हिन्दी: भाषा की खादी का सौन्दर्य / ओम निश्चल

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हिंदी दिवस 2012 की पूर्व संध्‍या पर आकाशवाणी वाराणसी द्वारा स्‍वर्णजयंती वर्ष में आयोजित सेमिनार में पठित आलेख

आकाशवाणी ने इधर भाषा की खादी के सौंदर्य को उजागर करने की मुहिम चलाई है। कहना न होगा कि जो सौंदर्य वस्‍त्रों में खादी का है वही सौंदर्य भाषा में हिंदी का है---वह हिंदी जो पूरे देश में बोली जाती है। उसका लहजा, उसकी शैली कैसी भी हो किन्‍तु उसकी व्‍यापकता स्‍वयंसिद्ध है। खादी का संबंध हमारे देश के स्‍वतंत्रता आंदोलन से है तो हिंदी का संबंध भी स्‍वतंत्रता, स्‍वदेशी और राष्‍ट्रीय स्‍वाभिमान से है। किन्‍तु राजभाषा बनने के बाद हिंदी के स्‍वरूप में तब्‍दीली आई है। यह भाषा जो सदियों से हमारे बोलचाल का आधार रही है, उसमें विभिन्‍न अनुशासनों की पारिभाषिकी ने घुस कर उसे जटिल बना दिया है। फलत: हिंदी बोल सकने वाले लोग भी भद्र महफिलों में हिंदी न जानने की दुहाई देते हुए अंग्रेजी में बोलने को प्राथमिकता देते हैं। लिहाजा हिंदी पर यह तोहमत बार बार लगाई जाती रही है कि यह राजभाषा के अपने वर्तमान स्‍वरूप में कठिन है। अकारण नहीं कि हाल में जब राजभाषा विभाग के एक परिपत्र के जरिए हिंदी के कामकाजी स्‍वरूप को सहज बनाने के उद्देश्‍य से अंग्रेजी शब्‍दों के इस्‍तेमाल की जरूरत रेखांकित की गयी तो देश भर के हिंदी बुद्धिजीवियों में विरोध की लहर दौड़ गयी। उनकी नजर में यह हिंदी को हिंग्‍लिश में बदलने का कुप्रयास था।   हिंदी का हाल वैसा ही है जैसा आजादी के बाद आजादी के निहितार्थ का है। क्‍या आजादी जिस मकसद से हासिल की गयी, उसका लाभ आम जन तक पहुँचा? पहुंचा जरूर पर उस रूप में नहीं जैसा एक विकासशील समाज में पहुँचना चाहिए। इसी तरह हिंदी भी राजभाषा तो बनी पर क्‍या यह कामकाजी स्‍तर पर लोगों को स्‍वीकार्य हो सकी? क्‍या यह अमीर खुसरो की मुकरियों की तरह आम जन की जुबान पर चढ़ पाई। क्‍या यह मीर की शायरी की तरह आम होठों की रूमानियत में बदल सकी? क्‍या यह तुलसी सूर मीरा रसखान और रहीम के पदों की तरह आम जनता के कंठ में बस पाई? आखिर क्‍या वजह है कि आज सरकारी कार्यालयों में जो हिंदी चलायी जाती है उसे देख पढ कर प्राय: लोग घबरा जाते हैं? इसकी बनिस्‍बत उन्‍हें अंग्रेजी ही अच्‍छी लगती है। कुछ वैसे ही, जैसे आज भी गॉंव देहात में पुरखे पुरनिया यह कहते हुए मिल जाऍगे कि इस हुकूमत से भली तो अंग्रेजों की हुकूमत थी। सवाल यह है कि हिंदी कब आम जन की भाषा बन पाएगी? क्‍योंकि राजभाषा बनने के बाद तो यह सरकारी कारिंदों के लिए भी कठिन हो गयी। कितने प्रोत्साहनों, धक्‍कों के बाद भी यह जैसे किसी स्‍टेशन पर ठहर-सी गयी मालूम पड़ती है। शायद यह सतह पर दीख पड़ने वाली कठिनाई ही इसकी वजह हो। राजभाषा हिंदी के कारोबार से सम्‍बद्ध होने के कारण ऐसी कठिन हिंदी के लिए अपने ही अनेक पत्रकार मित्रों का कोप भाजन बनना पड़ता है कि हम लोग आखिर कैसी हिंदी सरकारी दफ्तरों में चला रहे हैं।   आकाशवाणी का रिश्‍ता बोलचाल की हिंदी से रहा है। यह बोले हुए शब्‍दों की महिमा से जुड़ी है। बोले हुए शब्‍दों का ही जादू था कि महात्‍मा गॉंधी की आवाज थोड़ी देर में एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँच जाती थी। संतों की आवाज अपनी अनगढ़ हिंदी में पूरे देश में पहुँची। रैदास, कबीर, नानक, तुकाराम की आवाज पूरे देश में गूँजी। मीरा के पदों से भला कौन अपरिचित रह सका। अल्‍लामा इकबाल तो पाकिस्‍तान के थे, पर उनका गीत--सारे जहॉं से अच्‍छा हिंदोस्‍तॉं हमारा---हमारे अपने राष्‍ट्रगीत से भी ज्‍यादा लोकप्रिय हुआ तो उसकी लोकप्रियता का राज उसका हिंदोस्‍तानी जबान में लिखा होना भी रहा है। गॉंधी जी ने हिंदी के बजाय हिंदुस्‍तानी का प्रवर्तन किया था। वे जिस भजन को नियमित रूप से गाते थे: वैष्‍णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे—वह भी कहीं न कहीं हिंदुस्‍तानी के धागे से बुना था। उसकी बुनावट खादी की तरह अनगढ़ किन्‍तु सरल थी। जैसे सहजता खादी का पर्याय है वैसे ही सरलता हिंदुस्‍तानी का पर्याय है। कहा गया है : संस्‍कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर। कुऍं का जल भले ही ग्रामीण भारत के पीने का एक अपरिहार्य स्रोत रहा हो पर वह बहते हुए जल की तरह सबके लिए सुलभ नहीं था। लोग राह चलते नदियों से प्‍यास बुझा लेते थे। आज नदियॉं भी मटमैली हो चलीं, जहरीले रसायनों ने उन्‍हें गंदा बना दिया है । पर बहते जल की निर्मलता और तालाब के पानी का गंदलापन जगजाहिर है। आज भी नदियॉं वेगवान प्रवाह के कारण जल के कल्‍मष को बहा ले जाती हैं। भाषा भी बहते हुए जल की तरह शुद्ध और निर्मलप्रवाही है।   