हिंदी की उत्पत्ति / कामताप्रसाद गुरू

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हिंदी की उत्पत्ति

(1) आदिम भाषा

भिन्न-भिन्न देशों में रहने वाली मनुष्य जातियों के आकार, स्वभाव आदि की परस्पर तुलना करने से ज्ञात होता है कि उनमें आश्चर्यजनक और अद्भुत समानता है। विदित होता है कि सृष्टि के आदि में सब मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे। वे एक ही स्थान पर रहते थे और एक ही आचार-व्यवहार करते थे। इसी प्रकार, यदि भिन्न-भिन्न भाषाओं के मुख्य-मुख्य नियमों और शब्दों की परस्पर तुलना की जाय तो उनमें भी विचित्र सादृश्य दिखाई देता है। उससे यह प्रकट होता है कि हम सबके पूर्वज पहले एक ही भाषा बोलते थे। जिस प्रकार आदिम स्थान से पृथक् होकर लोग जहाँ-तहाँ चले गए और भिन्न-भिन्न जातियों में विभक्त हो गए; उसी प्रकार उस आदिम भाषा से भी कितनी ही भिन्न भिन्न भाषाएँ उत्पन्न हो गईं।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मनुष्य पहले-पहल एशिया खंड के मध्य भाग में रहता था। जैसे-जैसे उसकी संतति बढ़ती गई, क्रम-क्रम से लोग अपना मूल स्थान छोड़ अन्य देशों में जा बसे। इसी प्रकार यह भी एक अनुमान है कि नाना प्रकार की भाषा एक ही मूल भाषा से निकलती है। पाश्चात्य विद्वान् पहले यह समझते थे कि इब्रानी भाषा से, जिसमें यहूदी लोगों के धर्मग्रंथ हैं, सब भाषाएँ निकली हैं, परंतु उन्हें संस्कृत का ज्ञान होने और शब्दों के मूल रूपों का पता लगने से यह ज्ञात हुआ है कि एक ऐसी आदिम भाषा से, जिसका पता लगना कठिन है, संसार की सब भाषाएँ निकली हैं और वे तीन भागों में बाँटी जा सकती हैं :

(1) आर्यभाषाएँ : इस भाग में संस्कृत, प्राकृत (और उससे निकली हुई भारतवर्ष की प्रचलित आर्यभाषाएँ), अँगरेजी, फारसी, यूनानी, लैटिन आदि भाषाएँ हैं। (2) शामी भाषाएँ : इस भाग में इब्रानी, अरबी और हब्शी भाषाएँ हैं। (3) तूरानी भाषाएँ : इस भाग में मुगली, चीनी, जापानी, द्राविड़ी (दक्षिणी हिंदुस्तान की) भाषाएँ और तुर्की आदि भाषाएँ हैं।


(2) आर्यभाषाएँ

इस बात का अभी तक ठीक-ठीक निर्णय नहीं हुआ कि संपूर्ण आर्यभाषाएँ-- फारसी, यूनानी, लैटिन, रूसी आदि वैदिक संस्कृत से निकली हैं अथवा और-और भाषाओं के साथ-साथ यह पिछली भाषा भी आदिम आर्यभाषा से निकली है। जो भी हो यह बात अवश्य निश्चित हुई है कि आर्य लोग, जिनके नाम से उनकी भाषाएँ प्रख्यात हैं, आदिम स्थान से इधर-उधर गये और भिन्न- भिन्न देशों में उन्होंने अपनी भाषाओं की नींव डाली। जो लोग पश्चिम को गए उनसे ग्रीक, लैटिन, अँगरेजी आदि आर्यभाषाएँ बोलने वाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो लोग पूर्व को आए उनके दो भाग हो गए। एक भाग फारस को गया और दूसरा हिन्दूकुश को पार कर काबुल की तराई में से होता हुआ हिंदुस्तान पहुँचा। पहले भाग के लोगों ने ईरान में मीडी (मादी) भाषा के द्वारा फारसी को जन्म दिया, और दूसरे भाग के लोगों ने संस्कृत का प्रचार किया, जिससे प्राकृत के द्वारा इस देश की प्रचलित आर्यभाषाएँ निकली हैं। प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकली हुई इन्हीं भाषाओं में से हिंदी भी है। भिन्न-भिन्न आर्यभाषाओं की समानता दिखाने के लिए कुछ शब्द नीचे दिए जाते हैं :

संस्कृत : पितृ, मातृ, भ्रातृ, दुहितृ, एक, द्वि-दौ, तृ, नाम, अस्मि, ददामि मीडी : पतर, मतर, व्रतर, दुग्धर, यक, द्व, थृ, नाम, अह्मि, दधामि फारसी : पिदर, मादर, ब्रादर, दुख्तर, यक, दू, ---, नाम, अम, दिहम यूनानी : पाटेर, माटेर, फ्राटेर, थिगाटेर, हैन, डुआ, दृ, ओनोमा, ऐमी, डिडोमी लैटिन : पेटर, मेटर, फ्राटर, ----, अन, डुओ, दृ, नामेन, सम, डिडोमी अँगरेजी : फादर, मदर, ब्रदर, डाटर, वन, टू, थ्री, नेम, ऐम, --- हिंदी : पिता, माता, भाई, धी, एक, दो, तीन, नाम, हूँ, देऊँ

इस तालिका से जान पड़ता है कि निकटवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक समानता है और दूरवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक भिन्नता। यह भिन्नता इस बात की भी सूचक है कि यह भेद वास्तविक नहीं है, और न आदि में था, किंतु वह पीछे से हो गया है।

