हिंदी और मुसलमान / रामचन्द्र शुक्ल

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(आपत्तियों का विस्तृत जवाब)

माननीय श्री चिन्तामणि ने नागरी के पक्ष में जब अपना प्रस्ताव पेश किया तो कौंसिल के मुसलमान मित्रों से उनके विरुद्ध मोर्चा बनाने के अलावा कुछ और अपेक्षित न था। यद्यपि इस विचाराधीन प्रस्ताव में सम्बन्धित पक्ष की वास्तविक आवश्यकता से अधिक कोई माँग न की गई थी, फिर भी इसने कुछ सदस्यों को इस हद तक विचलित किया कि वे भावनाओं की अभिव्यक्ति में आनुपातिक विवेक पूर्णत: खो बैठे। माननीय नवाब अब्दुल मजीद तो ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक काल में हिन्दी भाषा जैसी किसी चीज के अस्तित्व को ही नकारने की सीमा तक चले गए। उन्होंने हिन्दी को एक ऐसी मनगढ़न्त भाषा कहना पसन्द किया जिसका अस्तित्व कुछ समाजों (Societies)की स्थापना और कुछ पुस्तिकाओं (Tracts) के प्रकाशन से सामने आया। भारत की लगभग दो तिहाई जनसंख्या द्वारा बोली जानेवाली भाषा के उद्भव का ऐसा विचित्र सिद्धान्त ? आज के हिन्दुओं का सौम्य एवं विनम्र स्वर यह संकेत कर रहा है कि ब्रिटिश शासन से पूर्व उत्तर भारत की जनता या तो उर्दू बोलती थी या व्यावहारिक रूप से गूँगी थी।

नवाब को यह भलीभाँति स्मरण होगा कि हिन्दी भाषा जैसी चीज का अस्तित्व ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ से नहीं, मुसलमानी शासन के प्रारम्भ से ही स्वयं मुसलमानों द्वारा स्वीकार किया गया है। ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारम्भिक दिनों में जब उर्दू कवि इंशा ने अपनी 'ठेठ हिन्दी की कहानी' लिखी तो उनकी नजर में यह उस समय की सामान्य भाषा में लिखकर एक विस्तृत फलक पर अपनी छाप छोड़ने की सहज अन्त:प्रेरणा का अनुपालन था। खुसरो, जायसी और परवर्ती कई अन्य मुसलमान हिन्दी कवियों के नाम तो इतने सुप्रसिद्ध हैं कि यहाँ उनके उल्लेख की आवश्यकता ही नहीं है। यहाँ यह प्रत्यक्ष है कि जो व्यक्ति स्वयं को यह कहकर छलता हो कि हिन्दी कोई भाषा ही नहीं है, वह थोड़ा ही आगे चलकर यह भी कह सकता है कि हिन्दुस्तान जैसा कोई देश और हिन्दू जैसी किसी जाति का भी अस्तित्व नहीं है।

इतने बड़े नकार के बाद काबिल नवाब यह कहते हैं कि 'हो सकता है हिन्दी अक्षर अस्तित्व में रहे हों पर उनका प्रयोग वैसे लोगों का कार्य समझा जाता था जो कभी भी शिक्षित और सभ्य नहीं कहे जा सकते।' हाँ, ठीक! बिल्कुल वैसे ही, जैसे इन दिनों फारसी में लिखना ऐसे लोगों का कार्य समझा जाता है जो इस लिपि से जनता की अनभिज्ञता का लाभ उठाने में कभी नहीं चूकते। शिक्षा और संस्कृति के सम्बन्ध में हमारे मुसलमान मित्रों को स्व. डॉ. सैयद अली बिलग्रामी के विवेकपूर्ण शब्दों को कभी नहीं भूलना चाहिए। उन्होंने साफ साफ कहा था कि शिक्षा की दृष्टि से मुसलमानों की पिछड़ी हुई दशा का प्रधान कारण दोषपूर्ण फारसी वर्णमाला है, जो उनके बच्चों को बरसों व्यर्थ उलझाए रखती है। उन्होंने अपेक्षाकृत सरल एवं व्यवस्थित नागरी वर्णमाला स्वीकार करने का सुझाव दिया था, जिसे कुछ ही महीनों की अवधि में सीखा जा सकता है। उतनी ही ईमानदारी से इसमें [ इस सुझाव में अनु.] मैं यह जोड़ सकता हूँ कि बुराई और अधिक गहराई में है अर्थात् खुद उर्दू भाषा में है। जिस भाषा के पास अपना भाषाशास्त्रीय इतिहास न हो, निश्चय ही वह भाषा नाम की अधिकारिणी नहीं हो सकती है। जो व्यक्ति केवल उर्दू जानता है, सम्भवत: वह भाषा की संरचना को नहीं समझ सकता और शब्दों के व्युत्पत्तिमूलक महत्तव से पूर्णत: अनभिज्ञ रहता है। ऐसे ज्ञान को बड़ी कठिनाई से भाषा ज्ञान कहा जा सकता है, यह प्राय: अज्ञानता के समरूप है।