हिंदी की खड़ी बोली का स्‍वरूप लगभग सवा सौ साल पहले का है। किन्‍तु इस महादेश में यह सदियों पहले से बोली और बरती जाती रही है। इसका एक सबल उदाहरण कबीर का है। कबीर ने, जो भोजपुरी इलाके की उपज थे, साखी सबद और रमैनी में भोजपुरी के बजाय खड़ी बोली की शैली को बरता। इसलिए कि वे भी जानते थे कि खड़ी बोली हिंदी ही समूचे देश की एक मानक भाषा हो सकती थी। इसे झीनी झीनी चादर बुनने वाले जुलाहे कबीर ने आज से कितनी सदियों पहले ही भॉंप लिया था। आज भी साधु-संत कबीरपंथी गॉंव गॉंव घूमते हुए कबीर को गाते हैं तो भाषा का सौंदर्य मुखरित हो उठता है। आम आदमी भी कबीर के व्‍यंग्‍य और लक्ष्‍यार्थ को समझ बूझ लेता है। जो लोग भाषा में शुद्धता के हामी हैं वे कहीं न कहीं हिंदी की जटिलता के भी हामी हैं। देखा यह जाता है कि भाषा उसी व्‍यक्‍ति की जटिल होती है जिसे अपने विषय का सम्‍यक ज्ञान नही होता है। सम्‍यक ज्ञान रखने वाले व्‍यक्‍ति के लिए भाषा की कठिनाई का सवाल उठता ही नहीं। उसके लिए भाषा स्‍वयमेव रास्‍ता बनाती हुई चलती है। बाकी काम सरस्‍वती उसकी जिह्वा पर सवार होकर कर देती हैं।   राजभाषा हिंदी का स्‍वरूप संस्‍कृत पर आधारित है। संविधान के अनुच्‍छेद में ही यह बात कही गयी है कि राजभाषा हिंदी की शब्‍दावली मूलत: संस्‍कृत और गौणत: अन्‍य भारतीय भाषाओं के शब्‍दों का आधार ग्रहण कर अपने को समृद्ध करेगी। किन्‍तु यह संकल्‍पना भी की गयी कि इसका विकास इस तरह हो कि यह भारत की सामासिक संस्‍कृति के सभी तत्‍वों की अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम बन सके। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्‍कृत समस्‍त भाषाओं की जननी और आधारपीठिका है पर केवल इतने से ही आज भाषा का काम नही चलता। आज के उदारतावादी माहौल में भाषा जब तक दुनिया की तमाम भाषाओं के साहचर्य से अपने को विकसित नहीं करेगी तब तक वह अपने शुचिताग्रहों के चलते आम जन से कटी रहेगी।   भाषा में खादी जैसा सौंदर्य विकसित करने में हमारे हिंदी के अग्रणी लेखकों ने योगदान दिया है। इसकी नींव भारतेंदु हरिश्‍चंद ने रखी, इसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने परिमार्जित किया, प्रेमचंद ने पल्‍लवित किया है, इसे प्रसाद ने अपने ओज और तेजस से सींचा है, इसे देवकी नंदन खत्री ने आम जनों तक पहुँचाया है। मैथिलीशरण गुप्‍त, राष्‍ट्रकवि दिनकर ने इसे राष्‍ट्रव्‍यापी बनाया है। यह लोकभाषाओं, बोलियों, अपभ्रंश, प्राकृत और पालि जैसी भाषाओं का आधार लेकर खड़ी हुई है। यह हिंदी की संप्रेषणीयता का ही जादू है कि नेहरू भले ही पश्‍चिमी सभ्‍यता में पले पुसे थे, जनता के मध्‍य हिंदी ही बोलते थे। गॉंधी ने भी बैरिस्‍टरी विदेशी भाषा में ही की पर बातचीत के लिए हिंदुस्‍तानी अपनाते थे। इसी भाषा में उनका आह्वान सुन कर लोग घरों से निकल पड़ते थे। वह नमक सत्‍याग्रह हो, अंग्रेजों भारत छोड़ो या करो मरो का नारा---हिंदी स्‍वदेशी, स्‍वराज्‍य और स्‍वतंत्रता की हर मुहिम में साथ रही है। इसी भाषा में तिलक ने कहा था, स्‍वराज्‍य हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है। उनके स्‍वराज्‍य में स्‍वभाषा की महक भी शामिल थी। गॉंधी के 'हिंद स्‍वराज' में अपनी भाषा की गरिमा भी शामिल है। अचरज नहीं कि हिंदी हिंदुस्‍तानी से प्रेम के चलते ही गांधी ने अपने राजनैतिक उत्‍तराधिकारी पंडित नेहरू को 'हिंद स्‍वराज' के मंतव्‍य को समझाने की गरज से विस्‍तृत पत्र लिखने का ख्‍याल सूझा तो वे असमंजस में थे कि