हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 1

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हिंदी सिनेमा और दलित चेतना (1857-1948)
लेखक:जितेन्द्र विसारिया

कला और विज्ञान का अद्भुत संगम और बीसवीं सदी के कुछ विशिष्ट अविष्कारों में से एक ‘सिनेमा’ ने अपने शैशवकाल से ही व्यक्ति और समाज को अपने सम्मोहन में बाँध रखा है और बाँधे हुए है। कहते हैं 1857 के विद्रोह के कुछ कारणों में से एक देश में अंग्रेजों द्वारा ‘रेलगाड़ी’ का लाना भी था, जो अपने आप में सभी जातियों और धर्मों के लोगों को बिठाकर एक मार्ग पर आगे बढ़ती है। इससे ब्राह्मणों का धर्म भ्रष्ट होता था और तथाकथित उच्च-जातियों के अहंकार को ठेस लगती कि इसमें अछूत और निम्न जातियों के लोग भी बगल में बैठकर यात्रा करते हैं/करेंगे। अर्थलोभी कंपनी सरकार सबको एक करना चाहती है।...पता नहीं भारत में सिनेमा के आगमन के साथ ऐसा हुआ या नहीं? क्योंकि रेल की तरह ही सिनेमा हाल का विकास भी अनचाहें ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक क़दम था, जो दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदवाकर उच्च जातियों के साथ बैठकर उस ‘भगवान’ के दर्शन का लाभ देता था, जिसके दर्शन मंदिर में असंभव थे और जिसकी शुरूआत दादा साहब फालके ने ‘हरिश्चन्द्र तरामती’(1913), ‘मोहिनी भस्मासुर’(1913), ‘लंका दहन’(1917), ‘कृष्ण जन्म’(1918), ‘कालिय मर्दन’(1919) जैसी धार्मिक फिल्मों के अविष्कार के साथ कर दी थी।

...इसका मूलभूत कारण भारत में रगंमच और अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में दलित-पिछड़ों का सर्वेसर्वा होना है और यही कारण है कि देश में दलितों की ही तरह संगीत, नृत्य और अभिनय कला को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया। इस उपेक्षा का शिकार भारत में नाट्य कला को जन्म देने वाले एवं ‘नाट्यशास्त्र’ शास्त्र के प्रणेता भरत मुनि और उनकी संतानें भी हुई। डा. राम विलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ में लिखते हैं-‘‘मनुस्मृति में हम गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का निषेध देखते हैं तथा व्यवस्था पाते हैं कि सवर्णों को गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ सूत, मागधों और नटों को वर्णसंकरता का परिणाम बताती है...‘नाट्यशास्त्र’ ‘नटशाप’ अध्याय में बताया गया है कि ऋषियों के शाप से भरतमुनि के पुत्रों का वंश शूद्राचार, अशौच एवं स्त्री-बालोपजीवी हो गया...जिस समाज में नर्तकों, गायकों, अभिनेताओं को हीन स्थिति में रखा जाये, उसमें संगीतशास्त्र का विकास कैसे हो सकता है? फिर भला सिनेमा इस उपेक्षा से कैसे बच सकता था। दादा साहब फालके ने भले ही क्राइस्ट के जीवन पर बनी फिल्म से प्रेरणा लेकर भारतीय पुर्नजागरण के उस युग में चित्रपट पर कृष्ण का जीवन सजीव करने की कल्पना की किन्तु आर्थिक अभावों के चलते जब वे ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ फिल्म बनाते हैं, तो उसमें रानी तारामती की भूमिका के लिए कोई स्त्री तो क्या तब के सवर्ण ज़मीदार और नबाबों की मुँहलगीं एवं कोठे पर मुजरा करने वाली किसी ‘तवायफ’ ने भी उसमें अभिनय करने से इन्कार कर दिया था। ...ऐसे में सिनेमा की बागडोर सम्हाली थी दलित, मुस्लिम और एंग्लो-इण्डियन परिवारों के स्त्री-पुरूष कलाकारों ने जिनके लिए रंगमंच और थियेटर की तरह सिनेमा भी हेय नहीं, सम्मान और आत्मगौरव की वस्तु थी। संभव है फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में रानी तारामती की भूमिका करने वाले ‘ए. सालुंके’ भी दलित ही रहे हो? दादा साहब फाल्के ने इसकी भरपाई के लिए ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में जहाँ राजकुमार रोहिताश्व की बाल भूमिका में अपने बेटे ‘बालचन्द्र’ को लिया था तो दूसरी फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में अपनी बेटी ‘मंदाकिनी’ को कृष्ण की भूमिका देकर पूरा किया था। 1917 में उनकी ‘मोहिनी भस्मासुर’ में मराठी नाटकों की अभिनेत्री ‘कमला बाई गोखले’ फिल्म अभिनय में आती हैं तो वह भी स्वेच्छा से नहीं, परिवार की विकट गरीबी के चलते। वैसे भी दलितों की तरह स्त्री, वह भले ही उच्च या निम्न परिवार से रही हो; समाज में उसकी स्थिति दलितों जैसी ही रही है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में सीता और अन्य स्त्री पात्र संस्कृत नहीं प्राकृत में संवाद बोलते दिखाये गए हैं, क्योंकि शूद्रों की तरह स्त्रियों के लिए भी संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना वर्जित था।