हिन्दी में यत्रा तत्रा आए संस्कृत शब्द नवाब को विशेष रूप से असंगत जान पड़ते हैं। हिन्दी, संस्कृत की अप्रत्यक्ष वंशज है। भारत की किसी भी अन्य देशज भाषा के समान हिन्दी भी उस [संस्कृतअनु.] भाषा के अक्षय भंडार से शब्दों का विवेकपूर्ण ऋण लेते हुए उससे अपना स्वाभाविक सम्बन्ध बनाए रखती है। यह कोई नया चलन नहीं है; यह उतना ही पुराना है, जितनी स्वयं हिन्दी भाषा। यह किसी आविष्कार, योजना या दुष्प्रचार का प्रतिफल नहीं है।

पूरे भारत के लिए एक सामान्य भाषा की आकांक्षा अब देश में स्वयमेव मुखरित होने लगी है। ऐसी भाषा के विकास एवं प्रसार का आधार निर्मित करने और किसी बेतुकी, विजातीय और कृत्रिम भाषा के अतिक्रमण को रोकने के लिए उन सभी देशी भाषाओंज़ो अपने संश्लिष्ट और वैज्ञानिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी के समान ही संस्कृत का आश्रय लेती हैं क़े प्रतिनिधियों का यथाशीघ्र आह्नान किया जायगा। बंगाली, हिन्दी, मराठी और गुजराती में परस्पर इतनी अधिक समानता है कि इनमें से किसी एक भाषा के लिए दूसरी भाषा के क्षेत्र में कमोबेश फैल जाने की सम्भावना बन जाती है। इस व्यापक सामंजस्य को कोई तत्तव हानि न पहुँचाए, यह देखना आगामी पीढ़ी का कार्य होगा। सदा की तरह अब भी सभी भारतीय भाषाओं में संस्कृत के शब्द ऐसे प्रभावी कारक के रूप में हैं जो इन्हें परस्पर निकट लाते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि संस्कृत से निर्बंधा ऋण लेने से हिचकने वाली कोई भाषा या भाषा का रूप इस भाषिक गठबंधन में सम्भवत: प्रवेश नहीं पा सकता। भारत की सभी साहित्यिक भाषाओं में इस समय उर्दू अकेली भाषा है जोर् ईर्ष्याेवश संस्कृत शब्दों से परहेज करती है और केवल अरबी तथा फारसी से खासतौर पर शब्द उधार लेती है। इस प्रकार सभी भाषाओं में व्याप्त सामग्री के अभाव में इसका पृथक् अस्तित्व नियत है। [षडयन्त्र के तहत यदा कदा बहक जाने के ] वैशिष्टय से युक्त उर्दू हिन्दी से पूरी तरह मेल खाती है। घुलने मिलने की स्वाभाविक प्रक्रिया से भाषा के संघटन में शामिल हो चुके अरबी फारसी के शब्दों का हिन्दी बेधड़क प्रयोग करती है। हर विद्वान् जानता है कि उर्दू कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं है। यह पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा मात्र है जिसे मुसलमानों द्वारा अपनी ऐकांतिक रुचियों और पूर्वग्रहों के अनुकूल एक निजी रूप दे दिया गया है। इस प्रकार हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा के दो रूप हैं। एक ही और समान भाषा के दो रूप होने के कारण यह तार्किक है कि जो रूप सभी निकटवर्ती भाषाओं के समान लक्षणों से युक्त है, वह उस रूप की अपेक्षा जो अपने स्वतन्त्र विकास का प्रयास कर रहा हो, अधिक सामंजस्य बिठा सकता है। वह दिन दूर नहीं जब जनता में उर्दू से अधिक बंगाली, मराठी और गुजराती स्वीकार्य होंगी; ठीक वैसे ही जैसे सैयद रजा अली ने हिन्दी से अधिक रूसी, इतालवी और फ्रेंच का प्रयोग किया है।