किस भाषा में लिखें। वे लिखते हैं: तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ। अंग्रेजी में लिखूँ या हिंदुस्‍तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैने हिंदुस्‍तानी में लिखने को पसंद किया। यह गांधी का हिंदुस्‍तानी जबान से प्रेम है कि वे पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति में पले पुसे नेहरू को पत्र लिखते हैं तो हिंदी में। जबकि वे खुद गुजराती थे। अंग्रेजी दूसरी भाषा के तौर पर सीखी थी पर हिंदी हिंदुस्‍तानी के प्रति प्रेम तो दरअसल देश प्रेम से जुड़ा था, हिंद स्‍वराज से जुड़ा था। वे इसे अपनी भाषा मानते थे तभी तो नेहरू को लिखे इसी पत्र में उन्‍होंने लिखा कि: 'हिंद स्‍वराज मेरे सामने नहीं है। अच्‍छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खींचूँ। उन्‍होंने आगे लिखा कि अगर हिंदुस्‍तान को सच्‍ची आजादी पानी है और हिंदुस्‍तान के मारफत दुनिया को भी,तब आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा---झोपड़ियों में, महलों में नहीं।' आखिर खादी को लोगों ने 'वस्‍त्र' ही नहीं, 'विचार' माना था : 'खादी वस्‍त्र नहीं, विचार है।' हिंदी भी 'भाषा' नहीं, 'विचार' है---'विचार' है उस स्‍वदेशी का जो सिर्फ अपनी भाषा में सोचने से संभव है, विचार है उस अहिंसा का जो हमारी भाषा हमें बचपन से सिखाती है। विचार है उस चरखा संस्‍कृति का जो हमें स्‍वावलंबन सिखाती है। चरखे से भले सबका तन न ढक सके, पर यह स्‍वावलंबन का प्रतीक है, कुटीर और ग्रामोद्योग की आधारशिला है। ग्रामीण अर्थशास्‍त्र से इसका गहरा नाता है।   राजभाषा हिंदी के रोजगार में अरसे से हूँ तथा अनुवाद की विडंबनाओं से सदैव दो चार होना पड़ता है। पहले डिक्‍शनरी देख कर अनुवाद करना होता था, अब व्‍यावहारिक तौर पर ग्राह्य हिंदी में अनुवाद करता हूँ। कोशिश होती है कि हिंदी लेखन में बरती जाने वाली शुद्धता अनुवाद में घुसपैठ न करने पाए। यह अनुभव बैकिंग जगत का है। दूसरे कामकाजी क्षेत्रों में पारिभाषिकी की ऐसी ही दिक्‍कतें हैं। दरअसल हिंदी शब्‍दावली के पुरोधा, डा. रघुवीर जिनके प्रयत्‍नों पर भारत सरकार का वैज्ञानिक तकनीकी शब्‍दावली आयोग, केंद्रीय हिंदी निदेशालय के भाषाई कोश का आधार टिका है, ने हर अंग्रेजी शब्‍द को हिंदी प्रतिशब्‍द में बदलने का बीड़ा उठाया था और काफी हद तक उन्‍हें सफलता भी मिली। पर यही वह युग है जब हिंदी के जड़ जमाते ही लौहपथगामिनी जैसे उपहासास्‍पद अनुवादों को सामने कर हिंदी की जटिलता का आभास कराया जाता रहा है। पत्रकारिता यदि अनुवादों और भाषा प्रयोगों में मध्‍यम और व्‍यावहारिक मार्ग न अपनाए तो वह जनता के पल्‍ले न पड़े। डॉ. रघुवीर का शब्‍दकोश इतना प्रथुल है कि नाजुक कलाइयों से नही उठ सकता। उन्‍होंने रोड को रथ्‍या, मिट्टी के तेल को मार्तैल, कैनाल को कुल्‍या, रेल को संयान, रिक्‍शा को नरयान, नेक टाई को कंठाभूषण, मीटर को मान, रेडियो को नभोवाणी जैसे हजारों शब्‍दों को हिंदी प्रतिशब्‍द दिये पर उनके बहुतेरे शब्‍द प्रचलन की पायदान पर नही चले। यद्यपि कोशों की दिशा में उनका योगदान अप्रतिम है। पर आज जो हिंदी का स्‍वरूप है वह व्‍यावहारिक है। कुछ अखबारों ने भी पं.सुंदरलाल की हिंदुस्‍तानी के प्रभाव में अनिश्‍चितकालीन को बेमियादी और बेमुद्दत के रूप में चलाने की कोशिश की, पर वह भी ज्‍यादा व्‍यावहारिक न लगता था, क्‍योंकि अनिश्‍चितकालीन तब तक प्रचलन में आ चुका था । मियादी या बेमियादी से बुखार का सम्‍बंध ज्‍यादा सटीक लगता था, बनिस्‍बत हड़ताल के । इसी तरह आज प्रसूतिगृह, शयनयान, जैसे शब्‍द प्रचलन में आ चुके हैं। पंडित सुंदरलाल ने प्रसूति गृह को जच्‍चाघर तथा चेयरमैन को मसनदी कहने की मुहिम चलाई किन्‍तु अध्‍यक्ष पद को धड़ल्‍ले से ग्रहण किया गया और अब वह हमारे बोलचाल का हिस्‍सा बन चुका है। इसी तरह इमरजेंसी को अचानकी, गवर्नमेंट को शासनिया, प्रेसीडेंट को राजपति, साइकोलॉजी को मनविद्या जैसे प्रतिरूप देने की कोशिशें हुईं किन्‍तु आम जनता ने इन कोशिशों को न अपना कर मध्‍यम मार्ग ग्रहण करना उचित समझा।