और यह आश्चर्य नहीं कि वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाले महात्मा गाँधी फिल्मों की जनप्रियता और लोकधर्मिता को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जबकि बाबू सुभाष चन्द्र बोस और बाबा साहेब अंबेडकर उसके दूरगामी परिणामों के प्रति पूर्ण आश्वस्त थे। बाबू सुभाष ने जहाँ कुछ राष्ट्रीय फिल्मकारों को आजाद हिन्द सेना के जीवंत दृश्य सूट करने की अनुमति दी थी, वहीं बाबा साहेब ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई के साथ ‘अंकल टाॅम’ और ‘अछूत कन्या’ फिल्म देखीं थी। निरंजन पाल निर्मित ‘अछूत कन्या’ चित्रपट उन्होंने भींगी आँखों से देखा था। वह चित्रपट अस्पृश्य जीवन की मानवता की पुकार था। वहीं ‘अंकल टाम’ हैरियट बीचर स्टो के कालजयी उपन्यास अंकल टाम केबिन (टाम काका की कुटिया) पर आधारित थी, जिसमें रंगभेद और गुलामी की अटूट श्रृंखलाओं में जकड़े और अमानवीय कष्ट पाते एक अमेरिकी अश्वेत ‘टाम’ की हृदय विदारक त्रासदी है। डाक्टर श्रीमती सविताबाई के साथ उन्होंने ‘आलिव्हर ट्विस्ट’ अंग्रेजी फिल्म देखी थी। निम्नवर्ग के निकृष्ट जगत का गरीबों या पद्दलितों की जिन्दगी देखते समय उनके हृदय का कंपन बढ़ जाता था। हम अपने महापुरुषों को अतिमानवीय और अति संयमी दिखाने के चक्कर में कभी-कभी उनके जीवन संस्मरण लिखते समय उनकी स्वभाविक मानवीय प्रवृतियों को दबा जाते हैं।... बाबा साहेब अंबेडकर ने सार्थक फिल्में देखी हीं नहीं बल्कि उनके मुहूर्त समारोहों में भी शामिल हुए थे। आचार्य प्र. के. अत्रे के ‘महात्मा फुले’ चित्रपट के मुहुर्त समारोह में 4 जनवरी, 1954 को ‘फेमस पिक्चर्स’ कलागृह में बाबा साहेब उपस्थित रहे थे। चित्रपट का मुहुर्त उनके हाथों सम्पन्न हुआ। चित्रपट आचार्य अत्रे को शुभेच्छा देकर बाबा साहेब ने कहा, ‘आजकल जो उठता है वह राजनीति और चित्रपट के पीछे लग जाता है। किन्तु समाज सेवा का भी अधिक महत्व है, क्योंकि उसमें शीलवर्धन होता है।’ आचार्य अत्रे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका ‘श्यामची आई’ चित्रपट राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से गौरवान्वित किया गया था।...महात्मा ज्योतिराव फुले के तेजस्वी और सत्य जीवन को दर्शाने वाली यह फिल्म देखकर बाबा साहेब आंबेडकर ने आचार्य अत्रे को उत्कृष्ट चित्रपट बनाने के लिए धन्यवाद था। अपने 20 जनवरी, 1955 के पत्र में आंबेडकर ने अभिप्राय व्यक्त किया है कि विषय-प्रस्तुति और दृश्य विधान की दृष्टि से वह चित्रपट उत्कृष्ट है। फिल्म ही नहीं नाटकों का भी बाबा साहेब पर गहरा प्रभाव था और कुछ नाटक मंडलियों भी उन्हें नाटक देखेने के लिए बुलाया करती थी। 15 मार्च 1936 को बंबई में चितरंजन नाटक मंडली ने बाँबे थियेटर’ में आंबेडकर का सत्कार किया। उस समय वह नाटक मंडली आप्पा साहब टिपणिस लिखित ‘दक्खन का दिया’ इस लोमहर्षक नाटक के प्रयोग करती थी। उस नाटक में पेशवाई के समय अस्पृश्यों के साथ कितनी अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था, उस संबंध में कुछ प्रसंग रेखांकित किए गए थे। पुणे के रास्ते से जाना-आना करना हो तो महार जाति के अस्पृश्यों को गले में मिट्टी का घड़ा और कमर में पेड़ की डाली लगानी पड़ती थी। आंबेडकर नाटक का प्रयोग देखने जाने वाले हैं, यह खबर फैलते ही वहाँ काफी भीड़ लग गई। नाट्यगृह में चींटी को भी प्रवेश करने के लिए जगह नहीं थी।...सत्कार के समय अनंत हरि गद्रे प्रमुख वक्ता थे। गद्रे अत्यंत आस्थापूर्वक अस्पृश्यता निवारण का कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं में से एक अगाड़ी के वीर, महाराष्ट के सामाजिक समता के बड़े पुरस्कर्ता थे। अपने भाषण में गद्रे ने कहा कि, ‘अस्पृश्यों के साथ पेशवा कालीन महाराष्ट्र में इतने अपमानास्पद और अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था कि नाटक में अभिनय करने वाले नट भी उनकी भाँति गले में मिट्टी का बर्तन बाँधकर रंगमंच पर आने के लिए शरमाते हैं।[5]’’