(3) संस्कृत और प्राकृत

जब आर्य लोग पहले-पहल भारतवर्ष में आए तब उनकी भाषा प्राचीन (वैदिक) संस्कृत थी। इसे देववाणी भी कहते हैं, क्योंकि वेदों की अधिकांश भाषा यही है। रामायण, महाभारत और कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित भाषा में हैं, वह बहुत पीछे की है। अष्टाध्यायी आदि व्याकरणों में ‘वैदिक’ और ‘लौकिक’ नामों से दो प्रकार की भाषाओं का उल्लेख पाया जाता है और दोनों के नियमों में बहुत कुछ अंतर है। इन दोनों प्रकार की भाषाओं में विशेषताएँ ये हैं कि एक तो संज्ञा के कारकों की विभक्तियाँ संयोगात्मक हैं; अर्थात् कारकों में भेद करने के लिए शब्दों के अंत में अन्य शब्द नहीं आते; जैसे-- मनुष्य शब्द का संबंधकारक संस्कृत में ‘मनुष्यस्य’ होता है, हिंदी की तरह ‘मनुष्य का’ नहीं होता। दूसरे, क्रिया के पुरुष और वचन में भेद करने के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम का अर्थ क्रिया के ही रूप से प्रकट होता है, चाहे उसके साथ सर्वनाम लगा हो या न लगा हो; जैसे--‘गच्छति’ का अर्थ ‘सः गच्छति (वह जाता है) होता है। यह संयोगात्मकता वर्तमान हिंदी के कुछ सर्वनामों में और संभाव्य भविष्यत्काल में पाई जाती है; जैसे-- मुझे, किसे, रहूँ इत्यादि। इस विशेषता की कोई-कोई बात बंगाली (बँगला) भाषा में भी अब तक पाई जाती है; जैसे-- ‘मनुष्स्येर’ (मनुष्य का) संबंधकारक में और ‘कहिलाम’ (मैंने कहा) उत्तम पुरुष में। आगे चलकर संस्कृत की यह संयोगात्मकता बदलकर विच्छेदात्मकता हो गई।

अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रंथों से जान पड़ता है कि ईसवी सन् के कोई तीन सौ बरस पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जिसमें भिन्न-भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं। स्त्रिायों, बालकों और शूद्रों से आर्यभाषा का उच्चारण ठीक-ठीक न बनने के कारण इस नई भाषा का जन्म हुआ था और इसका नाम ‘प्राकृत’ पड़ा। ‘प्राकृत’ शब्द ‘प्रकृति’ (मूल) शब्द से बना है और उसका अर्थ ‘स्वाभाविक’ या ‘गँवारी’ है। वेदों में गाथा नाम से जो छन्द पाए जाते हैं, उनकी भाषा पुरानी संस्कृत से कुछ भिन्न है, जिससे जान पड़ता है कि वेदों के समय में भी प्राकृत भाषा थी। सुविधा के लिए वैदिक काल की इस प्राकृत को हम पहली प्राकृत कहेंगे और ऊपर जिस प्राकृत का उल्लेख हुआ है उसे दूसरी प्राकृत। पहली प्राकृत ही ने कई शताब्दियों के पीछे दूसरी प्राकृत का रूप धारण किया। प्राकृत का जो सबसे पुराना व्याकरण मिलता है; वह वररुचि का बनाया है। वररुचि ईसवी सन् के पूर्व पहली सदी में हो गए हैं। वैदिक काल के विद्वानों ने देववाणी को प्राकृत भाषा की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के नियमों से उसे नियन्त्रित कर दिया। इस परिमार्जित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ हुआ, जिसका अर्थ ‘सुधारा हुआ’ अथवा ‘बनावटी’ है। यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है। संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने जिसमें पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है। विद्वान् लोग पाणिनि का समय ई. सन् के पूर्व सातवीं सदी में स्थिर करते हैं और संस्कृत को उनसे सौ वर्ष पीछे तक प्रचलित मानते हैं।

पहली प्राकृत में संस्कृत की संयोगात्मकता तो वैसी ही थी, परंतु, व्यंजनों के अधिक प्रयोग के कारण उसकी कर्णकटुता बहुत बढ़ गई थी। पहली और दूसरी प्राकृत में अन्य भेदों के सिवा यह भी एक भेद हो गया था कि कर्णकटु व्यंजनों के स्थान पर स्वरों की मधुरता आ गई; जैसे-- ‘रघु’ का ‘रहु’ और ‘जीवलोक’ का ‘जीअलोअ’ हो गया।

बौद्ध धर्म के प्रचार से दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। आजकल यह दूसरी प्राकृत पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका विकास धीरे-धीरे होता गया और कुछ समय बाद उसकी तीन शाखाएँ हो गईं; अर्थात् शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री। शौरसेनी भाषा बहुधा उस प्रांत में बोली जाती थी, जिसे आजकल उत्तर प्रदेश कहते हैं। मागधी मगध देश और बिहार की भाषा थी तथा महाराष्ट्री का प्रचार दक्षिण के बंबई, बरार आदि प्रांतों में था। बिहार और उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में एक और भाषा थी जिसको अर्धमागधी कहते थे। वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी। कहते हैं, जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी इसी अर्धमागधी में जैन धर्म का उपदेश देते थे। पुराने जैन ग्रंथ भी इसी भाषा में हैं। बौद्ध और जैन धर्म के संस्थापकों ने अपने धर्मों के सिद्धांत सर्वप्रिय बनाने के लिए अपने ग्रंथ बोलचाल की भाषा अर्थात् प्राकृत में रचे थे। फिर काव्यों और नाटकों में भी उसका प्रयोग हुआ।

थोड़े दिनों के पीछे दूसरी प्राकृत में भी परिवर्तन हो गया। लिखित प्राकृत का विकास रुक गया, परंतु कथित प्राकृत विकसित अर्थात् परिवर्तित होती गई। लिखित प्राकृत के आचार्यों ने इसी विकासपूर्ण भाषा का उल्लेख अपभ्रंश नाम से किया है। ‘अपभ्रंश’ शब्द का अर्थ ‘बिगड़ी हुई भाषा’ है। ये अपभ्रंश भाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न प्रकार की थीं। इसके प्रचार के समय का ठीक-ठीक पता नहीं लगता; पर जो प्रमाण मिलते हैं, उनसे जाना जाता है कि ईसवी सन् के ग्यारहवें शतक तक अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। प्राकृत के अंतिम वैयाकरण हेमचंद्र ने, जो बारहवें शतक में हुए हैं, अपने व्याकरण में अपभ्रंश का उल्लेख किया है।

अपभ्रंशों में संस्कृत और दोनों प्राकृतों से भेद हो गया, उनकी संयोगात्मकता जाती रही और उनमें विच्छेदात्मकता आ गई; अर्थात् कारकों का अर्थ प्रकट करने के लिए शब्दों में विभक्तियों के बदले अन्य शब्द मिलने और क्रिया के रूप में सर्वनामों का बोध होना रुक गया।