हिन्दी के विरुद्ध अपने पवित्र जेहाद में नवाब अब्दुल मजीद वह हर युक्ति अपनाते हैं जिसमें उनकी तरह सोचने वाले व्यक्ति विशेष रूप से निपुण कहे जाते हैं। क्या गलतबयानी, क्या भ्रान्त व्याख्या, क्या धामकी, क्या शेखी, क्या स्तुति, क्या निन्दावे सबका सहारा लेते हैं। यदि सहारा नहीं लेते तो सिर्फ उचित तर्क देने का। वे ऍंगरेजों के उस निष्पक्ष न्याय की स्तुति करते हैं जिसने इतने दिनों तक हिन्दी को घर से बाहर रखने का प्रबन्ध किया। नवाब साहब हिन्दुओं को याद दिलाते हैं कि पुराने समय में वे मुसलमानों के अधीन थे। यहाँ वे यह तथ्य पूर्णत: विस्मृत कर जाते हैं कि दिल्ली के मुसलमान बादशाह ब्रिटिश सुरक्षा में आने के पूर्व मराठों की सुरक्षा में रहे थे। 'पुराने समय' के मुसलमानी साम्राज्य की अपेक्षा सिख और मराठा साम्राज्य जनता की स्मृति में अधिक है।क्व

गलत वैशिष्टय बताते हुए नवाब कहते हैंउर्दू एक ऐसी भाषा है जिसे पूरे भारत में एक देहाती तक बोलता और समझता है और हिन्दी अपने सभी खूबसूरत संस्कृत शब्दों के साथ उसी वर्ग तक सिमटी हुई है, जो इसे आविष्कृत कर रहाहै।

क्व अंगरेजों ने भारत को मुगलों से नहीं बल्कि हिन्दुओं से जीता। विजेता के रूप में हमारे उभरने से पूर्व मुगल साम्राज्य ढह चुका था। हमारे निर्णायक युद्धा दिल्ली के बादशाह या उसके विद्रोही शासकों से नहीं, दो हिन्दू राज्यसंघोंमराठों और सिखोंसे हुए। (इंपीरियल गजेटियरभाग VI½

उर्दू को हिन्दी, हिन्दी को उर्दू और संस्कृत को अरबी शब्द से बदलकर कोई भी औसत जानकारी का व्यक्ति इस कथन को ठीक कर सकता है। हर व्यक्ति जानता है कि देहाती उर्दू का नाम तक नहीं जानते। तथ्य यह है कि सामान्यत: वे इसे अरबी फारसी कहते हैं और अपने सामने बोले जाने पर वे इसे सुनकर भी समझने का प्रयास नहीं करते। यही लोग वास्तविक भुक्तभोगी हैं। ये वे लोग हैं जो सम्मन आदि मिलने पर गूढ़ लिपि और दुरूह शैली में लिखी गई इबारत का अर्थ जानने और उसे अपनी भाषाज़ो और कुछ नहीं हिन्दी हैमें समझने के लिए मुंशी की तलाश में जगह जगह भटकते हैं। इन्हीं लोगों की सूचना के लिए (नागरी लिपि) में दी गई एक अदालती नोटिस का मूल पाठ मैं नीचे दे रहा हूँ

