हिंदी का शौकिया रंगमंच / अमृतलाल नागर

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आमतौर से हमारे बुद्धिजीवी आलोचक मुँह उतार कर बड़ी लापरवाही-भरी शान के साथ यह फरमाया करते हैं कि हिंदी में रंगमंच ही नहीं है। यह बात मेरे गले के नीचे आज तक नहीं उतर सकी।

रंगमंच के दो पहलू होते हैं, व्‍यावसायिक रंगमंच और शौकिया रंगमंच, हर भाषा के क्षेत्र में रंगमंच का यही इतिहास रहा है। हिंदी के पास भी दोनों प्रकार के रंगमंच रहे। बँगला के शौकिया रंगमंच का इतिहास हमसे निःसंदेह पचास-साठ वर्ष पहले आरंभ हो जाता है और विधिवत शोध के साथ सुरक्षित किया गया है।

यही बात मराठी, गुजराती आदि अन्‍य भाषाओं के रंगमंचीय इतिहास के साथ भी जुड़ी है। हिंदी में यह इतिहास अब तक न संकलित किया जा सका खेद है तो सिर्फ इसी बात का। हिंदी का व्‍यावसायिक रंगमंच हिंदी भाषी क्षेत्र से बाहर के पारसी लोगों के हाथ में रहा और शौकिया रंगमंच इस विशाल क्षेत्र में हर जगह फलफूल कर भी उसका इतिहास हिंदी भाषी क्षेत्र की विशालता के कारण संपूर्ण रूप से कभी संकलित न हो सका। शौकिया रंगमंच किसी भी भाषा के क्षेत्र में व्‍यावसायिक रंगमंच से होड़ नहीं ले सका है। हिंदी में भी यही स्थिति रही। शौकिया रंगमंच पर हमारे देश के हर भाषा क्षेत्र से श्रेष्‍ठ अभिनेता उभरे, हिंदी के रंगमंच से भी कुछ उभरे। औरों की और कहते हैं और सब जान जाते हैं, पर हिंदी वालों को खुद अपनी ही खबर नहीं।

अपनी पारसी रंगमंच संबंधी वार्ता में उस घटना का उल्‍लेख कर चुका हूँ जिसके कारण हमारा शौकिया रंगमंच स्‍थापित हुआ। पैसे कमाऊ रंगमंच पर श्रेष्‍ठ नाटकों और अभिनय कला की दुर्दशा देखकर ही भारतेंदु स्‍वयं रंगमंच पर अवतरित हुए। स्‍वाभाविक अभिनय हिंदी रंगमंच का अपना नारा हुआ। बलिया के हिंदी मेले में स्‍वरचित नाटक सत्‍य हरिश्चंद्र में सहज-स्‍वाभाविक और सुंदर अभिनय करके भारतेंदु ने न केवल हिंदी-भाषियों का हृदय ही जीता, वरन अंग्रेजों तक को प्रभावित किया था। भारतेंदु के उत्‍साह दिलाने पर अनेक भले घर के युवक नाटकों में भाग लेने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी की अन्‍य साहित्यिक हलचलों के साथ ही साथ शौकिया रंगमंच का आंदोलन भी जोर-शोर से चल पड़ा। प्रयाग में एक हिंदी नाट्य समिति की स्‍थापना हुई जिसके रंगमंच पर महामना पंडित मदनमोहन मालवीय भी अपने नवयौवन काल में शकुंतला के रूप में अवतरित हुए थे। कानपुर के पंडित प्रतापनारायण मिश्र भी रंगमंच पर अभिनय किया करते थे। वे स्‍त्री का पार्ट करते थे, पर उन दिनों बाप के जीते जी मूँछें मुड़ाना भी कारेदारद था। मिश्रजी ने स्‍वयं भी कलि कौतुक रूपक रचा था। हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन के वार्षिक अधिवेशनों के अवसर पर नाटक खेलने की प्रथा उसके दूसरे अधिवेशन से चलाई गई। राधाकृष्‍ण दास रचित महाराणा प्रताप नाटक उक्‍त अवसर पर खेला गया था। पंडित माधव शुक्‍ल, राजर्षि पुरुषोत्‍तमदास टंडन, महादेव भट्ट आदि ने उसमें पार्ट किया था।