प्रत्येक प्राकृत के अपभ्रंश पृथक्-पृथक् थे और वे भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचलित थे। भारत की प्रचलित आर्यभाषाएँ न संस्कृत से निकली हैं और न प्राकृत से; किंतु अपभ्रंशों से। लिखित साहित्य में बहुधा एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है जिसे नागर अपभ्रंश कहते हैं। इसका प्रचार बहुत करके पश्चिम भारत में था। इस अपभ्रंश में कई बोलियाँ शामिल थीं जो भारत के उत्तर की तरफ प्रायः समग्र पश्चिमी भाग में बोली जाती थीं। हमारी हिंदी भाषा दो अपभ्रंशों के मेल से बनी है-- एक नागर अपभ्रंश, जिससे पश्चिमी हिंदी और पंजाबी निकली है; दूसरा अर्धमागधी का अपभ्रंश जिससे पूर्वी हिंदी निकली है और जो अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है।

नीचे लिखे वृक्ष से हिंदी भाषा की उत्पत्ति ठीक-ठीक प्रकट हो जायगीμ 1. प्राचीन संस्कृत 2. लौकिक संस्कृत 3. पहली प्राकृत 4. दूसरी प्राकृत या पाली 5. शौरसेनी 6. अर्धमागधी 7. मागधी 8. नागर अपभ्रंश 9. अर्धमागधी अपभ्रंश 10. पश्चिमी हिंदी 11. पूर्वी हिंदी 12. वर्तमान हिंदी (वा हिंदुस्तानी)

(4) हिंदी प्राकृत भाषाएँ ईसवी सन् के कोई आठ-नौ सौ वर्ष तक और अपभ्रंश भाषाएँ ग्यारहवें शतक तक प्रचलित थीं। हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में हिंदी की प्राचीन कविता के उदाहरण {भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणि महारा कंतु। लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घर एंतुड्ड (हे बहिन, भला हुआ जो मेरा पति मारा गया। यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लज्जित होती।)} पाए जाते हैं। जिस भाषा में मूल ‘पृथ्वीराजरासो’ लिखा गया है। ‘षटभाषा’ {संस्कृतं प्राकृतं चैव शौरसेनी तदुद्भवा। ततोऽपि मागधी तद्वत् पैशाची देशजेति यत्ड्ड} का मेल है। इस ‘काव्य’ में हिंदी का पुराना रूप पाया जाता है। {उच्चिष्ट छंद चंदह बयन सुनत सु जंपिय नारि। तवु पवित्रा पावन कविय उकति अनूठ उघारिड्ड अर्थ : ‘छंद (कविता) उच्छिष्ट है’ चंद का यह वचन सुनकर स्त्री ने कहा-- पावन कवियों की अनूठी उक्ति का उद्धार करने से शरीर पवित्रा हो जाता है। }इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी वर्तमान हिंदी का विकास ईसवी सन् की बारहवीं सदी से हुआ है। ‘शिवसिंह सरोज’ में पुष्य नाम के एक कवि का उल्लेख है जो ‘भाखा की जड़’ कहा गया है, और जिसका समय सन् 713 ई. दिया गया है। पर न तो इस कवि की कोई रचना मिली है और न यह अनुमान हो सकता है कि उस समय हिंदी भाषा प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पृथक् हो गई थी। बारहवें शतक में भी यह भाषा अधबनी अवस्था में थी, तथापि अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का प्रचार मुसलमानों के भारत प्रवेश के समय से होने लगा था। यह प्रचार यहाँ तक बढ़ा कि पीछे से भाषा के लक्षण में ‘पारसी’ भी रखी गई। { ब्रजभाषा भाखा रुचिर कहैं सुमति सब कोय। मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अतिसुगम जु होयड्ड (काव्यनिर्णय)}

विद्वान् लोग हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को नीचे लिखे चार भागों में बाँटते हैं :

1. आदि हिंदी-- यह उस हिंदी का नमूना है जो अपभ्रंश से पृथक् होकर साहित्यकार्य के लिए बन रही थी। यह भाषा दो कालों में बाँटी जा सकती है-- (1) वीरकाल (1200-1400) और (2) धर्मकाल (1400-1600)।

वीरकाल में यह भाषा पूर्ण रूप से विकसित न हुई थी और इसकी कविता का प्रचार अधिकतर राजपूताने में था। इसके बाहर के साहित्य की कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। उसी समय महोबे में जगनिक कवि हुआ जिसके किसी ग्रंथ के आधार पर ‘आल्हा’ की रचना हुई। आजकल इस काव्य की मूल भाषा का ठीक पता नहीं लग सकता, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रांतों के लेखकों और गवैयों ने इसे अपनी बोलियों का रूप दे दिया है। विद्वानों का अनुमान है कि इसकी मूल भाषा बुंदेलखंडी थी और यह बात कवि की जन्मभूमि बुंदेलखंड में होने से पुष्ट होती है।