'लिहाजा बज़रिय : इस तहरीर के तुम रामपदारथ मज़कूर को इत्ताला दी जाती है कि अगर तुम ज़र मज़कूर यानी मुबलिग़ पन्द्रह रुपये छह आने जो अज़रुए डिगरी वाजिबुल अदा है इस अदालत में अन्दर पन्द्रह रोज़ तारीख़ मौसूल इत्तालानामा हाज़ा से अदा करो वरन: वजह ज़ाहिर करो कि तुम मुन्दर्जा ज़ैल खेतों से जिनके बाबत बकाया डिगरी शुदा वाजिबुल अदा है, बेदख़ल क्यों न किए जाओ।'

ऊपर दी गई नोटिस में क्रियाओं और सर्वनामों के अतिरिक्त सभी शब्द अरबी और फारसी के हैं और जिन लोगों ने मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है, उनकी समझ से पूर्णत: बाहर हैं। बोधगम्य बनाने के लिए इसी नोटिस को हिन्दी में इस प्रकार लिखा जा सकता है

'सो इस लेख से तुमको जताया जाता है कि तुम ऊपर कहा हुआ रुपया जिसकी तुम्हारे ऊपर डिगरी हो चुकी है इस नोटिस के पाने से पन्द्रह दिन के भीतर इस अदालत में चुकता करो, नहीं तो कारण बतलाओ कि तुम नीचे लिखे खेतों से जिनके ऊपर डिगरी का रुपया आता है क्यों न बेदखल किए जाओ।'

इस प्रसंग में डॉ. फैलन (Dr. Fallon) द्वारा तैयार की गई 'हिन्दुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी आव ला ऐंड कामर्स' की रोचक 'भूमिका' (Preface) पढ़नी चाहिए। इसमें वे मानते हैं किक़ानूनी अदालतों की भाषा...समग्र रूप से विलायती अरबी पदों से बनी हुई है। इस कोश के अरबी पदों के बगल में दिए गए हिन्दी समतुल्यों के अनेक दृष्टान्त स्पष्ट कर देते हैं कि किसी हल्की-सी सफाई के बिना अरबी पदों को मात्र इसलिए रख दिया गया है कि यह विद्वानों की भाषा मानी जाती है; जबकि हिन्दी केवल इस देश के निवासियों की देशी भाषा है।

उपर्युक्त कोश में दी हुई सरल हिन्दी शब्दों की सूची ज़िसे जानबूझकर विचित्र अरबी पदों से बदल दिया गया है अत्यन्त शिक्षाप्रद है।

नवाब अब्दुल मजीद जनगणना के ऑंकड़ों को सही नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि उर्दू बोलने वालों ने जनगणना के समय प्रविष्टियों में अपनी भाषा हिन्दी दर्ज करा दी थी। हम भी उसको उसी रूप में स्वीकार करना पसन्द नहीं करते। हम जानते हैं कि एक संगठित योजना के तहत अपनी भाषा उर्दू लिखवाने वाले व्यक्ति ही नहीं थे, बल्कि ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने जनता की निरा अनभिज्ञता के कारण लोगों की भाषा उर्दू दर्ज कर दी। इस प्रकार हिन्दी के ऑंकड़े को घटाने वाली दो अशुभ शक्तियाँ एक साथ कार्य कर रही थीं पूर्वग्रह और अनभिज्ञता। डॉ. ग्रियर्सन द्वारा पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी के व्यापक वैविधय को स्पष्ट कर देने के बावजूद भी गणनाकारों ने पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा खड़ी बोली (दिल्ली के आसपास, मेरठ और रुहेलखंड के हिस्से की बोली) बोलने वाले सभी लोगों की भाषा उर्दू दर्ज कर दी। 'हम आवत हैं', 'तुम जात हौ' की जगह जो भी व्यक्ति 'हम आते हैं', 'तुम जाते हो' बोलता हुआ पाया गया उसे उर्दू भाषी दर्ज कर दिया गया। बनारस में इसका एक विचित्र दृष्टांत देखा गया। वहाँ गणनाकार ने एक पंडित की भाषा उर्दू दर्ज कर दी थी। जो उस भाषा से नितान्त अपरिचित था।