काशी में भी अग्रवाल ब्‍वायज ड्रामेटिकल क्‍लब की स्‍थापना हुई। इस संस्‍था ने भारतेंदु रचित अंधेर नगरी और नीलदेवी नाटक खेले। यह बीसवीं शताब्‍दी के आरंभिक दिनों की बात है। सन 1906 ई. के लगभग काशी में श्री नागरी नाट्यकला संगीत प्रवर्तक मंडली स्‍थापित हुई। संस्‍था का यह नाम कुछ लोगों को अटपटा लगा। इसी को लेकर संस्‍थापकों में फूट पड़ गई। काशी के नाट्यकला प्रेमी युवक दो दलों में बँट गए। श्री नागरी नाट्यकला संगीत प्रवर्तक मंडली टूट गई और उसकी जगह भारतेंदु नाटक मंडली तथा नागरी नाटक मंडली नामक दो संस्‍थाओं की स्‍थापना हुई। भारतेंदु नाटक मंडली ने भारतेंदु लिखित सत्‍य हरिश्चंद्र नाटक जैसे-तैसे खेला और फिर बताशे की तरह बैठ गई। भारतेंदु नाटक मंडली ने बाद में पुनः संगठित होकर कई नाटक खेले। सन 1932 की जागरण पत्रिका में प्रकाशित बालकृष्‍ण दास के लेख से तथा काशी के लोगों से पूछताछ करने पर जहाँ तक मुझे मालूम हुआ है कि उक्‍त मंडली ने पहले-पहल बाबू राधाकृष्‍णदास लिखित महाराणा प्रताप खेला था। नाटक के रिहर्सल दो बरसों तक होते रहे। महाराणा प्रतापसिंह का पार्ट पं. गोविंद शास्‍त्री दुगवेकर ने किया था और वीरसिंह का पार्ट डॉ. वीरेंद्रनाथ उर्फ बीरेबाबू ने। यहाँ यह बात ध्‍यान देने योग्‍य है कि हिंदी रंगमंच के प्रारंभिक अभिनेताओं में गुजराती, महाराष्‍ट्रीय और बंगाली युवक भी सहर्ष सोत्‍साह भाग लिया करते थे। इस मंडली ने मराठी से अनूदित संगीत सौभद्र नाटक भी खेला। इस नाटक में दुगवेकरजी ने अर्जुन का पार्ट किया था। श्री अनंतराव गोडबोले ने श्रीकृष्‍ण और पं. विद्यानाथ शुक्‍ल ने बलराम का अभिनय किया था। यह नाटक भी पूरे एक वर्ष की तैयारी के बाद दिखलाया गया था। ये दोनों ही नाटक काशी की जनता ने खूब पसंद किए। पुराने लोग आज भी उनकी सराहना करते हैं। आरंभ में चार-छह वर्षों तक मंडली खूब चली, फिर पैसों के अभाव में टूट गई। आगे चलकर बीरेबाबू तथा मनोहरदास के प्रयत्‍न से आदर्श भारतेंदु नाटक मंडली की स्‍थापना हुई। इस संस्‍था ने राधाकृष्‍णदास रचित महाराणा प्रताप और माधव शुक्‍ल रचित महाभारत नाटक खेले। इससे प्रोत्‍साहित होकर पुरानी भारतेंदु मंडली वालों ने भी गोविंद शास्‍त्री दुगवेकर रचित हिंदी नाटक हर-हर महादेव खेला था। इसके बाद काशी का शौकिया रंगमंच फिर कुछ वर्षों के लिए सो गया।