मित्रो, भाषा प्रचलन से व्‍यवहार में आती है, उससे भागने बिदकने में नहीं। कहा भी गया है: अनभ्‍यासे विषम् शास्‍त्रम्। अखबारों ने निस्‍संदेह हिंदी को व्‍यावहारिक रूप देने में मदद की है लेकिन यही वह मंच है जिससे खराब हिंदी को भी प्रोत्‍साहन मिला है। बिहार में 'चार चोर पकड़ाए' जैसी हिंदी चलाने की कोशिशों में बड़े अखबार घराने भी शामिल हैं, अर्थात उस स्‍थान की बोलचाल की हिंदी को ही बरतने की कोशिश। क्‍या यह स्‍थानीयता को भुनाने की कोशिश में गलत हिंदी को प्रोत्‍साहन देना नहीं है। अभी भी देश की खासी जनसंख्‍या इन्‍हीं अखबारों से लोग भाषा सीखती है, ऐसे में जब अखबार ही ऐसी हिंदी सिखाने लगें तो कोई क्‍या करे। राजधानी दिल्‍ली का एक नामी गिरामी अखबार कैसी हिंदी चला रहा है, यह क्‍या किसी से छिपा है।

आज की पारिभाषिकी का आधार भले ही संस्‍कृत हो किन्‍तु भाषा के व्‍यवहार में बीच का रास्‍ता हमेशा उचित होता है। आज भूमंडलीकरण और उदारीकरण के चलते आर्थिक नाकेबंदियॉं टूटी हैं। वैश्‍विक ग्राम के इस नैकट्य ने लोगों को एक-दूसरे के काफी समीप ला दिया है। इसने अनेक भाषाओं के शब्‍दों की आवाजाहियॉं सरल की हैं जो कि विभिन्‍न भाषाभाषी लोगों की निर्बाध आवाजाहियों के चलते संभव हुआ है। इससे हिंदी पर दीगर भाषाओं के शब्‍दों का दबाव बेशक बढ़ा है किन्‍तु इसने हिंदी की विशालहृदयता को स्‍वीकारा भी है। याद करें तो हिंदी के विकास का काम सदियों से होता चला आ रहा है। बोलियों के प्रभाव से जहां हिंदी का शब्‍द भंडार समृद्ध हुआ है,वहीं उसके बोलचाल के स्‍वरूप में भिन्‍नताऍं भी देखी जाती हैं। एक सदी हिंदी की खड़ी बोली के स्‍वरूप को स्‍थिर करने में ही गुजर गयी। तथापि ऐसे प्रयत्‍नों को विराम नहीं देना चाहिए। भवानीप्रसाद मिश्र कहा करते थे: जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख। खड़ी बोली के वैविध्‍य को लेकर अतीत में व्‍यापक बहसें चली हैं। रामविलास शर्मा ने आधा दर्जन से ज्‍यादा पुस्‍तकें केवल भाषा की समस्‍या को लेकर लिखी हैं जिनमें इन बहसों का विस्‍तार से उल्‍लेख है। भारतेन्‍दु हरिश्‍चंद्र ने हिंदी की खड़ी बोली के गद्य की आधारशिला रखी तो महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्‍ण भट्ट और बाबू गुलाब राय जैसे लेखकों ने उसे ऊँचाइयों पर पहुँचाया। बाबू गुलाब राय ने तो अपने एक निबंध में इसके प्रसार के लिए प्रोफेसरों के कुछ कर्तव्‍य निर्धारित किए थे। अचरज नहीं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी गद्य के परिमार्जन के इतने पक्षधर हुआ करते थे कि उन्‍होंने अनेक जगह भारतेन्‍दु और बालमुकुन्‍द गुप्‍त जी जैसे लेखकों तक की खासी आलोचना की है। पर भारतेन्‍दु हरिश्‍चंद्र का योगदान इससे कम नहीं ऑंका जा सकता। यहॉं तक कि बालमुकुन्‍द गुप्‍त के न रहने पर रायकृष्‍ण दास के यह पूछने पर कि हिंदी में किस लेखक ने उम्‍दा गद्य रचा है, उन्‍होंने बालमुकुंद गुप्‍त का नाम लिया था। भारतेंदु जी की पद्य रचना ब्रज के प्रभाव से समन्‍वित है। ‘रसा’ नाम से लिखी उनकी शायरी देखें तो लगेगा कि उर्दू शैली से भी उनकी खासी रब्‍त जब्‍त थी: एक नमूना देखें-- दिल मेरा ले गया दग़ा करके/ बेवफा हो गया वफा करके। भारतेन्‍दु इस बात के समर्थक थे कि हिंदी में वैज्ञानिक विषयों का लेखन संभव है। हिंदी के आधुनिक स्‍वरूप को विकसित करने में ‘सरस्‍वती’ ने महत्‍वपूर्ण योगदान किया है। हिंदी में तमाम आधुनिक लेखक ‘सरस्‍वती’ में छप कर चर्चित हुए और अपने समय के प्रतिष्‍ठित लेखकों कवियों में शुमार किए गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी स्‍वयं कई भाषाओं के ज्ञाता थे। अपने संपादन काल में उन्‍होंने ‘सरस्‍वती’ को वह दर्जा दिया जहॉं छपना केवल साहित्‍य के उच्‍च मानको पर ही खरा उतरना नही था, बल्‍कि भाषा की आधुनिकता के मानकों पर भी खरा उतरना था। हिंदी की विकास यात्रा में शामिल रचनाकारों पर गौर करें तो प्रेमघन, बालमुकुन्‍द गुप्‍त, गुलेरी, प्रेमचंद, निराला, मैथिलीशरण गुप्‍त, हरिऔध एक से एक दिग्‍गज लेखकों ने हिंदी की खड़ी बोली के मौलिक सौंदर्य को अपनी रचनाओं में मुखरित किया है।