प्राचीन हिंदी का समय बतानेवाली दूसरी रचना भक्तों के साहित्य में पाई जाती है, जिसका समय अनुमान से 1400-1600 है। इस काल के जिन-जिन कवियों के ग्रंथ आजकल लोगों में प्रचलित हैं उनमें बहुतेरे वैष्णव थे और उन्हीं के मार्ग-प्रदर्शन से पुरानी हिंदी के उस रूप में, जिसे ब्रजभाषा कहते हैं; कविता रची गई। वैष्णव सिद्धांत के प्रचार का आरंभ रामानुज से माना जाता है जो दक्षिण के रहने वाले थे और अनुमान से बारहवीं सदी में हुए हैं। उत्तर भारत में यह धर्म रामानंद स्वामी ने फैलाया, जो इस संप्रदाय के प्रचारक थे। इनका समय सन् 1400 ईसवी के लगभग माना जाता है। इनकी लिखी कुछ कविताएँ सिक्खों के आदिग्रंथ में मिलती हैं और इनके रचे हुए भजन पूर्व में मिथिला तक प्रचलित हैं। रामानंद के चेलों में कबीर थे जिनका समय 1512 ईसवी के लगभग है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे हैं जिनमें ‘साखी’, ‘शब्द’, ‘रेख्ता’ और ‘बीजक’ अधिक प्रसिद्ध हैं। उनकी भाषा {मनका फेरत जुग गया गया न का फेर। कर का मन का छाँड़ि दे मन का मनका फेरड्ड नव द्वारे को पींजरा तामें पंछी पौन। रहिबे को आचर्ज है गये अचंभा कौनड्ड} में ब्रजभाषा और हिंदी के उस रूपांतर का मेल है, जिसे लल्लू जी लाल ने (सन् 1803 में) ‘खड़ीबोली’ नाम दिया है। कबीर ने जो कुछ लिखा है; वह धर्म-सुधारक की दृष्टि से लिखा है, लेखक की दृष्टि से नहीं। इसलिए उनकी भाषा साधारण और सहज है। लगभग इसी समय मीराबाई हुईं, जिन्होंने कृष्ण की भक्ति में बहुत सी कविताएँ कीं। इनकी भाषा कहीं मेवाड़ी, और कहीं ब्रजभाषा है। इन्होंने ‘राग गोविंद की टीका’ आदि ग्रंथ लिखे। सन् 1469 ई. से 1538 तक बाबा नानक का समय है। ये नानकपंथी सम्प्रदाय के प्रचारक और ‘आदिग्रंथ’ लेखक हैं। इस ग्रंथ की भाषा पुरानी पंजाबी होने के बदले पुरानी हिंदी है। शेरशाह (1540) के आश्रय में मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ लिखी जिसमें सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौर का किला लेने पर वहाँ के राजा रतनसेन की रानी पर्ािंवती के आत्मघात की ऐतिहासिक कथा है { यह एक अन्योक्ति भी है जिसमें सत्य ज्ञान के लिए आत्मा की खोज का और उस खोज में आनेवाले विघ्नों का वर्णन है}। इस पुस्तक की भाषा अवधी है।

वैष्णव धर्म का एक और भेद है जिसमें लोग श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानते हैं। इस संप्रदाय के संस्थापक वल्लभ स्वामी थे, जिनके पूर्वज दक्षिण के रहनेवाले थे। वल्लभ स्वामी ने सोलहवीं सदी के आदि में उत्तर भारत में अपने मत का प्रचार किया। इनके आठ शिष्य थे जो ‘अष्टछाप’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये आठों कवि ब्रज में रहते थे और ब्रजभाषा में कविता करते थे। इनमें सूरदास मुख्य हैं। जिनका समय सन् 1550 ई. के लगभग है। कहते हैं, इन्होंने सवा लाख पद {संभवतः सूरदासजी के पदों की संख्या सवा लाख अनुष्टुप् श्लोकों के बराबर होगी। इससे भ्रमवश लोगों ने सवा लाख पदों की बात प्रचलित कर दी। ग्रंथ का विस्तार बनाने के लिए प्राचीन काल से अनुष्टुप् छंद एक प्रकार की नाप मान लिया गया है} लिखे हैं जिनका संग्रह ‘सूरसागर’ नामक ग्रंथ में है। इस पंथ के चैरासी गुरुओं का वर्णन ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ नामक ग्रंथ में पाया जाता है। जो ब्रजभाषा के गद्य में लिखा गया है; पर इस ग्रंथ का समय निश्चित नहीं है।

अकबर (1556-1605 ई.) के समय में ब्रजभाषा की कविता की अच्छी उन्नति हुई। अकबर स्वयं ब्रजभाषा में कविता करते थे और उनके दरबार में हिंदू कवियों के समान रहीम, फैजी फहीम आदि मुसलमान कवि भी इस भाषा में रचना करते थे। हिंदू कवियों में टोडरमल, बीरबल, नरहरि, हरिनाथ, करनेश और गंग आदि अधिक प्रसिद्ध थे।

2. मध्य हिंदी-- यह हिंदी कविता के सत्ययुग का नमूना है जो अनुमान से सन् 1600 से लेकर 1800 ई. तक रहा।

इस काल में केवल कविता और भाषा ही की उन्नति नहीं हुई वरन् साहित्य विषय के भी अनेक उत्तम और उपयोगी ग्रंथ लिखे गए। मध्य हिंदी के कवियों में सबसे प्रसिद्ध गुसाईं तुलसीदास जी हुए; जिनका समय सन् 1573 से 1624 ई. तक है। उन्होंने हिंदी में एक महाकाव्य लिखकर भाषा का गौरव बढ़ाया और सर्वसाधारण में वैष्णव धर्म का प्रचार किया। राम के अनन्य भक्त होने पर भी गोसाईं जी ने शिव और राम में भेद नहीं माना और मत मतान्तर का विवाद नहीं बढ़ाया। वैराग्य वृत्ति के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति और लीलाओं के विषय में बहुत नहीं लिखा, तथापि ‘कृष्ण गीतावली में इन विषयों पर यथेष्ट और मनोहर रचना की है।

तुलसीदास ने ऐसे समय में रामायण की रचना की जब मुगल राज्य दृढ़ हो रहा था और हिंदू समाज के बंधन अनीति के कारण ढीले हो रहे थे। मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्रा तुलसीदास ने खींचा है, वैसा और कोई नहीं खींच सका।

रामायण की भाषा अवधी है; पर वह बैसवाड़ी से विशेष मिलती-जुलती है। गोसाईं जी के और ग्रंथों में अधिकांश ब्रजभाषा है।

इस काल के दूसरे प्रसिद्ध कवि केशवदास, बिहारीलाल, भूषण, मतिराम और नाभादास हैं।

केशवदास प्रथम कवि हैं जिन्होंने साहित्य विषयक ग्रंथ रचे। इस विषय के इनके ग्रंथ ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ और ‘रामालंकृतमंजरी’ हैं। ‘रामचंद्रिका’ और ‘विज्ञानगीता’ भी इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुतायत है। इनकी योग्यता की तुलना सूरदास और तुलसीदास से की जाती है। इनका मरणकाल अनुमान से सन् 1612 ईसवी है। बिहारीलाल ने 1650 ईसवी के लगभग ‘सतसई’ समाप्त की। इस ग्रंथरत्न में काव्य के प्रायः सब गुण विद्यमान हैं। इसकी भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है। ‘बिहारी सतसई’ पर कई कवियों ने टीकाएँ लिखी हैं। भूषण ने 1671 ई. में ‘शिवराजभूषण’ बनाया और कई अन्य ग्रंथ लिखे। इनके ग्रंथों में देशभक्ति और धर्माभिमान खूब दिखाई देता है। इनकी कुछ कविताएँ खड़ी बोली में भी हैं और अधिकांश कविताएँ वीर रस से भरी हुई हैं। चिंतामणि और मतिराम भूषण के भाई थे, जो भाषासाहित्य के आचार्य माने जाते हैं। नाभादास जाति के डोम थे और तुलसीदास के समकालीन थे। इन्होंने ब्रजभाषा में ‘भक्तमाल’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें अनेक वैष्णव भक्तों का संक्षिप्त वर्णन है।

