हिंदी के क्रियोलीकरण के विरुद्ध / राजकिशोर

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आजकल संसद सदस्यों, मध्य प्रदेश के विधायकों और देश भर के हिंदी समाचार पत्रों के संचालकों तथा संपादकों को डाक से एक बड़ा-सा लिफाफा मिल रहा है। जिन्हें अभी तक यह लिफाफा नहीं मिला है, उन्हें दो-चार रोज में मिल जाएगा। जिन तक लिफाफा पहुँच चुका है, वे जब इसे खोलते हैं, तो उन्हें एक पुड़िया में राख मिलती है। यह राख किस चीज की है? उनकी इस उत्सुकता को मिटाने के लिए लिफाफा भेजने वालों ने अपना वक्तव्य भी भेजा है। वक्तव्य में कहा गया है :

' आज हिंदी दिवस के अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गांधी प्रतिमा के समक्ष देश भर के लगभग सभी हिंदी अखबारों की एक-एक प्रति जुटा कर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। हम सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किए जाते रहे संवादात्मक प्रतिरोध असफल हो जाते हैं, तब विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है, जो हमें गांधीजी से विरासत में मिला है।'

यह वक्तव्य का बहुत छोटा-सा हिस्सा है। वक्तव्य इंदौर में हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर जारी किया गया था। इसमें विस्तार से बताया गया है कि अँग्रेजी शब्दों को जबरदस्ती ठूँस-ठूँस कर हिंदी को एक ऐसी मिश्रित भाषा बनाया जा रहा है जिसमें हिंदी के शब्द सिर्फ 30 प्रतिशत हों और अँग्रेजी शब्दों का अनुपात 70 प्रतिशत हो जाए। यह भाषा कैसी होगी, इसका एक नमूना इंदौर के ही एक स्थानीय समाचार पत्र से लिया गया है - 'इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट गव्हमेण्ट स्कूल लेवल पर इंट्रोड्यूस करे, इसके लिए चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेल्ड रिपोर्ट प्रिंसिपल सेक्रेटरी जारी करेंगे।'

जी हाँ, यह कोई हँसाने के लिए बनाया गया काल्पनिक वाक्य नहीं है, वास्तव में उस अखबार में ऐसा ही छपा था। और यह कोई एक अकेली घटना नहीं है। हिंदी के बहुत-से समाचार पत्र ऐसी ही भाषा के इस्तेमाल की ओर बढ़ रहे हैं। मामला अखबारों तक ही सीमित नहीं है। अँग्रेजी के बढ़ते हुए प्रकोप के परिणामस्वरूप और शब्द-निर्माण में हिंदी वालों के आलस्य के कारण हिंदी का जो रूप बन रहा है, उसकी कुछ बानगी भी इस वक्तव्य में पेश की गई है - 'मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, माता-पिता की जगह पेरेंट्स, अध्यापकों की जगह टीचर्स, विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी, परीक्षा की जगह एक्जाम, अवसर की जगह अपार्चुनिटी, प्रवेश की जगह इंट्रेंस, संस्थान की जगह इंस्टीट्यूशन, चौराहे की जगह स्क्वायर, रविवार-सोमवार की जगह संडे-मंडे तथा भारत की जगह इंडिया। इसके साथ ही, पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिंदी के बजाय अँग्रेजी के छपना, जैसे आउट ऑफ रीच, बियांड अप्रोच, मॉरली लोडेड, कमिंग जनरेशन, डिसीजन मेकिंग, रिजल्ट-ओरियंटेड प्रोग्राम आदि।'

हिंदी के सुविख्यात कथाकार तथा चित्रकार प्रभु जोशी, जो इंदौर में ही रहते हैं, हिंदी के इस क्रियोलीकरण से अरसे से चिंतित रहे हैं। इस मुद्दे पर वे विभिन्न समाचार पत्रों में लगातार लिखते भी रहे हैं। यह उन्हीं का आग्रह है कि हिंदी-अँग्रेजी मिश्रण से पैदा हो रही दोगली हिंदी को हिंग्लिश न कह कर क्रियोल कहा जाना चाहिए। क्रियोल उस भाषा को कहते हैं जो यूरोप के विभिन्न उपनिवेशों में सत्तारूढ़ जाति की भाषा और शासित समूहों की भाषा के मेलजोल से पैदा हुई है। उदाहरण के लिए, मारिशस की बोलचाल की भाषा क्रियोल है, जो भोजपुरी और फ्रांसीसी के मेल से जनमी है। क्रियोल में कोई गंभीर चीज नहीं लिखी जाती। वह मात्र वहाँ के साधारण लोगों की बोल-चाल की भाषा होती है। प्रभु जोशी ही नहीं, हिंदी के सभी स्वाभिमानी लेखकों और पत्रकारों को लगता है कि हिंदी के क्रियोलीकरण की प्रक्रिया इसी प्रकार जारी रही, तो एक दिन हिंदी लुप्त हो जाएगी और हम एक ऐसी खिचड़ी भाषा के वाहक कुली बन जाएँगे जिसमें हिंदी की उपस्थिति नाम मात्र की होगी।