हमारे शौकिया रंगमंच के साथ धन की कमी आरंभ ही से दुर्भाग्‍य बन कर जुड़ी रही। लोग-बाग अक्‍सर कहते हैं कि नाटकों की कमी के कारण हिंदी रंगमंच या कहें कि शौकिया रंगमंच फल-फूल न पाया। मैं इस बात को पूरी तौर पर स्‍वीकार नहीं कर पाता। हिंदी में मौलिक या अनूदित नाटक तो आरंभ ही से बढ़ चले थे, पर वे जम कर खेले न जा सके। नाटकों के बढ़ते हुए शौक का अंदाज केवल इसी से लगाया जा सकता है कि आरंभ में नाट्यशास्‍त्र संबंधी पुस्‍तकों की रचना तेजी के साथ हुई थी। नाट्य-कला संबंधी पहली पुस्‍तक भारतेंदुकृत नाटक सन 1883 में प्रकाशित हुई। जब हमारे यहाँ नाटक खेलने का शौक जागा तो उसका शास्‍त्र समझने की जरूरत भी पड़ी। बीसवीं शताब्‍दी के आरंभ में हिंदी के शौकिया रंगमंच ने जब फिर अपना दम ताजा किया तो पुस्‍तकें लिखी जाने लगीं। सन 1903 ई. में बंबई से बलदेवप्रसाद मिश्र का नाट्य-प्रबंध प्रकाशित हुआ। सन 1904 में काशी से किशोरीलाल गोस्‍वामी रचित नाट्य-संभव ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन 1911 में प्रयाग से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी लिखित नाट्यशास्‍त्र प्रकाशित हुआ। इसके बाद पत्र-पत्रिकाओं में नाट्यकला-संबंधी फुटकर लेख तो कई प्रकाशित हुए, पर किसी पुस्‍तक का प्रणयन शायद नहीं हुआ। सन 1911 के बाद सन 31-32 के लगभग श्‍यामसुंदर दास का लिखा रूपक-रहस्‍य प्रकाशित हुआ। नाट्यशास्‍त्र संबंधी पुस्‍तकों के इस नक्शे से हम अपने रंगमंच के विकास की‍ स्थिति का भी अनुमान लगा सकते हैं। पैसों के अभाव में रंगमंच का उत्‍साह मंद पड़ने लगा; यद्यपि पूरी तौर पर समाप्‍त न हुआ।

काशी के रंगमंचीय इतिहास की कड़ियाँ नए सिरे से फिर जुड़ीं। श्री बीरे बाबू, श्री केशवराम टंडन और श्री पुरुषोत्‍तम पंड्या के प्रयत्‍न से‍ फिर रंगमंच ने जोर पकड़ा। भारतेंदु नाटक मंडली में फिर से नई जान आई। इन लोगों ने डी.एल. राय के चार नाटक दुर्गादास, मेवाड़ पतन, शाहजहाँ और चंद्रगुप्‍त खेले। इनके अतिरिक्‍त राधेश्‍याम कथावाचक के तीन नाटक वीर अभिमन्‍यु, प्रह्लाद और परिवर्तन, ज्‍वालाराम नागर लिखित गुरू द्रोणाचार्य और दस्‍युदमन, माधव शुक्‍ल रचित महाभारत और विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' रचित भीष्‍म नाटक भी खेले। इन नाटकों में कुँअरकृष्‍ण कौल, श्री बेनीप्रसाद गुप्‍त, महेंद्रलाल मेढ़, भगवतीप्रसाद मिश्र, पुरुषोत्‍तम पंड्या, राजाराम मेहरोत्रा, हरिनाथ व्‍यास, द्वारिकादास, केशवराम टंडन आदि सज्‍जनों ने बड़ा नाम पाया। बीरे बाबू तो पुराने नामी थे ही। स्‍त्री पात्रियों के अभिनय में राजाराम मेहरोत्रा द्वारा अभिनीत गुलनार का पार्ट और हरिनाथ व्‍यास तथा द्वारिकादास उर्फ राजा बाबू द्वारा अभिनीत सुभद्रा और उत्‍तरा के पार्ट भी खूब सराहे गए। आगे चलकर इसी मंडली में हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने मेवाड़ पतन नाटक में मानसी का अभिनय कर बड़ी सराहना पाई। भारतेंदु नाटक मंडली के भगवतीप्रसाद मिश्र और नागरी नाटक मंडली के आनंदप्रसाद कपूर उर्फ लल्‍लो बाबू ने आगे चलकर फिल्‍म डायरेक्‍टर के रूप में भी बंबई में बड़ी ख्‍याति अर्जित की। स्‍व. भगवतीप्रसाद मिश्र का नाम बंबई की फिल्‍मी दुनिया के जाने-माने पुराने लोग आज तक बड़े आदर के साथ लेते हैं। वे पृथ्‍वीराज कपूर, अर्मेलीन जैसे फिल्‍मी कलाकारों की एक पीढ़ी के गुरु रहे थे। महेंद्रलाल मेढ़ भारतेंदु नाटक मंडली के प्राण थे। उनका देहांत असमय ही हो गया। उसके बाद श्री केशवराम टंडन ने रंगमंच का काम आगे बढ़ाया। मैंने काशी के बड़े जिम्‍मेदार व्‍यक्तियों से श्री टंडन के अभिनय की बड़ी-बड़ी तारीफें सुनी हैं। सीताराम चतुर्वेदी, कृष्‍णदेवप्रसाद गौड़, रुद्र काशिकेय, काशीनाथ उपाध्‍याय 'भ्रमर', सर्वदानंद, लक्ष्‍मीचंद्र अग्रवाल आदि के नाम शौकिया रंगमंच की अर्वाचीन कड़ियाँ बन कर जुड़ते हैं।