इस काल के उत्तरार्ध (1700-1800 ईसवी) में राज्यक्रांति के कारण कविता की विशेष उन्नति नहीं हुई। इस काल के प्रसिद्ध कवि प्रियादास, कृष्णकवि, भिखारीदास, ब्रजवासीदास, सूरति मिश्र आदि हैं। प्रियादास ने सन् 1712 ईसवी में ‘भक्तमाल’ पर एक (पद्य) टीका लिखी। कृष्णकवि ने ‘बिहारी सतसई’ पर सन् 1720 के लगभग एक टीका रची। भिखारीदास सन् 1723 के लगभग हुए और साहित्य के अच्छे कवि समझे जाते हैं। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘छंदोऽर्णव’ और ‘काव्यनिर्णय’ हैं। ब्रजवासीदास ने सन् 1770 ई. में ‘ब्रजविलास’ लिखा, जो विशेष लोकप्रिय है। सूरति मिश्र ने इसी समय में ब्रजभाषा के गद्य में ‘बैताल पचीसी’ नामक एक ग्रंथ लिखा। यही कवि गद्य के प्रथम लेखक हैं।

3. आधुनिक हिंदी-- यह काल सन् 1800 से 1900 ईसवी तक है।

इसमें हिंदी गद्य की उत्पत्ति और उन्नति हुई। अँगरेजी राज्य की स्थापना और छापे के प्रचार से इस शताब्दी में गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें बनीं और छपीं। साहित्य के सिवा इतिहास भूगोल, व्याकरण, पदार्थविज्ञान और धर्म पर इस काल में कई पुस्तकें लिखी गईं। सन् 1857 ई. के विद्रोह के पीछे देश में शान्तिस्थापना होने पर समाचार पत्र, मासिक पत्रा, नाटक, उपन्यास और समालोचना का आरंभ हुआ। हिंदी की उन्नति का एक विशेष चिद्द इस समय यह है कि इसमें खड़ी बोली (बोलचाल की भाषा) की कविता लिखी जाती है। इसके साथ ही हिंदी में संस्कृत शब्दों का निरंकुश प्रयोग भी बढ़ता जाता है। इस काल में शिक्षा के प्रचार से हिंदी की विशेष उन्नति हुई।

पादरी गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से लल्लू जी लाल ने सन् 1804 ई. में ‘प्रेम-सागर’ लिखा जो आधुनिक हिंदी गद्य का प्रथम ग्रंथ है। इनके बनाए और प्रसिद्ध ग्रंथ’ ‘राजनीति’ (ब्रजभाषा के गद्य में), ‘सभाविलास’, ‘लालचन्द्रिका’ (बिहारी सतसई पर टीका), ‘सिंहासन पचीसी’ हैं। इस काल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर (1815), ग्वाल (1815), पजनेश (1816), रघुराजसिंह (1834), दीनदयालगिरि (1855), और हरिश्चंद्र (1880) हैं।

गद्य लेखकों में लल्लू जी लाल के पश्चात् पादरी लोगों ने कई विषयों की पुस्तकें अँगरेजी से अनुवाद कराकर छपवाईं। इसी समय से हिंदी में ईसाई धर्म की पुस्तकों का छपना आरंभ हुआ। शिक्षा विभाग के लेखकों में पं. श्रीलाल, पं. वंशीधर वाजपेयी और राजा शिवप्रसाद हैं। शिवप्रसाद ऐसी हिंदी के पक्षपाती थे जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों समझ सकें। इनकी रचना प्रायः उर्दू ढंग की होती थी। आर्यसमाज की स्थापना से साधारण लोगों में वैदिक विषयों की चर्चा और धर्मसंबंधी हिंदी की अच्छी उन्नति हुई। काशी की नागरीप्रचारिणी सभा ने हिंदी की विशेष उन्नति की है। उसने गत अर्धशताब्दी में अनेक विषयों के न्यूनाधिक सौ उत्तम ग्रंथ प्रकाशित किए हैं जिनमें सर्वांगपूर्ण हिंदी कोश और हिंदी व्याकरण मुख्य है। उसने प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों की नियमबद्ध खोज कराकर अनेक दुर्लभ ग्रंथों का भी प्रकाशन किया है। प्रयाग की हिंदी साहित्य सम्मेलन नामक संस्था हिंदी की उच्च परीक्षाओं का प्रबंध और संपूर्ण देश में उसका प्रचार राष्ट्रभाषा के रूप में कर रही है। उसने कई एक उपयोगी पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं।

इस काल के और प्रसिद्ध लेखक राजा लक्ष्मणसिंह, पं. अम्बिकादत्त व्यास, राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं। इन सब में भारतेंदु जी का आसन ऊँचा है। उन्होंने केवल 35 वर्ष की आयु में कई विषयों की अनेक पुस्तकें लिखकर हिंदी का उपकार किया और भावी लेखकों को अपनी मातृभाषा की उन्नति का मार्ग बताया। भारतेंदु के पश्चात् वर्तमान काल में सबसे प्रसिद्ध लेखक और कवि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. श्रीधर पाठक, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय और बाबू मैथिलीशरण हैं, जिन्होंने उच्च कोटि के अनेक ग्रंथ लिखकर हिंदी भाषा और साहित्य का गौरव बढ़ाया है। आधुनिक काल के अन्य प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद, पं. सुमित्राानंदन पंत, बाबू जयशंकर प्रसाद, पं. सूर्यकांत त्रिापाठी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, उपेंद्रनाथ अश्क, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, जैनेंद्रकुमार दिनकर, बच्चन, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल और रामचंद्र वर्मा हैं। कवयित्रिायों में श्रीमती महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चैहान प्रसिद्ध हैं।