यह दुख हिंदी लेखन में अकसर प्रगट किया जाता है। इस 14 सितंबर को भी बहुत-सी जगहों पर और बार-बार इसे अभिव्यक्त किया गया। लेकिन इसके प्रतिरोध का उपाय क्या है? सिर्फ रोने से भेड़िया भाग नहीं जाता। उसे डराना पड़ता है कि हम भी कुछ कर सकते हैं। यही सोच कर प्रभु जोशी तथा उनके भाषा-स्वाभिमानी मित्रों ने तय किया कि इस 14 सितंबर को इंदौर के किसी सार्वजनिक स्थान पर उन हिंदी अखबारों ('राष्ट्रीय सहारा' नहीं) की होली जलाई जाए जो हिंदी को दूषित और प्रदूषित कर रहे हैं। हिंदी दिवस पर शहर की गांधी प्रतिमा के आसपास लगभग पचास लोग एकत्र हुए और उन्होंने हिंदी के सभी समाचार पत्रों की होली जलाई (ऊपर जिस राख की चर्चा की गई है, वह इन्हीं अखबारों की है।)। उन्होंने नारे लगाए, 'भाषा का क्रियोलीकरण, बंद करो बंद करो।' इस पवित्र और साहसिक कार्यक्रम में समाजवादी चिंतक अनिल त्रिवेदी, आदिवासी-बहुल क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता और कवि तपन भट्टाचार्य, प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर, प्रकाश कांत, कृष्णकांत निलोसे, शशिकांत गुप्ते, विश्वनाथ कदम, ईश्वरी रावल, (श्रीमती) जनक पलटा मिगिलिगन आदि सम्मिलित थे।

मानना होगा कि यह हिंदी को बचाने की दिशा में एक ऐतिहासिक घटना है। कुछ-कुछ वैसी ही जैसे ब्रिटिश राज में विदेशी कपड़ों की होली जलाने का रोमांचक कार्यक्रम। किसी सार्वजनिक स्थान पर जो शख्स विदेशी कपड़ों को जमा कर उनमें जलती हुई तीली लगाता होगा, वह इस भावना से रोमांचित हो उठता होगा कि वह ब्रिटिश साम्राज्य का दहन कर रहा है। इंदौर की गांधी प्रतिमा के निकट जुटे इंदौर के जागरूक लगों को भी कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही होगी कि वे अँग्रेजी का दहन कर रहे हैं। अंग्रेज चले गए, तो अँग्रेजी क्यों रहे?

लेकिन रोम एक दिन में नहीं बना था न एक दिन में नष्ट हुआ था। इंदौर में जो हुआ, वह पहली चिनगारी थी। हम मनाते हैं कि यह चिनगारी देश के कोने-कोने में पहुँचे और भारत को उसकी अपनी भाषाएँ लौटाए। देश भर में इसलिए कि क्रियोलीकरण सिर्फ हिंदी का नहीं, सभी भारतीय भाषाओं का हो रहा है। किसी-किसी भाषा में तो बेशर्मी के साथ यह भी प्रस्तावित किया जा रहा है कि हमें अपनी लिपि छोड़ कर रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए। जाहिर है, समस्या खतरनाक बिंदु पर पहुँच गई है। बल्कि बहुत-से लोग समस्या को ही समाधान मानने लगे हैं। मैं तो सुझाव दूँगा कि फिलहाल हिंदी वालों को अपनी भाषा से संबंधित दूसरे काम छोड़ देना चाहिए और लंका दहन के कार्यक्रम में शामिल हो जाना चाहिए। भेड़िया एकदम दरवाजे तक आ चुका है।