यों देखा जाए तो ब्राह्मण श्रेष्ठता और वर्णव्यवस्था को हर परिस्थिति में अक्षुण्ण बनाये रखने (भले ही स्वयं या पत्नी-पुत्र को बीच बाजार में बेचना पड़ जाए।) का यशगान तो हिन्दी की पहली फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ से ही प्रारंभ हो जाता है। छद्मभेषी ब्राह्मण विश्वामित्र को दिए वचन पर अटल अयोध्या का राजा हरिश्चन्द्र अपने राज्य के अतिरिक्त साठ भार सोने से उऋण होने के लिए काशी के बाजार में स्वयं और अपनी पत्नी तारामती एवं पुत्र रोहिताश्व के साथ बिक जाता है। सत्य (वर्णधर्म) पर अटल यह परिवार संकट के समय में भी एक दूसरे की मदद (कथानक में रानी तारामती कृशकाय हुए हरिश्चन्द्र का घड़ा इसलिए सिर पर नहीं रखवाती, क्योंकि वह एक ब्राह्मण की क्रीतदास है और राजा काशी के कालू नामक चांडाल (दलित) का श्मशान रक्षक।) करने से भी इन्कार कर देते हैं। अपनी आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ में गाँधी जिस ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक का अपने जीवन पर अमिट प्रभाव[6] बताते हैं, वह गुजराती नाटक और इस फिल्म का कथानक एक ही है-संकट की विकट परिस्थितियों में भी अपने जाति और वर्णधर्म पर अटल बने रहना और दलित द्वेष...। इस प्रकार दलितदृष्टिकोण से देखा जाए तो हिन्दी सिनेमा की प्रारंभिक फिल्म ही हमें निराश करती है। उसमें प्रगतिशील तत्वों की अपेक्षा प्रतिगामी तत्वों का समावेश ही प्रमुख है। जातिवाद और वर्णवाद के विरूद्ध न जाकर यह सिनेमा, उसका खुला समर्थन करता है। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा पौराणिक फंतासियों का पुनुरुत्पादन...।