(5) हिंदी और उर्दू

‘हिंदी’ नाम से जो भाषा हिंदुस्तान में प्रसिद्ध और प्रचलित है, उसके नाम, रूप और विस्तार के विषय में विद्वानों का मतभेद है। कई लोगों की राय में हिंदी और उर्दू एक ही भाषा है और कई लोगों की राय में दोनों अलग-अलग दो बोलियाँ हैं। राजा शिवप्रसाद सदृश महाशयों की युक्ति यह है कि शहरों और पाठशालाओं में हिंदू और मुसलमान कुछ सामाजिक तथा धर्मसंबंधी और वैज्ञानिक शब्दों को छोड़कर प्रायः एक ही भाषा में बातचीत करते हैं और एक दूसरे के विचार पूर्णतया समझ लेते हैं। इसके विरुद्ध राजा लक्ष्मण सिंह सदृश विद्वानों का पक्ष यह है कि जिन दो जातियों का धर्म, व्यवहार, विचार, सभ्यता और उद्देश्य एक नहीं है, उनकी भाषा पूर्णतया एक कैसे हो सकती है? जो हो, साधारण लोगों में आज कल हिंदुस्तानियों की भाषा हिंदी और मुसलमानों की भाषा उर्दू प्रसिद्ध है। भाषा का मुसलमानी रूपांतर केवल हिंदी में नहीं, वरन् बँगला, गुजराती, आदि भाषाओं में भी पाया जाता है। ‘हिंदी भाषा की उत्पत्ति’ नामक पुस्तक के अनुसार हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी की शाखाएँ हैं, जो पश्चिमी हिंदी का एक भेद है। इस भाषा का ‘हिंदुस्तानी’ नाम अँगरेजों का रखा हुआ है और उससे बहुधा उर्दू का बोध होता है। हिंदू लोग इस शब्द को ‘हिंदुस्तानी’ कहते हैं और इसे बहुधा ‘हिंदी बोलने वाली ‘जाति’ के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं।

हिंदी कई नामों से प्रसिद्ध है; जैसे-- भाषा, हिंदवी (हिंदुई), हिंदी, खड़ी बोली और नागरी। इसी प्रकार मुसलमानों की भाषा के भी कई नाम हैं। वह हिंदुस्तानी, उर्दू, रेख्ता और दक्खिनी कहलाती है। इनमें से बहुत से नाम दोनों भाषाओं का यथार्थ रूप निश्चित न होने के कारण दिए गए हैं।

हमारी भाषा का सबसे पुराना नाम केवल ‘भाषा’ है। महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी के अनुसार यह नाम भास्वती की टीका में आया है, जिसका समय संवत् 1485 है। तुलसीदास ने रामायण में ‘भाषा’ शब्द लिखा है, पर अपने फारसी पंचनामे में ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग किया है। बहुधा पुस्तकों के नामों में और टीकाओं में यह शब्द आजकल प्रचलित है; जैसे-- ‘भाषा भास्कर, भाषा टीका सहित’, इत्यादि। पादरी आदम साहब की लिखी और सन् 1837 में दूसरी बार छपी ‘उपदेश कथा’ में इस भाषा का नाम ‘हिंदवी’ लिखा है। इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी भाषा का हिंदी नाम आधुनिक है।{सन् 1846 में दूसरी बार छपी ‘पदार्थ विद्यासार’ नामक पुस्तक में ‘हिंदी भाषा’ का नाम आया है। } इसके पहले हिंदू लोग इसे ‘भाषा’ और मुसलमान लोग ‘हिंदुई’ या ‘हिंदवी’ कहते थे। लल्लू जी लाल ने प्रेमसागर में (सन् 1804 में) इस भाषा का नाम ‘खड़ी बोली’{ब्रजभाषा के ओकारांत रूपों से मिलान करने पर हिंदी के आकारांत रूप ‘खड़े’ जान पड़ते हैं। बुंदेलखंड में इस भाषा को ‘ठाढ़ी बोली’ या ‘तुर्की’ कहते हैं।} लिखा है, जिसे आजकल कुछ लोग न जाने क्यों ‘खरी बोली’ कहने लगे हैं। आजकल ‘खड़ी बोली’ शब्द केवल कविता की भाषा के लिए आता है, यद्यपि गद्य की भाषा भी ‘खड़ी बोली’ है। लल्लू जी लाल ने एक जगह अपनी भाषा का नाम ‘रेख्ते की बोली’ भी लिखा है। ‘रेख्ता’ शब्द कबीर के एक ग्रंथ में भी आया है, पर वहाँ उसका अर्थ ‘भाषा’ नहीं है किंतु एक प्रकार का ‘छंद’ है। जान पड़ता है कि फारसी अरबी शब्द मिलाकर भाषा में जो फारसी शब्द रचे गए उनका नाम रेख्ता (अर्थात् मिला हुआ) रखा गया और फिर पीछे से यह शब्द मुसलमानों की कविता की बोली के लिए प्रयुक्त होने लगा। यह भी एक अनुमान है कि मुसलमानों में रेख्ता का प्रचार बढ़ने के कारण हिंदुओं की भाषा का नाम ‘हिंदुई’ (या हिंदवी) रखा गया। इसी ‘हिंदवी’ में, जिसे आजकल ‘खड़ी बोली’ कहते हैं, कबीर, भूषण, नागरीदास आदि कुछ कवियों ने थोड़ी-बहुत कविता की है; पर अधिकांश हिंदू कवियों ने श्रीकृष्ण की उपासना और भाषा की मधुरता के कारण ब्रजभाषा का ही उपयोग किया है।

