हिंदी की पूर्व और वर्तमान स्थिति / रामचन्द्र शुक्ल

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समस्त उत्तरीय भारत के बीच हिन्दी की स्थिति क्या थी और अब क्या है इसका संक्षेप विचार आवश्यक जान पड़ता है। देश के ग्रहस्थि, सामाजिक, राजनीतिक तथा धर्म सम्बन्धी जीवन से इसका कितना लगाव रहा है तथा और देशभाषाओं से इसका क्या सम्बन्ध चला आ रहा है यही देखने का थोड़ा बहुत प्रयत्न हम यहाँ करेंगे।

कोई भाषा जितने ही अधिक व्यापारों में मनुष्य का साथ देगी उसके विकास और प्रचार की उतनी ही अधिक सम्भावना होगी। वह भाषा जो किसी विशेष अवसर वा स्थान के लिए गढ़ी जाती है लाख उपाय करने पर भी जन साधारण के नित्य प्रति के व्यवहार में नहीं घुस सकती। जिन बातों को हम अधिक सुनते हैं, जिन वस्तुओं को हम अधिक देखते हैं, जिन शब्दों को हम अधिक बोलते हैं, उन्हीं को लक्ष्य किए हुए जो साहित्य चला है वही हमारा साहित्य है और वही भूले भटकों को प्रकाश का काम देगा। हमारे हृदय को उन शब्दों को सुनकर द्रवीभूत होने का अभ्यास अधिक रहता है जो हमारे घरों में सुनाई पड़ते हैं क्योकि वहाँ प्रकृति से हमारा अधिक मेल रहता है। अब यदि हम इन शब्दों और वाक्यों को बिलकुल छोड़ दें तो हमारी लिखने पढ़ने की भाषा में वह शक्ति नहीं रह जाती। समाज भी इसी ग्रहस्थँ जीवन का एक विकास है अत: हमारी हिन्दी को जो प्रेरणा इतिहास की बड़ी बड़ी घटनाओं से मिली है वह किसी से छिपी नहीं है। लाहौर के चन्दबरदाई की वीररसोद्गारिणी कविता युद्धा में अग्रसर होते हुए महाराज पृथ्वीराज के कानों में बराबर पड़ती रही। बीकानेर के पृथ्वीराज के एक दोहे ने महाराणा प्रतापसिंह पर जादू का असर किया। भूषण के कवित्ता महाराष्ट्र के वीर छत्रापति शिवाजी के मन में औरंगजेब के अन्याय को दमन करने की उत्तोजना बराबर बनाए रहे। शेख बुरहान के चेले कुतबन और मलिक मुहम्मद जायसी ऐसे हिन्दूभावों से सहानुभूति रखनेवाले कवि हुसेनशाह और शेरशाह को लोकप्रिय और प्रजापालक बनाने में सहायक हुए। 15वीं शताब्दी से देश में हिन्दी द्वारा भक्ति का जो स्रोत उमड़ा उसने सारे उत्तरीय भारत को प्रेम और शांत रस में मग्न कर दिया। सारांश यह कि 800 वर्ष से जातीय जीवन में जितने उलट फेर होते आए उन सबका आभास हिन्दी साहित्य में विद्यमान है और किसी जाति के साहित्य का यही लक्षण है। हिन्दी आरम्भ ही से उत्तरीय भारत के एक बड़े भूखंड की लिखने की भाषा रही। उसी में जाति का पूर्व अनुभव संचित है और अब भी उसी तक जनसाधारण की पहुँच है।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार देश में फैल रहा है। हिन्दी की शब्दावली को कुछ रूपान्तरों के साथ बंगला, मराठी और गुजराती आदि में व्याप्त देख दूरदर्शियों को यह सूझने लगा है कि हिन्दी उन स्थानों की भी साहित्य भाषा अच्छी तरह हो सकती है जहाँ उपर्युक्त भाषाएँ बरती जाती हैं। यद्यपि लोगों का ध्या न इस ओर अब आकर्षित हुआ है पर यह स्थिति हिन्दी को प्राचीन समय में प्राप्त थी और उसने उसके बल पर अपनी सीमा के बाहर हाथ पैर भी फैलाए थे पर पीछे भिन्न भिन्न देशभाषाओं में साहित्य की वृद्धि हो जाने पर वह कुछ दब सी गई। हिन्दी सारे उत्तरीय भारत की राष्ट्रभाषा पुराने समय में भी थी। मैथिल कवि विद्यापति ठाकुर ने अपने पदों को हिन्दी से मिलती जुलती भाषा में लिखने के अतिरिक्त कुछ कविताएँ शुद्ध हिन्दी में भी रची हैं। बंग भाषा के पुराने कवि भारतचन्द राय ने भी हिन्दी में कुछ कविताएँ की हैं। इससे