पहला उपद्रव ‘अछूत कन्या’ (1936), से हुआ यह एक वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक और ईमानदार अभिव्यक्ति थी। यह उपद्रव किसी खास दर्शक समूह में नहीं हुआ, क्योंकि इस फिल्म का मकसद किसी को सताना या चिढ़ाना कतई नहीं था। आजादी का आंदोलन था। समाज, शुद्धिकरण की प्रक्रिया में था। मनुष्य को हमेशा दूसरा नागरिक बनाने बताने वाली मान्यताओं की सींवने उधड़ रही थीं।[7] इससे पूर्व 1934 में सोलहवीं शताब्दी में हुए महाराष्ट्र के संत एक नाथ पर ‘धर्मात्मा’ और बंगाल के संत चंड़ीदास पर बनी ‘चंडीदास‘ फिल्म में भी अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट कर चुकी थीं। ‘चंडीदास’ सदियों से चली आ रही ब्राह्मण वर्ग की अतिरूढ़िवादिता एवं मनमानी की प्रवृत्ति का प्रतिवाद करती है। सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के एक गाँव में स्थित जागृत देवी बांशुली के मंदिर में वैष्णव चंडीदास ठाकुर पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित थे। वे आंतरिक रूप सौन्दर्य के पुजारी तथा सत्य और प्रेम के उपासक थे। प्रेम ही उनका धर्म था और प्रेम ही सत्कर्म था। वे ईश्वर को पाने का एक मात्र मार्ग, प्रेम ही मानते थे। निम्नवर्ग की रानी धोबिन में उन्हें सत्त प्रेम की छवि दिखी। रौब-दाब वाला अत्याचारी, ईष्र्यालु और बदचलन जमींदार समाज को उनके खिलाफ भड़का देता है। तमाम सामाजिक प्रतिरोध के बावजूद आदर्शवादी विश्वप्रेमी परिवर्तनप्रिय संतकवि चंडीदास को वर्गभेद, सामाजिक बंधन, धर्मान्धता-इन सबको लांघकर रानी के साथ स्वतंत्र एवं सुखी जीवन बिताने के लिए प्रेम नगर की राह पर चलने से कोई नहीं रोक पाता।[8]

चंडीदास एक ऐतिहासिक और समाज से मान्यता प्राप्त कथानक पर आधारित होने से, निर्देशक फिल्म में दलित रानी धोबिन और ठाकुर पुरोहित चंडीदास का मिलन करवा देता है! किन्तु उसी के दो वर्ष बाद तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के बीच से चुनी और सत्यकथा के रूप में फिल्मायी गई ‘अछूत कन्या’ का निर्देशक साहस करके भी उसमें उच्च वर्णीय ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और एक अछूत रेलवे क्रासिंग गार्ड की लड़की कस्तूरी (देविका रानी) का मिलन नहीं करवा पाता!! फिल्म के अंत में नायिका रेल दुर्घटना में हृदय विदारक मृत्यु को प्राप्त होती है!!! प्रमोद भारद्वाज के शब्दों में कहूँ तो, ‘दोनों में ही जाति का अस्वीकार था। जाति के परे प्रेम था, पर अछूत कन्या में अछूत नायिका को छोड़ने की दुर्बलता उस समय की भीषणतम सच्चाई थी। प्रहलाद अग्रवाल लिखते हैं कि ‘अछूत कन्या’ में छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भत्र्सना की गई थी। यह उस समय आसान बात नहीं थीं यह बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहराई तक ग्रस्त था।

इन दो परिवर्तनकामी फिल्मों के बाद 1940 में सरदार चंदूलाल शाह निर्देशित और मोतीलाल गोहर मामाजीवाला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘अछूत’ प्रदर्शित होती है। यह फिल्म ‘अछूत कन्या’ का थोड़ा सा परिष्कार है। इसमें भी उच्च जाति का लड़का और निम्न जाति की लड़की का प्रेम, संघर्ष और सामाजिक रूढ़ियों के चलते अंत में नायक-नायिका द्वारा अपने प्राणों का बलिदान है। बदलाव सिर्फ इतना कि फिल्म के अंत में नायक-नायिका अपने प्राणों का अंत गाँव के मंदिर में सबको प्रवेश दिलाने में करते हैं। यद्धपि फिल्म गाँधीजी के हरिजनोद्धार और मंदिर प्रवेश की पृष्ठभूमि पर निर्मित है, किन्तु उससे आगे जाकर वह यह भी संदेश देती है कि अछूतोद्धार सिर्फ दिखावे से नहीं होगा, अपितु सबको व्यवहार में समान समझना होगा और बराबर अवसर पाने के मौके देने होंगे। फिल्म में दलित लड़की लक्ष्मी एक सवर्ण पूंजीपति द्वारा गोद ली जाती है और उसे अपनी पुत्री के समान रखा जाता है, किन्तु जब दोनों लड़कियाँ एक ही व्यक्ति के प्रेम में पड़ती हैं तब पक्ष अपनी बेटी का लिया जाता है, लक्ष्मी का नहीं...! यह फिल्म इसलिए भी स्मरणीय कही जा सकती है कि इसमें सर्वप्रथम दलितों का धर्मान्तरण (फिल्म में नायिका लक्ष्मी का पिता सवर्णीय अत्याचारों से तंग आकर ईसाई धर्म ग्रहण करता है।) सवर्णों के अन्याय और अत्याचार से प्रेरित होकर दिखाया गया है न कि किसी प्रलोभवश। आश्चर्य होता है कि जो बात फिल्म ‘अछूत’ का निर्देशक 1940 में समझ गया था, हिन्दुत्व के झंडावरदार उसे आज भी मानने को तैयार नहीं है।... इस फिल्म की प्रशंशा सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने भी थी।