आरंभ में हिंदुई और रेख्ता में थोड़ा ही अंतर था। अमीर खुसरो, जिनकी मृत्यु सन् 1325 ई. में हुई, मुसलमानों में सर्वप्रथम और प्रधान कवि माने जाते हैं। उनकी भाषा{तरुवर से एक तिरिया उतरी, उसने खूब रिझाया। बाप का उसके नाम जो पूछा, आधा नाम बताया ।। आधा नाम पिता पर वाका, अपना नाम निबोरी। अमीर खुसरो यों कहैं बूझ पहेली मोरी ।।} से जान पड़ता है कि उस समय तक हिंदी में मुसलमानी शब्द और फारसी ढंग की रचना की भरमार न हुई थी, और मुसलमान लोग शुद्ध हिंदी पढ़ते-लिखते थे। जब देहली के बाजार में तुर्क, अफगान और फारसवालों का संपर्क हिंदुओं से होने लगा, और वे लोग हिंदी शब्दों के बदले अरबी, फारसी के शब्दों को बहुतायत से मिलाने लगे, तब रेख्ता ने दूसरा ही रूप धारण किया, और उसका नाम ‘उर्दू’ पड़ा। ‘उर्दू’ शब्द का अर्थ ‘लश्कर’ है। शाहजहाँ के समय में उर्दू की बहुत उन्नति हुई, जिससे ‘खड़ी बोली’ की उन्नति में बाधा पड़ गई।

हिंदी और उर्दू मूल में एक ही भाषा हैं। उर्दू हिंदी का केवल मुसलमानी रूप है। आज भी कई शतक बीत जाने पर, इन दोनों में विशेष अंतर नहीं; पर इनके अनुयायी लोग इस नाममात्रा के अंतर को वृथा ही बढ़ा रहे हैं। यदि हम लोग हिंदी में संस्कृत के और मुसलमान उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और संभव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जाय। धर्मभेद के कारण पिछली शताब्दी में हिंदी और उर्दू के प्रचारकों में परस्पर खींचातानी शुरू हो गई। मुसलमान हिंदी से घृणा करने लगे और हिंदुओं ने हिंदी के प्रचार पर जोर दिया। परिणाम यह हुआ कि हिंदी में संस्कृत शब्द और उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द मिल गए और दोनों भाषाएँ क्लिष्ट हो गईं। इन दिनों कई राजनीतिक कारणों से हिंदी-उर्दू विवाद और भी बढ़ रहा है, और ‘हिंदुस्तानी’ के नाम से एक खिचड़ी भाषा की रचना की जा रही है, जो न शुद्ध हिंदी होगी और न शुद्ध उर्दू।

आरंभ से ही उर्दू और हिंदी में कई बातों का अंतर भी रहा है। उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें अरबी-फारसी शब्दों की विशेष भरमार रहती है। इसकी वाक्य रचना में बहुधा विशेष्य विशेषण के पहले आता है, और (कविता में) फारसी के संबोधन कारक का रूप प्रयुक्त होता है। हिंदी के संबंधवाचक सर्वनाम के बदले उसमें कभी-कभी फारसी का संबंधवाचक सर्वनाम आता है। इनके सिवा रचना में और भी दो-एक बातों का अंतर है कोई-कोई उर्दू लेखक इन विदेशी शब्दों के लिखने में सीमा के बाहर चले जाते हैं। उर्दू और हिंदी की छंद रचना में भी भेद है। मुसलमान लोग फारसी-अरबी के छंदों का उपयोग करते हैं। फिर उनके साहित्य में मुसलमानी इतिहास और दंतकथाओं के उल्लेख बहुत रहते हैं। शेष बातों में दोनों भाषाएँ प्रायः एक हैं।

कुछ लोग समझते हैं कि वर्तमान हिंदी की उत्पत्ति लल्लू जी लाल ने उर्दू की सहायता से की है। यह भूल है। ‘प्रेमसागर’ की भाषा दोआब में पहले ही से बोली जाती थी। उन्होंने उसी भाषा का प्रयोग ‘प्रेमसागर’ में किया और आवश्यकतानुसार उसमें संस्कृत के शब्द भी मिलाए। मेरठ के आसपास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अब भी अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ इसका वही रूप है, जिसके अनुसार हिंदी का व्याकरण बना है। यद्यपि इस भाषा का नाम ‘उर्दू’ या ‘खड़ी बोली’ नया है, तो भी उसका यह रूप नया नहीं, किंतु उतना ही पुराना है, जितने उसके दूसरे रूप-- ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि हैं। देहली में मुसलमानों के संयोग से हिंदी भाषा का विकास जरूर हुआ, और इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई। इस देश में जहाँ-जहाँ मुगल बादशाहों के अधिकारी गए वहाँ-वहाँ वे अपने साथ इस भाषा को भी लेते गए।

कोई-कोई लोग हिंदी भाषा को ‘नागरी’ कहते हैं। यह नाम अभी हाल का है, और देवनागरी लिपि के आधार पर रखा गया जान पड़ता है। इस भाषा के तीन नाम और प्रसिद्ध हैं-- (1) ठेठ हिंदी, (2) शुद्ध हिंदी और (3) उच्च हिंदी। ‘ठेठ हिंदी’ हमारी भाषा के उस रूप को कहते हैं, जिसमें ‘हिंदवी छुट् और किसी बोली की पुट् न मिले।’ इसमें बहुधा ‘तद्भव’ शब्द आते हैं। ‘शुद्ध हिंदी’ में तद्भव शब्दों के साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग होता है, पर उसमें विदेशी शब्द नहीं आते। ‘उच्च हिंदी’ शब्द कई अर्थों का बोधक है। कभी-कभी प्रांतिक भाषाओं से हिंदी का भेद बताने के लिए इस भाषा को ‘उच्च हिंदी’ कहते हैं। अँगरेज लोग इस नाम का प्रयोग बहुधा इसी अर्थ में करते हैं। कभी-कभी ‘उच्च हिंदी’ से वह भाषा समझी जाती है, जिसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है और कभी-कभी यह नाम केवल ‘शुद्ध हिंदी’ के पर्याय में आता है।

(6) तत्सम और तद्भव शब्द

उन शब्दों को छोड़कर जो फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि विदेशी भाषाओं के हैं (और जिनकी संख्या बहुत थोड़ीμकेवल दशमांश है) अन्य शब्द हिंदी में मुख्य तीन प्रकार के हैं :

