। सृजन का बांझ काल भी कुछ भीतर-भीतर रचता है व वक्त आने पर ज्वालामुखी फटता है। कभी पन्ने पर लिखने के बाद यह भी अहसास होता है कि यह इबारत तो किसी मायावी स्याही से उस पर पहले ही लिखी थी और अपने अदृश्य रूप में मौजूद थी। कलमनवीस तूने तो कुछ किया ही नहीं। कोरे पन्ने की गहराई लेखक का अहंकार तोड़ देती है।

बहरहाल, अनीज बज़्मी ने गुजरे दौर के सितारे नाना पाटेकर, अनिल कपूर और मंदी से गुजरते जॉन अब्राहम को लेकर 'वेलकम बैक' बना दी, जिसमें नसीरुद्‌दीन शाह और परेश रावल भी है। इसकी सफलता ने सिद्ध कर दिया कि महंगे सितारों के अभाव में भी मसाला रचा जा सकता है। मजबूरी नए आविष्कार करने पर बाध्य करती है। भारत वाचाल देश है, इसलिए इसके सिनेमा में संवाद महत्वपूर्ण है अन्यथा इस विधा की अपनी भाषा है। अनीज का लक्ष्य केवल दर्शक को समय बोध से मुक्त कराकर ठहाके लगवाना था। यह टाइम पास युग है। वे हमेशा ही अच्छे लेखक रहे हैं और "प्रेम रोग' में जैनेंद्र जैन को लिखने में सहयोग किया था तथा राज कपूर का प्रिय शागिर्द भी बन गया, क्योंकि निर्देशक पूछता तीन पर 42 क्या था पढ़ो, तो अन्य सहायक पन्ने पलटते परंतु अनीस राज कपूर को पूरा दृश्य सुना देते। उन्हें पटकथा कंठस्थ रहती।

अनीज ने डेविड धवन की सफल पारी में लेखक का जिम्मा संभाला और टीम टूटने पर डेविड कुछ समय लड़खड़ाते रहे। अनीज बोनी कपूर की 'नो एंट्री' बना रहे थे और बोनी के एक दोस्त ने उसी विषय पर फिल्म प्रदर्शित कर दी, तो अनीज ने पटकथा का अंदाज बदल उसे भव्य सफलता बना दी। उनकी निर्देशकीय ताकत लेखन से आती है। आज मोबाइल पर जोक्स भेजने का रिवाज लोकप्रिय है और जोक्स सुनाने के चाव पर 'भाभीजी घर में है' नामक सीरियल में ठहाके लगाने वाला एक एपिसोड आ गया! हमारे सांस्कृतिक बौनेपन ने इस युग को चुटकुला युग बना दिया है। देश के गंभीर सवाल भी चुटकुला अंदाज में सुलझाए जा रहे हैं। आज गंभीरता और गहराई हर क्षेत्र से खारिज कर दी गई। यह वाक् चातुर्य का काल है और सेल्समैन की तरह रटे-रटाए जुमले बोलने वाले को विचारक मान लिया गया है। कवि सम्मेलनों में भी चुटकुले सुनाने वाले को कवि माना जाता है। आप शिक्षा परिसर में जाइए, वाक् चातुर्य वाला छात्र लोकप्रिय दिखाई देगा। शब्दों से खिलवाड़ और थोड़ी-सी अशिष्टता आपको मित्र दरबार का बीरबल बना देती है। अनीज न इसे भांप लिया और फिल्म के संवाद ही चुटीले और चुटकुलानुमा हैं। सिनेमाघर ठहाकों से गूंज रहे हैं, बॉक्स ऑफिस पर सिक्के खनक रहे हैं। सच तो यह है कि अनीज बेहतर सिनेमा बनाने की योग्यता रखते हैं परंतु उन्होंने धारा के विपरीत तैरना पसंद नहीं किया।