दो समुदायों के मध्य निर्बाध मित्रतापूर्ण सम्बन्ध कायम रहे, नवाब की इस वाह्य चिन्ता के लिए हम उनके प्रति आभार प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। निश्चय ही ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं जब उनकी जैसी मनोवृत्ति के व्यक्ति इतनी विवेकपूर्ण रुझान प्रदर्शित करते हैं। अवसर का लाभ उठाते हुए मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ऐसे सम्बन्धों को सहिष्णुता की भावना से ही अच्छा बनाए रखा जा सकता है। यदि एक समुदाय दूसरे समुदाय की समान सुविधा को अपना सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानता है तो ऐसे सम्बन्ध कायम नहीं रह सकते। यदि मुसलमान नागरी आन्दोलन के इतिहास को अपने कष्टों का इतिहास कहते हैंज़ैसा कि जनाब सैयद रजा अली कहते हैं तो वे अपनी ओर से इस सम्बन्ध को बनाए रखने की इच्छा का लेशमात्र भी प्रमाण नहीं देते। हिन्दू जहाँ जनता की सुविधा के आधार पर अदालतों में नागरी का प्रवेश चाहते हैं, वहीं मुसलमान अपने राजनीतिक महत्तव के प्रतीक के रूप में उर्दू का एकमात्र वर्चस्व बनाए रखने का प्रयास करते हैं। क्या माननीय श्री चिन्तामणि ने यह सुझाव दिया था कि उर्दू या फारसी लिपि को अदालतों से बेदखल कर दिया जाय। यदि ऐसा सुझाया गया होता तो मुसलमान सदस्यों द्वारा प्रस्ताव के ऐसे वीरोचित विरोध का आधार बनता। प्रस्ताव में तो हिन्दी को दीवानी अदालतों में बराबर की मान्यता देने का अनुरोध किया गया था। जिसमें निस्संदेह मुसलमानों के लिए कोई कठिनाई नहीं थी। उनमें से कोई भी कुछ ही महीनों की अल्प अवधि में नागरी लिपि सीख सकता है, जैसा राजस्व अदालतों और अधिशासी विभागों में कई लोग कर चुके हैं। लेकिन हमारे मुसलमान मित्र ऐसा समझौता नहीं चाहते हैं। वे हमसे अपनी भाषा खोने या उनका सहयोग खोने में से एक को चुनने के लिए कहते हैं। लार्ड मार्ले के शब्दों में

राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ कार्रवाई दीर्घकालिक द्वितीयक प्रक्रिया है। वहाँ दो भयानक गलतियों में से अनवरत एक का चयन करना पड़ता है। हमें दूसरे विकल्प को चुनना पड़ सकता है।

माननीय सैयद वजीर हसन यह स्वीकार करते समय कि हिन्दी भाषा जैसी कोई चीज है, एक धूर्ततापूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि क्या रामायण में पाई जाने वाली भाषा ही इन प्रान्तों के निवासियों की बोलने और लिखने की भाषा है? माननीय सदस्य यह भी पूछ सकते हैं कि क्या चासर और स्पेंसर की भाषा ही आजकल बोलने और लिखने की भाषा है। आज हम आधुनिक हिन्दी के रूप में जिसे (जिस भाषा को) प्रस्तुत करते हैं, वह ऐसी भाषा है जिसमें प्रतिवर्ष हजारों पुस्तकें प्रकाशित होती हैं और सैकड़ों पत्र निकाले जाते हैं। व्यक्तिगत पत्रचारों और सार्वजनिक भाषणों में सामान्यत: इसी भाषा का प्रयोग किया जाता है। तत्वत: यह वही भाषा है जो इंशा की 'रानी केतकी की कहानी' और लल्लू लाल के 'प्रेमसागर' में प्रयुक्त हुई है।