राजभाषा हिंदी का बोलबाला संविधान में राजभाषा संबंधी प्रावधानों के बाद हुआ है। किन्‍तु अनेक सरकारी, गैर सरकारी संस्‍थानों, तकनीकी साहाय्य एवं प्रोत्‍साहनों के बाद और आजादी के इतने वर्षों बाद भी यह एक संवैधानिक धक्‍के से ही चल रही है, स्‍वत:स्‍फूर्त प्रयासों से नहीं। स्‍वत:स्‍फूर्त प्रयास राजभाषा प्रावधानों के बाहर हो रहे हैं। हिंदी बाहर चौराहों पर बन रही है, गली कूचों, मुहल्‍लों, गांव देहात में ढल रही है। कारोबारियों, व्‍यवसायियों के बीच व्‍यवहृत हो रही है। मुद्रित और इलेक्‍ट्रानिक माध्‍यमों में वह पल्‍लवित पुष्‍पित हो रही है। किन्‍तु वह राजभाषा की अटपटी पारिभाषिकी से कतई परिचालित नही है। रामविलास शर्मा ने लिखा है कि आज हिंदी जो विश्‍व भाषा बनी है उसके मूल में वे लाखों हिंदुस्‍तानी हैं जो सस्‍ती मजदूरी कराने के लिए भारत से ले जाए गए।

भाषा में खादी की रंगत तभी आ सकती है जब उसके स्‍थापत्‍य में, उसके टेक्‍स्‍चर में हिंदी की मौलिक विशेषताओं का ख्‍याल रखा जाए। जब हम हिंदी पत्रकारिता में बाबूराव विष्‍णु पराड़कर, लक्ष्‍मण नारायण गर्दे, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रतिबद्ध हिंदी सेवकों की बात करते हैं तो आधुनिक पत्रकारिता में रघुवीर सहाय, राजेन्‍द्र माथुर तथा प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों के योगदान का अनदेखा नहीं कर सकते जिन्‍होंने बोलचाल की हिंदी को अपने अग्रलेखों के माध्‍यम से आगे बढ़ाया। नई दुनिया स्‍कूल से निकले और नवभारत टाइम्‍स के संपादक रहे राजेन्‍द्र माथुर के संपादकीयों एवं अग्रलेखों की चर्चा केवल उनके विषय-निरूपण के कारण ही नहीं, भाषा के अपने बुनियादी मिजाज और मुहावरे के उपयोग के कारण भी होती है। प्रभाष जोशी के लंबे आलेख यदि एक सांस में पढ़े जाने का आकर्षण रखते हैं तो यह भी उस जबान का जादू है जो गांधी के हिंदी-हिंदुस्‍तानी से होता हुआ एक आम ‘लिंगुआ फ्रांका’ में तब्‍दील होता हुआ खादी जैसा विलक्षण सौंदर्य उपस्‍थित करता है। प्रभाष जोशी और राजेन्‍द्र माथुर जैसी चुम्‍बकीय भाषा का आकर्षण हम आज भी राजभाषा कही जाने वाली हिंदी के औपचारिक लबो लहजे में नहीं ला पाए हैं। इसीलिए वह अटपटी, दुरूह और ‘यह किस देश प्रदेश की भाषा है’ के आरोपों से लांक्षित होती आ रही है। एक समय था, आकाशवाणी पर कन्‍हैया लाल मिश्र प्रभाकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के गँवई गॉंव के रस में पगे और पांडित्‍य से दूर निबंधों को सुनते हुए बोलचाल की हिंदी की लय और सुगंध वातावरण में भर जाती थी। रामविलास शर्मा से बातचीत करते हुए एक क्षण भी यह अहसास नहीं होता था कि हम भाषा और विचारधारा के किसी महापंडित की छत्रछाया में बैठे हैं। यहॉं तक कि नामवर सिंह जैसे आलोचक भी बोलते और लिखते हुए सदैव बोलचाल के गद्य का लहजा बरकरार रखते हैं। आम बोलचाल की हिंदी में उन्‍होंने अपने समय की अनेक साहित्‍यिक, वैचारिक, सांस्‍कृतिक और भाषाई गुत्‍थियॉं सुलझाईं तथा यह सिद्ध किया कि अच्‍छे वक्‍ता और लेखक भाषाई सरलता की लीक अपनाते हैं जबकि खराब वक्‍ता और लेखक कठिन गद्य के प्रेत बन कर न केवल भाषा के ओज और माधुर्य की हत्‍या करते हैं बल्‍कि विषय को भी दुरूह और अपठ्य बना देते हैं।

हमारी भाषा में खादी की रंगत हो, कौन नहीं चाहता। सदियों के सफर में हिंदी ने व्‍यापक शब्‍द संपदा जुटा ली है। बेव परिदृश्‍य में हिंदी ने अपनी व्‍यापक पहुँच बना ली है। इंटरनेट के माध्‍यम से तमाम सोशल साइट्स पर विश्‍व भर के लोगों की आवाजाही है। कम्‍प्‍यूटर कंपनियों के कंसार्टियम से संभव यूनीकोड और हिंदी टाइपिंग टूल व इंटेलीजेंट कीबोर्ड के आ जाने से हिंदी सुगमता से तकनीक पर आरूढ हो चुकी है। अब मोटे मोटे शब्‍दकोशों की शरण में जाने की बजाय नेट पर आसानी से कोश उपलब्‍ध हैं। यह अलग बात है कि भले ही अभी भी दो प्रतिशत जनता भी इंटरनेट से न जुड़ पाई हो तथापि इसके प्रभाव से हिंदी का परिदृश्‍य अछूता नहीं है। इंटरनेट पर वैश्‍विक उपस्‍थिति से हिंदी का रंग-रूप बदला है। वह अंग्रेजी और दीगर भारतीय भाषाओं के शब्‍दों के समामेलन से एक नये भाषिक कोलाज