प्रसादजी का चंद्रगुप्‍त नाटक एक बार काशी की समस्‍त नाट्य मंडलियों के सहयोग से बड़ी सफलता के साथ खेला गया था। प्रसादजी ने इसके लिए विशेष रूप से एक प्रहसन भी लिखा था। खेद की बात है कि वह प्रहसन अब नहीं मिलता।

प्रयाग में पं. माधव शुक्‍ल के प्रयत्‍न से शौकिया रंगमंच की बढ़ोतरी हुई। हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन के अधिवेशनों के अवसरों पर हिंदी के नाटक खेलने की परंपरा उन्‍हीं की प्रेरणा से स्‍थापित हुई थी।

आधुनिक काल में कई नाट्य संस्‍थाओं ने प्रयाग के रंगमंच को विकसित किया है। अश्‍क, रामकुमार वर्मा, लक्ष्‍मीनारायण लाल, विमला रैना, लक्ष्‍मीकांत वर्मा, आदि के प्रयत्‍नों से वहाँ प्रतिवर्ष नाटक होते रहते हैं। स्‍त्री पात्रियों में श्रीमती तेजी बच्‍चन, श्रीमती सदिका सरन और ललिता चटर्जी के अभिनय मैंने देखे और सराहे हैं। विजय बोस ने रंगवाणी के मंच पर मेरे लिखे नाटक युगावतार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का पार्ट बड़ी खूबी से अदा किया था। श्री बनर्जी, कौशलबिहारी लाल के अभिनय भी खूब सराहे गए थे।

कानपुर का प्राचीन नाटकीय इतिहास एक बार श्री देवीप्रसाद धवन 'विकल' से सुना तो था, पर तब नोट न कर पाया। धवनजी और उनके छोटे भाई स्‍व. जगदीश प्रसाद ने अनेक नाट्य-आयोजन किए। श्री विनोद रस्‍तोगी ने कई नाटक लिखे और निर्देशित किए। श्री सिद्धेश्‍वर अवस्‍थी प्रतिवर्ष तीन-चार नाटक निर्देशित करते ही रहते हैं। मंच-सज्‍जा के वे पहुँचे हुए करतबिए हैं। नए कलाकारों में ज्ञानदेव अग्निहोत्री सराहनीय हैं।

पिछले कुछ वर्षों में आगरा जननाट्य संघ के राजेंद्र सिंह रघुवंशी ने भी चरित्र एवं हास्‍य अभिनेता के रूप में बड़ा नाम कमाया है। रामगोपाल सिंह चौहान, ज्ञान शर्मा, शरद नागर, राजेश्‍वरप्रसाद सक्‍सेना आदि आगरा में रंगमंचीय हलचल मचाते रहते हैं। एटा, मेरठ, अलीगढ़, झाँसी आदि में भी अच्‍छे कलाकारों का निवास सुना है। मुझे खेद है कि इन सबका इतिहास मेरी जानकारी में अभी नहीं आया।

लखनऊ में हिंदी रंगमंच की स्‍थापना बीसवीं सदी के आरंभ के साथ ही होती दिखलाई देती है। सन 1902 में प्रबोधिनी परिषद नाम की संस्‍था द्वारा श्री गंगाप्रसाद अग्रवाल और श्री श्‍यामसुंदर कपूरिया के प्रयत्‍नों से नाटकीय हलचल आरंभ हुई। सन 1908 के लगभग हिंदू युनियन क्‍लब की स्‍थापना हुई।