(1) तत्सम (2) तद्भव (3) अर्द्धतत्सम

तत्सम-- वे संस्कृत शब्द हैं, जो अपने असली स्वरूप में हिंदी भाषा में प्रचलित हैं; जैसे-- राजा, पिता, कवि, आज्ञा, अग्नि, वायु, वत्स, भ्राता इत्यादि। {इस प्रकार के कई शब्द कई सदियों से भाषा में प्रचलित हैं। कोई-कोई साहित्य के बहुत पुराने नमूनों में भी मिलते हैं, परंतु बहुत से वर्तमान शताब्दी में आए हैं। यह भरती अभी तक जारी है। जिस रूप में ये शब्द आते हैं, वह बहुधा संस्कृत की प्रथमा के एकवचन का है।}

तद्भव-- वे शब्द हैं जो या तो सीधे प्राकृत से हिंदी भाषा में आ गए हैं या प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसे-- राय, खेत, दाहिना, किसान।

अर्द्धतत्सम-- उन संस्कृत शब्दों को कहते हैं, जो प्राकृत भाषा बोलने वालों के उच्चारण से बिगड़ते-बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गए हैं, जैसे-- बच्छ, अग्याँ, मुँह, बंस, इत्यादि।

बहुत से शब्द तीनों रूपों में मिलते हैं, परंतु कई शब्दों के सब रूप नहीं पाए जाते। हिंदी के क्रिया शब्द प्रायः सबके सब तद्भव हैं। यही अवस्था सर्वनामों की है। बहुत से संज्ञा शब्द तत्सम या तद्भव हैं और कुछ अर्द्धतत्सम हो गए हैं।

तत्सम और तद्भव शब्दों में रूप की भिन्नता के साथ बहुधा अर्थ की भिन्नता भी होती है। तत्सम प्रायः सामान्य अर्थ में आता है और तद्भव शब्द विशेष अर्थ में; जैसेμस्थान सामान्य नाम है, पर ‘थाना’ एक विशेष स्थान का नाम है। कभी-कभी तत्सम शब्द से गुरुता का अर्थ निकलता है और तद्भव से लघुता का, जैसे-- देखना साधारण लोगों के लिए आता है, पर ‘दर्शन’ किसी बड़े आदमी या देवता के लिए। कभी-कभी तत्सम के दो अर्थों में से तद्भव से केवल एक ही अर्थ सूचित होता है; जैसे-- ‘वंश’ का अर्थ ‘कुटुंब’ भी है, और ‘बाँस’ भी है; पर तद्भव ‘बाँस’ से केवल एक ही अर्थ निकलता है।

यहाँ तत्सम, तद्भव और अद्र्धतत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं : तत्सम : आज्ञा, राजा, वत्स, अग्नि, स्वामी, कर्ण, कार्य, पक्ष, वायु, अक्षर, रात्रि, सर्व, दैव । अर्द्धतत्सम : अग्याँ, ---, बच्छ, अगिन, ---, ---, कारज, ---, ---, अच्छर, रात, ---, दई । तद्भव : आन, राय, बच्चा, आग, साई, कान, काज, पंख / पाँख, बयार, अक्ख / आखर, ---, सब, --- ।

(7) देशज और अनुकरणवाचक शब्द

हिंदी में और भी दो प्रकार के शब्द पाए जाते हैं-- (1) देशज (2) अनुकरणवाचक।

देशज वे शब्द हैं जो किसी संस्कृत (या प्राकृत) मूल से निकले हुए नहीं जान पड़ते और जिनकी व्युत्पत्ति का पता नहीं लगता; जैसे-- तेंदुआ, खिड़की, धूआ, ठेस इत्यादि। ऐसे शब्दों की संख्या बहुत थोड़ी है और संभव है कि आधुनिक आर्यभाषाओं की बढ़ती के नियमों की अधिक खोज और पहचान होने से अंत में इनकी संख्या बहुत कम जो जाएगी।

पदार्थ की यथार्थ अथवा कल्पित ध्वनि को ध्यान में रखकर जो शब्द बनाए गए हैं वे अनुकरणवाचक शब्द कहलाते हैं; जैसे-- खटखटाना, धड़ाम, चट आदि।

(8) विदेशी शब्द

फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि भाषाओं से जो शब्द हिंदी में आए हैं, वे विदेशी कहाते हैं, अँगरेजी से आजकल भी शब्दों की भरती जारी है। विदेशी शब्द हिंदी में ध्वनि के अनुसार अथवा बिगड़े हुए उच्चारण के अनुसार लिखे जाते हैं। इस विषय का पता लगाना कठिन है कि हिंदी में किस-किस समय पर कौन से विदेशी शब्द आए हैं; पर ये शब्द भाषा में मिल गए हैं और इनमें कोई-कोई शब्द ऐसे हैं जिनके समानार्थी हिंदी शब्द बहुत समय से अप्रचलित हो गए हैं। भारतवर्ष की और और प्रचलित भाषाओं-- विशेषकर मराठी और बँगला से भी कुछ शब्द हिंदी में आए हैं। कुछ विदेशी शब्दों की सूची दी जाती है :

(1) फारसी--- : आदमी, उम्मेदवार, कमर, खर्च, गुलाब, चश्मा, चाकू, चापलूस, दाग, दूकान, बाग, मोजा इत्यादि।

(2) अरबी--- : अदालत, इम्तिहान, एतराज, औरत, तनखाह, तारीख, मुकदमा, सिफारिश, हाल इत्यादि।

(3) तुर्की--- : कोतल (अपभ्रंश हैं), चकमक (अपभ्रंश हैं), तगमा, तोप, लाश इत्यादि।

(4) पोर्चुगीज--- : कमरा (अपभ्रंश हैं), नीलाम, पादरी (अपभ्रंश हैं), भारतौल, पेरू।

(5) अँगरेजी--- : अपील, इंच (अपभ्रंश हैं) कलक्टर (अपभ्रंश हैं), कमेटी, कोट (अपभ्रंश हैं), गिलास (अपभ्रंश हैं), टिकट (अपभ्रंश हैं), टीन, नोटिस, डाक्टर, डिगरी (अपभ्रंश हैं), पतलून, फंड, फीस, फुट (अपभ्रंश हैं), मील, रेल (अपभ्रंश हैं), लाट, लालटेन, समन, स्कूल इत्यादि।

(6) मराठी--- : प्रगति, लागू, चालू, बाड़ा, बाजू (ओर, तरफ) इत्यादि।

(7) बँगला--- : उपन्यास, प्राणपण, चूड़ांत, भद्रलोग (= भले आदमी), गल्प, नितांत इत्यादि।