की अनुभूति दे रही है। जैसे नदियॉं बेरोकटोक बहती हैं, हमेशा वही पानी नदी में नहीं रहता जो बह रहा होता है। भाषा भी नदी की तरह प्रवहमान है। उसका एक मानक रूप कभी भी स्‍थिर नहीं किया जा सकता। हर लेखक यदि अपनी लेखन शैली का निर्माता होता है तो हर बोलने वाला भाषा को अपनी शैली से सींचता और संवर्धित करता है। वही उस व्‍यक्‍ति की पहचान होती है। गॉंधी ने एक गुजराती से टूटी फूटी हिंदी सीखी जिसने कुछ दिन बनारस में रह कर अध्‍ययन किया था। रामविलास शर्मा ने तालस्‍ताय का एक उदाहरण दिया है कि कैसे वे एक बार एक गॉंव में गए और तभी दो एक दिनों बाद उन्‍हें खोजते हुए कुछ युवा साहित्‍यिक उस गॉंव में पहुँच गए और उनसे पूछा कि वे वहॉं क्‍या कर रहे हैं? ---तो पचहत्‍तर वर्षीय तालस्‍ताय ने कहा कि मैं इन ग्रामीणों के बीच रूसी भाषा सीख रहा हूँ। ऐसे उदाहरण हिंदी में विरल हैं। आज सारे उद्यम अंग्रेजी सीखने के लिए होते हैं, हिंदी के लिए नहीं। यहॉं तक कि हिंदी के रोजगार में लगे हुए लोग भी हिंदी सीखना नहीं चाहते। राजभाषा के प्रहरियों और कोशकारों ने हिंदी को दुरूह बनाने में मदद की है इसमें संदेह नहीं किन्‍तु व्‍यापक हिंदी समाज को भी जैसे हिंदी की कोई आवश्‍यकता नहीं महसूस होती। इसी दुरूहता के चलते बाबू गुलाब राय को एक निबंध लिख कर पूछना पड़ा था: क्‍या हिंदी दुरूह बनाई जा रही है। एक समय था, आत्‍मसम्‍मान को जरा-सी ठेस लगने पर रेलवे की दो सौ रूपये महीने की नौकरी को लात मार कर बीस रूपये महीने पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्‍वती’ की संपादकी स्‍वीकार की थी। यह भाषा साहित्‍य और संस्‍कृति की सेवा करने का जज्‍बा था। आज यह भावना सिरे से बिला गई है। रोजी रोटी की लड़ाई ने भाषा की लड़ाई को हाशिए में डाल दिया है; और फिर जो भाषा रोजी रोटी भी न दे सके उसके पैरोकार भी क्‍योंकर खड़े होंगे? लेकिन यही वह भाषा है जिसमें बकौल उदयप्रकाश ‘हर पॉंचवें सेकंड पर इसी पृथ्‍वी पर जन्‍म लेता है एक और बच्‍चा और इसी भाषा में भरता है किलकारी और कहता है--- ‘माँ’।’

हिंदी की कठिनाई का जो रोना अक्‍सर रोया जाता है वह इस कारण है कि भाषा के प्रसार और विकास में हमने उन तबकों को साथ नहीं लिया जो इन्‍हें व्‍यवहार में लाते हैं। हमने इसे केवल भाषा वैज्ञानिकों और कोशकारों के हवाले छोड़ दिया। लिहाजा जो नैसर्गिक शब्‍दावली हिंदी में विकसित हो सकती थी,वह नहीं हो सकी। भाषा की खादी कहते वक्‍त लगता है कि यह कोई नई ईजाद है। हिंदीवादी, संस्‍कृतनिष्‍ठतावादी, हिंदुस्‍तानी जैसे वर्गीकरणों की तरह ही यह भाषा की कोई किस्‍म है। पर नहीं, यह भाषा की कोई किस्‍म नहीं पर यह वह उपक्रम है जिस पर चल कर हिंदी को शुद्धतावादी नस्‍लवादी भेदभाव से दूर रखते हुए आम आदमी की, साथ ही कामकाज की भाषा के रूप में विकसित किया जा सकता है। आज साहित्‍य में जिस सेंथेटिक शब्‍दावली पदावली के प्रयोग की आलोचना की जाती है, वह इसी कारण है कि भाषा के बरतने वाले को भाषा के मिजाज का पता नहीं है। आखिर उर्दू में लिखने वाले प्रेमचंद हिंदी में क्‍यों आए और क्‍यों इतने लोकप्रिय हुए। प्रेमचंद को किसानी जीवन की समझ थी। मजदूर जीवन की समझ थी। उनका मानना था कि हिंदी या राष्‍ट्रभाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती, उसे किसानों और मजदूरों की भाषा बनना पड़ेगा। आखिर अपनी ऐसी ही सरल भाषा में उन्‍होंने जान गाल्‍सवर्दी की रचना 'द स्‍ट्राइफ' का अनुवाद किया। किसानों मजदूरों और गॉंव देहात की भाषा क्‍या हो सकती है और इस भाषा का जादू कैसे लोगों पर छा सकता है, प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के जरिए बताया। उन्‍होंने उर्दू और हिंदी के समामेलन से एक ऐसा भाषिक रसायन तैयार किया जिसे बच्‍चे बूढ़े और जवान सब पढ़ सकते थे। इसके लिए सिर्फ हिंदी के कामचलाऊ ज्ञान के अलावा ज्‍यादा तालीम की कोई दरकार न थी। इसी भाषा की वकालत समय समय पर गॉंधी जी ने की। वे चाहते थे कि राजनीतिक बैठकों, सम्‍मेलनों में न केवल उत्‍तर भारत के बल्‍कि द्रविड़ भाषाओं के जानकार भी कामचलाऊ हिंदी में बोलें। ऐसा उन्‍होंने