हिंदुस्तानी आवाम की आवाज़- मिटटी का योगदान / राहुल शिवाय

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आज के समय में ग़ज़ल साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा हो गई है। ग़ज़ल कहना बहुत आसान है, पर उसके लालित्य, भाव, वजन, क़ाफ़िया, रदीफ़, व व्याकरण आदि को उसकी पृष्ठभूमि के आधार पर निभाना उतना ही कठिन है। दुष्यंत कुमार जी, नीरज जी, रमेश राज जी और विविध साहित्यकारों ने अपने-अपने तरीकों से ग़ज़ल को परिभाषित किया है। वर्तमान समय में दो तरह की ग़ज़ल कही जाती हैं, पहली हिंदी गजल और दूसरी उर्दू ग़ज़ल, मैं भाई हरि फ़ैज़ाबादी की ग़ज़लों को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहूँगा, क्योंकि उन्होने हिंदी के शब्दों केसाथ-साथ उर्दू के शब्दों से भी गुरेज़ नहीं किया है। इनकी भाषा आम-जन की भाषा है, हिंदुस्तानी भाषा है। इस अपनी हिंदुस्तानी हिंदी के लिए इन्होने एक शेर में कहा है-

जब से उर्दू से मोहब्बत हो गई
मेरी हिन्दी ख़ूबसूरत हो गई

किसी भी पुस्तक की समीक्षा करते समय समीक्षक का ध्यान सबसे पहले उसके शीर्षक की सार्थकता की ओर जाता है। हरि भाई का ग़ज़ल संग्रह "मिटटी का योगदान" सच में हिंदुस्तानी मिट्टी की सौंधी महक है। इन्हें अपनी मिट्टी से अपार प्रेम है। और अपनी मिट्टी के लिए अपने एक मुक्तक में हरि भाई कहते हैं-

एकता जिस मुल्क की पहचान है
सब के मज़हब का जहाँ सम्मान है
फ़ख़्र है हमको कि हम जन्में वहाँ
नाम जिसका जग में हिंदुस्तान है

एक शेर में वह इस मिट्टी के लिए कहते हैं-

यूँ ही इस मिट्टी में नहीं पैदा
'मीर'-ओ-'ग़ालिब', 'कबीर' होते हैं

अब यदि हम ग़ज़ल के शिल्प की ओर जाएँ तो पता चलता है कि हरि भाई की अधिकतर ग़ज़लें छोटी बहरों में लिखी गई हैं। और छोटी बहर में अपनी सारी बातें कह देना कोई आसान काम नहीं है। यह तो गागर में सागर भरने सरीखा है। वह भी ऐसा सागर, जिसमें बहुमूल्य मोतियों का भण्डार हो। हरि भाई ने यह काम बख़ूबी किया है बस पाठकों और समीक्षकों को ग़ौर करने की आवश्यकता है। इस बात को मैं उनके ही एक शेर से कहना चाहूँगा-

नहीं मिलेगा क्यों मोती
जाओ तो गहराई में

हरि भाई के लम्बी बहरों की ग़ज़लों में भी वैसी ही कसावट देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उनका एक उम्दा शेर देखिए-

दिन-ब-दिन दूरी बढ़के सादगी से आदमी
दूर होता जा रहा है आदमी से आदमी

अब हम ग़ज़ल के अगले पक्ष यानि भाव पक्ष की ओर चलते हैं तो हमें पता चलता है कि हरि भाई की ग़ज़लें आधुनिक गजलें हैं। जिसमें केवल प्रेयसी से संवाद और प्रेम की पीड़ा नहीं अपितु सामाजिक विद्रूपता का तीखा एवं पैना विरोध करने वाली व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति भी है, निजी संवेदनाओं और सामजिक विविधताओं का चित्र है। हरि भाई के लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होनें पूरी तन्मयता, निष्ठा एवं ईमानदारी से अपनी ग़ज़लों को सजाया और संवारा है। हरि भाई ने जिस तरह की ग़ज़ल कही है, वह जितनी सरल, सरस है उतनी ही हृदयग्राही भी है। वह कहते हैं-

आप हम बार-बार मिलते हैं
इसका मतलब विचार मिलते हैं

ईश्वर और धर्म ग्रंथों पर भी इनका अटूट विश्वास है। जो इन शेरों से साफ स्पष्ट हो जाता है--

नाव काग़ज़ की लहर पर छोड़ दो
बाकी बातें ईश्वर पर छोड़ दो

जब भी जीवन में हार जाना तुम
सार गीता का गुनगुनाना तुम

माँ इस संसार में किसे प्यारी नहीं होती। माँ में ईश्वर को देखते हुए हरि भाई लिखते हैं-

जन्नत माँ के पैर तले है
कौन इसे इनकार करेगा

आज देश में भुखमरी, बेकारी, गरीबी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है और एक सशक्त ग़ज़लकार का यह दायित्व होता है कि वह समाज में फैली जटिलताओं को सहजता से बयां करे और ऐसा करने में हरि भाई सफल भी हुए है | उन्होंने तत्कालीन समाज पर चोट करते हुए लिखा है--

किसे चढ़ाएँ फूल आजकल
पीपल हुआ बबूल आजकल

दरवाजे के बाहर भी है
दर तो घर के अंदर भी है !

उन्होंने नारी के साथ हो रहे अत्याचारों और क़ानून व्यवस्था पर चोट करते हुए लिखा है-

बेचारी लुट गई वहाँ भी
जहाँ लिखने रपट, गयी थी

अंत में मैं यही कहूँगा कि ग़ज़ल संग्रह "मिटटी का योगदान" में संकलित गजलों, अशआरों, मुक्तकों में कशिश है, शीरींनी है, सहजता है, तेवर है और साथ साथ ही पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करने की अद्भुत क्षमता भी है। यह भाव, भाषा, शैली हर प्रकार से हिंदुस्तानी आवाम की आवाज है, और इस संग्रह का स्थान इतिहास के पन्नों पर अवश्य सुनिश्चित होगा इसका मुझे पूर्ण विश्वास है । इस महान लेखन हेतु मैं हरि भाई को साधुवाद देता हूँ।