माननीय जनाब रजा अली ने श्री चिन्तामणि से 1898 ई. के पहले का कोई ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए कहा जिसके आधार पर यह तर्क दिया जा सके कि सरकार हिन्दी भाषा को मान्यता दे चुकी है। सदस्य महोदय और कुछ नहीं सरकारी दस्तावेज ही चाहते हैं तो मैं उनका ध्या न ऐसे अनेक दस्तावेजों की ओर आकृष्ट कराना चाहता हूँ। 1839 ई. में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सदर दीवानी अदालत के सामने जब भाषा की समस्या आई तो उसने यह आदेश जारी किया

सरकार की इच्छा है कि इस बात का ध्या न रखा जायख़ासतौर से मामले को आरम्भ करते समयक़ि बहसें और कार्यवाहियाँ स्पष्ट बोधगम्य उर्दू या हिन्दी में लिखी जायँ।

1844 ई. में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सरकार के सचिव ने (पत्र सं.-750 दिनांक 17 अगस्त, 1844) आगरा कॉलेज के प्रिंसिपल को लिखा था'हिन्दी एक देशी उपभाषा है'। पश्चिमोत्तार प्रान्त के राजस्व बोर्ड ने सभी कमिश्नरों और कलेक्टरों को सम्बोधित एक परिपत्र आदेश (संख्या 8, सन् 1857 ई.) में कहा था

बोर्ड सभी कमिश्नरों और कलेक्टरों का ध्याईन सरकार के उस प्रस्ताव (सं. 4011, दिनांक 30 सितम्बर, 1854 ई.) की ओर आकर्षित करता है जिसमें यह आदेश दिया गया है कि पटवारियों के ऑंकड़े अधिकांश जनता की सुपरिचित भाषा और लिपि में लिखे जाएँगे। सामान्य रूप से वह भाषा हिन्दी होगी और लिपि नागरी। अपवाद हो सकते हैं लेकिन केवल कमिश्नर की अनुमति पर ही इसकी मंजूरी दी जानी चाहिए।

बाद के वर्षों में आकर 1874-75 ई. की शैक्षिक प्रगति की वार्षिक रिपोर्ट में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सरकार को अपने आदेश में हम यह कहते हुए पाते हैं कि 'अधिकांश जनसामान्य की सुपरिचित भाषा होने के अर्थ में हिन्दी न्यायोचित रूप से मातृभाषा कही जा सकती है।'

अब नवाब अब्दुल मजीद की केवल एक और टिप्पणी पर विचार किया जाना शेष है। वह टिप्पणी इस प्रकार हैहिन्दी लिपि की खूबी यह है कि अपने ही लेखकों द्वारा यह आसानी से पढ़ी और समझी नहीं जाती और लिखने में उर्दू की अपेक्षा अधिक समय लेती है। यह ऐसी लिपि है, जिसकी विशेषज्ञता पाने में मुसलमान कठिनाई का अनुभव करते हैं। सच यह है कि फारसी लिपि की अपठनीयता लोकोक्ति का रूप ले चुकी है और इससे कई रोचक प्रसंग भी जुड़े हुए हैं। यहाँ हम अधिक न कहकर पायनियर के 10 जनवरी, 1873 के अंक में छपे एक महत्तवपूर्ण लेख में जो पाया गया है, उसे ही दे रहे हैं

'फारसी लिपि तेज गति से लिखी जा सकती है। लेकिन...यदि विषय अपरिचित और शैली असामान्य हो तो भले ही फारसी में साफ साफ लिखा गया हो विरोधभासी रूप से प्राय: अपठनीय होता है। इस लिपि की वर्णमाला लिखने के उद्देश्य से स्पष्टतया उतनी दोषपूर्ण है जितनी की कल्पना की जा सकती है।'

एक रोचक घटना यहाँ अप्रासंगिक न होगी। विशेष शासकीय कार्य पर नियुक्त एक सब इंस्पेक्टर मुफस्सिल से प्राप्त कुछ कागजातों को पुलिस सुपरिंटेंडेंट के सामने रखने के लिए व्यवस्थित कर रहा था। जब उसने बहुत समय लगा दिया तो सुपरिंटेंडेंट ने अधीरतापूर्वक पूछा

'तुम वहाँ क्या कर रहे हो?'