कांग्रेस के कई अधिवेशनों में कहा और दबाव डाला। उन्‍होंने वस्‍त्रों में खादी का सपना देखा तो भाषा में हिंदुस्‍तानी का। उन्‍होंने वही मानक दूसरों के समक्ष रखा जिस पर वे खुद अमल कर सकते थे। वे चरखा खुद कातते थे, इसलिए चरखे के महत्‍व से देशवासियों को अवगत करा सके। यकीन मानिये आज देश के हर व्‍यक्‍ति के पास चरखा होता तो वह अपनी जरूरत भर के लिए कपड़े जरूर जुटा सकता। जहॉं जहॉं आज भी पावरलूम और हैंडमेड खादी के करघे हैं वहॉं इसी तरह वस्‍त्रों का निर्माण हो रहा है। बस आज हममें यह धीरज नहीं रहा, दूसरे सफाईपसंद मिलों और मल्‍टीनेशनल कंपनियों ने हजारों लाखों बुनकरों के काम छीन लिए हैं।

लेकिन केवल इससे गॉंधी जी का विजन अप्रासंगिक नहीं हो जाता। उन्‍होंने भाषा की दिशा में जिस हिंदी हिंदुस्‍तानी का प्रचार किया, उसे इस देश की आम जनता पहले से बोलती थी। गांधी हिंदी में उतने ही तालीमयाफ्ता थे जितना कोई इस देश का किसान और मजदूर हो सकता है। उन्‍होंने अपनी सरलता से जाना कि हिंदी में कामचलाऊ बातचीत आसानी से की जा सकती है। उनकी मुहिम पर ही देश भर में हिंदी प्रचार सभाओं ने जन्‍म लिया। हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन की नींव पड़ी। क्‍या पता गांधी जी की इस प्रेरणा का ही नतीजा रहा हो कि प्रेमचंद जैसे कद्दावर लेखक हिंदी का रास्‍ता अख्‍तियार कर लिया। यही वह भाषा थी जिसे देश की आम जनता बोलती समझती थी। मुगलों के शासन के चलते आम जनता में तमाम उर्दू फारसी शब्‍दों ने जगह बना ली थी। प्रशासन, कचहरियों, थानों, अदालतों आदि में जहॉं जनता की ज्‍यादा आवाजाही है, वहॉं पहले उर्दू में ही कामकाज होता था, तहरीरें लिखी जाती थीं, आजादी के बाद और प्रदेशों में वहां की भाषा को राजभाषा बनाए जाने के बाद हिंदी में कामकाज शुरु हुआ। पर आज भी देखें तो इन अनुशासनों की भाषा आज भी हिंदुस्‍तानी है यानी हिंदी और उर्दू का सहमेल। रामविलास शर्मा जैसे मार्क्‍सवादी लेखक ने सदैव यह कहा करते थे कि कम्‍युनिस्‍ट पार्टियॉं अपने कामकाज हिंदी में करें जो कि अपने को सर्वहारा और देश के किसानों और मजदूरों से जोड़ती हैं। उन्‍होंने दूसरे दलों के लिए भी यह जरूरत जताई कि ये दल जो जनता के लिए काम करते हैं अपने कार्यक्रम और एजेंडे हिंदी में क्‍यों नहीं बनाते।

भाषा के निर्माण में हमारी बोलियों ने अहम योगदान दिया है। बोलियाँ न होतीं और इतनी प्रभावी न होतीं तो नानक के पदों में ब्रज का बोलबाला न होता। रसखान के हिंदी के बड़े कवि न कहलाते। जायसी और तुलसी जन जन में छाये न होते। सूरदास के पदों का लालित्‍य सर चढ़ कर न बोलता। विद्यापति मैथिली में लिखने के बावजूद हिंदी के सिरमौर कवि न कहलाते। अवधी, बुंदेलखंडी, ब्रज, मालवी, राजस्‍थानी, मैथिली, भोजपुरी ने आधुनिक हिंदी को खड़ा किया है। केवल संस्‍कृत के बलबूते वह पूजापाठ के योग्‍य तो बन सकती थी लिंगुआ फ्रैंका का दर्जा हासिल न कर पाती। इन बोलियों का ही वैभव है कि हिंदी के जो भी आधुनिक कवि लेखक हैं, उनके यहॉं ऐसे अनके शब्‍द मिलेंगे जो इन बोलियों से लिये गए हैं। अज्ञेय के यहॉं ऐसे बहुतेरे शब्‍द आते हैं जिन्‍हें रामविलास जी कहते थे कि यह ऊपर से टॉंका गया लगता है। यह बाजरे की कलगी की तरह है, पर देखें तो नफासत भरे अज्ञेय को भी भाषा की खादी पसंद थी। उसका स्‍थापत्‍य उन्‍हें भाता था। वृंदावन लाल वर्मा, जैनेन्‍द्र और प्रेमचंद के उपन्‍यासों और सुदर्शन व विश्‍वंभर नाथ शर्मा कौशक की कहानियों को पढ़ने के लिए किसी शब्‍द के लिए कोश की शरण लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अज्ञेय और निर्मल वर्मा में होती है क्‍योंकि आधुनिकता के वशीभूत होकर और पश्‍चिम के साहित्‍य से प्रभावों के अनेक लक्षण उनकी भाषा में दीख पड़ते हैं। भाषा की इस खादी का बुनकर कौन है। क्‍या लेखक और कवि। बिल्‍कुल नही। ये तो उसके उपभोक्‍ता या प्रयोक्‍ता भर हैं। इस भाषा के कारीगर गांव-देहात में, कस्‍बों और छोटे शहरों में हैं। यह भाषा आपको फिरोजाबाद के चूड़ी बनाने वाले कारीगरों के बीच सुनाई देगी तो चौक-चौराहों, लोहामंडियों, ठठेरी