हिंदुस्तानी सिनेमा और अप्रवासी दर्शक / जयप्रकाश चौकसे

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हिंदुस्तानी सिनेमा और अप्रवासी दर्शक
प्रकाशन तिथि : 19 दिसम्बर 2018

लगभग 1.30 करोड़ भारतीय विदेशों में बसे हैं और उन देशों की नागरिकता प्राप्त कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छात्र अध्ययन करने के लिए विदेश गए हैं। उनमें से अधिकांश लौट आएंगे। भारतीय वैज्ञानिकों का कथन है कि विदेश में शोध करने की जो सहूलियतें हैं वे भारत में उपलब्ध नहीं हैं। आशुतोष गोवारिकर ने इस विषय पर 'स्वदेश' नामक फिल्म बनाई थी और सुभाष घई ने भी इस विषय पर फिल्म 'परदेस' बनाई थी। देव आनंद भी इस विषय पर हाथ आजमा चुके हैं और 'भारत कुमार' मनोज कुमार भी 'पूरब-पश्चिम' बना चुके हैं। ज्ञातव्य है कि विदेशों में महंगे दाम में फिल्म टिकट बेचे जाते हैं। मसलन अमेरिका में अमेरिकन फिल्म देखने का टिकट पांच डॉलर में तो भारतीय फिल्म देखने का टिकट दस डॉलर में खरीदा जाता है।

एक दौर में इस 'डॉलर सिनेमा' के उदय के कारण कुछ फिल्मकारों ने बड़े दंभ से एलान किया कि वे उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के दर्शकों के लिए फिल्म नहीं बनाते। वे विदेशों में बसे भारतीय लोगों की रुचियों के अनुरूप फिल्में गढ़ते हैं। भारतीय सिनेमा को बनाने की नादानी उन्हें महंगी पड़ी।

सत्यजीत राय ने विशुद्ध भारतीय फिल्में बनाईं और विदेश में उन्हें सराहा गया। उन्हें इतने पुरस्कार मिले जो अन्य तमाम भारतीय फिल्मकारों द्वारा अर्जित पुरस्कारों के जमा जोड़ से दस गुना अधिक है। हर देश का फिल्मकार अपने ही देश के इतिहास और संस्कृति से प्रेरित रहता है। 'मांगों के दिन और खैरात की रातों ' से गुजारा नहीं होता। हमारे कुछ फिल्मकार विदेशी फिल्मों का भारतीयकरण और दक्षिण भारत में बनी फिल्मों के अखिल भारतीय संस्करण बनाते हैं। नेताओं और फिल्मकारों को यह मुगालता रहता है कि वे भारत को समझते हैं। विदेशों में भारतीय फिल्मों की लोकप्रियता उसके गीत-संगीत के दम से है। फिल्म गीतों में पूर्व का माधुर्य और पश्चिम की सिम्फनी हिल-मिल जाते हैं और एक नशीला कॉकटेल बन जाता है। गीतों के कारण ही फिल्में दोबारा देखी जाती है और सिनेमाघर से बाहर आए हुए दर्शक के अवचेतन में ताउम्र गूंजती रहती हैं। दु:ख की बात है कि संगीतकारों को उनकी रॉयल्टी नहीं मिलती। हाल ही में इलियाराजा ने शिकायत की है कि उन्हें उनके अधिकार का पैसा नहीं मिला है। दशकों तक एक संगीत कंपनी का एकाधिकार रहा है और उसने करोड़ों रुपए कूटे हैं। पुराने गीत की धुन में थोड़ा-सा हेरफेर करके 'वर्जन' बनाए जाते हैं, जो ध्वनि संसार में प्रदूषण फैला रहे हैं। माधुर्य की डोर पकड़कर वैतरणी पार की जा सकती है। यह भी गौरतलब है कि बेसुरों के अवचेतन में भी सही स्वर गूंजते हैं। गला बेसुरा हो सकता है, अवचेतन हमेशा ही सुरीला होता है।

भारत की एक विशेष फिल्म निर्माण संस्था पाकिस्तान में बनी धुनें पाते रहने के लिए वहां के लोगों को मासिक वेतन देते हैं। हमारे फिल्मकारों की सोच यह है कि जब दुनियाभर में बढ़िया काम हो रहा है तब हमें काम करने की कोई जरूरत नहीं है। इसी तरह की सोच के कारण शून्य खोजने के बाद हम उसी में सिमट कर रह गए हैं।

विगत आम चुनाव में इन प्रवासी भारतीय लोगों ने एक दल को भारी रकम चंदे में दी और नतीजों को प्रभावित करने की चेष्टा भी की। कुछ लोगों का स्वप्न तो यह है कि रिमोट कंट्रोल के बदले सीधा-कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया जाए। इस तरह से विदेशी ताकतें पुन: भारत का नियंत्रण अपने हाथ में लेना चाहती हैं परंतु यह कभी हो नहीं सकता। उन्हें भारत के निहत्थे साधनहीन आम आदमी की भीतरी ताकत का अनुमान नहीं है। विदेश में बसे भारतीय वहां अपने क्षेत्रीय क्लब बना लेते हैं। बंगाली क्लब, मराठी क्लब इत्यादि की रचना की जाती है गोयाकि भारत के भीतरी विभाजन विदेश में भी उभरकर सामने आते हैं। शिकागो में एक भारतीय और एक पाकिस्तानी पड़ोसी हैं और भारतीय फिल्में देखने साथ-साथ जाते हैं। वहां उनमें कोई वैमनस्य नहीं है। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म '1942 ए लव स्टोरी' के अंतिम दृश्य में दर्शकों से अपील है कि सभी खड़े होकर राष्ट्रगीत गाएं। दोनों पड़ोसी घर लौट रहे थे तब पाकिस्तानी व्यक्ति ने कहा कि फिल्म के प्रभाव में उसने भी भारत का राष्ट्रगीत गाया। इस तरह फिल्में सकारात्मक भावना को जन्म देती हैं। हमारे देश के नेता पाकिस्तान विरोध की नारेबाजी करते हैं और पाकिस्तान के हुक्मरान भी अपने देश में भारत विरोधी ज्वार बनाए रखते हैं, जबकि दोनों को ही खतरा चीन से है।