लखनऊ के हिंदी रंगमंच संबंधी इतिहास में इस संस्‍था का महत्‍व इसलिए सर्वाधिक है कि इसके सदस्‍यों को पं. माधव शुक्‍ल के चरणों में बैठकर अभिनय कला सीखने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ था। भारतेंदु के बाद माधव शुक्‍ल का नाम हिंदी रंगमंच के उन्‍नायकों में सदा बड़े आदर के साथ लिया जाएगा। माधवजी ने कलकत्‍ता के बँगला और पारसी रंगमंचों का भली-भाँति अध्‍ययन किया था। माधव शुक्‍ल भारतेंदु द्वारा स्‍थापित स्‍वाभाविक अभिनय की परिपाटी को फिर से जगा रहे थे, क्‍योंकि उसी के द्वारा हिंदी रंगमंच का व्‍यक्तित्‍व स्‍वतंत्र रूप से उभरा था। हिंदी के पुराने लेखक कालिदास कपूर के एक लेख के अनुसार हिंदू यूनियन क्‍लब के मंच पर माधव शुक्‍ल के निर्देशन में पहली बार राधाकृष्‍ण दास लिखित महाराणा प्रताप नाटक नए ढंग से खेला गया। राजाराम नागर और गोपाललाल पुरी ने शौकिया रंगमंच पर क्रमशः महाराणा प्रताप और भामाशाह की भूमिका में विशेष नाम पाया। स्‍व. राजाराम नागर सदा हीरो का पार्ट करते थे। उनके द्वारा अभिनीत सत्‍य हरिश्चंद्र में हरिश्चंद्र, मेवाड़ पतन में अमरसिंह और माधव प्रसाद शर्मा लिखित बनवीर में विक्रम के अभिनय पुराने लोगों के द्वारा आज तक मुक्‍त कंठ से सराहे जाते हैं। हिंदू यूनियन क्‍लब के अन्‍य अभिनेताओं में गोपाललाल पुरी, बब्‍बीदलाल, रमाशंकर गुलेरी, विश्‍वनाथ वर्मा, डॉ. मोहन, चंद्रशेखर पंड्या, बलदेवप्रसाद जैतली, योगेंद्रनाथ शर्मा, मुनुआजी आदि ने भी उस समय नगर में काफी ख्‍याति पाई। इंडियन हीरोज एसोसिएशन की ओर से भी गोलागंज थियेटर में कई नाटक खेले गए। बाबू मुरारीलाल एडवोकेट इस संस्‍था के प्रमुख स्तंभों में गिने जाते थे। सन 1925 में यंगमैन्‍स म्‍यूजिकल सोसायटी की स्‍थापना हुई। रायसाहब रामप्रसाद वर्मा, चौधरी सच्चिदानंद वर्मा, स्‍व. जोगेशप्रसाद सक्‍सेना और उमेश प्रसाद सक्‍सेना इस संस्‍था के प्राण थे। बब्‍बन साहब संगीत निर्देशक थे। इन लोगों ने भी कई नाटक खेले जिनमें यहूदी की लड़की, बिल्‍वमंगल और चंद्रगुप्‍त प्रसिद्ध हुए। श्री ए.के. गंजूर, तुलसीराम वैश्‍य, कृष्‍णकुमार श्रीवास्‍तव उर्फ मन्‍नीबाबू, राधेबिहारी लाल, बी.एन. सिन्‍हा,प्रयागनारायण श्रीवास्‍तव, कृष्‍णलाल दुआ आदि अभिनेता इस संस्‍था से चमके। इंडियन रेलवे इंस्‍टीट्यूट ने भी कई नाटक खेले। इस संस्‍था ने तीन कलाकार भारतीय फिल्‍म व्‍यवसाय को भी दिए, सुप्रसिद्ध संगीत निर्देशक नौशाद अली, चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन और डायरेक्‍टर राखन।

आगा हश्र कश्‍मीरी के नाटक हिंदू-मूस्लिम जनता में समान रूप से लोकप्रिय होते थे। नखास पाटानाला क्षेत्र ने भी कई अच्‍छे अभिनेता लखनऊ को दिए, उनमें कैसर मिर्जा, प्‍यारे नवाब, हसन अब्‍बास, तारा आदि कुछ नाम मुझे अब तक मिले हैं। इन लोगों ने केवल आगा हश्र के लिखे नाटक ही खेले। हश्रे महशर, मुहब्‍बत का फूल, बिल्‍व मंगल आदि। कैसर मिर्जा ने आगा साहब के चरणों में बैठकर सीखा भी। आगा साहब कहते थे, "हमारा असली रोटी देनेवाला दस-पाँच रुपयों की सीट वाला नहीं, बल्कि अठन्‍नी वाला है। उसे हमारी आवाज भी साफ सुनाई पड़े।"