प्रतीत होता है कि उत्तरीय भारत में हिन्दी किसी समय साहित्य की परिष्कृत भाषा समझी जाती थी। गुजराती के पुराने नाटकों में पहिले पात्रों का कथोपकथन ब्रजभाषा में कराया जाता था। अब भी गुजरात में ब्रजभाषा का व्यवहार बहुत है। तुलसी, सूर आदि महाकवियों के पद बहुत दूर दूर तक फैले। जम्मू में 'सुदामा मन्दिर देख डरे' आदि पद स्त्रियों में बराबर प्रचलित हैं। महाराष्ट्र के राजदरबारों में हिन्दी कवियों का बड़ा मान होता था। हिन्दी पद्य महाराष्ट्र देश में बड़ी चाह से सुने जाते थे। पहिली ही भेंट में भूषण के कविताओं को सुनकर शिवाजी का प्रसन्न होना यह सूचित करता है कि शिवाजी लिखने पढ़ने की हिन्दी अच्छी तरह जानते थे। पूना, नागपुर, इंदौर आदि के मरहठे दरबारों में हिन्दी कवियों के रहने का पता बराबर लगता है। अत: यह मान लेने में कोई संकोच नहीं कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का रूप पहिले से प्र्राप्त है। हाँ, यह ठीक है कि जानबूझकर किसी ने एक भाषा फैलाने के विचार से कोई प्रयत्न नहीं किया था। कुछ और ही कारणों से उसने अपने लिए आपसे आप जगह की थी। उसी स्थान की प्रचलित भाषा (समुदाय विशेष की गढ़ी हुई नहीं) का लोग दूर दूर तक अनुकरण करते हैं जहाँ सामाजिक, राजनीतिक तथा धर्म सम्बन्धी अभिप्रायों से भिन्न भिन्न प्रान्तों के लोग कुछ दिन आकर रहते हैं। दिल्ली और आगरा बहुत दिनों तक भारतवर्ष के प्रधान नगर रहे जहाँ अनेक भिन्न प्रदेशों के लोगों का समागम होता था। उसके अतिरिक्त करोड़ों यात्रियों का मथुरा (आगरे के पास ही है) में आकर कथा वात्तर् में दिन बिताना भी पश्चिमी हिन्दी के प्रचार का उत्तोजक हुआ। अष्टछाप के कवियों ने तो ब्रजभाषा का सिक्का और भी जमा दिया और वह साहित्य की टकसाली भाषा बन गई। यहाँ तक कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी, जिनके रामचरितमानस को डॉक्टर ग्रियर्सन साहब अवधी बोली में लिखा बतलाते हैं, कवितावली आदि की भाषा प्राय: ब्रजभाषा ही रक्खी है। दिल्ली मेरठ की खड़ी बोली भी, यद्यपि वह साहित्य क्षेत्र में अग्रसर न हो सकी, लोगों की बोलचाल पर अपना अधिकार करती रही। भिन्न भिन्न प्रान्तीय बोलियाँ बोलने वाले लोग बड़े नगरों में परस्पर इस बोली का व्यवहार बोलचाल में करने लगे। जब मौलवी लोगों ने देखा कि बोलचाल में खड़ी बोली का प्रचार खूब हो रहा है तब उन्होंने एक कपोलकल्पना की कि शाहजहाँ के लश्कर से एक नई जबान उर्दू पैदा हुई है और उसमें किताबें लिखने लगे। पीछे से जश्बान की तहकषीकषत करनेवाले आलिमों ने उसे 'बिरज भाषा, फारसी, अरबी और तुरकी का एक मुरक्कब बतलाया', यह न सोचा कि इस तरह से भी संसार में कोई नई भाषा बनी है। किसी देश की भाषा में चाहे और देश के शब्द मिल जायँ और मिलते ही हैं, तथा उसका कुछ रूपान्तर हो जाय पर एक नई भाषा नहीं बन सकती। अत: उर्दू को एक नई भाषा बतलाना भ्रम है, वह यथार्थ में फारसी अरबी मिश्रित खड़ी हिन्दी है। यही बात डॉक्टर ग्रियर्सन ने भी स्वीकार की है और हिन्दुस्तानी को पश्चिमी हिन्दी का एक भेद माना है।

इसी प्रकार जिस भाषा का व्यापार, लेनदेन वा केवल राजकाज ही में अधिक काम पड़ता है वह सर्वप्रिय साहित्य भाषा नहीं बन सकती। क्योंकि उसकी पहुँच थोड़े से ऐसे मानव व्यापारों ही तक होती है जिनकी अवधि और सीमा बहुत थोड़ी तथा जिनका योगफल जीवन के और और व्यापारों से बहुत कम होता है।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च, 1911 ई )

[ चिन्तामणि, भाग-3 ]