बाजारों, जुलाहों, किसानों, मजदूरों, खदान में काम करने वालों, रोपनी, निराई गुड़ाई से लेकर तमाम सांस्‍कारिक अनुष्‍ठानों में व मेले ठेले जाते हुए गउनई गाने वाली महिलाओं में सुनाई देगी। यही वह भाषा है जो कभी चटकल मिलों के कामगारों के बीच बोली और समझी जाती थी। यह वही भाषा है जिससे एक आदमी गॉंव में अपनी सारी जिन्‍दगी काट देता है। एक बच्‍चा अपनी जिस थोड़ी सी भाषा से अपना काम चला लेता है। यह वही भाषा है जो हम मदारियों की जबान से सुनते हैं, जिसे बोल कर एक राजनेता चौराहों पर भीड जमा कर लेता है। यह वही भाषा है जिसमें आह्वान करने पर लोग घरों से बाहर निकल पड़ते हैं। यह वही भाषा है जिसे रईस और रसूखदार लोग अपने नौकरों, मजदूरों से सीख कर हिंदी में अहसान जताया करते थे। गलती यह हुई कि इस भाषा से धीरे धीरे अभिजात वर्ग ने अपने को काट लिया ताकि इन तबकों से भद्र समुदाय की दूरी बनी रहे।

आज वातावरण बदला है। अब हिंदी में काम करना उतना हेय नहीं माना जाता जितना पहले माना जाता रहा है। हालॉंकि एक तरह का श्रेणीकरण आज भी समाज में मौजूद है। दफ्तरों में हिंदी में काम करने वाले के प्रति कोई सदाशयी दृष्‍टि नहीं रखता। अंग्रेजी को आज भी नौकरियों में, पढा़ई में, प्रबंधन में, प्रशासन में वही रुतबा हासिल है जो पहले रहा है। यह व्‍यक्‍ति की शख्‍सियत का वह कवच कुंडल है जो देखने में भले ही शोभाधायक हो, पर जिससे राष्‍ट्रीय अस्‍मिता का भला नहीं होने वाला। भाषा वही है जो सुनते ही कर्ण कुहरों में एक संगीत की तरह घुल जाए, जिसे हर शख्‍स आसानी से समझ सके। भाषा वही है जो आदमी आदमी में केवल इसी वजह से भेद न पैदा करे कि वह कोई दीगर भाषा जानता है जो किसी दृष्‍टि से किसी भाषा से उच्‍च समझी जाती है। क्‍योंकि रंगभेद केवल त्‍वचा का नहीं भाषा के व्‍यवहार के प्रति भी रहा है। गॉंधी जी ने इसी भाषा के लिए ट्रेनों में अंग्रेजों के कोड़े खाए हैं। तमाम गुलाम देशों के नागरिकों को ऐसी ही औपनिवेशिक भाषाएं बरसों तक हिकारत की नजर से देखती रही हैं। देश को आजाद हुए कई दशक हो गए। किन्‍तु आज भी कुछ अंग्रेजी स्‍कूलों में बच्‍चों को हिंदी बोलने के लिए दंडित किए जाने की खबरें मिलती रहती हैं। क्‍योंकि हिंदी तो जन्‍मजात गंवारों, जाहिलों और इंडियन नेटिव्‍स की भाषा मानी जाती रही है। हिंदी को आज एक नेटिव लैंग्‍वेज की दृष्‍टि से नहीं, ज़मीनी समझ की भाषा के रूप में विकसित और प्रयोग किए जाने की जरूरत है। तब जो भाषा बन कर निखरेगी, कामकाज में, साहित्‍य में, खेतों और खलिहानों, कल कारखानों में, वह यही भाषा की खादी होगी जिसकी चमक और सादगी दूर से ही दिखाई देगी जैसे आज भी सेंथेटिक कपड़ों के बीच शतप्रतिशत सूती वस्‍त्रों की। भाषा को आज इसी संस्‍कार की जरूरत है।

यह विडम्‍बना ही है कि भाषा में खादी के संस्‍कारों की जरूरत आज भले आन पड़ी हो, जीवन में खादी की दरकार किसी को नहीं है। कुछ राष्‍ट्रभक्‍तों के लिए जरूर संस्‍कारवश खादी उनके विचारों का गहना है,सादा जीवन उच्‍च विचार का प्रतीक है। पर आज खादी राजनेताओं की भी पसंद नहीं रही। आम आदमी की कौन कहे। उसकी खरीद पर सरकार की ओर से छूट है फिर भी खादी का कोई नामलेवा नहीं है। यह आम मिलों के कपड़ों से कहीं अधिक मँहगी है तथा इसके रखरखाव पर कहीं ज्‍यादा जहमत भी है। फिर कौन खादी की ओर रूख करे। लेकिन भाषा को खादी की-सी रंगत देने में अपने पास से कोई रोकड़ नहीं खर्च करना। भाषा की मौलिक और बुनियादी भंगिमाओं को उसके खुरदरेपन के साथ रख देना उसे ताकतवर बनाना है। आज जिस तरह की सेंथेटिक भाषा हमारे दिलोदिमाग में जगह बनाए हुए है, उसमें हिंदी समाचारों की तरह आरोह-अवरोह जैसे नदारद हों। भाषा जैसे किसी रिफाइनरी से होकर हमारे पास पहुंच रही है। सरकारी कामकाजी हिंदी अपनी इसी एकरसता के कारण अपने मूल से कट गयी है। जरूरत है भाषा को उसके उदगम के निकट से निकट ले जाने की, उन बुनियादी मुहावरों और सरोकारों से रचने सींचने की जो स्‍थानीय बोलियों के संसर्ग से पैदा होते हैं और आबोहवा में छा जाते हैं। भाषा में खादी के संस्‍कारों को जीवित करने के लिए ऐसे उद्यमों की आज कहीं अधिक जरूरत है।