इसी समय ऐसी तमाम फिल्में आयीं, जिन्होंने धर्म, जाति, वंश और मिथकीय परंपराओं और महाजनी सभ्यता के संकीर्ण अनुशासन के खूब लत्ते लिए। जैसे-महाजनी प्रथा (सावकारी पाश-1925), मूर्तिपूजा और ब्राह्मणवाद (संत तुकाराम-1936, संत दानेश्वर-1940, संतसाखू-1941), नरबलि (अमृत मंथन 1934), छुआछूत (धर्मात्मा-1934) बेमेल विवाह (दुनिया न माने-1937) विधवा विवाह (अनाथ आश्रम-1937, सिन्दूर-1947), वेश्यावृत्ति : (ठोकर-1939) दहेजप्रथा (दहेज-1950) नशा (ब्रांडी की बोतल 1939) इत्यादि विषय प्रधान फिल्मों के अलावा चालीस से पचास के दशक में दलित विमर्श से संबंधित फिल्मों का अभाव है। किन्तु दलित सर्वहारा की दृष्टि से इस दशक में ‘नया संसार’(1942), ‘रोटी’, ‘गरीब’ (1942), नीचा नगर (1946), ‘गोपीनाथ’ (1948), आदि विषयों ने परदे पर आकर काफी विक्षोम पैदा किया, पर यह हमारे समाज का अन्र्तयुद्ध था। हम एक नए समाज के क्षितिज की तरफ प्रस्थान कर रहे थे, इसलिए हमारी परंपराओं, हमारी धूर्तताओं और जड़ताओं से यह टकराव स्वभाविक थे। यह सनसनी फैलाने या बिखेरने का संघर्ष था, पर आजादी के बाद सिने माध्यम, बजाय समाज को नया और सार्थक शिल्प देने के, समाज में हड़बड़ी, अफरातफरी फैलाने वाले तत्वों का जमाव बनकर रह गया। कुंठाएँ, संत्रास, बैचेनियाँ, अतृप्ताएँ, निर्लक्ष्य कामनाएँ, अबूझ भविष्य और रहस्यमय जीवन शैलियाँ एकाएक उभरती रहीं।[10]

इन कारणों की गहराई में जाएँ तो हम पाते हैं कि तमाम मतभेदों के बावजूद स्वतंत्रता के पूर्व आजादी को लेकर देश के नेताओं और जनता में एक सामूहिक स्वप्न था। स्वतंत्रता और स्वराज पाने की कामना हर एक वर्ग में थी। यद्धपि वर्चस्व की लड़ाई के बीज तब भी मौजूद थे और कोई किसी के प्रति पूर्णरूपेण विश्वस्त नहीं था; किन्तु एक सामूहिक आवेश था कि जो होगा वह देखा जाएगा, पहले हम गोरों की गुलामी से आजाद हो लें। किन्तु हम देखते हैं कि देश स्वतंत्र नहीं हो पाता और राष्ट्र को बँटवारे की गहरी त्रासदी झेलनी पड़ती है। सांप्रदायिक दंगे होते हैं और देश दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। सहानुभूति के आधार पर ही सही, समाज में सामूहिक परिवर्तन की इच्छा रखने वाले गांधी की हत्या होती है और संघर्ष से समानता की ओर अग्रसर होने वाले आंबेडकर को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता है। मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं और दलित बौद्ध बनते हैं...।