सन 1953 से लखनऊ रंगमंच संस्‍था द्वारा नई हलचल आरंभ हुई। इस संस्‍था द्वारा मैंने तीन नाटक मंचित कराए। स्‍वलिखित एकांकी परित्‍याग, परिक्रामी सेटिंग पर विष्‍णु प्रभाकर कृत गोदान का नाट्य रूपांतर और भगवतीचरण वर्मा द्वारा स्‍थापित भारती नामक संस्‍था के उद्घाटनोत्‍सव पर उन्‍हीं का लिखा नाटक 'रुपया तुम्‍हें खा गया' खेला। सर्वदानंद द्वारा स्‍थापित संस्‍था नटराज का पहला नाटक चेतसिंह भी मेरे निर्देशन में खेला गया। इन चारों नाटकों में राधेबिहारी लाल, कृष्‍णलाल दुआ, पी.एन. श्रीवास्‍तव और संतराम की सुंदर अभिनय कला ने जनता को प्रभावित किया। राधेबिहारी पुराने मंच के मँजे हुए यथार्थवादी शैली के उत्‍तम चरित्र अभिनेता हैं। कृष्‍णलाल दुआ में हास्‍य अभिनय करने की प्राकृतिक स्‍फूर्ति है। नारी कलाकारों में श्रीमती कृष्‍णा मिश्र और प्रमोद बाला अच्‍छा काम करती हैं। सोना चटर्जी, कमला पंजानी, मीरा, शर्गा कमर जहाँ भी विकासमान अभिनेत्रियाँ हैं।

इस समय नगर में अनेक नाट्य संस्‍थाएँ कार्य कर रही हैं। महावीर अग्रवाल की नाट्य मंडली, राष्‍ट्रीय नाट्य परिषद, मदन मोहन यंगमेन्‍स, एसोसिएशन, सांस्‍कृतिक संघ आदि के खेल होते रहते हैं। संतराम, जी. के. गंजूर, राजेंद्र श्रीवास्‍तव, के.के. सिंह, कुमुद नागर, कृष्‍णलाल दुआ आदि यत्र-तत्र नाटक खेलते-खिलाते ही रहते हैं।

बंबई में श्री बलराज साहनी की संस्‍था जूहू आर्ट थियेटर, कलकत्‍ता की अनामिका तथा दिल्‍ली की कुछ नाट्य संस्‍थाएँ भी इस समय अच्‍छा काम कर रही हैं।

सच तो यह है कि हिंदी के शौकिया रंगमंच का एक इतिहास विधिवत तैयार किया जाना चाहिए। बिहार, मध्‍यप्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, राजस्‍थान, दिल्‍ली और कलकत्‍ता ही नहीं, सुदूर पंजाब और जम्‍मू तक हमारे रंगमंच का इतिहास बिखरा पड़ा है। समय रहते इसे संग्रह कर लेना चाहिए। पुरानी पीढ़ी तेजी से छीजती जा रही है। उसके साथ ही हमारा यह अलिखित इतिहास भी सदा के लिए नष्‍ट हो जाएगा। आने वाली पीढ़ियाँ हमारी लापरवाही को क्षमा न कर पाएँगी।

मैं आसेतु हिमांचल धर्मयुग के पाठकों से प्रार्थना करता हूँ कि हिंदी रंगमंच की इतिहास सामग्री संकलित करने में मेरा हाथ बटाएँ। मेरे निम्‍नलिखित प्रश्‍नों का उत्‍तर देने की कृपा करें -

1. आपके नगर में सबसे पहली नाट्य संस्‍था कब स्‍थापित हुई?

2. कौन-कौन से नाटक खेले गए?

3. अभिनेताओं के नाम।

4. नाट्य आयोजकों और लगन वाले कार्यकर्ताओं के नाम।

5. कुशल सैटिंग मिस्‍त्री, मेकअप वालों और संगीत निर्देशकों के नाम और उनकी विशेषताएँ।

6. पुराने अभिनेताओं और निर्देशकों के नाट्य-कला संबंधी अनुभव वाक्‍य।


( आकाशवाणी , लखनऊ से 9.12.1961 को प्रसारित वार्ता , किंचित संशोधन एवं परिवर्द्धन के साथ 1961 में ही ' धर्मयुग ' में तथा 1963 में ' पृथ्‍वीराज कपूर अभिनंदन ग्रंथ ' के पृष्‍ठ 299-301 पर भी प्रकाशित।)