उसने जवाब दिया'नुकते लगा रहा हूँ, महोदय।'

'इसका क्या मतलब है?'

'कागजातों में व्यक्तियों तथा स्थानों के नाम उर्दू अक्षरों में हैं और इस प्रकार की जाँच और सुधार के बिना वे सही सही नहीं पढ़े जा सकते।'

जहाँ तक विद्वानों की राय का प्रश्न है तो वे एक स्वर से फारसी लिपि की निन्दा करते हैं।

अब हम माननीय श्री बर्न की चर्चा करते हैं। वे कोई ऐसा लाभ ढूँढ़ पाने में असफल रहे जो इस प्रस्ताव को स्वीकार करने पर सरकार को न्यायसंगत ठहराए। कौंसिल के कई हिन्दू सदस्यों द्वारा ऐसे लाभों को पूरी तरह गिना देने के बाद मुझे यहाँ उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इस समस्या को ऐसे रूप में प्रस्तुत कर दिया है कि हर निष्पक्ष मस्तिष्क में उनकी बात दृढ़तापूर्वक बैठ जाए। इतने स्पष्ट रूप से बताए गए लाभों की ओर से ऑंखें मूँदने के उपरान्त भी मुसलमान सदस्य यह प्रमाणित करने में असमर्थ रहे कि यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया तो परिस्थितियाँ बद से बदतर हो जाएँगी। यह एक बड़ी असंगति है कि दीवानी अदालतों के समक्ष उपस्थित होनेवाले पक्षकार [ अपने प्रपत्र नागरी में प्रस्तुत करें ] और पीठासीन अधिकारी उन्हें पढ़ने में सफल हो सकते हैं और नहीं भी। जैसा कि उर्दू लिपि का प्रयोग व्यवहार या चलन के रूप में स्थापित हो चुका था। इसलिए सरकार कोई ऐसा कदम उठाने के लिए तैयार नहीं थी जो इसे क्षतिग्रस्त कर देने की ओर अभिमुख हो। लेकिन ऐसा कोई भी व्यवहार या चलन नहीं है जिसमें अनुभव के आधार पर सुधार न किया जा सके। हमें पूरा विश्वास है कि सरकार परिस्थितियों की वास्तविकताओं को भाँपने में आगे असफल नहीं होगी।

माननीय श्री बर्न द्वारा प्रस्ताव के विरोध में दिए गए विचित्र तर्कों में से एक यह है कि 'मुंसिफ का कार्य प्राय: अदालत के अन्दर तक सीमित है जबकि डिप्टी कलेक्टर और सिविल अधिकारियों का अधिकांश कार्य अदालत के बाहर फैला हुआ है। इस प्रकार माननीय श्री बर्न अपनी समझ के अनुसार दो भाषाओं का अस्तित्व स्वीकार करते हैंएक 'भीतरी भाषा' और एक 'बाहरी भाषा'। यदि ऐसा है तो 'भीतर' और 'बाहर' की भाषा एक ही क्यों न रहे या यदि यह अव्यावहारिक जान पड़ता है तो दूसरी भाषा को भी अन्दर आने दिया जाए।

[ श्री चिन्तामणि के इस प्रस्ताव के विरोध पर दूसरे साहित्यकारों ने भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस कृत्य का विरोध 'कौंसिल में हिन्दी' (सरस्वती अप्रैल 1917) लेख लिखकर किया था। यह लेख साहित्यालाप में संकलित है। इसे महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली के भाग-1 में भी देखा जा सकता है। हिन्दी के विरोध में कैसे-कैसे तर्क दिए जा रहे थे, इसे इन लेखों में आसानी से देखा जा सकता है।संपादक ]

अनु. विवेकानंद उपाध्याय, आलोक कुमार सिंह

[ द लीडर 19 अप्रैल 1917 ई ]